पिछले दिनों मैं रविवार पत्रिका के पुराने अंक पलट रहा था तो मुझे संतोष भारतीय के दलितों और उनकी समस्याओं पर लिखे कई लेख मिले । इस क्रम में मैं सिर्फ दो लेखों का उल्लेख करना चाहूंगा जो मार्च और अगस्त उन्नीस सौ चौरासी में छपे थे । पहला लेख था- श्रीपति जी, गरीब हरिजन की जमीन तो लौटा दीजिए । ये लेख उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र के इनके अपने गांव में एक दलित जोखई की जमीन कब्जाने के बारे में विस्तार से लिखी गई थी । श्रीपति मिश्र के परिवार पर एक हरिजन की जमीन कब्जाने की कहानी छपने के बाद उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक की सियासी हलकों में हड़कंप मच गया और चार महीने बीतते बीतते ही श्रीपति मिश्र को इंदिरा गांधी ने चलता कर दिया । ये एक रिपोर्ट की ताकत है, एक पत्रकार की ताकत है, एक पत्रकार का अपने समाज के प्रति उत्तर दायित्व भी जहां वो समाज के सबसे निचले तबके को न्याय दिलाने के लिए प्रदेश के सबसे ताकतवर आदमी को भी नहीं बख्शता है । संतोष भारतीय ने पत्रकारिता के अपने लंबे करियर में दलितों और अल्पसंख्यकों की बेहतरी के सवाल को अपने लेखों में जोरदार तरीके से उठाया, और इसका असर भी हुआ । अभी हाल ही में संतोष भारतीय के संपादन में - दलित, अल्पसंख्यक सशक्तीकरण नाम की लगभग पांच सौ पन्नों की किताब आई है । इस किताब में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्रियों- विश्वनाथ प्रताप सिंह और इंद्र कुमार गुजराल समेत कई विद्वानों के लेख संकलित किए गए हैं । डॉ मनमोहन सिंह ने अपने लेख में बेहद ही साफगोई और साहस के साथ ये स्वीकार किया है कि - "मेरा मानना है कि साठ वर्षों के संवैधानिक तथा कानूनी संरक्षण और राज्य सहायता के बावजूद देश के कई हिस्सों में दलितों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव अब भी मौजूद है ।" आजादी के साठ साल बाद भी अगर एक लोकतांत्रिक देश के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति ये स्वीकार करता है कि दलितों के साथ सामाजिक भेदभाव होता है तो ये न केवल एक बेहद गंभीर बात है बल्कि एक सभ्य समाज का दावा करनेवाले देश के सामने एक बड़ा सवाल भी है, जिसका निराकरण तरत ढूंढे जाने की जरूरत है । केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने अपने लेख में दलित अल्पसंख्यक महाशक्ति की यात्रा और उसके संघर्षों और पीड़ा को शिद्दत के साथ चिन्हित किया है । साथ ही दलितों और अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए समाज के सभी वर्गों को आगे आने की वकालत भी करते हैं ।
ऐसा नहीं है कि इस किताब में सिर्फ राजनेताओं के ही लेख हैं । इस भारी भरकम ग्रंथ में पांच खंड हैं जिसमें देश के प्रमुख विचारकों और दलित चिंतकों के लेख हैं - जिसमें असगर अली इंजीनियर, पी एस कृष्णन, प्रो. मुशीरुल हसन, डॉ सतीनाथ चौधरी, इम्तियाज अहमद आदि प्रमुख हैं । इस पुस्तक के दूसरे खंड में वरिष्ठ पत्रकार कुरबान अली ने अपने लंबे शोधपरक आलेख में भारत में मुस्लिम समुदाय के साथ होनेवाले भेदभाव को रेखांकित किया है । बेहद श्रमपूर्वक लिखे गए इस लेख में कुरबान ने भारत के मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन की असलियत और उसके कारणों के अलावा सांप्रदायिक हिंसा को आंकड़ों के आधार पर विश्लेषित किया है । कुरबान के लेख को पढ़ते हुए मुझे पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल से सुना एक संस्मरण याद हो आया । गुजराल साहब जब सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो तो वो जाकिर हुसैन साहब से मिले गए और बातों-बातों में मंत्रालय में मुसलमान चपरासियों के बारे में बात चल निकली तो गुजराल साहब ने कहा कि वो अपने मंत्रालय में मुसलमान चपरासियों की संख्या का पता करेगें । ये सुनकर जाकिर साहब ने कहा कि इस मुल्क में मुसलमान का राष्ट्रपति बनना तो आसान है लोकिन चपरासी बनना बेहद मुश्किल । जाकिर हुसैन साहब की ये बात हमारे समाज और मुल्क की एक ऐसी हकीकत है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है । इसके बाद गुजराल साहब ने अपने मंत्रालय में पता किया तो एक भी मुसलमान चपरासी नहीं मिला और जब सारे मंत्रालयों के बारे में जानकारी इकट्ठा की गई तो आंकड़े जाकिर साहब की बयान की तस्दीक कर रहे थे ।
संतोष भारतीय द्वारा संपादित इस किताब में की ऐसे लेख हैं जो अब के समाज में दलितों और अल्पसंख्यकों की स्थिति को आईना दिखाते हैं । ये किताब इस लिहाज से भी अहम बन गई है कि इसमें एक जगह दलितों और अल्पसंख्यकों के बारे में विद्वानों, विचारकों और देश के नीति नियंताओं के विचार खुलकर सामने आए हैं और हिंदी में मेरे जानते इस तरह की कोई किताब उपलब्ध नहीं है । इस वजह से इस किताब का एक स्थायी महत्व है और भविष्य में इसका उपयोग एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में होगा । ये किताब हिंदी के अलावा अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुई है ।
-------------------------------------------------
समीक्ष्य पुस्तक - दलित, अल्पसंख्यक सशक्तीकरण
लेखक- संतोष भारतीय
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
No comments:
Post a Comment