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Thursday, January 15, 2009

स्त्री आकांक्षा का नया चित्र

हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श की आंधी के बीच जब पत्रकार गीताश्री कि किताब – स्त्री आंकाक्षा के मानचित्र- प्रकाशित हुई तो उसके कवर ने पाठकों का खासा ध्यान अपनी ओर खींचा । दरअसल कवर पर एक लड़की गीले कपड़ों में एक कमरे की खिड़की से बाहर समुद्र को देख रही है । इस तस्वीर से किताब के मिजाज के बारे में संकेत मिल जाता है। कहावत भी है कि लिफाफा देखकर खत का मजमून पता चल जाता है । लेकिन जब मैंने किताब पढ़ना शुरु किया को कवर से ज्यादा आकर्षित पुस्तक में संकलित लेखों ने किया । अपनी इस पहली किताब की भूमिका में लेखिका कहती हैं कि आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में औरत की जिम्मेवारी और जवाबदेही तो तय है मगर आज भी उसके अधिकार और स्पेस तय नहीं हैं । गीताश्री की छवि एक बिंदास और खरी-खरी कहने और लिखनेवाली पत्रकार की है और भूमिका में भी इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि किताब में क्या होनेवाला है ।
गीताश्री की ये किताब स्त्री के अधिकार और स्पेस को तलाश करती है और इस तलाश में समाज के स्थापित मूल्यों से टकराती भी है । समीक्ष्य पुस्तक में इकत्तीस लेख हैं जो समाज, साहित्य, राजनीति, अपराध, फिल्म और ग्लैमर की दुनिया में स्त्री के सच से हमें रूबरू कराने की कोशिश करती है । यहां स्त्रियों के किस रूप में देखा जाता है या स्त्रियों को लेकर किस तरह की मानसिकता व्याप्त है, इसको अपने लेखों में गीताश्री ने संजीदगी से उठाया है ।
वेश्या और उसके समाज का चित्रण हिंदी साहित्य में ही नहीं, हर भाषा और देश के साहित्य में जरूरत से ज्यादा हुआ है । अधिकतर पुरुषों द्वारा, कुछ हद तक स्त्रियों द्वारा भी । पर इन वेस्याओं का चित्रण बहुआयामी जटिल इंसान के रूप में जरा कम ही हुआ है । लेकिन गीताश्री ने अपने लेख-अंधेरी गली के रोशन मकान- में कोलकाता की रेडलाइट एरिया की यौनकर्मियों की स्थिति और उनके संघर्ष को जिस तरह से उभारा है वो किसी को भी सोचने पर विवश कर देता है । सोनागाछी की यौनकर्मियां किस तरह से सरकार से मनोरंजनकर्मी का दर्जा देने को लेकर जूझ रही है और मनोरंजन कर देने के लिए सीना ठोक कर तैयार है वो एक नए बहस को जन्म देने के लिए काफी है । गीताश्री पत्रकार तो हैं ही साहित्य जगत में भी उनकी आवाजाही नियमित रही है । दिल्ली में बुजुर्ग साहित्यकार और संपादक किस तरह से भी किसी भी युवा लेखिका को हाथों-हाथ लेते हैं और उसको महान रचनाकार साबित करने पर तुल जाते हैं लेकिन उनकी मानसिकता क्या होती है इसको गीता ने अपने लेख – उठो कवियो, नी कवयित्री आई है – में बेनकाब किया है । एक और जो लेख इस किताब में अहम है वो है – लेस्बियन लोक की मानसिकता । अपने इस लेख में लेखिका ने स्त्रियों की समलैंगिकता को कोमलता से जोडा़ है । प्रचीन भारतीय समाज में लेस्बियनिज्म को ढूंढती लेखिका कामसूत्र तक पहुंच जाती है और गणिकाओं के बहाने से उस वक्त के सामज में समलैंगिकता को सामने लाती हैं । साथ ही विश्व साहित्य में सीमोन, अरस्तू के विचारों के आधार पर लेस्बियनिज्म को एक मानवीय चश्मे से देखने का प्रयास किया गया है । गीताश्री के विचारों से सहमति आवश्यक नहीं है लेकिन बहस का एक आधार और इल विषय पर नए सिरे से विमर्श की चुनौती तो देती ही है ।
कुल मिलाकर अगर स्त्री आकांक्षा के इस नए मानचित्र पर विचार करते हैं तो उपरी तौर पर पाते हैं कि इस मानचित्र में कई खांचे बेहद साधारण और सामान्य लगते हैं लेकिन गहराई से विचार करने पर ये बेहद गंभीर और विचारोत्तेजक हैं । गीताश्री अपने लेखों में कई अहम विषयों को सरसरी तौर पर छूकर निकल गई है जो कि गंभीर विश्लेषण और लेखिका के विचारों की मांग करते हैं लेकिन लेखिका की पहली किताब होने की वजह से इसको नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन इस किताब ने स्त्री आकांक्षा के नए बनने वाले चित्र का खाका तो खींच ही दिया है ।
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समीक्ष्य पुस्तक- स्त्री आकांक्षा के मानचित्र
लेखिका- गीताश्री
प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य- 200 रुपये

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