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Friday, July 3, 2009

लेखिकाओं का प्यारा खलनायक

नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की बात है, संभवत: उन्नीस सौ बानवे की गर्मियों की । मैं अपने शहर जमालपुर से दिल्ली शिफ्ट होने आया था, आगे की पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में । दिल्ली में ही कार्यरत अपने चाचा भारत भारद्वाज के आरामबाग के सरकारी फ्लैट में रुककर दिल्ली विश्विद्यालय के आसपास रहने की जगह तलाश कर रहा था । भारत जी के फ्लैट में माहौल पूरा साहित्यिक था । रेलवे स्टेशन के पास होने की वजह से उनके घर साहित्यकारों का जमावड़ा लगा करता था । वो राजेन्द्र यादव के संपादन में निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका हंस में समकालीन सृजन संदर्भ के नाम से एक स्तंभ भी लिखा करते थे । मेरे अंदर भी साहित्य का कीड़ा कुलबुला रहा था । रोजाना रात में साहित्य पर लंबी लंबी बहसें हुआ करती थी । एक दिन मैंने भारत जी से कहा कि क्या ये संभव है कि मैं राजेन्द्र जी से मिल सकूं । मेरी इच्छा को देखते हुए उन्होंने हां कर दी और अगले दिन दो बजे के करीब हमलोग सरकारी एंबेसडर कार से अंसारी रोड पर हंस के दफ्तर पहुंचे । बंद गली के आखिरी मकान में हंस का दफ्तर था । पहले कमरे से गुजरकर हम राजेन्द्र जी के कमरे तक पहुंचे । जिनकी कहानियां और उपन्यास पढ़कर बड़ा हुआ था वो सामने बैठे थे । पूरे कमरे में सिगरेट का धुंआ तैर रहा था और काला चश्मा लगाए राजेन्द्र यादव अपनी कुर्सी पर विराजमान थे । अब ठीक से याद नहीं है कि उस वक्त कमरे में और कौन कौन था । भारत जी ने राजेन्द्र यादव से परिचय करवाया । इस बात को अठारह साल बीत चुके हैं और इन अठारह वर्षों में यादव जी से हजारों बार फोन पर बातें हुई लेकिन उस दिन की मुलाकात मुझे अब भी याद है और एक दिलचस्प वाकया भी । हमलोग राजेन्द्र जी के दफ्तर में बैठे चाय पी रहे थे, फिर भारत जी और राजेन्द्र यादव के बीच तय हुआ कि श्रीराम सेंटर चला जाए । हमलोग कमरे से बाहर निकले और जब दरवाजे तक पहुंचे ही थे कि एक बेहद खूबसूरत और आकर्षक महिला ने दप्तर में प्रवेश किया । वो बेहद आत्मीयता के साथ राजेन्द्र यादव जी से मिली । राजेन्द्र यादव जी स्नेहवश उस महिला लेखिका की पीठ पर हाथ रख दिया - छूटते ही लेखिका ने यादव जी से कहा कि अगर आप इस तरह से मेरे पीठ पर हाथ रखेंगे तो संभव है कि मैं उत्तेजित हो जाऊं, मैं जवान हूं और अगर उत्तेजित हो गई तो आपकी खैर नहीं । खूबसूरत लेखिका की इस बात पर राजेन्द्र जी एक जोरदार ठहाका लगाया और फिर आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया । कस्बाई शहर की मानसिकता लिए महानगर पहुंचा मैं इस संवाद को सुनकर हतप्रभ था, लेकिन ये सबकुछ इतनी सहजता से बीता, लगा कुछ हुआ ही नहीं हो ।
बाद के दिनों में कई बार राजेन्द्र जी के दफ्तर गया, कई बार उन्हें महिला लेखिकाओं को गले लगाकर आशीर्वाद देते देखा, लेकिन उस दिन का वाकया भुलाए नहीं भूलता । कई बार राजेन्द्र जी से फोन पर लंबी लंबी बातें हुई है, महिलाओं भी बातचीत का विषय बनीं । जब भी स्त्री विमर्श पर बात होती मैं उन्हें छेड़ते हुए कहता कि विमर्श की डोर तो आपके हाथ से छूट गई है, बच गई है सिर्फ स्त्री । जब भी मैं ये बात उनके मुंह से गाली की गंगोत्री प्रवाहित होने लगती । हिंदी जगत में राजेन्द्र जी का महिला प्रेम जगजाहिर है, उनकी महिला मित्र मंडली भी । उस मंडली को एक बार ममता कालिया ने घाघरा पलटन नाम दिया था ।
राजेन्द्र यादव की मंडली की ही युवा पत्रकार गीताश्री ने यादव को केंद्र में रखकर एक किताब संपादित की है- तेइस लेखिकाएं और राजेन्द्र यादव( किताबघर प्रकाशन, दिल्ली ) । इस किताब के बनने की बेहद दिलचस्प कहानी गीताश्री ने अपनी भूमिका में बताई है- जयंती की छत के दीवान-ए-खास में उस शाम राजेन्द्र यादव के अलावा डॉ मनीषा तनेजा, अमृता ठाकुर, सीमा झा-श्रीनंद झा, गीताश्री, कमलेश जैन के अलावा शिवकुमार शिव भी मौजूद थे । बातचीत के क्रम में ये बात निकली कि राजेन्द्र यादव पर गीताश्री एक किताब संपादित करें, एक ऐसी किताब जिसमें सिर्फ स्त्रियां यादव के बारे में लिखे । प्रस्ताव राजेन्द्र यादव के सम्मुख उनकी स्वीकृति हेतु पेश किया गया । उस प्रस्ताव पर राजेन्द्र यादव ने ना तो हां की और ना ही मना किया । लगभग दो ढाई वर्षों बाद अचानक एक दिन अचानक गीताश्री को फोन करके राजेन्द्र यादव ने किताब छापने की अनुमति दे दी । शायद इन दो वर्षों में वो गीताश्री को परख रहे थे ।
उसके ठीक विपरीत अगर हम राजेन्द्र यादव के छिहत्तरवें जन्मदिन पर साधना अग्रवाल और भारत भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित पुस्तक- हमारे युग का खलनायक- की भूमिका देखें तो वहां अपने उपर पुस्तक संपादित करने की योजना को यादव जी ने चंद क्षणों में अनुमति दे दी थी । ये हैं राजेन्द्र यादव के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स ।
तेइस लेखिकाएं और राजेन्द्र यादव नामक इस पुस्तक में तीन खंड हैं, जिनमें अलग अलग लेखिकाओं के समय समय पर लिखे लेख और साक्षात्कार हैं । जयंती रंगनाथन के साक्षात्कार के अलावा सारे विचार और साक्षात्कार पूर्व प्रकाशित हैं । लेकिन इस संग्रह की खासियत यह है कि स्त्री विमर्श के इस झंडाबरदार के बारे में तमाम स्त्री लेखिकाओं के विचार एक जगह उपलब्ध हैं । इन तमाम लेखों और साक्षात्कारों में जो एक सामान्य बात प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उभरकर सामने आती है वो ये है कि राजेन्द्र यादव से चाहे आप जितनी भी मतभिन्नता रखें, उनसे चाहे आपके विचार कतई नहीं मिलते हों , लेकिन फिर भी आप उनसे प्यार करते हैं । राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में जो खिलंदड़ापन, जिंदादिली और हर उम्र के लोगों से खुलकर बात करने का जो हुनर उनके पास है वो इस किताब में शिद्दत से रेखांकित होता है ।
मेरे सामने राजेन्द्र यादव पर संपादित दोनों किताबें - हमारे युग का खलनायक राजेन्द्र यादव( संपादक- भारत भारद्वाज/साधना अग्रवाल) और तेइस लेखिकाएं और राजेन्द्र य़ादव रखी हैं । दोनों पुस्तकों के कवर पर एक ही तस्वीर है लेकिन मुद्राएं अलग हैं। खलनायक वाली किताब में मुंह में पाइप डालकर, चेहरे पर गंभीरता का आवरण हिंदी साहित्य के डॉन की छवि को पुख्ता करता है। वहीं गीताश्री वाली किताब के कवर पर पाइप मुंह से बाहर और चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान है जो तेइस लेखिकाओं से घिरे होने पर स्वत: आ जाती है । लेकिन किताबघर से प्रकाशित इस किताब (पेपरबैक) का प्रोडक्शन स्तरहीन है । हर पृष्ठ पर राजेन्द्र यादव की अलग अलग तस्वीर लगी है, लेकिन कागज की खराब क्वालिटी की वजह से फोटो भी बदतर हो गए हैं, जो किताबघर की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं हैं । यहीं पर आप हिंदी और अंग्रेजी में छपनेवाली किताबों की क्वालिटी का फर्क महसूस कर सकते हैं । अंग्रेजी के प्रकाशक प्रोडक्शन क्वालिटी से कभी समझौता नहीं करते, काश हिंदी में भी ऐसा हो पाता ।

7 comments:

ओम आर्य said...

bahut hi sahi kaha hai ..............aamin

geetashree said...

अनंत जी,लगता है किताबघर वालों ने आपको पेपरबैक क्यों भेजा,पता नहीं.जो पेपरबैक में नहीं है, आप उसे देखते तो कहते, अब तक एसी छपाई देखी नहीं.शानदार है..
दूसरी बात...मैं उनकी मंडली में शामिल कभी नहीं रही, खासकर ममता कालिया जिसे घाघरा पल्टन कहती हैं.उस मंडली के सदस्यो को आप बेहतर जानते हैं.पता नहीं मेरे बारे में आपको कैसे भ्रम हो गया। मैं तो हाल में उन्हें जानने लगी हूं..मंडली तो पुराने दिनों की बात है। आपने यह सच लिखा है कि स्वीक़ृति देने में दो साल से ज्यादा वक्त लेकर यादव जी मुझे जांच रहे थे। जांचना भी चाहिए था..उन पर किताब संपादित करना मेरे लिए गर्व की बात हो सकती है, उनके लिए तब या अब नहीं। उनकी मंडली की महिलाएं ताक में थीं..मैंने कोई कोशिश नहीं की, बस एक ख्वाहिश-सी पलती रही भीतर और गुस्सा भी आता रहा कि शायद मैं मंडली की सदस्य नहीं हूं, इसलिए...। इन दो सालों में वे अपने साथ मेरी करीबी नही, मेरे पत्रकारीय कौशल को जांच रहे थे..

अनंत विजय said...

गीता जी , शुक्रिया आपने मेरे लेख को प्रतिक्रिया देने लायक समझा । आभारी हूं । आपके उलाहनों का जबाव देने की मेरी मजाल नहीं है । सादर

VIKAS MISHRA said...

तेइस लेखिकाएं और एक राजेंद्र यादव..। दिलचस्प होगा इस किताब को पढ़ना..। अब तो जाना ही पड़ेगा किताबघर.।

Anonymous said...

अनंतजी धन्यवाद ...
तेइस लेखिकाएं और राजेन्द्र यादव में लेखिकाओं के लेख और साक्षात्कार पढ़ने की बेताबी बढ़ गई है। राजेन्द्र यादव के बारे में और जानने की इच्छा हमेशा रहती है। काफी कुछ मिलेगा पुस्तक में। गीताश्रीजी को बधाई।
सईद अंसारी

शरद कोकास said...

अनंत जी आज घूमते -घामते आपके ब्लॉग पर आया हूँ ,अच्छा लगा कि साहित्यिक अभिरुचियों के लोगों के लिये भी ब्लॉग है . राजेन्द्र जी के किस्से तो हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं धन्य हैं वे कि 76 साल की उम्र में भी उनके स्त्री-प्रेम की चर्चा होती है .मुझे यकीन है इस तरह राजेन्द्र यादव न कोई दूसरा हुआ है न कोई होगा . लेकिन अब हमे उन्हे उनके लेखन के लिये भी याद करना चाहिये वरना अगली पीढी तक भी यही सन्देश जायेगा . ठीक कह रहा हूँ ना मैं? आपका- शरद कोकास ( पुरातत्ववेत्ता.पहल मे प्रकाशित लम्बी कविता का कवि)

अनंत विजय said...

शरद जी, आपका शुक्रिया । आपकी राय से सहमत हूं । राजेन्द्र जी के लेखन पर भी जमकर चर्चा करता हूं, जब भी मौका मिलता है ।