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Wednesday, June 24, 2009

धार्मिक खिलवाड़ को बेनकाब करती कृति

आस्था का जब धर्म से मिलन हो जाता है तो वो श्रद्धा में बदल जाती है और जहां श्रद्धा हो वहां सवाल नहीं हो सकते । यही बात भारत में लेखन को लेकर भी कही जा सकती है । हिंदू देवी देवताओं और मान्यताओं और रूढ़ियों पर हजारों लेख लिखे जा चुके हैं, सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । मुझे याद है बचपन में जब मैं ‘चंपक’ पढ़ा करता था तो उसमें दिल्ली बुक कंपनी की एक पुस्तक – हिंदू समाज पथभ्रष्टक तुलसीदास- का विज्ञापन उसमें प्रमुखता से छपा करता था । चूंकि हिंदू धर्म में सहिष्णुता की गुंजाइश है इसलिए इसपर उठने वाले सवालों और तीखी आलोचनाओं पर बवाल नहीं मचता ।

हाल के दिनों में कुछ संगठन राजनैतिक लाभ के लिए विरोध और हिंसा पर उतारू हो जाते हैं लेकिन उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिलता । लेकिन भारत मे किसी और धर्म के साथ ये स्थिति नहीं है । जैसे आप इस्लाम, जैन या फिर ईसाई धर्म पर सावल खड़े नहीं कर सकते । अगर किसी कोने से कोई सवाल खड़ा होता है तो उसके खिलाफ लगभग पूरा समुदाय खडा़ हो जाता है । कोई उदाहरण देने की जरूरत नहीं है । हर धर्म में अच्छाइयां और बुराइयां होती है लेकिन कोई भी धर्म ‘क्वेशचनिंग’ के उपर नहीं हो सकता । प्रगतिशीलता की पहली शर्त ही संदेह है । जो है उसपर संदेह करो, सवाल खड़े करो और बगैर बहस के किसी भी सिद्धांत को ना मानो । लेकिन मेरे जानते हिंदी में इस्लाम और जैन धर्म पर सवाल करते रचनात्मक लेखन जरा कम ही हुआ है ।

पिछले दिनों कथाकार मधु कांकरिया का उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’ प्रकाशित हुआ । उपन्यास के शीर्षक से मैं चौंका जरूर, लेकिन जब पढ़ना शुरू किया तो तमाम संदेह दफन होते गए और लेखिका के साहस से मैं हतप्रभ रह गया । ‘सेज पर संस्कृत’ जैन धर्म के अंदर व्याप्त कुरीतियों को तार्किक आधार पर जोखिम मोल लेते हुए साहसपूर्ण तरीके से उठाता है । यह उपन्यास एक ऐसी जवान लड़की की यातना गाथा जो अपने और अपने परिवार के भविष्य के सुंदर सपने देखती है और उसे पूरा करने के लिए संघर्ष भी करती है लेकिन धार्मिक आस्थाओं में जकड़ी उसकी ही मां उसके सपनों पर ग्रहण लगाने को आमादा है । दरअसल ये पूरा उपन्यास एक ऐसी लड़की या यों कहें कि परिवार के इर्द गिर्द घूमता है जिसमें पिता की मौत के बाद दो बेटियां अपनी मां के साथ अकेली रह जाती है । रिश्तेदारों की नजर उनकी संपत्ति पर है । बड़ी लड़की संघमित्रा कॉलेज की अपनी पढ़ाई के साथ-साथ घर के लिए आवश्यक खर्च जुटाने के लिए दिन रात मेहनत करती है, लेकिन आर्थिक विपन्नता में जकड़े इस परिवार में मां अपने आप को धर्म को समर्पित कर देती है, साथ ही उसकी इच्छा दोनों बेटियां को भी धर्म पर कुर्बान कर देने की है । इस कथा के बहाने लेखिका जैन धर्म के अंदर चल रही अनैतिक कृत्यों को भी बेनकाब करती चलती है । इस उपन्यास की केंद्रीय पात्र संघमित्रा लगातार बार बार जैन धर्म पर सावल करती है, जिसका उत्तर उसे किसी भी साधु से नहीं मिल पाता है और उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है । संघमित्रा की मां अपनी छोटी बेटी- छुटकी को जैन धर्म में दीक्षित कराने के लिए कटिबद्ध है । छुटकी की उम्र इतनी कम होती है कि उसे इन चीजों की समझ ही नहीं है और वो दीक्षा के मौके पर होने वाले समारोह को लेकर ही उत्साहित है । लेखिका ने श्रमपूर्वक दीक्षा के वक्त ‘केश-लुंचन’ का बेहद ही मार्मिक चित्रण किया है ।

धर्म के नाम पर एक मासूम बच्ची की भावनाओं के साथ खिलवाड़ और अत्याचार को श्रद्धा समारोह में तब्दील कर सामूहिक हर्ष का अवसर बना दिया जाता है वो शर्मनाक है । दीक्षा समारोह के बाद लेखिका ने कथा के माध्यम से संघ के अंदर के मुनियों की कुंठित यौनाकांक्षा का वर्णन किया है । संघ में जो बच्चियां दीक्षित होती हैं, कलांतर में वो जब जवान होती हैं तो उनके अंदर भी सांसारिक सुख सुविधाओं को भोगने की आंकांक्षा हिलोरें लेने लगती है । धर्म और मर्यादा के बंधन में जकड़े जवान साधु- साध्वियों के दिलों में एक दूसरे के प्रति दैहिक आकर्षण उभरती है उसका एक नमूना विजयेन्द्र मुनि और छुटकी, जो दीक्षा के बाद साध्वी दिव्यप्रभा हो चुकी है, के बीच पनपे प्रेम से लगाया जा सकता है । दिव्यप्रभा और विजयेन्द्र संघ को छोड़कर नई जिंदगी शुरू करना चाहते हैं लेकिन विजयेन्द्र एक गलती कर बैठते हैं और अपने दिल की बात अपने ही एक साथी साधु अभयमुनि को बता देते हैं । अभयमुनि खुद ही काम की अग्नि में जल रहा होता है और उसे जब इस प्रेम-प्रसंग के बारे में जानकारी मिलती है तो उसकी यौन लिप्सा इस कदर बेकाबू हो जाती है कि वो छल से साध्वी दिव्यप्रभा का रेप कर डालता है . साध्वी के इंतजार में खड़े विजयेन्द्र मुनि को झूठी खबर दे कर विक्षिप्त भी कर देता है ।

इस बलात्कार की परिणति साध्वी के मां बनने में होती है और धर्म की पवित्रता की आड़ लेकर वही धर्मगुरू, साध्वी को संघ से निष्कासित कर देते हैं जहां कभी समारोहपूर्व उसे दीक्षित किया गया था । जिंदगी से हर तरह से ठुकराई साध्वी दिव्यप्रभा एक वेश्या बना दी जाती है जहां वो अपनी बेटी ऋषिकन्या का भरण पोषण करने लग जाती है । कहानी में एक बेहद नाटकीय मोड़ आता है और छुटकी से साध्वी बनी दिव्यप्रभा की मुलाकात उसकी बड़ी बहन संघमित्रा से होती है, जो एक बड़ी एनजीओ चला रही होती है । छुटकी अपनी बेटी को बहन को सौप कर दम तोड़ देती है । लेकिन मरने के पहले वो पूरी आपबीती जीजी को सुना जाती है । इंतकाम की आग में जल रही संघमित्रा बेहद ही योजनाबद्ध तरीके से अभयमुनि का कत्ल कर अपनी बहन के साथ हुए अन्याय का बदला लेती है।

समीक्ष्य पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे केरल की सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा- एन ऑटोबॉयोग्राफी ऑफ अ नन – के कई प्रसंगों की याद आ जाती है – कि किस तरह से ‘होली किस’ के नाम पर फादर ननों का चुंबन लेते हैं और अपने इस कृत्य के लिए धर्म और धर्मग्रंथ की आड़ लेते हैं । ऐसा नहीं है कि ये कुरीतियां सिर्फ जैन और ईसाई धर्म में ही है । हिंदू धर्म में तो देवदासी प्रथा से लेकर शादी के बाद पंडितों के द्वारा लड़कियों के शुद्धिकरण की प्रथा रही है । दरअसल धर्म के नाम पर स्त्रियों के शोषण की ये दास्तां बेहद पुरानी हे लेकिन जिस साहस के साथ मधु कांकरिया ने अपने उपन्यास सेज पर संस्कृत में उसे उजागर किया है उसके लिए उन्हें दाद देनी पड़ेगी ।

2 comments:

prasun latant said...

Wah bahut achcha likha badhaye

Anonymous said...

Jiwan ki hakikat likhi hai unone Jain dharam dikhawe main jayada hai. Bal diksha pe Ek soch honi hi chahiye