25 जून 1999 को समीक्षक और स्तंभकार भारत भारद्वाज ने मुझे एक भारी भरकम पत्रिका का प्रवेशांक भेंट किया जो आकार प्रकार और अपने सादे कवर की वजह से आकर्षक लग रहा था । उस पत्रिका का नाम था- बहुवचन, प्रकाशक था महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और पत्रिका के प्रधान संपादक थे विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति अशोक वाजपेय़ी, जिनके संपादक के रूप में नाम छपा था पीयूष दईया का । आज से लगभग दस वर्षों पूर्व जब ये पत्रिका छपी थी तब पीयूष दईया का नाम हिंदी में नया और अनजाना सा था । बहुवचन के साथ ही विश्विविद्यालय ने दो और पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ किया था- पुस्तक वार्ता जिसके भी प्रधान संपादक अशोक वाजपेयी थे और पत्रकार थे पत्रकार राकेश श्रीमाल । तीसरी पत्रिका थी अंग्रेजी में - हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग, इसके संपादक थे रुस्तम सिंह ।
जब इन पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ था तो तो हिंदी साहित्य में इसपर जमकर बहस चली थी । अशोक वाजपेयी के विरोधियों का आरोप था कि विश्विविद्यालय का काम पत्रिकाएं छापना नहीं है । लेकिन इन आरोप लगानेवालों को ये ज्ञान नहीं था कि देश-विदेश की लगभग सभी विश्विविद्यालयों से पत्रिकाएं निकलती हैं, चाहे वो कैंब्रिज हो , ऑक्सफोर्ड हो या फिर लखनऊ या भागलपुर विश्विविद्यालय । ये अवश्य है कि भारत में विश्वविद्यालयों की पत्रिकाएं सिर्फ रस्मी तौर पर निकलती हैं जिसे छपने के बाद गोदामों में ठूंस दिया जाता है, जिसे कालांतर में रद्दी के भाव बेच दिया जाता है। क्या मुझे यहां ये कहने की जरूरत है कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज से निकलने वाली पत्रिकाओं की विश्व में क्या प्रतिष्ठा है ?
लंबे समय से विश्विद्यालय के हिंदी विभागों में कुंडली मारकर बैठे साहित्य के आचार्यों को ये बात हजम नहीं हो रही थी कि हिंदी के नाम पर खुले विश्विविद्यालय में उनकी कोई पूछ नहीं हो रही है । नए-नए 'लौंडे लफाड़ों' को पत्रिका का संपादक बना दिया गया है और वर्षों से साहित्य साधना में लीन आचार्यों की प्रतिष्ठा और निष्ठा को दरकिनार कर दिया गया है । अशोक वाजपेयी पर जमकर हमले हुए लेकिन पांच वर्षों 'बहुवचन' और 'पुस्तक वार्ता' नियमित रूप से निकलती रही । हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग का प्रकाशन अवश्य बाधित हुआ, वजह तो तत्कालीन कुलपति ही बता सकते हैं । अशोक वाजपेयी के बाद जी गोपीनाथन कुलपति बने, जिनके कार्यकाल में धीरे-धीरे इन पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया, साहित्य जगत को खबर भी नहीं लगी ।
अब नए कुलपति विभूति नाराय़ण राय के प्रभार संभालने के बाद फिर से इन तीनों पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ है । बहुवचन (संपादक- राजेन्द्र कुमार), पुस्तक वार्ता(संपादक- भारत भारद्वाज), हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग(संपादक- ममता कालिया) । दस वर्षों में बहुवचन का टैग लाइन भी बदल गया है जो पत्रिका के बदले हुए मिजाज का संकेत है । प्रवेशांक में लिखा था- बहुवचन, साहित्य भाषा शोध विचार की पत्रिका । लेकिन अब बहुवचन- बहुसुमन, बहुरंग निर्मित एक सुंदर हार- हो चुका है । इन दोनों टैग लाइन पर ही अगर हम विचार करें तो पत्रिका के चरित्र में बदलाव को साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । पहले अंक में - यह प्रवेशांक- शीर्षक से एक टिप्पणी थी, जिसमें लिखा गया था कि 'यह प्रयत्न हिंदी में सक्रिय अनेक पीढ़ियों, अनेक दृष्टियों और शैलियों के लेखकों को एकत्र करने का है ।' जो उस अंक में दिखा भी था । बहुवचन के नए अंक में संपादकीय का शीर्षक देखिए - 'यह नवोन्मेषांक ।' ये हिंदी इतनी कठिन है कि आम पाठकों को भी समझ नहीं आएगी । संपादकीय में भी जिस शास्त्रीय शब्दावली का प्रयोग किया गया है जो इसको न सिर्फ जटिल बना देता है बल्कि बोझिल भी । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का एक उद्देश्य पूरे विश्व में हिंदी को इंटरनेशनल भाषा के तौर पर मान्यता दिलवाना भी है । लेकिन अगर पत्रिका के संपादक ही इस तरह की जटिलतम भाषा का इस्तेमाल करेंगे तो हिंदी पढ़ने समझनेवाले ही इससे दूर हो जाएंगे, गैर हिंदी भाषी के तो पास आने का सवाल ही नहीं उठता ।
बहुवचन के संपादक राजेन्द्र कुमार ने अपने संपादकीय में लिखा है- 'यह शिकायत प्राय सुनने को मिलती है कि हमारे विश्वविद्यालय अकादमिक जड़ता के 'भव्य ठिकाने' होते जा रहे हैं । खासतौर से हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन
में लगे लोगों के बारे में आम धारणा यह है कि भाषा और साहित्य उनके लिए वहीं तक महत्वपूर्ण जहां तक वह उनकी आजीविका का विषय बनता हो । जिज्ञासा का विषय वो बने, इसका क्या लाभ । अपने ज्ञान के स्तर को अद्यतन बनाने में उनकी अधिक रुचि नहीं, जितनी अपनी सुख सुविधाओं को अद्यतन बनाने में ।' और बहुवचन का ये पूरा अंक इस आम धारणा को पूरी तरह से नहीं तो आंशिक तौर पर अवश्य ही मजबूत करता है । इसके अलावा अगर हम बहुवचन के जनवरी-मार्च 2009 के अंक के लेखकों की सूची पर नजर डालें तो ये पत्रिका महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की कम जन संस्कृति मंच की पत्रिका ज्यादा लगती है ।
दूसरी पत्रिका- पुस्तक वार्ता- के संपादक भारत भारद्वाज हैं जो पिछले दो दशकों से हंस में के अपने लोकप्रिय स्तंभ और अन्य पत्र पत्रिकाओं में लेखकों की खबर लेते रहे हैं । इस पत्रिका के चरित्र में कोई ज्यादा बदलाव नहीं किया गया है । लेकिन संपदकीय में भविष्य में इसकी प्रकृति में बदलाव के संकेत साफ हैं- 'यह मुख्यत समीक्षा (रिव्यू) की पत्रिका है । कुछ कुछ अंग्रेजी की 'बिब्लियो' और 'द वीक रिव्यू' की तरह । लेकिन भविष्य़ में इसकी प्रकृति में बदलाव करते हुए सृजनात्मकता और समकालीन वैचारिक विमर्श का उन्मुक्त मंच बनाने की मेरी आकांक्षा है ।' लोकार्पण समारोह में विश्वविद्यालय के कुलाधिपति नामवर सिंह ने भारत भारद्वाज को बहुपठित और अद्यतन सूचनाओं से लैस लेखक बताते हुए अपनी अपेक्षाएं भी जाहिर की थी । पुस्तक वार्ता के ताजे अंक में कुंवर नारायण पर पठनीय सामग्री है । बजुर्ग आलोचक नंदकिशोर नवल ने अपनी याददाश्त के आधार पर पुस्तकों की एक लंबी सूची गिना दी है, कुछ रोचक प्रसंगों के साथ । इस अंक की एक विशेषता साहित्य कोलाहल है, जिसे प्रज्ञाचक्षु के छद्म नाम से कोई लिख रहा/रही है । ये स्तंभ काफी रोचक और दिलचस्प जानकारियों से भरा है । लेकिन पुस्तक वार्ता की आत्मा भी बिहार की ओर झुकी नजर आती है, बावजूद इसके आनेवाले दिनों में ये पत्रिका हिंदी में सार्थक हस्तक्षेप की आहट तो दे ही रही है ।
वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ने हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग का संपादन किया है । इस पत्रिका पर हिंदी में जो कुछ महत्वपूर्ण लिखा जा रहा है या लिखा जा चुका है उसे अंग्रेजी में अनूदित करवा कर विश्व पटल पर पेश करना है । ममता कालिया जब इस पत्रिका की संपादक बनी थीं तब विश्वविद्यालय से जुड़ी गगन गिल ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया था, जिसे जनसत्ता संपादक ओम थानवी ने भी हवा दी थी । लेकिन अब जब पत्रिका छपकर आई तो तमाम विवादों पर विराम लगा गया । इस पूरी पत्रिका में रचनाओं और रचनाकारों के चयन में बेहतरीन संपादकीय दृष्टि को साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । रचनाकारों के चयन में ममता कालिया पर ये आरोप है कि उन्होंने अपनी पत्रिका में अपने पति रवीन्द्र कालिया की रचना का अनुवाद छापा । लेकिन आलोचना करनेवाले ये भूल जाते हैं कि रवीन्द्र कालिया हिंदी के एक महत्वपूर्ण लेखक हैं और कोई भी संपादक उनकी रचनाएं छापने को उत्सुक रहता है । लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या रिश्तेदार होने की वजह से ही सिर्फ लेखक को दरकिनार करने का हक संपादको को है । कतई नहीं । हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग की सबसे बड़ी कमजोरी अनुवाद है । ज्यादातर अनुवाद में वो प्रवाह और रवानगी नहीं है जो मूल रचनाओं में है । इसके अलावा इस पत्रिका में अगर तीन महीनों में हिंदी की महत्वपूर्ण गतिविधियों को शामिल किया जा सके तो गैंर हिंदी भाषियों की जानकारी समृद्ध होगी और विश्विविद्यालय के उद्देश्य की पूर्ति भी ।
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