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Sunday, April 13, 2025

भारतीयता से संपृक्त रचनाकार


पिछले दिनों भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से धर्मवीर भारती की पुस्तक गुनाहों का देवता का जन्मशती संस्करण आया। इस पुस्तक को पलटने के बाद स्मरण हुआ कि यह वर्ष प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती का जन्म शताब्दी वर्ष है। धर्मवीर भारती ऐसे संपादक के तौर पर याद किए जाते हैं जिन्होंने अपने संपादन में निकलनेवाली पत्रिका को लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचा दिया था। इसके अलावा उनकी कई रचनाएं कालजयी कृतियों की श्रेणी में हैं। गुनाहों के देवता को ही लीजिए। इसके पेपरबैक और हार्ड बाउंड मिलाकर 160 से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अब भी पुस्तक मेलों में इस उपन्यास की काफी मांग रहती है। सुधा और चंदर की प्रेम कहानी में किशोर पाठकों को अपना प्रेम नजर आता है। धर्मवीर भारती ने एक काव्य नाटक लिखा, अंधा युग। आज से करीब सात दशक पहले लिखा गया ये काव्य नाटक आज भी भारतीय रंगमंच निर्देशकों की पसंद बना हुआ है। महाभारत पर आधारित इस काव्य नाटक में भारत है, भारत की पौराणिकता है, इसके रीति रिवाज हैं। इस काव्य नाटक का कालखंड महाभारत के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक का है। इसका आरंभ मंगलाचरण से होता है। पर्दा उठने से पहले जो गीत लिखा गया है वो रंगमंच निर्देशकों के लिए चुनौती भी है और उनका हर्ष भी। अश्वत्थामा का अर्धसत्य और गांधारी का शाप ये दो अंक ऐसे हैं जिसको देखते-सुनते हुए श्रोता इसी काल में चले जाते हैं। इस काव्य नाटक का निर्देशन अब्राहम अल्काजी से लेकर मोहन महर्षि तक ने किया है। 

अंधा युग के बारे में धर्मवीर भारती ने लिखा है कि अंधा युग कदापि न लिखा जाता यदि उसका लिखना न लिखना मेरे बस की बात रह गई होती। इस पूरी कृति का जटिल वितान जब मेरे अंतर में उतरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा। लगा कि इस अभिशप्त भूमि पर एक कदम भी रखा कि फिर बचकर नहीं लौटूंगा। पर एक नशा होता है अंधकार से गरजते महासागर की चुनौती स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोरकर, बचाकर धरातल तक ले आने का- इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला मिला रहता है कि उसके आस्वादान के लिए मन बेबस हो उठता है। उसके लिए ही ये कृति लिखी है। अंधा युग के अंकों से गुजरते हुए धर्मवीर भारतीय की रचनात्मकता और उसके पीछे के दर्शन को सोच कर लगता है कि नाटककार के पास ज्ञान का समृद्ध भंडार रहा होगा। अंधा युग में स्वतंत्रता के बाद के दशकों में भारतीय राजनीति और समाज में जिस प्रकार की मूल्यहीनता सामने आई उसका चित्रण किया गया है। 

धर्मवीर भारती की ही एक और कृति है कनुप्रिया। कनुप्रिया एक काव्य रचना है जिसकी भी रचना भूमि महाभारत ही है। महाभारत और कृष्ण, धर्मवीर भारती को इतने प्रिय थे कि उनकी रचनाओं में ये बारबार लौट कर आते थे। धर्मवीर भारती के निधन के बाद उनकी पत्नी पुष्पा भारती ने लिखा है कि- जीवनभर प्रकृति के अटूट प्रेम के बाद अगर भारती जी ने किसी से अलौकिक प्रेम किया वो है श्रीमदभागवत्। सामने रखी गेरुए रंग के कपड़े में लिपटी भागवत मुझे बता रही है कि उनके प्राण वहीं उसके पृष्ठों में बसते थे। वहां से सूत्र पकड़कर कितना तो विचार मंथन किया था उन्होंने। जीवन की हर उलझन के सुलझाव का रास्ता इसी के पृष्ठों में खोज लेते थे। किशोर उम्र से ही कृष्ण काव्य के ऐसे रसिया बन गए थे कि हिंदी में लिखा सारा का सारा कृष्ण साहित्य मथ डाला था। यहीं से तो उपजे होंगे अंधा युग और कनुप्रिया- कृष्ण, कृष्ण और कृष्ण। इसी संस्मरण में पुष्पा जी एक किस्सा भी सुनाती हैं कि किस तरह से एक रात भारती जी और पंडित जसराज के बीच भागवत पर चर्चा हो रही थी। अचानक पंडित जी ने हारमोनियम की मांग की। घर में हारमोनियम नहीं था तो पंडित जी ने कहा कि एक परात ले आइए। उसके बाद पंडित जी परात को बजाते हुए कनुप्रिया की पंक्तियों गाने लगे। ऐसा ही एक वाकया हुआ बंबई विश्वविद्यालय में। भारती जी बंबई विश्वविद्यालय के क्नवोकेशन हाल में कनुप्रिया का पाठ कर रहे थे। अचानक सामने बैठी प्रतिमा बेदी मंच के सामने नृत्य करने लगीं। यह देखकर भारती जी का गला रुंध गया लेकिन काव्य पाठ जारी रखा। कनुप्रिया एक ऐसी रचना है जो पाठकों को अपने साथ बांध लेती है। धर्मवीर भारती की एक ऐसी ही कालजयी कृति है सूरज का सातवां घोड़ा। स्वाधीनता के कुछ ही वर्षों बाद लिखी गई ये कृति अपने आकार में तो छोटी है लेकिन इसका जो कलेवर है वो आज भी मानक बना हुआ है। इसकी कथा कहन शैली अनुपम है। 

धर्मवीर भारती को पेड़ पौधों से बहुत लगाव था। जब वो प्रयागराज (तब इलाहाबाद) से मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे तो उनके टैरेस गार्डेन की काफी चर्चा होती थी। बाद में महाराष्ट्र सरकार ने लेखकों साहित्यकारों के लिए बांद्रा में एक हाउसिंग सोसाइटी साहित्य सहवास बनाई तो भारती ने इस आवासीय सोसाइटी में कई पेड़ लगाए। परिसर में कदंब का पेड़ लगाने के बाद भारती जी को छितवन वृक्ष की याद आई। छितवन वही वृक्ष है जिसके नीचे शरद पूर्णिमा की रात कन्हैया माहारास रचाते थे। भारती जी ने छितवन की खोज आरंभ की। काफी दिनों बाद पता चला कि वो दिल्ली की एक नर्सरी में है। दिल्ली से मंगवाकर भारती जी ने उसको अपनी स्डटी के पास लगा दिया। कंदब और छितवन के अतिरिक्त धर्मवीर भारती ने कृष्ण कथा से जुड़े फरद का पेड़ भी अपनी सोसाइटी में लगाया था। धर्मवीर भारती के जन्म शताब्दी वर्ष में उनको एक ऐसे रचनाकार के रूप में याद करना चाहिए जिनकी जड़ें भारत और भारतीयता से गहरी जुड़ी थीं। वो भारतीय पौराणिक कथाओं को नए संदर्भों और नई शैली के साथ प्रस्तुत कर नया आयाम प्रदान करने की क्षमता रखते थे। ऐसे महान रचनाकार और प्रकृति प्रेमी का पुण्य स्मरण। 


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