हिंदी साहित्य में रवीन्द्र कालिया की ख्याति उपन्यासकार, कहानीकार और संस्मरण लेखक के अलावा एक ऐसे बेहतरीन संपादक के रूप में भी है जो लगभग मृतप्राय पत्रिकाओं में भी जान फूंक देते हैं । रवीन्द्र कालिया हिंदी के उन गिने चुने संपादकों नें से एक हैं जिनको पाठकों की नब्ज और बाजार का खेल दोनों पता है । धर्मयुग में जब रवीन्द्र कालिया थे तो पत्रिका के तेवर और कलेवर में उनका भी योगदान था लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है कि हर बड़ी-छोटी जीत का सेहरा टीम के कप्तान के सर बंधता है । बाद के दिनों में जब कालिया जी की धर्मवीर भारती से खटपट हुई तो वो लौटकर इलाहाबाद चले आए । यह वही दौर था जब कालिया जी ने काला रजिस्टर लिखा था । इलाहाबाद लौटकर रवीन्द्र कालिया ने जब गंगा-जमुना निकाला तो उसने भी साहित्य जगत में धूम मचा दी थी । हिंदी के पाठकों को उन्नीस सौ इक्यानबे में निकले वर्तमान साहित्य के दो कहानी महाविशेषांक अब भी याद होंगे । वर्तमान साहित्य के दो भारी भरकम अंक अप्रैल और मई उन्नीस सौ इक्यानवे में प्रकाशित हुए थे । उस दौर में मैं कॉलेज का छात्र था और मुझे याद है कि जमालपुर के व्हीलर के स्टॉल चलानेवाले पांडे जी ने हमें वर्तमान साहित्य के वो अंक चुपके से इस तरह सौंपे थे जैसे कोई बेहद कीमती चीज छुपाकर देता हो । उस वक्त मुझे अजीब लगा था । कई दिनों बाद जब मैंने पांडे जी से पूछा तो उन्होंने बताया था कि उक्त अंक की दस ही प्रतियां आई थी और साहित्यानुरागी पांडे जी के मुताबिक उसके ज्यादा खरीदार हो सकते थे । सो उन्होंने अपने चुनिंदा ग्राहकों को छुपाकर वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक दिया था । यह हिंदी में पहली बार हुआ था जब किसी भी विशेषांक को महाविशेषांक बताया गया हो । जैसा कि मैं उपर कह चुका हूं कि कालिया जी को पाठकों की रुचि के साथ-साथ बाजार की भी समझ है । वर्तमान साहित्य से पहले इस तरह का आयोजन उन्नीस सौ अट्ठावन –साठ में कहानी पत्रिका ने किया था, जिसके संपादक श्रीपत राय थे । कहानी के उन अंकों में अमरकांत की डिप्टी कलेक्टरी , कमलेश्वर की राजा निरवंसिया, मार्केंडेय की हंसा जाई अकेला जैसी बेहद प्रसिद्ध रचनाएं छपी थी ।
यही बात वर्तमान साहित्य के कहानी विशेषांक के साथ भी हुई । कालिया जी ने उन दो अंकों में लगभग संपूर्ण हिंदी साहित्य का समेट कर रख दिया था । कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ए लड़की वर्तमान साहित्य के उस महाविशेषांक में ही छपी थी । बाद में स्पीड पोस्ट में उसपर तीन गंभीर टिप्पणियां छपने से कहानी को खासी चर्चा मिली । बाद में यह उपन्यास के रूप में स्वतंत्र रूप से प्रकाशित हुई । साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त मशहूर लेखिका अलका सरावगी की पहली कहानी – आपकी हंसी भी वर्तमान साहित्य के महाविशेषांक में ही प्रकाशित हुई थी । उस अंक में उपेन्द्र नाथ अश्क का एक बेहद धमाकेदार लेख- महिला कथा लेखन की अर्धशती भी प्रकाशित हुई थी । किसी भी संपादक की दृष्टि पत्रिका को एक उंचाई देती है । और कालिया ने इसे एक बार नहीं कई बार साबित किया ।
जब रवीन्द्र कालिया वागर्थ के संपादक होकर कोलकाता गए तो भारतीय भाषा परिषद की उस दम तोड़ती पत्रिका को भी ना केवल खड़ा कर दिया बल्कि हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में लाकर उसे एक अहम पत्रिका बना दिया । वागर्थ का संपादन छोड़कर जब वो नया ज्ञानोदय आए तो इस पत्रिका का हाल भी बेहाल था और साहित्य के नाम पर बेहद ठंढी और विचारोत्तेजक सामग्री के आभाव में ज्ञानोदय एक सेठाश्रयी पत्रिका बनकर रह गई थी जो इस लिए निकल पा रही थी क्योंकि उसका प्रकाशन टाइम्स जैसे बड़े ग्रुप से हो रहा था । लेकिन कालिया ने संपादक का दायित्व संभालते ही ज्ञानोदय को हिंदी साहित्य की अनिवार्य पत्रिका बना दिया । रवीन्द्र कालिया के ज्ञानोदय के संपादक बनने के पहले हंस और उसके संपादक राजेन्द्र यादव समकालीन हिंदी साहित्य का एजेंडा सेट किया करते थे । लेकिन जब मई दो हजार सात में कालिया के संपादन में युवा पीढी विशेषांक निकला तो पहली बार ऐसा लगा कि हंस के अलावा कोई और पत्रिका है जो साहित्य का एजेंडा सेट कर सकती है । संपादक ने दावा किया कि दो हजार सात में छपे युवा पीढी विशेषांक की मांग इतनी ज्यादा हुई थी कि उसे पुनर्मुद्रित करना पडा़ था । नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को लेकर उस वक्त अच्छा खासा बवाल भी मचा था लेकिन आखिरकार रचना ही बची रहती है सो उस अंक का एक स्थायी महत्व बना रहा । धीरे धीरे पहले नवलेखन अंकों से कहानीकारों की एक नई फौज खड़ी कर दी । उसके बाद चार लगातार अंकों में प्रेम विशेषांक निकालकर बिक्री के भी सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले । संपादक के दावे के मुताबिक प्रेम विशेषांकों की कड़ी के पहले अंक को पाठकों की मांग पर कई बार प्रकाशित करना पड़ रहा है । आज जब हिंदी के साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक पाठकों की कमी और बिक्री ना होने का रोना रो रहे हैं ऐसे में कालिया का ये दावा एक सुखद आश्चर्य की तरह है ।
अब कालिया जी ने नया ज्ञानोदय का बेवफाई सुपर विशेषांक-1 निकाला है । कहानी महाविशेषांक वो पहले ही निकाल चुके हैं । पाठकों को हर बार कोई नई चीज देनी होती है लिहाजा अब सुपर विशेषांक । संपादकीय की पहली ही लाइन है- अगर वफा का अस्तित्व ना होता तो बेवफाई नहीं होती । कई शायरों के मार्फत भी कालिया जी ने बेवफाई को परिभाषित किया है । तकरीबन सवा दौ सौ पन्नों के इस महाविशेषांक में वह हर रचना मौजूद है जो पाठकों को ना केवल बांधे रखेगी बल्कि उसकी साहित्यिक वफा को और मजबूत करेगी । इस विशेषांक में प्रेमचंद, मंटो, इस्मत चुगताई से लेकर ओ हेनरी, मोपासां, हेमिंग्वे तक मौजूद हैं । बेवफाई पर गुलजार ने जब ज्ञानोदय संपादक को अपनी नज्में भेजी तो लिखा- जनाब रविन्द्र कालिया साहब । बे-वफायी पर कुछ नज्में । मेरे यहां कुछ इल्जाम-देही और गिले शिकवे नहीं हैं । मेरा ख्याल है वो बे-वफायी भी नहीं । बस अलग हो गए । बे-वफायी कैसी । नज्में ज्यादा है ताकि आप कुछ रद्द कर सकें । बे-वफायी को बस अलग हो गए मानने वाले गुलजार की नज्म देखिए – और तुम ऐसे गई जैसे /शहर की बिजली चली जाए अचानक जैसे/और मुझको/बंद कमरे में बहुत देर तलक कुछ भी दिखायी नहीं दिया/आंखें तारीकी से मानूस हुई तो.../फिर से दरवाजे का खाका सा नजर आया/ । सिर्फ गुलजार ही नहीं बेवफायी पर बशीर बद्र की नज्में भी बेहतरीन हैं । इसके अलावा विदेशी उपन्यासों में, मीडिया में, फिल्मों में और इंटरनेट की बेवफाइयों पर भी अहम लेख हैं । कुल मिलाकर यह अंक पठीनय तो है ही संग्रहणीय भी है । बेवफाई सुपर विशेषांक -2 का भी ऐलान है जिसमें नोवोकोब का प्रसिद्ध उपन्यास लोलिता भी प्रकाश्य है । आखिरकार लोलिता भी तो अंत में बेवफाई पर ही खत्म होती है । कालिया जी का यह प्रयोग काबिल-ए-तारीफ है ।
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