चंद दिनों पहले की बात है , सुबह सुबह फोन की घंटी बजी । फोन उठाने पर आवाज आई कि मैं पुष्प बोल रहा हूं । चूंकि सोते- सोते फोन उठाया था इसलिए अनायास मुंह से निकला कौन पुष्प ? उलाहने भरे स्वर में पुष्प जी ने बताया कि वो ‘साहित्य केसरी’ के संपादक विनोद पुष्प बोल रहे हैं । तबतक मैं कुछ व्यवस्थित हो चुका था और उनके उलाहना भरे स्वर के बाद सचेत भी । इधर-उधर की बातचीत के बाद पुष्प जी कहा कि उनकी पत्रिका साहित्य केसरी के लिए मुझसे एक लेख चाहिए । मैंने छूटते ही पूछा कि लेख लिखने के कितने पैसे मिलेंगे । इतना सुनते ही पुष्प जी हत्थे से उखड़ गए और कहने लगे कि – “मेरी पत्रिका साहित्य केसरी एक आंदोलन है और मैं आपसे एक आंदोलन में भागीदारी चाहता हूं और आप हैं कि आंदोलन में भागीदारी के एवज में पैसे मांग रहे हैं । मैं पिछले पच्चीस वर्षों से अनियतकालीन पत्रिका निकाल रहा हूं और आजतक किसी ने आप जैसी बेशर्मी से लेख लिखने के पैसे नहीं मांगे । चूंकि पुष्प जी मेरे पैतृक शहर से हैं और वरिष्ठ साहित्यकार भी इसलिए मैं उनकी सुनता रहा और वो मुझे तमाम सिद्धांतों की घुट्टी पिलाने में जुटे रहे, मेरे जमीर, मेरी प्रतिबद्धता आदि आदि को झकझोरने की नाकाम कोशिश करते रहे । जब वो थोड़ा रुके तो मैंने उनसे पूछा कि आप पत्रिका निकालने के लिए जो कागज खरीदते हैं उसका भुगतान करते हैं ? क्या छपाई के लिए प्रेस वाले को पैसे देते हैं ? क्या पैकिंग और पोस्टिंग पर खर्च करते हैं ? जब इन सवालों के जबाव मुझे सकारात्मक मिले, तो फिर मैंने उनसे पूछा कि लेखकों को पैसा क्यों नहीं देते ? मेरे इस सवाल का उनके पास कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था, जाहिर था उन्होंने फोन काट दिया । इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया और मैं काफी देर तक इसपर विचार करता रहा कि कि क्या लेख लिखने के लिए पैसे मांगकर मैंने गलत किया । इस घटना ने मेरे सामने एक और बड़ा सवाल खड़ा कर दिया था वो सवाल जो हिंदी लेखकों की अस्मिता से जुड़ा था । मैं काफी देर तक हिंदी में निकल रहे सैकड़ों साहित्यिक पत्रिका के बारे में सोचता रहा और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि लेखकों को मानदेय तो सिर्फ दो तीन पत्रिकाएं ही देती हैं ।
आज जब कि साहित्य में कोई भी व्यावसायिक पत्रिका नहीं बची है, लेकिन लघु पत्रिकाएं धड़ाधड़ निकल रही हैं, तो इसके पीछे के गणित पर विचार करना बी जरूरी है । साहित्यिक रुझानवाला और एक लेखक के रूप में स्थापित ना होने की कुंठा मन में संजोए लोगों के बीच संपादक बनने की होड़ सी लगी है । संपादक बनने का गणित है भी बेहद आसान । व्यक्तिगत संपर्कों और मित्रों की मदद से किसी तरह एक अंक निकालिए और बन जाइए संपादक । चूंकि साहित्यिक पत्रिकाएं अनियतकालीन होती है इसलिए यहां भूतपूर्व होने का खतरा भी नहीं है ।
लघु पत्रिकाओं के ज्यादातर संपादक आज आर्थिक तंगी का रोना रोकर लेखकों को पैसे नहीं देते लेकिन पत्रिकाओं के संपादकों के ठाठ में कोई कमी नहीं दिखाई देती है । इन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के सरोकार भी बेहद संकुचित और व्यक्ति केंद्रित हो गए हैं । लेखकीय गरिमा या फिर साथी लेखकों की प्रतिष्ठा का उन्हें कोई ख्याल नहीं है । साथी लेखकों को ये साहित्यिक संपादक ‘टेकन फॉर ग्रांटेड’ समझते हैं । न तो उनकी मेहनत का ध्यान रखते हैं और ना ही उनके लेख लिखने के दौरान हुए खर्चे, मसलन- कागज, स्याही, कंप्यूटर, प्रिंटर- आदि का । संपादक नामक ये जीव अपने सहयोगी लेखकों को पहले तो इमोशनल ब्लैकमेल करते हैं और जब उससे उनका स्वार्थ नहीं सधता तो फिर विचारधारा की धौंस देकर अपना काम निकालने की तिकड़म करते हैं ।
पत्रिका निकालने के साथ ये साहित्यिक संपादक एक और खेल खलते हैं । अब उनपर भी एक नजर डाल लेते हैं । आजकल आपको साहित्यिक पत्रिकाओं के मोटे-मोटे विशेषांक दिख जाएंगें – कोई समकालीन कविता पर, कोई उपन्यास पर , कोई कहानियों पर, कोई आलोचना की वर्तमान दशा-दिशा पर, तो कोई फिल्म पर तो कोई किसी लेखक विशेष पर केंद्रित होता है ।
दरअसल इन विशेषांको के पीछे भी धन कमाने की जुगत होती है । विशेषांक की योजना बनाते समय ही किसी प्रकाशक को इसका सहभागी बना लिया जाता है और उनसे तय हो जाता है कि पत्रिका प्रकाशन के कुछ दिनों बाद उसे पुस्तकाकार छाप दिया जाए । प्रकाशक तय होते ही किसी विषय विशेष पर पत्रिका का अंक प्रकाशित होता है । मोटी पत्रिका के प्रकाशन में आने वाला खर्च प्रकाशक वहन करते हैं । पत्रिका का मूल्य इतना अधिक होता है या रखा जाता है कि पाठक उसको कम से कम खरीदें । बची हुई पत्रिका को पहले से तय सौदे के आधार पर प्रकाशक हार्ड कवर में डालकर पुस्तक का रूप दे देते हैं । जिसे उंचे दामों पर थोक सरकारी खरीद में खपा दिया जाता है । बिक्री से जो रॉयल्टी मिलती है उसे संपादक खुद डकार जाता है और अगर लेखक किस्मतवाला हुआ तो उसे पुस्तक की एक प्रति मिल जाती है । इस प्रवृति के लाभ भी हैं लेकिन लेखकों को ईमानदारी से रायल्टी में हिस्सा तो मिलना ही चाहिए ।
इस खेल में छोटे मोटे संपादकों के अलावा कई नामचीन लेखक/ संपादक भी सक्रिय हैं और साथी लेखकों का जमकर शोषण कर रहे हैं । खुद तो पत्रिका के नाम पर ऐश करते हैं और साथी लेखकों को उनका वाजिब हक भी देना गंवारा नहीं । मेरे जानते ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं की एक लंबी फेहरिस्त है जो अपने लेखकों को एकन्नी भी नहीं देते उल्टे उनसे ये अपेक्षा रखते हैं कि कुछ विज्ञापन का जुगाड़ कर दें या फिर कुछ प्रतियां बेचने का इंतजाम करें ।
ये एक ऐसा सवाल है जिसपर पूरी लेखक बिरादरी को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । आज हिंदी के प्रकाशकों पर गाहे बगाहे लेखकों की रॉयल्टी हड़पने का आरोप लगता है । कुछ लेखक तो बकायदा लिखकर भी इसके खिलाफ अपनी आवाज उठा चुके हैं, कुछ विवाद मित्रों के बीचबचाव की वजह से सामने आने से रह जाते हैं । लेकिन मेरे जानते किसी ने भी साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के संपादकों द्वारा लेखकों के शोषण को विषय बनाकर इसे किसी भी मंच पर उठाने की कोशिश नहीं की है । संपादकों के इस छलात्कार का जोरदार विरोध लेखकों को हर उपलब्ध मंच पर करना चाहिए ताकि शोषण के खिलाफ अपनी रचनाओं में आवाज उठानेवाले खुद के शोषण को बेनकाब कर सके । अंत में मुझे वरिष्ठ साहित्यकार उपेन्द्र नाथ अश्क से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग याद आ रहा है । अश्क जी को एक बार एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक ने समीक्षा के लिए एक पुस्तक भिजवाई । पत्रिका के साथ लिखे पत्र में संपादक ने आग्रह किया कि पुस्तक प्राप्ति की सूचना दें । अश्क जी ने पुस्तक प्राप्ति की सूचना का जो पत्र लिखा वो कुछ यों था – प्रिय भाई समीक्षा के लिए आप द्वारा प्रेषित पुस्तक प्राप्त हुई, आभार । लेकिन पुस्तक के साथ यदि आप समीक्षा लेखन के मानदेय का चेक भी संलग्न कर देते तो मैं हुलसकर समीक्षा लिखता और उत्साह के साथ उसे आपको प्रेषित करता, सादर आपका, अश्क ।
16 comments:
रचना छपने के लिए भेजे पत्र अनेक।
सम्पादक ने फाड़कर दिखला दिया विवेक।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अनंत जी. बहुत सही मुद्दा उठाया आपने.सही जगह चोट की.साहित्यक पत्रिका वाले आपको छाप कर एहसान करते हैं भाई.और आप हैं कि पैसे मांग रहे हैं..हद है यार.ये लेख आप उन लोगो तक जरुर पहुंचवाएं..कईयों का भला हो जाएगा.इन दिनों मैं झेल रही हूं किसी नए संपादक को. उनकी पत्रिका निकली नहीं है मगर उनकी बातें सुन कर मेरा सिर चकरा रहा है..कभी बताऊंगी.
गीताश्री
बहुत सही लिखा आपने .. यही कारण है कोई साहित्यकार साहित्य के क्षेत्र में पूर्ण समर्पित नहीं हो पाता .. उसे रोजी रोटी के लिए कहीं और भटकना होता है।
पता नहीं आपको समर्थन देना चाहिये कि नहीं आखिर मैं भी एक साप्ताहिक निकालता हूं निशुल्क लेखकों की मदद से परंतु फिर भी सही मुद्दा उठाया आपने
संपादकों के बर्ताव ने तो लेखकों की कलम की स्याही सुखा दी है। संपादक,प्रकाशक चाहते तो हैं, उत्कृष्ट रचना,लेकिन मेहनताना देना नहीं चाहते। लेखक कंगाल, संपादक मालामाल। जय हो...
ब्रज
अक्षत विचार जी, आप जिसे उहापोह में हैं वही तो इस संकट की जड़ में है और मेरे लेख का विषय । आखिर संपादक लेखकों को पैसे क्यों नहीं देता । क्या पत्रिका में लेख छापकर कोई एहसान करता है , नहीं , निशुल्क लेखक क्या होते हैं पता नहीं । मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि लेखकों को मानदेय मिलना ही चाहिए
गीता जी आप एक पत्रिका की फीचर संपादक हैं । ापका दायित्व है कि आप इन मुद्दों को पाठकों तक पहुंचाएं
सचाई तो है
अपुन ने भेजना छोडा दिया उनने साहित्य का पन्ना
छापना त्याग दिया . पर सब ऐसे हैं ऐसा नहीं है
janab, shabdon ka mayajal umda tha.. bat bhi sahi thee. mudda bhi bilkul theek uthaya aapne... aap to TV mein bade pad par kaam kaete hain... lagbhag sampadak hi hain... lekhkakon ki chinta to aapne khoob ki... lekin bechare TV ke un stringers ko ram bharose chore diya.. jo tapti dooph aur kadakti sardi mein camera le kar kabhi khabr to kabhi ajabgajab chizon ki talash karte hain.. unki mehnat par bade bade channel to TRP Peet lete hain, mehantana dena bhool jate hain.. ho sake to do char line unpar bhi likh dijiye.. becharon ka bhala ho jayega... yakin maniye na to mein stringer hoon aur na hee TV mein kaam karta hoon...
अनाम बंधु
जहां तक मेरी जानकारी है- मेन लाइन के सारे न्यूज चैनल अपने स्ट्रिंगरों को समय पर भुगतान करते हैं। और जो भुगतान नहीं करते हैं उनके बारे में अवश्य लिखा जाना चाहिए ।
बहुत सही सवाल आखिर लेखक को मेहनताना क्यो नही?बिल्कुल मिलना चाहिये और जो चाहे उसे तो ज़रूर मिलना चाहिये।शत प्रतिशत सहमत हूं आपसे।
पाठको का भी शोषण हो रहा है, किताबे महंगी होती जा रही है।
महाशक्ति जी जिस ओर आपने इशारा किया है उसकी पड़ताल में भी जुटा हूं । जल्द ही आप लोगों के सामने पूरा गणित होगा
कुछ दिनों पहले ही एक मेल मुझे मिला था राजस्थान से, उन महाशय की परेशानी भी यही थी कि लिखने के एवज में पैसे नहीं मिलते हैं ऐसे में नवोदित रचनाकार किस तरह अपना भरण-पोषण करे. इन्टरनेट कहने को अच्छा माध्यम है, लेकिन यहाँ भी पैसे मांगते ही भृकुटी तन जाती है.
लेखन के पैसे ?....आप भी कमाल करते हो...
'अर्धसत्य' फिल्म हिट होने के बाद बासु चैटर्जी ने ओम पुरी को अपनी फिल्म में रोल का न्योता भेजा तो पैसे की बात पर वो निर्देशक भी ऐसे ही चौंके...तब ओम पुरी ने भी कहलवा भेजा, कि वो कल भी बम्बई में ही धक्के खा रहा था, तब तो रोल देने की याद नहीं आई !
सही बात है आपकी, यदि केवल कागज़, प्रिंटिंग, पोस्टेज...के ही पैसे देना बदा है तो खाली पन्नों वाली ही पत्रिकाएँ ही क्यों नहीं बेच लेते ये लोग.
इसके लिए लेखकों तो कटिबद्ध होना होगा. तभी कोई बात बनेगी.
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