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Saturday, December 6, 2025

जवाहरलाल नेहरू का बाबर प्रेम


रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पिछले दिनों दिए एक बयान पर विवाद हो गया। रक्षा मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि, सरदार वल्लभ भाई पटेल उदार व्यक्ति थे। वे सच्चे अर्थों में सेकुलर थे, पंथनिरपेक्ष थे। वे तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते थे। जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर सरकारी खजाने के पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की बात कही थी तो उसका भी विरोध अगर किसी ने किया था तो वो गुजराती मां की कोख से पैदा हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था। उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दी। इसपर नेहरू जी ने सोमनाथ मंदि के पुनर्निमाण का सवाल उठाया तो बहुत ही शांत लेकिन दृढ़ स्वर में सरदार पटेल ने स्पष्ट किया कि सोमनाथ मंदिर का मामला अलग है, वहां 30 लाख रुपए जनता ने दान दिए हैं और एक ट्रस्ट बनाया गया है। इस काम में सरकार का एक कौड़ी भी खर्च नहीं हुआ है। राजनाथ सिंह ने आगे कहा कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में ऐसा ही हुआ। अयोध्या में भी जनता के पैसे से ही श्रीराममंदिर का निर्माण हुआ। यही पंथ निरपेक्षता की सच्ची परिभाषा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान के बाद आनन-फानन में कांग्रेस के नेता ने इसे झूठ करार दिया और कहा कि इन बातों का कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं है। कांग्रेस के नेता माणिकराम टैगोर ने एक्स पर लिखा कि राजनाथ जी का बयान इतिहास नहीं बल्कि राजनीति है और ये वर्तमान को बांटने के लिए भूतकाल का पुनर्लेखन है। कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी राजनाथ सिंह के इस बयान पर कठोर प्रतिक्रिया दी। जो लोग रक्षा मंत्री के बयान का आधार और दस्तावेजी सबूत मांग रहे थे उनको भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक पढ़ने की सलाह दी। वैसे भी ये समझा जाना चाहिए था कि राजनाथ सिंह सार्वजनिक जीवन में कोई हल्की बात नहीं करते हैं।

ये पूरा प्रसंग मणिबेन पटेल की पुस्तक ‘इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में पृष्ठ संख्या चौबीस पर है। वो लिखती हैं कि नेहरू ने बाबरी मस्जिद का प्रश्न भी उठाया था लेकिन सरदार पटेल ने साफ कर दिया था कि सरकार एक भी पैसा किसी मस्जिद को बनवाने पर खर्च नहीं करेगी। उन्होंने नेहरू को स्पष्ट किया था कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण का मसला अलग है। वहां एक ट्रस्ट बनाया गया था और उस ट्रस्ट ने जनता से तीस लाख रुपए जमा किए थे। सरदार पटेल ने नेहरू को बताया कि इस ट्रस्ट के चेयरमैन जामसाहब हैं और मुंशी इसके सदस्य हैं। इसमें सरकार का कोई पैसा नहीं दिया गया है जो मंदिर निर्माण के लिए खर्च किया जाए। इतना सुनकर नेहरू चुप हो गए थे। सरदार पटेल की पुत्री मणिबेन पटेल की पुस्तक के अनुसार ये पूरा प्रसंग 20 सितंबबर 1950 को घटित हुआ था। इस प्रसंग को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेहरू और पटेल के बीच बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण पर बा हुई थी जिसमें नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के फिर से बनाए जाने का उदाहरण दिया था। जो कांग्रेस के नेता या समर्थक राजनाथ सिंह के बयान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं उनके लिए मणिबेन की पुस्तक उपयोगी हो सकती है। पुस्तक में उल्लिखित उपरोक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि नेहरू जी सरकारी धन से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे जिसको सरदार पटेल ने रुकवा दिया था। दरअसल बाबर को लेकर नेहरू के मन में आदर का भाव हमेशा से था। उनके हिसाब से वो पुनर्जागरण के दूत जैसे थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया (शताब्दी संस्करण, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1989) में लिखा है कि बाबर एक आकर्षक व्यक्ति था, पुनर्जागरण का साहसी और दबंग राजकुमार जिसकी कला और साहित्य में रुचि थी और शानदार जीवन जीना चाहता था। यहां यह प्रश्न तो उठता ही है कि बाबर ने भारत में किस तरह से पुनर्जागरण किया जिसके कारण नेहरू को उनमें पुनर्जागरण के राजकुमार की छवि दिखाई देती थी। इस पूरी पुस्तक में नेहरू ने बहुधा बाबर को आदर के साथ याद किया है। बाबर ही क्यों नेहरू मुगल राजवंश के अनेक शासकों के प्रति उदार दिखाई पड़ते हैं। अकबर को तो वो बाबर से अधिक आकर्षक और साहसी बताते हैं। मुगलों के भारतीयकरण के वामपंथी इतिहासकारों के प्रयास को गति देते भी दिखते हैं। इसलिए अगर डिस्कवरी आफ इंडिया में बाबर के प्रति नेहरू के व्यक्त आदर को मणिबेन पटेल की पुस्तक में वर्णित प्रसंग से जोड़कर देखा जाए तो किसी प्रकार की शंका शेष नहीं बचती है कि बाबर के नाम से बनी मस्जिद को वो सरकारी पैसे से बनवाना चाहते थे। 

नेहरू सत्ता में बने रहने के लिए कोई भी उपक्रम करने को तैयार रहते थे। जो ये कहते हैं कि नेहरू के समय में सरकार के समर्थन से धार्मिक कार्य नहीं किए जा सकते थे उनको भी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित और दबा दिए गए तथ्यों को देखना चाहिए। एक पुस्तक है ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’। उसमें 14 अगस्त 1947 का एक प्रसंग है जब शाम को डा राजेन्द्र प्रसाद के दिल्ली के घर पर पूजा और हवन का आयोजन किया गया। हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों का पवित्र जल मंगवाया गया था। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे थे। उपस्थित महिलाओं ने दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगाया। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन पूजन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने कहा था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। उसके फौरन बाद नेहरू तैयार हो गए। नेहरू के बाद तुष्टीकरण की ये नीति कांग्रेस की नीति बन गई। दिरा से लेकर राजीव गांधी और मनमोन सिंह तक सभी इसी पर चलते रहे। प्रणब मुखर्जी ने सक्रियय राजनीति से अलग होने के बाद तीन पुस्तकें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित है। अपनी तीसरी पुस्तक द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए मैं गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले? ये वो समय था जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और प्रणब मुखर्जी उनके कैबिनेट के सदस्य थे। सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाने की कोशिश और सोमनाथ मंदिर के भव्य स्वरूप को बनाने को लेकर हिचक। जनता से पैसे से सोमनाथ मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो राष्ट्रपति को वहां जाने से रोकने का प्रयास नेहरू ने किया। नेहरू की नीतियों पर चलनेवाली कांग्रेस ने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के नव्य और भव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आमंत्रण यूं ही नहीं ठुकराया ।      

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जीते हैं शान से


हिंदी फिल्मों के इतिहास में कई ऐसी फिल्में हैं जो कारोबार के हिसाब से बेहद सफल नहीं हो सकीं लेकिन कल्ट फिल्म के तौर पर याद की जाती हैं। उन फिल्मों के क्राफ्ट के कारण उनको वर्षों बाद भी याद किया जाता है। जाने भी दो यारो, मेरा नाम जोकर और लम्हे कुछ ऐसी ही फिल्में हैं जिनको आज भी बेहतरीन फिल्म के तौर पर याद किया जाता है लेकिन वो सफल फिल्मों की श्रेणी में नहीं आती। ऐसी ही एक और फिल्म है आज से 45 वर्ष पूर्व रिलीज हुई शान। फिल्म शोले की सफलता के बाद रमेश सिप्पी एक शहरी और आधुनिक कहानी पर फिल्म बनाना चाहते थे। ऐसी फिल्म जिसमें नायक, नायिकाएं, खलनायक सभी शहरी हों और फिल्म का वातावरण भी आधुनिक लगे। लेखक सलीम-जावेद की हिट जोड़ी उनके साथ थी। फिल्म शान की कहानी तैयार हो गई। इस कहानी में इयान फ्लेमिंग के उपन्यासों और जेम्स बांड सीरीज की फिल्मों के खलनायक ब्लोफेल्ड पर आधारित एक खलचरित्र रचा गया। शाकाल नाम का ये चरित्र गंजा है। शोले की तरह ही इस फिल्म को मल्टी स्टारर बनाने की योजना बनी। रमेश सिप्पी चाहते थे कि फिल्म शोले में काम करनेवाले अभिनेता और अभिनेत्री फिल्म शान में भी अलग अलग भूमिका करें। शाकाल की भूमिका के लिए रमेश सिप्पी पहले संजीव कुमार को चाहते थे लेकिन उनकी अन्यत्र व्यस्तता थी। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी भी शान फिल्म के लिए समय नहीं निकाल सके तो शशि कपूर और बिंदिया गोस्वामी को भूमिकाएं दी गईं। कुछ दिनों पहले धर्मेन्द्र ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वो चाहते थे कि फिल्म शान में काम कर सकें लेकिन उनके पास डेट्स नहीं थी। जब फिल्म शोले बन रही थी तब भी गब्बर सिंह के किरदार के लिए रमेश सिप्पी की पसंद संजीव कुमार थे। इस बात का उल्लेख कई पुस्तकों में मिलता है। फिल्म शोले के रिलीज होने के दो वर्ष बाद शान का निर्माण आरंभ हो गया था। तीन वर्षों में ये फिल्म बनकर तैयार हुई। इस फिल्म पर निर्माता ने काफी खर्च किया था। ये उस समय की सबसे महंगी फिल्मों में एक थी। एक द्वीप पर फिल्म का भव्य सेट और सुनहरी चील ने दर्शकों का ध्यान खींचा था। 

आज से करीब 45 वर्ष पूर्व एक द्वीप के अंदर तकनीक के तामझाम के साथ शूट करना कठिन था। कुलभूषण खरबंदा अभिनीत किरदार शाकाल जिस कुर्सी पर बैठता था उसके सामने कई रंगों की जलती बुझती बत्तियां और कई तरह के स्विच और लीवर एक शहरी खलनायक की ऐसी छवि दर्शकों के समक्ष उपस्थित करते थे जिसके मोहपाश में बंधने की संभवना थी। अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर, जीनत अमान, राखी जैसे कलाकार फिल्म को हिट कराने के लिए काफी थे। शाकाल के गुर्गों की भूमिका भी बेहतरीन अभिनेताओं को दी गई। शोले में सांभा की भूमिका निभानेवाले मैकमोहन शाकाल के साथी जगमोहन की भूमिका में थे। सितारों और भव्यता के बावजूद फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी। बाद में शान को लोगों ने पसंद किया। यह अद्भुत संयोग है कि रमेश सिप्पी की फिल्म शोले भी पहले सफल नहीं हुई लेकिन बाद के दिनों में जबरदस्त हिट रही। शान जबरदस्त हिट तो नहीं हो सकी लेकिन इसके क्राफ्ट ने इसको कल्ट फिल्म बना दिया। रमेश सिप्पी ने सलीम जावेद के लिखे किरदार शाकाल को इस तरह से पर्द पर गढ़ा कि उसका गंजापन और संवाद अदायगी दर्शकों को पसंद आई। कुलभूषण खरबंदा ने पर्दे पर शाकाल को जीवंत कर दिया। फिल्म के अंतिम दृष्य में जब उसको गोली लगती है और तो वो कहता है कि मुझे मालूम है कि मैं मरनेवाला हूं लेकिन तुमलोग भी बचोगे नहीं। ऐसा कहने के पहले शाकाल एक हैंडल को नीचे की ओर झुका देता है जिससे उसका ठिकाना धमाके में नष्ट हो जाए। कुलभूषण खरबंदा की संवाद अदायगी बढिया थी। इस फिल्म में एक गाना है यम्मा यम्मा, इसको आर डी बर्मन और मोहम्मद रफी ने साथ मिलकर गाया है। दोनों का साथ गाया ये एकमात्र गाना है। आज इस फिल्म को बने 45 वर्ष हो गए लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के खलनायकों की बात होती है तो शाकाल का नाम भी उसमें आता है।