हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है । दरअसल हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत छठे दशक में व्यावसायिक पत्रिका के जवाब के रूप में की गई । इस आंदोलन का श्रेय हम हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा को दे सकते हैं । उन्होंने 1957 में बनारस से कवि का संपादन प्रकाशन शुरू किया था । कालांतर में और भी कई लघु पत्रिकाएं वयक्तिगत प्रयासों और प्रकाशन संस्थानों से निकली जिसने हिंदी साहित्य की तामम विधाओं को ना केवल समृद्ध किया बल्कि उसका विकास भी किया । 1967 में नामवर सिंह के संपादन में आलोचना, सत्तर के दशक में विश्वनाथ तिवारी के संपादन में दस्तावेज, ज्ञानरंजन के संपादन में पहल । बाद में देश निर्मोही के संपादन में पल-प्रतिपल के शुरुआती अंको ने उम्मीद जगाई थी लेकिन बाद के उसके अंक कमजोर निकले । अब भी रुक-रुक कर उसका प्रकाशन हो रहा है । लेकिन 1986 में राजेन्द्र यादव के संपादन में निकली पत्रिका हंस ने पूरे परिदृश्य को बदल दिया । इसी महीने हंस के प्रकाशन के पच्चीस साल पूरे हो रहे हैं । व्यक्तिगत प्रयासों से इतने लंबे समय तक नियमित रूप से मेरे जानते हिंदी साहित्य की कोई पत्रिका नहीं निकली । अखिलेश के संपादन मे तद्भव के अंक ने भी पाठकों और आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींचा ।
लेकिन मुझे लगता है कि साठ के दशक में शुरु हुआ लघु पत्रिका आंदोलन अपनी राह से भटक गया है । उसने ना केवल अपना चरित्र बल्कि स्वरूप भी खो दिया है । लघु पत्रिका आंदोलन और उसकी विरासत से अनजान अबोध लोग संपादक बने जा रहे हैं । लेकिन उन्हें ना तो लघु पत्रिकाओं के दायित्व की परवाह है और ना ही इसके चरित्र की । दरअसल संपादन एक बेहद कठिन कर्म है । इसमें व्यक्तिगत संबंधों को तरजीह दिए बगैर काम करना पड़ता है लेकिन आज तो साहित्यिक पत्रिकाओं में तुम मेरी मैं तेरी वाली स्थिति व्याप्त है । पत्रिकाएं सौदेबाजी का अखाड़ा बनती जा रही है । आज किसी भी लघु पत्रिका के संपादक में इतना साहस है कि वो किसी भी स्थापित साहित्यकार की रचना को लौटा सके । बड़े नाम को छापने के चक्कर में हो यह रहा कि किसी का रिसर्च पेपर, किसी का भाषण, किसी का वक्तव्य छप रहा है । इससे संपादकों की दृष्टि की दयनीयता और दरिद्रता का पता चलता है । आज अगर हम कुछ लघु पत्रिका संपादकों को छोड़ दें तो अधिकांश में रचनाओं के चयन की दृष्टि का घोर अभाव दिखाई देता है ।तकरीबन हर संपादक संयोजन कर रहा है लेकिन इस सत्य को स्वीकार करने का साहस कितने लोगों के पास है । अगर संपादक की दृष्टि सुलझी हुई हो तो पत्रिका का एक स्वरूप बनता है लेकिन अगर आप सिर्फ संयोजन कर रहे हों तो उसकी एक स्पष्ट रूपरेखा आपके दिमाग हो वर्ना पूरी पत्रिका बिखर जाती है ।
लघु पत्रिकाओं का एक अहम दायित्व स्थानीय पत्रिकाओं को मौका देकर उसे साहित्य के परिदृश्य पर उभारने का भी होता है । पर आज के तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक नए लेखकों की रचनाओं को तरजीह नहीं देते हैं । उन्हें तो बड़े नाम चाहिए ताकि पाठक उसके प्रभाव में आकर पत्रिका खरीद सके । अच्छा होता अगर लघु पत्रिका के संपादक बडे़ नामों को छापने का मोह छोड़कर स्थानीय और नई प्रतिभाओं को उभारते । लेकिन साहस की कमी और बाजार की नासमझी उन्हें ऐसा करने से रोक देती है । हिंदी के वामपंथी लेखक हमेशा से बाजार और उसके प्रभाव का शोर मचाते रहते हैं । लेकिन उन्हें ना तो बाजार की समझ है और ना ही बाजार की ताकत का एहसास । उन्हें तो हिंदी की ताकत का भी एहसास नहीं है । अगर हिंदी का बाजार बन रहा है तो तकलीफ किस बात की । क्या लेखकों को यह अच्छा नहीं लगेगा कि उनकी कृतियां हजारों में बिके । आज हिंदी में कोई भी किताब पांच सौ से ज्यादा नहीं छपती है और उसको भी बिकने में सालभर लग जाते हैं । पांच सौ किताबों के बिकने की बात प्रकाशक मानकर अगर दूसरा संस्करण छाप देता है तो लेखकों के पांव जमीन पर पड़ते ही नहीं है । हिंदी में बाजारवाद का शोर मचानेवालों से मेरा अनुरोध है कि पहले वो बाजार को समझें, उसपर विचार करें और उसके बाद अपने विचार वयक्त करें । ऐसा नहीं है कि साहित्यकि पत्रिकाएं खूब बिक रही हैं । इनका भी वही हाल है । अगर हंस, ज्ञनोदय, कथादेश और तद्भव को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई लघु पत्रिका होगी जो हजार प्रति छपती होगी । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
अभी-अभी हिंदी में एक नई पत्रिका लेखक-पत्रकार अशोक मिश्र के संपादन में आई है- रचना क्रम । पहले अंक में इस बात के संकेत हैं कि पत्रिका छमाही निकला करेगी । यह अंक ओम भारती के अतिथि संपादन में निकली है । तकरीबन डेढ सौ पन्नों की इस पत्रिका में तमाम तरह की रचनाएँ हैं । नामवर के भाषण से लेकर चंद्रकांत देवताले की कविताएं, अरुंधति राय का लंबा साक्षात्कार, रवीन्द्र कालिया और तेजिंदर के उपन्यास अंश के अलावा कई वैचारिक लेख भी हैं । लगता है कि इस अंक की योजना काफी पहले बन गई थी इस वजह से रवीन्द्र कालिया के उपन्यास अंश के इंट्रो में शीघ्र प्रकाश्य छप गया है । जबकि कालिया जी का उपन्यास 17 रानाडे रोड काफी पहले प्रकाशित होकर धूम मचा रहा है । महेश कटारे की कहानी इस अंक की बेहतरीन कहानियों में से एक है । जबकि मुशरर्फ आलम जौकी की कहानी इस अंक की सबसे कमजोर कहानी है । मुशर्रफ के साथ जो एक बड़ी दिक्कत है वो यह है कि कहानियों के विषय का चुनाव तो ठीक-ठाक करते हैं लेकिन जब कहानी लिखते हैं तो वो उनसे संभलता नहीं है और पूरा का पूरा बिखर जाता है । यही वजह है कि दर्जनों कहानियां लिखने के बाद मुशर्ऱफ आलम जौकी की पहचान एक कहानीकार के रूप में बन नहीं पा रही है । रचना क्रम में पत्रकार उमेश चतुर्वेदी की कहानी श्रद्धांजलि छपी है और पत्रिका की ओर से यह दावा किया गया है कि उमेश की यह पहली कहानी है । उमेश चतुर्वेदी की यह पहली कहानी नहीं है इसके पहले भी उनकी तीन-चार कहानियां प्रकाशित होकर पुरस्कृत हो चुकी हैं । संपादक को इनमें सावधानी बरतनी चाहिए नहीं तो आनेवाली पीढ़ी और शोधार्थियों के बीच भ्रम फैलेगा । कुल मिलाकर अशोक मिश्र की इस पत्रिका से एक उम्मीद जगती है और इसने समकालीन हिंदी परिदृ्शय में एक सार्थक हस्तक्षेप तो किया ही है । लेकिन संपादक से मेरा एक आग्रह है कि वो नए लोगों को तरजीह दें और स्थापित और बड़े साहित्यकारों की कूड़ा रचनाएं छापने से परहेज करें । विश्वास मानिए पत्रिका को एक बड़ा बाजार मिलेगा और साहित्य को कई प्रतिभाएं ।
1 comment:
ab yeh log bhi kahani ki samajh rakhne lagen to ho chuka kahani ka kalyaan .mujhe nahi lagta ki kisi bhi surat zara sa bhi saahitya ya kahani-gyan inhen prapt ho--yeh kitna jaante hain kahani ki vidha ko-aise tamaam patr jo mere baare mein likhe gaye, sponsered hi hain .baat kahani ki hai to aaj bhi barson se hindi saahitya jis kachre yatharthvaad ka sahara le kar aage badh raha hai....wo hindi ka durbhagya hai..durbhagya yeh bhi hai..ki hindi ko aalochal milte hain to bharat bhardwaj ya anant vijay..are bhai--pahle kisi bhi vidha ko padho to..bharat ko bhasha ka gyan tak nahi-hans ka samucha ab tak ka coloumn ..ek bhrasht bhasha ka namoona hai , jaise koi school mein padhne waala chhatra likhgta hai.kirpaya kahani ki saarthak bahas mein aise logon ko saamne laayen jo kahaani jaante hon .jinhen kahani ki samajh bhi ho---
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