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Saturday, November 8, 2025

इतिहास लेखन में प्रशासनिक ढिलाई


भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च यानि आईसीएचआर)। इसकी वेबसाइट पर इस संस्था के उद्देश्य का वर्णन है- भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का प्राथमिक उद्देश्य ऐतिहासिक शोध को बढ़ावा देना और उसे दशा देना तथा इतिहास के वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक लेखन को प्रोत्साहित और पोषित करना है। चौबीस बिंदुओं में विस्तार से वर्णित इस संस्था के उद्देश्यों में अंतिम उद्देश्य है समान्यत: देश में ऐतिहासिक अनुसंधान और उसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर आवश्यक समझे जानेवाले सभी उपाय करना। अंतिम उद्देश्य का दायरा बहुत विस्तृत है। इस संस्था के शीर्ष पर एक अध्यक्ष होते हैं और एक सदस्य सचिव। 2022 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर उमेश अशोक कदम को आईसीएचआर के सदस्य सतिव के तौर पर नियुक्त किया गया था। वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में करीब नौ महीने तक ही इस पद पर बने रह सके। प्रकाशित खबरों के मुताबिक वित्तीय अनियमितता के आरोप इतने गंभीर थे कि मंत्रालय ने लंबे समय तक संस्था को आर्थिक मदद रोक दी थी। पता नहीं उन वित्तीय अनियमिततताओं की जांच हुई या जांच पूरी नहीं हो पाई है। कोई दोषी पाया जा सका या नहीं। 

उमेश अशोक कदम जी के पद छोड़ने के बाद से ही आईसीएचआर में कार्यवाहक सदस्य-सचिव हैं। लंबे अंतराल के बाद शिक्षा मंत्रालय ने 1 मई 2025 को आईसीएचआर के अध्यक्ष को एक पत्र (एफ नंबर-3-15/2013-U.3) लिखकर सूचित किया कि प्रो अल्केश चतुर्वेदी को सदस्य सचिव के पद पर नियुक्त किया जा सकता है। पत्र के समय अल्केश चतुर्वेदी सांची विश्वविद्यालय में कुलसचिव थे। इस पत्र में आईसीएचआर के अध्यक्ष के पत्र संख्या एफ-1.1/2024/सीएचएमएन/आईसीएचआर दिनांक 9.11.2024 का हवाला देते हुए कहा कि मंत्रालय के सक्षम अधिकारी ने प्रो अल्केश चतुर्वेदी के सदस्य सचिव पद पर नियुक्ति को मंजूरी दे दी है। पहली नजर में ये पत्र सामान्य नियुक्ति पत्र लगता है लेकिन इसके तीसरे बिंदु में एक पेंच है। इस बिंदु में लिखा गया है कि आपसे अनुरोध किया जाता है कि नियुक्ति निर्देश जारी करें और इस क्रम में आईएचआर के नियमों का पालन करें। इसके बाद की पंक्ति को रेखांकित किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि नियुक्ति पत्र जारी करने के पहले संबंधित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस का ध्यान रखा जाए। पहली नजर में यह भी सामान्य बात लगती है, लेकिन इस पत्र में कहीं नहीं कहा गया है कि चयनित व्यक्ति के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा आईसीएचआर कब तक करे। इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं कि गई। दूसरा प्रश्म उठता है कि क्या चयन समिति ने जब इनके नाम पर विचार किया था या जब आईसीएचआर के अध्यक्ष ने इनके नाम की संस्सतुति मंत्रालय से की थी तो विजिलेंस क्लीयरेंस नहीं लिया गया था? 

यह तो निश्चित है कि मंत्रालय के 1 मई 2025 के सदस्य सचिव के पद पर प्रो अल्केश चतुर्वेदी को नियुक्त करने के आदेश को कार्यान्वयित करने के लिए अध्यक्ष ने कार्यवाही आरंभ की होगी। कार्यवाही के अंतर्गत ये माना जा सकता है कि अध्यक्ष ने अल्केश चतुर्वेदी से विजिलेंस क्लीयरेंस के लिए लिखा अवश्य होगा। परंतु छह महीने तक सदस्य सचिव के पद पर नियुक्ति नहीं होने से ऐसा प्रतीत होता है कि अल्केश चतुर्वेदी विजिलेंस क्लीयरेंस जमा नहीं करवा पाए हैं या उनके विजिलेंस क्लीयरेंस में कोई समस्या है। दोनों ही स्थितियों में आईसीएचआर के अध्यक्ष प्रोफेसर रघुवेंद्र तंवर को नियुक्ति की स्थितियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। या ये माना जाए कि इस पत्र की आड़ में अनंत काल तक अल्केश चतुर्वेदी के विजिलेंस क्लीयरेंस की प्रतीक्षा की जाएगी और तबतक संस्था कार्यवाहक सदस्य सचिव के भरोसे चलता रहेगा। जिस चयन समिति ने अल्केश चतुर्वेदी का चयन किया उसने तीन नाम का पैनल भेजा था। अगर नियम अनुमति देते हों तो अध्यक्ष उस पैनल में से किसी अन्य व्यक्ति की नियुक्ति के लिए शिक्षा मंत्रालय को अनुरोध पत्र भेज सकते हैं। संभव है भेजा भी होगा लेकिन सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति में अनावश्यक देरी से संदेह उत्पन्न होता है। कहीं यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। सदस्य सचिव के पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से संस्था का कामकाज भी सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है। संस्था के उद्देश्य भी पूरे नहीं हो पा रहे हैं। पाठकों को याद होगा कि इस स्तंभ में ही मदर आफ डेमोक्रेसी नामक पुस्तक के प्रकाशन और उसके मूल्य निर्धारण पर पहले लिखा जा चुका है। कुछ लोग तो ये कहते हैं कि लाखों रुपए मूल्य की पुस्तकें अब भी आईसीएचआर के गोदाम में धूल फांक रही है। पता नहीं कभी इसकी जांच हुई या नहीं या होगी भी या नहीं। दरअसल जिम्मेदार पद पर नियमित नियुक्ति नहीं होने से गड़बड़ियों को फलने फूलने का मैदान तैयार होता है।

गड़बड़ियों से आगे जाकर अगर हम शोध कार्यों पर ध्यान दें तो एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। 2022 में आईसीएचआर ने एक महात्वाकांक्षी परियोजना बनाई थी भारत के समग्र इतिहास लेखन की। योजनानुसार आठ खंडों में ये पुस्तक तैयार होनी थी। वरिष्ठ इतिहासकार सुष्मिता पांडे को इस परियोजना का जनरल एडीटर बनाया गया। प्रधानमंत्री मेमोरियल और संग्रहालय से एक व्यक्ति को प्रतिनियुक्ति पर आईसीएचआर लाया गया। करीब तीन वर्ष होने को आए अभी तक एक भी खंड पाठकों के लिए उपलब्ध नहीं हो पाया है। पहला खंड समग्र इतिहास की आवश्यकता को रेखांकित करनेवाला है। उसको अभी विशेषज्ञ देख रहे हैं यानि रेफरिंग पूल में डूब उतरा रहा है। इस हिसाब से देखा जाए तो अगले 24 वर्ष में शायद इस परियोजना को पूरा किया जा सकेगा। समग्र इतिहास लेखन अगर इस अगंभीरता से लिया जाएगा तो फिर भगवान ही मालिक हैं। आईसीएचआर जैसी संस्था का वामपंथी इतिहासकारों ने जितना उपयोग अपने विचार को फैलाने या एकांगी दृष्टि से इतिहास लिखने में किया उसका निषेध करना भी इस रफ्तार में संभव नहीं लगता है। आईसीएचआर जैसी संस्था को बेहद गंभीरता से चलाने की आवश्यकता है जिसमें निर्णय त्वरित हों, कार्य निर्धारित समय पर पूर्ण हों और प्रशासनिक बाधाओं से अकादमिक प्रक्रिया से मुक्त कराने की इच्छाशक्ति वाला कोई व्यक्ति संस्था में हो। 

2014 में जब से मोदी सरकार बनी है तभी से इतिहास को समग्र दृष्टि देने की बात हो रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने बनारस में कुछ वर्षों पहले कहा था कि इतिहास लेखन में किसी की गलती बताने से बेहतर है हम अपनी लकीर लंबी करें। प्रधानमंत्री ने लालकिला की प्राचीर से पांच प्रण गिनाए थे उसमें से विरासत वाले प्रण का सिरा इतिहास से जुड़ता है। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भी कई बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बात करते हुए इतिहास के समग्र लेखन की महत्ता को रेखांकित कर चुके हैं। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और शिक्षा मंत्री की चिंता के केंद्र में इतिहास का समग्र लेखन है लेकिन बावजूद इसके आईसीएचआर में ढिलाई दिखती है। समग्र इतिहास लेखन परियोजना को लेकर व्याप्त आलस पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े कर रहा है। जरूरत है कि शिक्षा मंत्री अपने स्तर पर इसमें दखल दें और प्रसासनिक बाधों को दूर करने की राह संस्था को दिखाएं।    


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