देशभर में इस वक्त आईपीएल और उसमें लगे हजारों करोड़ पर बात हो रही है । इस बात पर बहस जारी खेल में इतना पैसा कहां से आ रहा है । संसद में भी इस बात पर ही हंगामा हो रहा है कि इंडियन प्रीमियर लीग में हो रहे तथाकथित भ्रष्टाचार और काले धन के निवेश से कैसे निबटा जाए । तमाम दलों के नेता बीजेपी से लेकर वामपंथी तक, आरजेडी से लेकर समाजवादी पार्टी तक इतना शोर मचा रहे हैं गोया ये देश पर आया सबसे बड़ा संकट हो और अगर सरकार इस संकट से जल्द नहीं निपटती है तो देश का बेड़ा गर्क हो जाएगा । कांग्रेस पार्टी भी अपने सबसे काबिल और अनुभवी मंत्री प्रणब मुखर्जी को इस मोर्चे पर तैनात कर चुकी है । सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री समेत कांग्रेस के तमाम दिग्गज रविवार को इस मसले पर दो घंटे तक माथापच्ची कर चुके हैं । लेकिन फटाफटा क्रिकेट पर मचे इस कोलाहल के बीच एक ऐसी अहम खबर आई जो इस शोरगुल में दबकर रह गई । रविवार को खबर आई कि भारत में गरीबों की संख्या में दो हजार चार की तुलना में तकरीबन दस करोड़ का इजाफा हुआ है । दो हजार चार में भारत में भारत में गरीबी की दर कुल जनसंख्या की साढे सत्ताइस फीसदी थी जो अब बढ़कर सैंतीस फीसदी से ज्यादा हो गई है । गरीबी दर में छह साल में लगभग दस फीसदी का इजाफा इस देश के लिए बड़ी चिंता की बात है । लेकिन इस खबर पर ना तो कहीं चर्चा हुई और ना ही मीडिया में इसे तवज्जो मिली । सोमवार को संसद में पूरी ताकत से विरोध दर्ज करनेवाले विरोधी दल के सांसदों को देश में बढ़ रही गरीबी और गरीबों की चिंता कहां हैं । गरीबों और पिछड़ों की राजनीति करनेवाले लालू मुलायम शरद यादव को भी आईपीएल में जारी कथित भ्रष्टाचार देश के सामने बड़ी समस्या नजर आ रही है । गरीबी के इस बढ़ते दानव पर लगाम लगाने में इन नेताओं की रुचि हो ऐसा दिखता नहीं है ।
संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग चालीस करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन बसर करते हैं जो कि पिछले साल के अनुमान से लगभग दस करोड़ ज्यादा है । इस अनुमान की गणना का आधार किसी भी वयक्ति की दैनिक आय है । संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में तकरीबन चालीस करोड़ लोगों की दैनिक आय साठ रुपये या इससे कम है । अगर इस अनुमान को सही मानें तो पूरे विश्व में गरीबों की कुल संख्या का एक तिहाई हिस्सा भारत में बसती है जिसकी प्रतिदिन आय सौ रुपये या इससे कम है । मनमोहन सिंह की सरकार निकट भविष्य फूड सेक्युरिटी बिल लाने जा रही है । सोनिया गांधी की सलाह पर इस बिल में कुछ तब्दीलियां की जा रही है । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि यूपीए सरकार की प्राथमिकता ये बिल कुछ नीचे है । ना तो संसद के अंदर और ना ही संसद के बाहर इस पर बहस हो रही है, जो हमारे लिए चिंता का सबब है । हलांकि सोनिया गांधी के अनुरोध या निर्देश के बाद सरकार हरकत में आई है और इस बिल में गरीबों, महिलाओं के दायरे को विस्तृत करने की कवायद चल रही है । लेकिन सवाल यह उठता है कि जब हम विश्व महाशक्ति होने का सपना देख रहे हों, तकनीक और अंतरिक्ष में लंबी उड़ान के लिए तैयार कर रहे हों ऐसे में देश में गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी हमारे महाशक्ति बनने के सपने पर ग्रहण लगा सकती है । जरूरत इस बात की भी है कि उद्योग और उद्योगपतियों के लिए रियायतों का पिटारा खोल देने में सरकार जिस उदारता का परिचय देती है वो सहृदयता या उदारता गरीबी से निपटने में दिखाई नहीं देती । किसी जमाने में गरीबी हटाओ का नारा देकर इंदिरा गांधी ने सत्ता हासिल की थी । दशकों बाद आम आदमी के साथ होने का दावा कर कांग्रेस फिर से सत्ता में आई । अब वक्त आ गया है कि सरकार अगर समय रहते चेत जाए नहीं तो गरीबी एक ऐसी विकराल समस्या बनकर देश के सामने खड़ी हो जाएगी जिसका बहुत ही दूरगामी असर होगा ।
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Wednesday, April 21, 2010
Monday, April 12, 2010
जज, जस्टिस और भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया झेल रहे कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी डी दिनाकरन ने सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को आईना दिखा दिया है । उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जजों की कमिटी की लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह ठुकरा दी । सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे और अपने पद के दुरुपयोग के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया झेल रहे जस्टिस दिनाकरन लंबे समय से न्यायिक कामकाज नहीं देख रहे थे वो सिर्फ कर्नाटक हाई कोर्ट का प्रशासनिक कामकाज संभाल रहे थे । महाभियोग का आरोप झेल रहे जस्टिस के प्रशासनिक कामकाज संभालने पर उनके ही एक साथी जज ने अपनी नाराजगी का खुले आम इंतजार किया था । इस असमंजस की हालत में न्यायमूर्ति दिनाकरन को उनके पद से हटाने की कवायद काफी देर से शुरू की गई । काफी समय बाद शुरू की गई इस कोशिश के तहत सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने जस्टिस दिनाकरन को लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह दी थी और उनकी जगह दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस मदन लोकुर को वहां का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। लेकिन कॉलेजियम की इस सलाह को जस्टिस दिनाकरन के ठुकराने के बाद उनका तबादला सिक्किम हाई कोर्ट कर दिया गया है ।
अगर हम कानूनी बारिकियों को देखें तो किसी भी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या न्यायमूर्ति लंबी छुट्टी पर जाने के कॉलेजियम की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है । लेकिन न्यायिक परंपरा के मुताबिक उच्च न्यायालय के जस्टिस कॉलेजियम की सलाह को आमतौर पर ठुकराते नहीं हैं । लेकिन दिनाकरन के इस कदम के बाद एक बार फिर से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की प्रक्रिया की खामियां और उसकी सीमाएं दोनों उजागर हो गई हैं ।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली जजों वाली समिति की सलाह मानने से जस्टिस दिनाकरन के इंकार के बारे में पूछे जाने पर कहा था कोई जज भी कानून से उपर नहीं है । दरअसल यह पूरा मामला बेहद ही पेचीदा है । संविधान के अनुच्छेद दो सौ तेइस,जिसका हवाला कानून मंत्री दे रहे हैं, के मुताबिक – जब किसी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति के कारण वह अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब कोर्ट के अन्य जजों में से एक जज जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त कर, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा । लेकिन स्वतंत्र भारत न्यायिक इतिहास में ऐसा कोई मौका अबतक आया नहीं जबतक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रहते किसी और को उसी न्यायलय में कार्यकारी मुख्य न्यायधीश बनाया जाए । लेकिन ऐसी नौबत आई नहीं और दिनाकरन को सिक्किम भेज दिया गया ।
जस्टिस दिनाकरन के इस तबादले ने एक बार फिर से कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं । सवाल यह उठता है कि अगर कोई न्यायाधीश एक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारी निभाने के लायक नहीं हैं तो वो दूसरे हाईकोर्ट में उन्ही जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकते हैं । अगर जस्टिस दिनाकरन पर भ्रष्टाचार के इल्जाम हैं और वो कर्नाटक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर सकते हैं तो सिक्किम उच्च न्यायालय में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन बगैर किसी लाभ-लोभ के कैसे कर सकते हैं । ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब किसी के पास नहीं है । ना तो सरकार के पास और ना ही कॉलेजियम के पास ।
इसके पहले भी जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर आरोप लगे थे तो उन्हें कॉलेजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया था और जब मामला शांत हुआ तो उनका तबादला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट से उत्तरांचल हाईकोर्ट कर दिया गया । इसी तरह जब जनवरी दो हजार सात में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस पी बी मजुमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बी जे सेठना पर बदतमीजी का आरोप लगाया था तो जस्टिस बी जे सेठना का तबादला सिक्किम और पी बी मजुमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था । हलांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इंकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था ।
ये कुछ ऐसे उदाहरण है जो भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के मामलों को निबटने की कमियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं । हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायधीश देश की न्यायिक व्यवस्था का प्रशासनिक मुखिया होता है । वो जजों का तबादला तो कर सकता है लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ और सिर्फ महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है । लेकिन संविधान के मुताबिक महाभियोग की प्रक्रिया बेहद जटिल है और उसका अंजाम तक पहुंचना अत्यंत मुश्किल है । जस्टिस रमास्वामी के मामले में पूरा देश इस जटिल प्रक्रिया को देख चुका है । जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ भी महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राज्यसभा के सभापति की मंजूरी के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज वी एस सिरपुकर की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की कमेटी इस बारे में तथ्यों की पड़ताल करेगी । न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है । इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली थी लेकिन कांग्रेस के सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद ये प्रस्ताव गिर गया था ।
दूसरी ओर हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के क्रियाकलापों पर भी सवाल खड़े हुए हैं । दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति ना दिए जाने के कॉलेजियम के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगा था । जस्टिस शाह की छवि बेदाग थी और ये माना जा रहा था कि उनको सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाएगा । लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें आई कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णनन की अध्यक्षता वाली कॉलेजियम के एक सदस्य जस्टिस शाह के प्रोन्नति के खिलाफ थे, इस वजह से उनका सुप्रीम कोर्ट का जज बनना संभव नहीं हो सका ।
मेरा मानना है कि देश की सवा सौ करोड़ जनता का देश की न्यायिक प्रक्रिया और न्यायाधीशों पर अटूट विश्वास है । जब किसी एक न्यायधीश के आचरण की वजह से अदालत और अदालत की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो सवा सौ करोड़ लोगों के विश्वास को भी ठेस पहुंचाती है । हमारा मानना है कि जनता के इस विश्वास की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए । इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकती है जब हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसका एक तय स्वरूप हो । इसके लिए सरकार को पर्याप्त इच्छाशक्ति दिखानी होगी । सालों से ज्यूडिशियल स्टैंर्ड और अकाउंटिबिलिटी बिल पर बहस चल रही है लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है । अब वक्त आ गया है कि इस बिल में अपेक्षित बदलाव करके संसद में पेश किया जाए और जल्लद से जल्द कानून बनाकर न्यायपालिका की साख को बचाया जाए ।
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अगर हम कानूनी बारिकियों को देखें तो किसी भी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या न्यायमूर्ति लंबी छुट्टी पर जाने के कॉलेजियम की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है । लेकिन न्यायिक परंपरा के मुताबिक उच्च न्यायालय के जस्टिस कॉलेजियम की सलाह को आमतौर पर ठुकराते नहीं हैं । लेकिन दिनाकरन के इस कदम के बाद एक बार फिर से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की प्रक्रिया की खामियां और उसकी सीमाएं दोनों उजागर हो गई हैं ।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली जजों वाली समिति की सलाह मानने से जस्टिस दिनाकरन के इंकार के बारे में पूछे जाने पर कहा था कोई जज भी कानून से उपर नहीं है । दरअसल यह पूरा मामला बेहद ही पेचीदा है । संविधान के अनुच्छेद दो सौ तेइस,जिसका हवाला कानून मंत्री दे रहे हैं, के मुताबिक – जब किसी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति के कारण वह अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब कोर्ट के अन्य जजों में से एक जज जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त कर, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा । लेकिन स्वतंत्र भारत न्यायिक इतिहास में ऐसा कोई मौका अबतक आया नहीं जबतक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रहते किसी और को उसी न्यायलय में कार्यकारी मुख्य न्यायधीश बनाया जाए । लेकिन ऐसी नौबत आई नहीं और दिनाकरन को सिक्किम भेज दिया गया ।
जस्टिस दिनाकरन के इस तबादले ने एक बार फिर से कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं । सवाल यह उठता है कि अगर कोई न्यायाधीश एक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारी निभाने के लायक नहीं हैं तो वो दूसरे हाईकोर्ट में उन्ही जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकते हैं । अगर जस्टिस दिनाकरन पर भ्रष्टाचार के इल्जाम हैं और वो कर्नाटक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर सकते हैं तो सिक्किम उच्च न्यायालय में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन बगैर किसी लाभ-लोभ के कैसे कर सकते हैं । ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब किसी के पास नहीं है । ना तो सरकार के पास और ना ही कॉलेजियम के पास ।
इसके पहले भी जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर आरोप लगे थे तो उन्हें कॉलेजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया था और जब मामला शांत हुआ तो उनका तबादला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट से उत्तरांचल हाईकोर्ट कर दिया गया । इसी तरह जब जनवरी दो हजार सात में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस पी बी मजुमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बी जे सेठना पर बदतमीजी का आरोप लगाया था तो जस्टिस बी जे सेठना का तबादला सिक्किम और पी बी मजुमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था । हलांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इंकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था ।
ये कुछ ऐसे उदाहरण है जो भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के मामलों को निबटने की कमियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं । हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायधीश देश की न्यायिक व्यवस्था का प्रशासनिक मुखिया होता है । वो जजों का तबादला तो कर सकता है लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ और सिर्फ महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है । लेकिन संविधान के मुताबिक महाभियोग की प्रक्रिया बेहद जटिल है और उसका अंजाम तक पहुंचना अत्यंत मुश्किल है । जस्टिस रमास्वामी के मामले में पूरा देश इस जटिल प्रक्रिया को देख चुका है । जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ भी महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राज्यसभा के सभापति की मंजूरी के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज वी एस सिरपुकर की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की कमेटी इस बारे में तथ्यों की पड़ताल करेगी । न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है । इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली थी लेकिन कांग्रेस के सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद ये प्रस्ताव गिर गया था ।
दूसरी ओर हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के क्रियाकलापों पर भी सवाल खड़े हुए हैं । दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति ना दिए जाने के कॉलेजियम के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगा था । जस्टिस शाह की छवि बेदाग थी और ये माना जा रहा था कि उनको सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाएगा । लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें आई कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णनन की अध्यक्षता वाली कॉलेजियम के एक सदस्य जस्टिस शाह के प्रोन्नति के खिलाफ थे, इस वजह से उनका सुप्रीम कोर्ट का जज बनना संभव नहीं हो सका ।
मेरा मानना है कि देश की सवा सौ करोड़ जनता का देश की न्यायिक प्रक्रिया और न्यायाधीशों पर अटूट विश्वास है । जब किसी एक न्यायधीश के आचरण की वजह से अदालत और अदालत की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो सवा सौ करोड़ लोगों के विश्वास को भी ठेस पहुंचाती है । हमारा मानना है कि जनता के इस विश्वास की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए । इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकती है जब हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसका एक तय स्वरूप हो । इसके लिए सरकार को पर्याप्त इच्छाशक्ति दिखानी होगी । सालों से ज्यूडिशियल स्टैंर्ड और अकाउंटिबिलिटी बिल पर बहस चल रही है लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है । अब वक्त आ गया है कि इस बिल में अपेक्षित बदलाव करके संसद में पेश किया जाए और जल्लद से जल्द कानून बनाकर न्यायपालिका की साख को बचाया जाए ।
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Monday, April 5, 2010
अनुवाद से जगती उम्मीदें
हिंदी में अनुवाद की हालत बेहद खराब है । जो अनुवाद हो भी रहे हैं वो बहुधा स्तरीय नहीं होते हैं । अनुवाद इस तरह से किए जाते हैं कि मूल लेखन की आत्मा कराह उठती है । हिंदी के लेखकों में अनुवाद को लेकर बहुत उत्साह भी नहीं है । अमूनन अनुवाद में लेखक तभी जुटते हैं जब उनके पास या तो काम कम होता है या नहीं होता है । जैसे ही काम मिलता है अनुवाद को लेकर वो उदासीन हो जाते हैं । इसलिए हिंदी में अनुवाद एक विधा के रूप में विकसित नहीं पाई और अनुवादक को उचित सम्मान नहीं मिल पाया । नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनुवाद नहीं हो पाया और हिंदी के पाठक का परिचय विश्व की अन्यतम कृति से नहीं हो पाया ।
लेकिन अभी हाल के दिनों में हॉर्पर कालिन्स पब्लिकेशंस और पेंग्विन बुक्स ने भारतीय अंग्रेजी लेखकों के अलावा विश्व के अन्य भाषाओं की कृतियों का अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करना शुरू किया है । यह एक स्वागत योग्य कदम है । हॉर्पर कालिन्स से अभी अद्वैत काला के उपन्यास ऑलमोस्ट सिंगल का अनुवाद मनीषा तनेजा ने किया है । लगभग तीन सौ पन्नों का उपन्यास बेहतरीन अनुवाद का एक नमूना है । मनीषा तनेजा दिल्ली विश्वविद्यालय में स्पेनिश पढ़ाती हैं और इसके पहले भी गैबरील गारसिया मारक्वैज का उपन्यास एकाकीपन के सौ साल और पॉउलो नेरुदा के संस्मरण का हिंदी में अनुवाद किया है । अभी-अभी मैंने उनके द्वारा अनूदित अद्वैत काला के उपन्यास का हिंदी अनुवाद लगभग सिंगल पढ़ा । मैंने अद्वैत काला का अंग्रेजी में लिखा मूल उपन्यास भी पढ़ा था । मनीषा के अनुवाद में मूल की आत्मा की रक्षा की गई है जिससे उपन्यास के प्रवाह में बाधा नहीं आती । हिंदी अनुवाद में अंग्रेजी भाषा के शब्दों को लेकर कोई दुराग्रह दिखाई नहीं देता, बल्कि पात्रों के बीच बोलचाल में सहजता से जो अंग्रेजी के शब्द आते हैं उसे हिंदी अनुवाद में बदला नहीं गया है जिस वजह से अनुवाद बेहतर हो पाया है । दारू पीते हुए उपन्यास की बिंदास नायिका और उसकी दोस्त अंग्रेजी के शब्दों का प्रयास करती हैं और अनुवाद में उससे छेड़छाड़ नहीं की गई है ।
कुछ दिनों पहले मैंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दो हजार चार के नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका फ्रेडरिक येलनिक के उपन्यास क्लावीयरश्पीलेरिन का हिंदी अनुवाद पियानो टीचर पढ़ा । उक्त उपन्यास का हिंदी अनुवाद विदेशी भाषा साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका सार संसार के मुख्य संपादक और जर्मन भाषा के जानकार अमृत मेहता ने किया था । पहली नजर में हिंदी अनुवाद ठीक-ठाक लगा था । मैंने अपने इस स्तंभ में ही उस उपन्यास पर लिखा भी था । लेकिन बाद में जमशेदपुर से लेखिका विजय शर्मा ने मेरा ध्यान कुछ त्रुटियों की ओर दिलाया तो फिर मैंने उसका अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा । उसको पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि अमृत मेहता का अनुवाद बिल्कुल ही स्तरीय नहीं था । ट्रांसलिटरेशन के चक्कर में अमृत मेहता ने कुछ बेहद अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया जो गैरजरूरी था । साथ ही उपन्यास में वर्णित कुछ दृश्यों को भी उन्होंने बदल डाला । अमृत मेहता ने लिखा कि नायिका बाथ टब में अपने हाथ के नस काट लेती है जबकि मूल उपन्यास में येलनिक लिखा है कि नायिका बाथ टब में अपने यौनांग काट लेती है । अनुवाद में शब्दों के चयन की स्वतंत्रता तो अनुवादक ले सकता है लेकिन प्रसंग और घटनाओं को बदलने की छूट वो नहीं ले सकता है । इस तरह के लापरवाह अनुवाद का नतीजा यह होता है कि भविष्य के शोधार्थियों को गलत संदर्भ मिलते हैं और अर्थ का अनर्थ हो जाता है । इस मामले में मनीषा तनेजा ने सावधानी बरती है और उनके द्वारा अनूदिक उपन्यास लगभग सिंगल बेहतर बेहद पठनीय बन पडा है ।
दूसरा अहम उपन्यास हॉर्पर कालिन्स ने प्रकाशित किया वह है - बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखक अरविंद अडिगा का द वाइट टाइगर । प्रकाशक का दावा कि इस उपन्यास की सिर्फ भारत में दो लाख प्रतियां बिक चुकी हैं । किताब के बैक पर कवर पर इस सूचना के प्रकाशन से हिंदी प्रकाशन जगत सकते में पड़ सकता है । हिंदी में उपन्यासों का संसकरण पांच सौ या फिर अब तो तीन सौ का ही होता है । और मेरे जानते हाल के दिनों में हिंदी का कोई उपन्यास दस हजार भी नहीं बिका है । दो लाख प्रतियां बिकने की बात तो हिंदी में सोची भी नहीं जा सकती है । जबकि भारत में हिंदी के पाठकों की संख्या अंग्रेजी पाठकों से कई गुणा ज्यादा है । ये एक बेहद अहम सवाल है, जिसपर हिंदी समाज को विचार करने की जरूरत है ।
अब बात अरविंद अडीगा के उपन्यास द वाइट टाइगर की बात । अरविंद के इस उपन्यास का अनुवाद मनोहर नोतानी ने किया है । मनोहर पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन एक लंबे अरसे से अनवाद का काम कर रहे हैं, लेकिन किसी उपन्यास का अनुवाद करने का यह उनका पहला अनुभव है । वाइट टाइगर में मध्य भारत के गांव में जन्मे रिक्शा चालक के बेटे बलराम की कहानी है । लेकिन जब उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है तो वो चाय की दुकान पर सफाई और बरतन धोने का काम करता अपने भविष्य के सपने बुनता है । उसकी तकदीर तब बदलती है जब उसके गांव का एक अमीर जमींदार उसे अपना ड्राइवर बनाकर दिल्ली ले आता है । महानगर की चकाचौंध में बलराम की एक नए तरीके से शिक्षा होती है । इस उपन्यास का अनुवाद थोड़ा शास्त्रीय किस्म का है जो पाठ को बाधित करता है । इस उपन्यास के अनुवाद के क्रम में मनोहर नोतानी ने हिंदी के खांटी शब्दों के इस्तेमाल के साथ-साथ स्थानीय शब्द का भी इस्तेमाल किया है । एक बानगी- उस रात, एक बार फिर आंगन झाड़ने का बहाना करते हुए हम चमरघेंच और उसके बेटों के नजीक जा फटके, वे लोग एक बेंच पर बिराजे बतियाते रहे, हाथ में गिलास और गिलास में चमचम दारू । इस दो वाक्य में तीन शब्दे ऐसे हैं जो बिल्कुल स्थानीय भाषा के हैं - चमरघेंच, नजीक और चमचम दारू । इस तरह के कई शब्दो का इस्तेमाल अनुवादक ने किया है जिससे उनके मेहनत का पता चलता है ।
एक तीसरी किताब जो हाल में प्रकाशित हुई है वो है शिक्षाविद् और सांसद रह चुकी भारती राय की आत्मकथा- ये दिन, वे दिन । ल रूप से बांग्ला में लिखी गई इस आत्मकथा का हिंदी अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया । सुशील गुप्ता का नाम हिंदी के पाठकों के लिए जाना पहचाना है । उन्होंने बांग्ला की कई चर्चित लेखकिओं और लेखकों की कृतियों का अनुवाद हिंदी में किया है । भारती राय ने अपनी इस आत्मकथा में पांच पीढियों की कहानी लिखी है । ये कहानी शुरू होती है उनकी परनानी शैलबाला उर्फ सुंदर मां के साथ । कथा के दूसरे पड़ाव पर हैं लेखिका की नानी मां । तीसरे पड़ाव पर लेखिका की मां से पाठकों की मुलाकात होती है और चौथे पड़ाव पर हैं और पांचवें भाग में कई अहम सवाल हैं । इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ लेखिका और पत्रकार मृणाल पांडे ने लिखी है । इस किताब से एक लंबे काल खंड का इतिहास सामने आता है । का ने पारिवारिक स्थितियों के बहाने बंगाल और देश की राजनीतिक और साहित्यिक परिदृश्य का सुरुचिपूर्ण चित्र खींचा है । हिंदी में आत्मकथा के बहाने जो एक आत्म प्रचार का दौर चल पड़ा है यह किताब उससे पूरी तरह से अलग है । इस वजह से ही मुझे उम्मीद है कि यह किताब हिंदी के पाठकों को पसंद आएगी । अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुदित होकर आ रही ये कृतियां एक उम्मीद जगाती हैं ।
लेकिन अभी हाल के दिनों में हॉर्पर कालिन्स पब्लिकेशंस और पेंग्विन बुक्स ने भारतीय अंग्रेजी लेखकों के अलावा विश्व के अन्य भाषाओं की कृतियों का अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करना शुरू किया है । यह एक स्वागत योग्य कदम है । हॉर्पर कालिन्स से अभी अद्वैत काला के उपन्यास ऑलमोस्ट सिंगल का अनुवाद मनीषा तनेजा ने किया है । लगभग तीन सौ पन्नों का उपन्यास बेहतरीन अनुवाद का एक नमूना है । मनीषा तनेजा दिल्ली विश्वविद्यालय में स्पेनिश पढ़ाती हैं और इसके पहले भी गैबरील गारसिया मारक्वैज का उपन्यास एकाकीपन के सौ साल और पॉउलो नेरुदा के संस्मरण का हिंदी में अनुवाद किया है । अभी-अभी मैंने उनके द्वारा अनूदित अद्वैत काला के उपन्यास का हिंदी अनुवाद लगभग सिंगल पढ़ा । मैंने अद्वैत काला का अंग्रेजी में लिखा मूल उपन्यास भी पढ़ा था । मनीषा के अनुवाद में मूल की आत्मा की रक्षा की गई है जिससे उपन्यास के प्रवाह में बाधा नहीं आती । हिंदी अनुवाद में अंग्रेजी भाषा के शब्दों को लेकर कोई दुराग्रह दिखाई नहीं देता, बल्कि पात्रों के बीच बोलचाल में सहजता से जो अंग्रेजी के शब्द आते हैं उसे हिंदी अनुवाद में बदला नहीं गया है जिस वजह से अनुवाद बेहतर हो पाया है । दारू पीते हुए उपन्यास की बिंदास नायिका और उसकी दोस्त अंग्रेजी के शब्दों का प्रयास करती हैं और अनुवाद में उससे छेड़छाड़ नहीं की गई है ।
कुछ दिनों पहले मैंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दो हजार चार के नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका फ्रेडरिक येलनिक के उपन्यास क्लावीयरश्पीलेरिन का हिंदी अनुवाद पियानो टीचर पढ़ा । उक्त उपन्यास का हिंदी अनुवाद विदेशी भाषा साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका सार संसार के मुख्य संपादक और जर्मन भाषा के जानकार अमृत मेहता ने किया था । पहली नजर में हिंदी अनुवाद ठीक-ठाक लगा था । मैंने अपने इस स्तंभ में ही उस उपन्यास पर लिखा भी था । लेकिन बाद में जमशेदपुर से लेखिका विजय शर्मा ने मेरा ध्यान कुछ त्रुटियों की ओर दिलाया तो फिर मैंने उसका अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा । उसको पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि अमृत मेहता का अनुवाद बिल्कुल ही स्तरीय नहीं था । ट्रांसलिटरेशन के चक्कर में अमृत मेहता ने कुछ बेहद अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया जो गैरजरूरी था । साथ ही उपन्यास में वर्णित कुछ दृश्यों को भी उन्होंने बदल डाला । अमृत मेहता ने लिखा कि नायिका बाथ टब में अपने हाथ के नस काट लेती है जबकि मूल उपन्यास में येलनिक लिखा है कि नायिका बाथ टब में अपने यौनांग काट लेती है । अनुवाद में शब्दों के चयन की स्वतंत्रता तो अनुवादक ले सकता है लेकिन प्रसंग और घटनाओं को बदलने की छूट वो नहीं ले सकता है । इस तरह के लापरवाह अनुवाद का नतीजा यह होता है कि भविष्य के शोधार्थियों को गलत संदर्भ मिलते हैं और अर्थ का अनर्थ हो जाता है । इस मामले में मनीषा तनेजा ने सावधानी बरती है और उनके द्वारा अनूदिक उपन्यास लगभग सिंगल बेहतर बेहद पठनीय बन पडा है ।
दूसरा अहम उपन्यास हॉर्पर कालिन्स ने प्रकाशित किया वह है - बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखक अरविंद अडिगा का द वाइट टाइगर । प्रकाशक का दावा कि इस उपन्यास की सिर्फ भारत में दो लाख प्रतियां बिक चुकी हैं । किताब के बैक पर कवर पर इस सूचना के प्रकाशन से हिंदी प्रकाशन जगत सकते में पड़ सकता है । हिंदी में उपन्यासों का संसकरण पांच सौ या फिर अब तो तीन सौ का ही होता है । और मेरे जानते हाल के दिनों में हिंदी का कोई उपन्यास दस हजार भी नहीं बिका है । दो लाख प्रतियां बिकने की बात तो हिंदी में सोची भी नहीं जा सकती है । जबकि भारत में हिंदी के पाठकों की संख्या अंग्रेजी पाठकों से कई गुणा ज्यादा है । ये एक बेहद अहम सवाल है, जिसपर हिंदी समाज को विचार करने की जरूरत है ।
अब बात अरविंद अडीगा के उपन्यास द वाइट टाइगर की बात । अरविंद के इस उपन्यास का अनुवाद मनोहर नोतानी ने किया है । मनोहर पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन एक लंबे अरसे से अनवाद का काम कर रहे हैं, लेकिन किसी उपन्यास का अनुवाद करने का यह उनका पहला अनुभव है । वाइट टाइगर में मध्य भारत के गांव में जन्मे रिक्शा चालक के बेटे बलराम की कहानी है । लेकिन जब उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है तो वो चाय की दुकान पर सफाई और बरतन धोने का काम करता अपने भविष्य के सपने बुनता है । उसकी तकदीर तब बदलती है जब उसके गांव का एक अमीर जमींदार उसे अपना ड्राइवर बनाकर दिल्ली ले आता है । महानगर की चकाचौंध में बलराम की एक नए तरीके से शिक्षा होती है । इस उपन्यास का अनुवाद थोड़ा शास्त्रीय किस्म का है जो पाठ को बाधित करता है । इस उपन्यास के अनुवाद के क्रम में मनोहर नोतानी ने हिंदी के खांटी शब्दों के इस्तेमाल के साथ-साथ स्थानीय शब्द का भी इस्तेमाल किया है । एक बानगी- उस रात, एक बार फिर आंगन झाड़ने का बहाना करते हुए हम चमरघेंच और उसके बेटों के नजीक जा फटके, वे लोग एक बेंच पर बिराजे बतियाते रहे, हाथ में गिलास और गिलास में चमचम दारू । इस दो वाक्य में तीन शब्दे ऐसे हैं जो बिल्कुल स्थानीय भाषा के हैं - चमरघेंच, नजीक और चमचम दारू । इस तरह के कई शब्दो का इस्तेमाल अनुवादक ने किया है जिससे उनके मेहनत का पता चलता है ।
एक तीसरी किताब जो हाल में प्रकाशित हुई है वो है शिक्षाविद् और सांसद रह चुकी भारती राय की आत्मकथा- ये दिन, वे दिन । ल रूप से बांग्ला में लिखी गई इस आत्मकथा का हिंदी अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया । सुशील गुप्ता का नाम हिंदी के पाठकों के लिए जाना पहचाना है । उन्होंने बांग्ला की कई चर्चित लेखकिओं और लेखकों की कृतियों का अनुवाद हिंदी में किया है । भारती राय ने अपनी इस आत्मकथा में पांच पीढियों की कहानी लिखी है । ये कहानी शुरू होती है उनकी परनानी शैलबाला उर्फ सुंदर मां के साथ । कथा के दूसरे पड़ाव पर हैं लेखिका की नानी मां । तीसरे पड़ाव पर लेखिका की मां से पाठकों की मुलाकात होती है और चौथे पड़ाव पर हैं और पांचवें भाग में कई अहम सवाल हैं । इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ लेखिका और पत्रकार मृणाल पांडे ने लिखी है । इस किताब से एक लंबे काल खंड का इतिहास सामने आता है । का ने पारिवारिक स्थितियों के बहाने बंगाल और देश की राजनीतिक और साहित्यिक परिदृश्य का सुरुचिपूर्ण चित्र खींचा है । हिंदी में आत्मकथा के बहाने जो एक आत्म प्रचार का दौर चल पड़ा है यह किताब उससे पूरी तरह से अलग है । इस वजह से ही मुझे उम्मीद है कि यह किताब हिंदी के पाठकों को पसंद आएगी । अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुदित होकर आ रही ये कृतियां एक उम्मीद जगाती हैं ।
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