एक रचनाकार के तौर पर मृदुला गर्ग आज हिंदी साहित्य में किसी परिचय की मोहताज नहीं है । मृदुला गर्ग लगभग चार दशक से लेखन में सक्रिय हैं । कहानी और उपन्यास के अलावा पत्र-पत्रिकाओं भी उन्होंने विपुल लेखन किया है । लेकिन तेरह साल बाद मृदुला गर्ग का नया उपन्यास मिलजुल मन, सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से छपकर आ रहा है । मृदुला गर्ग के दो उपन्यास- चितकोबरा और कठगुलाब की साहित्यिक जगत में खासी चर्चा हुई थी और लेखिका को प्रसिद्धि भी मिली थी । चितकोबरा में जो संवेदनशील स्त्री अपने नीरस जीवन से उबकर सेक्स के प्रति असामान्य आकर्षण दिखाती है वो कठगुलाब तक पहुंचकर संवेदना के स्तर पर अधिक प्रौढ़ नजर आती है । और इस उपन्यास मिलजुल मन में वो और मैच्योरिटी के साथ सामने आती है ।
इस उपन्यास मिल जुल मन की नायिका गुलमोहर उर्फ और उसकी सहेली मोगरा है । अपने इस उपन्यास में लेखिका ने आजादी के बाद के दशक में लोगों के मोहभंग के दौर को बेहद शिद्दत के साथ उठाया है । आजादी मिलने पर लोगों के मन में एक सपना था , एक सुनहरे भविष्य की कल्पना थी, बेहतर जीवन प्राप्ति की ललक थी । देश का हर नागरिक खुशहाली की चाह लिए था । युवक-युवतियों के मन में सफल होने की चाहत हिलोरें ले रही थी । एक खुशनुमा जिंदगी और समाज की उन्नति का सपना देख रहे लोगों ने आजादी की लड़ाई में संघर्ष किया था और जब आजादी मिली तो पूरे देश ने एक सपना देखा था । इस सपने के टूटने और विश्वास के दरकने की कहानी है मृदुला गर्ग का नया उपन्यास - मिलजुल मन । इस उपन्यास की भूमिका में लेखिका कहती हैं - दुविधा के अलावा और कई मायनों में अजब था वह वक्त । सदी भर पहले देखा , आजादी का सपना पूरा हुआ था । पर आजादी का जो सुंदर, सजीला, अहिंसक चेहरा हमने ख्यालों में तैयार किया था, मुल्क के तक्सीम होने के साथ, सपने की तरह तड़क कर बिखर गए । सपने के टूटने पर हमने असलियत में जीना कबूल नहीं किया, नया सपना पाल लिया । दुविधा में आ मिला मासूमियत भरा यकीन कि हम गुटनिरपेक्ष और मिली जुली अर्थव्यवस्था का ऐसा संसार बसाएंगे कि दुनिया हमारा लोहा मानेगी और हम विश्वगुरु कहलाएंगें । तो ये जो आजादी के बाद का मासूमियत और दुविधा के घालमेल से बना सपना था, जो आजादी के बाद कुछ वर्षों तक जनता ने देखा था, टूटकर बिखरने लगा । और सपने के इस टूटने और बिखरने को ही लेखिका ने इस उपन्यास का विषय बनाया । लगभग चार सौ पृष्ठों के इस वृहदाकार उपन्यास में गुल और मोगरा के बहाने मृदुला गर्ग ने आजादी के बाद के दशकों में लोगों की जिंदगी और समाज में आनेवाले बदलाव की पड़ताल करने की कोशिश करती है । मोगरा के पिता बैजनाथ जैन के अलावा डॉ कर्ण सिंह, मामा जी, बाबा, दादी और कनकलता के चरित्र चित्रण के बीच गल बड़ी होती है और इस परिवेश का उसेक मन पर जो मनोवैज्ञानिक असर होता है उसका भी लेखिका ने कथानक में इस्तेमाल किया है ।
अपने इस नए उपन्यास में मृदुला गर्ग अपने पात्रों के माध्यम से हिंदी के लेखकों पर बेहद ही कठोर टिप्पणी करती है - तभी हिंदी के लेखक शराब पीकर फूहड़ मजाक से आगे नहीं बढ़ पाते । मैं सोचा करती थी, लिक्खाड़ हैं,सोचविचार करनेवाले दानिशमंद । पश्चिम के अदीबों की मानिंद, पी कर गहरी बातें क्यों नहीं करते, अदब की, मिसाइल की, इंसानी सरोकार की । अब समझी वहां दावतों में अपनी शराब खुद खरीदने का रिवाज क्यों है । न मुफ्त की पियो और न सहने की ताकत से आगे जाकर उड़ाओ । अपने यहां मुफ्त की पीते हैं और तब तक चढ़ाते हैं जबतक अंदर बैठा फूहर मर्द बाहर ना निकल आए । ये लेखिका का प्रिय विषय भी रहा है । हिंदी लेखकों को बेनकाब करता इनका एक उपन्यास 1984 में प्रकाशित हो चुका है । मैं और मैं भी एक धूर्त लेखक द्वारा एक नई लेखिका के शोषण को विषय बनाकर महानगरीय परिवेश में लेखक समाज की विकृतियों को उद्घघाटित किया था ।
इसके अलावा इस उपन्यास में गुल के व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं - एक लड़की, एक प्रेमिका, एक पत्नी, एक कथाकार को विस्तार से विश्लेषित किया है । हर पहलू का मनोविज्ञान उसके मन में चलनेवाले विचार और उसका उसके व्यक्तित्व पर असर सबकुछ लिखा गया है । इस उपन्यास की भाषा में रवानगी तो है लेकिन खालिस उर्दू के शब्दों का ज्यादा प्रयोग भाषा के प्रवाह को गाहे बगाहे बाधित करता है । इसके अलावा इस उपन्यास की एक बड़ी कमजोरी इसका आकार और घटनाओं का अनावश्यक विस्तार है, जिसे कुशल संपादन के जरिए कसा जा सकता था । इससे ना केवल पाठकों को बांधा जा सकता था बल्कि कथा भी सधती । इस उपन्यास को लेखिका ने जिस बड़े फलक पर उठाया है उसको संभालने में काफी मशक्कत भी की है, श्रमपूर्वक घटनाओं को समेटा है, लेकिन हर घटना को बढ़ाते रहने का लोभ मृदुला गर्ग संवरित नहीं कर पाई है । नतीजा ये हुआ है कि उपन्यास विस्तृत होता चला गया और कहानी में बार- बार ये एहसास होने लगा कि जबरदस्ती विस्तार दिया जा रहा है । घटनाओं के अलावा संवाद भी काफी लंबे-लंबे हैं जिसमें पाठकों के उलझने का खतरा है ।
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