भ्रष्टाचार के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया झेल रहे कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी डी दिनाकरन ने सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को आईना दिखा दिया है । उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली जजों की कमिटी की लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह ठुकरा दी । सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे और अपने पद के दुरुपयोग के आरोप में महाभियोग की प्रक्रिया झेल रहे जस्टिस दिनाकरन लंबे समय से न्यायिक कामकाज नहीं देख रहे थे वो सिर्फ कर्नाटक हाई कोर्ट का प्रशासनिक कामकाज संभाल रहे थे । महाभियोग का आरोप झेल रहे जस्टिस के प्रशासनिक कामकाज संभालने पर उनके ही एक साथी जज ने अपनी नाराजगी का खुले आम इंतजार किया था । इस असमंजस की हालत में न्यायमूर्ति दिनाकरन को उनके पद से हटाने की कवायद काफी देर से शुरू की गई । काफी समय बाद शुरू की गई इस कोशिश के तहत सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने जस्टिस दिनाकरन को लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह दी थी और उनकी जगह दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस मदन लोकुर को वहां का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। लेकिन कॉलेजियम की इस सलाह को जस्टिस दिनाकरन के ठुकराने के बाद उनका तबादला सिक्किम हाई कोर्ट कर दिया गया है ।
अगर हम कानूनी बारिकियों को देखें तो किसी भी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या न्यायमूर्ति लंबी छुट्टी पर जाने के कॉलेजियम की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है । लेकिन न्यायिक परंपरा के मुताबिक उच्च न्यायालय के जस्टिस कॉलेजियम की सलाह को आमतौर पर ठुकराते नहीं हैं । लेकिन दिनाकरन के इस कदम के बाद एक बार फिर से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की प्रक्रिया की खामियां और उसकी सीमाएं दोनों उजागर हो गई हैं ।
कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली जजों वाली समिति की सलाह मानने से जस्टिस दिनाकरन के इंकार के बारे में पूछे जाने पर कहा था कोई जज भी कानून से उपर नहीं है । दरअसल यह पूरा मामला बेहद ही पेचीदा है । संविधान के अनुच्छेद दो सौ तेइस,जिसका हवाला कानून मंत्री दे रहे हैं, के मुताबिक – जब किसी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त है या जब ऐसा मुख्य न्यायाधीश की अनुपस्थिति के कारण वह अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तब कोर्ट के अन्य जजों में से एक जज जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त कर, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा । लेकिन स्वतंत्र भारत न्यायिक इतिहास में ऐसा कोई मौका अबतक आया नहीं जबतक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रहते किसी और को उसी न्यायलय में कार्यकारी मुख्य न्यायधीश बनाया जाए । लेकिन ऐसी नौबत आई नहीं और दिनाकरन को सिक्किम भेज दिया गया ।
जस्टिस दिनाकरन के इस तबादले ने एक बार फिर से कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं । सवाल यह उठता है कि अगर कोई न्यायाधीश एक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारी निभाने के लायक नहीं हैं तो वो दूसरे हाईकोर्ट में उन्ही जिम्मेदारियों को कैसे निभा सकते हैं । अगर जस्टिस दिनाकरन पर भ्रष्टाचार के इल्जाम हैं और वो कर्नाटक हाईकोर्ट में न्यायिक जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर सकते हैं तो सिक्किम उच्च न्यायालय में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन बगैर किसी लाभ-लोभ के कैसे कर सकते हैं । ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब किसी के पास नहीं है । ना तो सरकार के पास और ना ही कॉलेजियम के पास ।
इसके पहले भी जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव पर आरोप लगे थे तो उन्हें कॉलेजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया था और जब मामला शांत हुआ तो उनका तबादला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट से उत्तरांचल हाईकोर्ट कर दिया गया । इसी तरह जब जनवरी दो हजार सात में गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस पी बी मजुमदार ने अपने ही साथी जस्टिस बी जे सेठना पर बदतमीजी का आरोप लगाया था तो जस्टिस बी जे सेठना का तबादला सिक्किम और पी बी मजुमदार का तबादला राजस्थान कर दिया गया था । हलांकि तब न्यायमूर्ति सेठना ने सिक्किम जाने से इंकार करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया था ।
ये कुछ ऐसे उदाहरण है जो भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के मामलों को निबटने की कमियों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं । हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायधीश देश की न्यायिक व्यवस्था का प्रशासनिक मुखिया होता है । वो जजों का तबादला तो कर सकता है लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ और सिर्फ महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है । लेकिन संविधान के मुताबिक महाभियोग की प्रक्रिया बेहद जटिल है और उसका अंजाम तक पहुंचना अत्यंत मुश्किल है । जस्टिस रमास्वामी के मामले में पूरा देश इस जटिल प्रक्रिया को देख चुका है । जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ भी महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राज्यसभा के सभापति की मंजूरी के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज वी एस सिरपुकर की अध्यक्षता में तीन सदस्यों की कमेटी इस बारे में तथ्यों की पड़ताल करेगी । न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है । इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली थी लेकिन कांग्रेस के सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद ये प्रस्ताव गिर गया था ।
दूसरी ओर हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के क्रियाकलापों पर भी सवाल खड़े हुए हैं । दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति ना दिए जाने के कॉलेजियम के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगा था । जस्टिस शाह की छवि बेदाग थी और ये माना जा रहा था कि उनको सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया जाएगा । लेकिन मीडिया में ऐसी खबरें आई कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के जी बालाकृष्णनन की अध्यक्षता वाली कॉलेजियम के एक सदस्य जस्टिस शाह के प्रोन्नति के खिलाफ थे, इस वजह से उनका सुप्रीम कोर्ट का जज बनना संभव नहीं हो सका ।
मेरा मानना है कि देश की सवा सौ करोड़ जनता का देश की न्यायिक प्रक्रिया और न्यायाधीशों पर अटूट विश्वास है । जब किसी एक न्यायधीश के आचरण की वजह से अदालत और अदालत की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो सवा सौ करोड़ लोगों के विश्वास को भी ठेस पहुंचाती है । हमारा मानना है कि जनता के इस विश्वास की रक्षा हर हाल में की जानी चाहिए । इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकती है जब हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी हो और उसका एक तय स्वरूप हो । इसके लिए सरकार को पर्याप्त इच्छाशक्ति दिखानी होगी । सालों से ज्यूडिशियल स्टैंर्ड और अकाउंटिबिलिटी बिल पर बहस चल रही है लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है । अब वक्त आ गया है कि इस बिल में अपेक्षित बदलाव करके संसद में पेश किया जाए और जल्लद से जल्द कानून बनाकर न्यायपालिका की साख को बचाया जाए ।
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2 comments:
nice
अरे बाप रे.........इस विषय पर हमने कुछ कह दिया और हमारे जजों की भृकुटी तन गयी तो.....ना बाबा अपन को तो कुछ नहीं कहना अपन को कोर्ट की पेशानी से बड़ा डर लगता है.....और फिर हमने जो कहना था कह दिया.....!
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