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Saturday, September 28, 2024

फिल्मों से गांधी की उदासीनता क्यों ?


कुछ सप्ताह पूर्व मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में मुंबई जाना हुआ था। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के परिसर में इस फेस्टिवल का आयोजन था। उसी परिसर में स्थित गुलशन महल में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय को जाने और उसको देखने का अवसर प्राप्त हुआ। संग्रहालय में एक जगह गांधी गांधी का पुतला बनाकर उसको कुर्सी पर बिठाया गया है। उनके सामने स्क्रीन पर राम राज्य फिल्म का एक स्टिल लगा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी राम राज्य फिल्म देख रहे हैं। कहा जाता है कि बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी जिसका नाम है राम राज्य। इस बात का उल्लेख देश-विदेश के कई लेखकों ने किया है। एक बेहद दिलचस्प पुस्तक है ‘द चैलेंजेस आफ सिल्वर स्क्रीन’ जिसमें राम, जीजस और बुद्ध के सिनेमाई चित्रण पर विस्तार से लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं फ्रीक एल बेकर। इस पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने की चर्चा की गई है। सिनेमा और संस्कृति पर विपुल लेखन करनेवाली रेचल ड्वायर ने भी अपनी पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने का उल्लेख किया है। गांधी और सिनेमा पर लिखी अपनी पुस्तक में इकबाल रिजवी ने विस्तार से और रोचक तरीके से इस प्रसंग पर लिखा है। 

इस पर बाद में चर्चा होगी लेकिन उसके पहले गांधी के फिल्मों और नाटक को लेकर विचार को जानना भी दिलचस्प होगा। फिल्म संग्रहालय में ही कुछ पट्टिकाएं लगी हैं जिनपर कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हैं। ऐसी ही एक पट्टिका पर लिखा है, मद्रास (अब चेन्नई) के अत्यंत प्रतिष्ठित वकील बी टी रंगाचार्यार के नेतृत्व में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी रिपोर्ट (आईसीसी) का गठन ब्रिटिश प्राधिकारियों द्वारा सेन्सरशिप विनिमयों में अमेरिकी आयात को रोकने के लिए किया गया था। इस वृहदाकर रिपोर्ट में ब्रिटिश इंडिया के सभी भागों को शामिल किया गया है तथा महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, दादासाहेब फाल्के जैसे सैकड़ों महान हस्तियों के मौखिक एवं लिखित राय शामिल हैं। इसका प्रकाशन 1928 में किया गया। इसके खंड संख्या 4 में पृष्ठ संख्या 56 पर महात्मा गांधी का दिनांक 12 नवंबर 1927 का बयान दर्ज है। जो इस प्रकार है- भले ही मुझे जितना भी बुरा लगा हो मुझे आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। क्योंकि मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं। लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है वो प्रत्यक्ष है। यदि इसने किसी का भला किसी भी रूप में किया है तो इसका प्रमाण मिलना अभी बाकी है। इस टिप्पणी से गांधी की फिल्मों को लेकर राय का स्पष्ट पता चलता है। ऐसा नहीं है कि गांधी जी की फिल्मों को लेकर ये राय अकारण बनी थी। वो जब स्कूली छात्र थे तब नाटक देखा करते थे और उससे प्रभावित भी थे।

संग्रहालय की एक दूसरी पट्टिका पर इसका उल्लेख है, मोहनदास करमचंद गांधी जब स्कूली विद्यार्थी थे उन्होंने एक गुजराती नाटक देखा था, जिसका नाम हरिश्चन्द्र था। इस नाटक का प्रभाव आजीवन उन पर रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है- मैंने किसी ड्रामा कंपनी द्वारा मंचित नाटक को देखने की अनुमति अपने पिता से प्राप्त कर ली थी। हरिश्चन्द्र नामक इस नाटक ने मेरा ह्रदय जीत लिया। मैं इसे देखकर कभी नहीं थकता। लेकिन उसे देखने की अनुमति मैं कितनी बार प्राप्त करता। इसने मुझे परेशान किया और मैं सोचता रहा कि मैंने स्वयं असंख्य बार हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई होती। हम सभी हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी क्यों नहीं होते? यही प्रश्न मुझे दिन रात परेशान किए रखता। हरिश्चन्द्र की भांति सत्य का अनुसरण करना और सारे कष्टों को झेलना एक ऐसा आदर्श था जिसने मुझे प्रेरित किया । मैं पूर्णत: हरिश्चन्द्र की कहानी में विश्वास करने लगा। इन सभी विचारों से बेचैन होकर मैं अक्सर रोने लगता। किशोरावस्था से ही गांधी को ये पता चल गया था कि फिल्मों या नाटकों का मानस पर कितना असर होता है। जब वो स्वाधीनता के संघर्ष के लिए मैदान में उतरे तो उन्होंने कई जगहों पर देखा कि कई युवा पार्सी नाटकों की महिला कलाकारों के चक्कर में घर बार छोड़कर नाटक कंपनी के पीछे चल देते थे। इसको देखकर गांधी के मन में इस माध्यम को लेकर उदासीनता बढ़ने लगी। उसके बाद एक और घटना घटी। मीराबेन की सिफारिश पर गांधी जी ने एक फिल्म देखने की हामी भरी। फिल्म का नाम था मिशन टू मास्को। रिजवी लिखते हैं कि इस फिल्म में तंग कपड़े पहनकर लड़कियां नाच रही थीं। थोड़ी देर तक तो बापू झेलते रहे लेकिन फिर बीच में ही उठकर चले गए। उस दिन उनका मौन व्रत था सो कुछ कहा नहीं। अगले दिन उन्होंने लिखा, ‘मुझे नंगे नाच दिखाने की कैसे सूझी। मैं तो दंग रह गया, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।‘ दरअसल मीराबेन को एक पारसी फोटोग्राफर ने गांधी को फिल्म दिखाने के लिए राजी कर लिया था। सबको इस घटना के बाद काफी अफसोस हुआ। फिल्म राम राज्य देखने के लिए बापू को कनु देसाई ने तैयार किया था। कनु देसाई गांधी की सेवा करते थे। वो विजय भट्ट की फिल्म राम राज्य के कला निदेशक रह चुके थे। उनकी बात बापू ने मान ली और कहा कि एक विदेशी फिल्म देखने की गलती कर चुका हूं इसलिए भारतीय फिल्म देखनी पड़ेगी। बापू की सहयोगी सुशीला नायर ने फिल्म के लिए गांधी के 40 मिनट तय किए थे, लेकिन कहा जाता है कि बापू को ये फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि वो पूरे डेढ़ घंटे तक बैठकर राम राज्य देखते रहे थे। फिर विजय भट्ट की पीठ थपथपाई और निकल गए। 

इन प्रसंगों को जानने के बाद ये लगता है कि बापू फिल्मों के विरोध में नहीं थे बल्कि फिल्मों में दिखाई जानेवाली सामग्री के विरोधी थे। 1927 का उनका बयान इसकी ओर ही संकेत करता है। उनको फिल्मों का जनमानस पर पड़नेवाले असर का अनुमान भी था। वो चाहते थे कि फिल्मों के माध्यम से लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार किया जाए। स्वाधीनता के संघर्ष में गांधी के पदार्पण के बाद कई ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों को फैलाने में बड़ा योगदान किया। 1939 में तमिल भाषा में बनी फिल्म त्यागभूमि को उस दौर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में माना जाता है। ये फिल्म प्रख्यात तमिल लेखक आर कृष्णमूर्ति की कृति पर आधारित है। इस फिल्म में गांधीवादी विचारों को प्रमुखता से दिखाया गया था। बाद में इसको अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी तरह से अगर देखें तो तेलुगु में बनी फिल्म वंदे मातरम ने भी गांधी के विचारों को तेलुगु भाषी जनता के बीच पहुंचाने का बड़ा काम किया। भालजी पेंढारकर ने अपनी मूक फिल्म वंदे मातरम में अंग्रेजों की शिक्षा नीति की आलोचना की थी।  1943 में बनी हिंदी फिल्म किस्मत के गाना दूर हटो ये दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसा नहीं है कि गांधी को ये पता नहीं होगा कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं। वो चाहते होंगे कि फिल्मकार राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझें और अपनी फिल्मों के कंटेंट के बारे में निर्णय लें। गांधी जैसा व्यापक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सिनेमा विरोधी हो ये मानना कठिन है।  


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