हाल के दिनों हिंदी के वरिष्ठ पत्रकारों में एक नई प्रवृति उभरकर सामने आई है । वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों ने पूर्व में छपे अपने लेखों को एक जगह इकट्ठा करके आकर्षक शीर्षक और गंभीर भूमिका के साथ पुस्तकाकार छपवाना शुरु कर दिया है । संभवत: ये पत्रकारिता के छात्रों की बढती संख्या को ध्यान में रखकर किया जा रहा है, मीडिया के बढ़ते बाजार में से अपना हिस्सा लेने का प्रयास । इसी कड़ी में पत्रकार अरविंद मोहन की किताब- मीडिया की खबर- छपकर आई है । इस किताब में अरविंद मोहन के पूर्व में छपे सत्रह लेख और मीडिया पर उनके पूर्व में लिखे गए स्तंभ की टिप्पणियां संकलित हैं ।
इस किताब का जो बेहद दिलचस्प लेख है वो है - प्रिंट बनाम टीवी । इस लेख की शुरुआत तो अरविंद ठीक करते हैं लेकिन जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते हैं, प्रिंट के प्रति उनका मोह उजागर होता जाता है । अरविंद मोहन लिखते हैं -"जिस भी घटना, रिपोर्टिंग, लेखन में ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी होगी, उसमें कभी टीवी लीड नहीं लेगा ।" ये एक ऐसा निष्कर्ष है जिसके समर्थन में लेखक ने कोई तर्क नहीं दिया है । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें टीवी ने लीड ली, मसलन जेसिका लाल हत्याकांड, प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड, उपहार सिनेमा अग्निकांड के दोषियों को सजा दिलवाने में न्यूज चैनलों की भूमिका अहम रही और उसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है । या फिर हाल में ऑस्ट्रेलिया सीरीज में हरभजन सिंह-साइमंड्स विवाद में खबरिया चैनलों ने जिस तरह आगे बढ़कर लीड ली उसे अखबारों को फॉलो करने को मजबूर होना पड़ा । दरअसल अगर हम राष्ट्रीय पाठक सर्वे के आंकड़ों पर गौर करें तो पाते हैं कि खबरिया चैनलों के बढने के साथ साथ अखबारों और पत्रिकाओं की प्रसार संख्या में भी अच्छी खासी बढ़ोतरी हुई है । हिंदी भाषी क्षेत्रों के अलावा अन्य भाषाओं में भी यही हाल है । वहां भी टीवी चैनलों के बढ़ने के साथ पाठकों की संख्या भी बढ़ी ।अपने इस लेख में लेखक विरोधाभास का भी शिकार हो गया है । एक जगह वो लिखतेहैं- "जिस दौर में टीवी अपने यहां ताकत बढाता गया, उस दौर में अखबारों, पत्रिकाओं के बंद होने का क्रम भी बढ़ा है( पृ.95) ।" वहीं इसी लेख में दूसरी ओर लिखते हैं -"बहरहाल ये धारणा पूरी तरह गलत साबित हुई कि कि टीवी खासकर न्यूज चैनलों के आने से समाचार पत्रों के दुर्दिन आ जाएंगे, बल्कि इसके उलट हो रहा है । जहां टीवी को देखा जा रहा है, वहीं प्रिंट की पाठक संख्या पिछले दो साल में दस फीसदी बढ़ी है ।" अब पाठक ही तय करें । न्यूज चैनलों को लेकर लेखक का पूर्वग्रह भी इस लेख में सामने आता है जब वो कहते हैं कि अखबार लगभग पौने दो सौ खबरे देता है जबकि चैनलों के एक गंटे के बुलेटिन में बमुश्किल पंद्रह खबरें होती है । ये ठीक है लेकिन चौबीस घंटे के न्यूज चैनल में कितने ऐसे बुलेटिन होते हैं और फिर चैनलों खबरों का फॉलोअप या अपडेट तुरत फुरत दे सकते हैं तो अखबारों को चौबीस घंटे का इंतजार करना पड़ता है । मेरे कहने का ये मतलब नहीं है कि खबरों के मामले में अखबारों से ज्यादा अहम न्यूज चैनल हैं । मेरा ये मानना है कि दोनो की अपनी महत्ता है और किसी को कमतर करके आंकने के लिए हमारे पास मजबूत तर्क होने चाहिए ।
इस पूरी किताब में अरविंद मोहन के विचार और पसंद नापसंद उनके लेखों में प्रमुखता से सामने आए हैं । 'इतवारी अखबारों के बहाने' वाले लेख में भी । दिनमान टाइम्स, चौथी दुनिया, संडे मेल और संडे ऑब्जर्वर के प्रकाशन को लेखक हवा के झोंके की तरह बताते हुए कहते हैं कि रिपोर्ट जुटाने के मामले में इनमें से किसी अखबार ने जोर नहीं दिखाया । क्या अरविंद जी को 'चौथी दुनिया' की मेरठ दंगों की रिपोर्टिंग या फिर किसान आंदोलन की कवरेज याद नहीं है या फिर वो इसे याद करना नहीं चाहते । हाशिमपुरा-मलियाना में हुए अमानवीय हत्याकांड पर वीरेन्द्र सेंगर की रिपोर्ट- ' लाइन में खड़ा किया, गोली मारी, और लाशें बहा दी'- ने उस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर हडकंप मचा दिया था । अरविंद जी जिसे हवा का झोंका कह रहे हैं वो तो आंधी थी । चौथी दुनिया की टीम को अब भी पत्रकारिता के इतिहास में कुछ बेहद अच्छी टीमों में से एक में गिना जाता है । इस किताब में एक लेख- भाजपाई मीडिया मैनेजमेंट- विचारोत्तेजक है । इसमें अरविंद मोहन ने ये साबित करने की कोशिश की है कि कम्युनिस्टों के बाद सुनियोजित और व्यवस्थित ढंग से मीडिया में घुसपैठ का प्रयास संघ या भाजपा की तरफ से ही हुआ। इस लेख में लेखक ने इसे सोदाहरण साबित भी किया है । इसके अलावा इस किताब का एक बेहद महत्वपूर्ण लेख 'संपादक के नाम पत्र' है । अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित छपनेवाले पाठकों के पत्रों की महत्ता और उसके असर को मोहन ने अपने अनुभवों के आधार पर स्थापित किया है । 'साझा इतिहास, साझी विरासत' लेख भी पत्रकारिता के इतिहास को समझने में सहायक हैं लेरकिन प्रूफ की गलतियों से कई नाम गलत छपे हैं ।
'खबरों की खबर' वाले अध्याय में छपी टिप्पणियों के साथ उसका प्रकाशन वर्ष भी छपा है, जिसकी वजह से उस पूरे दौर को समझने में सहूलियत होती है । लेकिन अन्य लेखों में प्रकाशन वर्ष के उल्लेख न होने से भ्रम की स्थिति बन जाती है ।
कुल मिलाकर अगर हम 'मीडिया की खबर' पर विचार करें तो कह सकते हैं कि अरविंद मोहन ने मीडिया को बाजार के बरक्श रखकर देखने की कोशिश की है, जिसमें वो कई जगह सफल भी होते दिखते हैं, लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो ये किताब अखबारी लेखों का ऐसा संग्रह है जिससे कोई साफ तस्वीर नहीं उभरती ।
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समीक्ष्य पुस्तक- मीडिया की खबर
लेखक- अरविंद मोहन
प्रकाशक- शिल्पायन, 10295, वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा
दिल्ली- 110032
मूल्य - 150 रुपये
6 comments:
आपने सही लिखा है कि चौथी दुनिया की टीम उस दौर के पत्रकारिता की बेहतरीन टीम थी लेकिन उस टीम को भी एक खास चश्में से देखने की लत लग गई थी। उस टीम में रामकृपाल रहें हों या कमर वहीद नकवी या फिर स्वर्गीय अजय चौधरी, अरविंद हों या वीरेन्द्र सेंगर सभी उर्जावान थे और उनके बहुत से काम यादगार हैं।
आज के हालात का सटीक वर्णन किया है आपने
good jee good, narayan narayan
ब्लोगिंग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लिखते रहिये. दूसरों को राह दिखाते रहिये. आगे बढ़ते रहिये, अपने साथ-साथ औरों को भी आगे बढाते रहिये. शुभकामनाएं.
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साथ ही आप मेरे ब्लोग्स पर सादर आमंत्रित हैं. धन्यवाद.
Rightly said......
you are perfectly right.
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