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Wednesday, August 18, 2010

कारण कवन नाथ मोहे मारा

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक मे छ्पे मेरे इंटरव्यू पर हुई प्रतिक्रियाओ से एक बात स्पष्ट हो गयी कि मैने अपनी लापरवाही से एक गम्भीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया । मैने कुछ ऐसे शब्दो का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था। मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिन्दी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है मैने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली ।मैं शर्मिन्दा हूँ कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे है,इनमे बडी सख्यां में लेखिकायें भी हैं पर मेरे मन मे उनके लिये सम्मान भी बढा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मजम्मत की। हालाकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिन्दा रखना चाह्ते हैं, इन्टरव्यू में उठाये गये मुद्दों पर बहस न कर के अभी भी उन शब्दों के वाक्जाल मे उलझे हुए हैं जिनपर मै खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूँ । मै मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मै मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं ।
यह कहना है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का । दरअसल जिस बात पर विभूति अपने साथी लेखकों और हिंदी समाज से माफी मांग रहे हैं वो पूरा विवाद विभूति के ही एक साक्षात्कार से उठा । नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई विशेषांक में विभूति नारायण राय का एक लंबा इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है जिसमें एक सवाल के जबाव में विभूति कहते हैं - पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्यरूप से शरीर केंद्रित है । यह भी कह सकते हैं कि वह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है । लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है । मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक कितनी बिस्तरों पर कितनी बार हो सकता है । इस इंटरव्यू के प्रकाशित होने के बाद हिंदी के लेखकों के बीच इस पर विमर्श शुरू हो गया था । लेकिन बड़े पैमाने पर इसका विरोध तो तब शुरू हुआ जब अचानक से एक दिन दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित कर विवाद खड़ा कर दिया । अंग्रेजी अखबार के संवाददाता ने छिनाल शब्द का अंग्रेजी अनुवाद प्रोस्टीट्यूट कर दिया । जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया । छिनाल उन स्त्रियों को कहा जाता है जो कुलटा होती हैं या फिर स्त्रियोचित मर्यादा को भंग कर अपनी मर्जी से कई पुरुषों से संबंध बनाती है । लेकिन वो किसी भी हाल में वेश्या नहीं होती । महिला लेखिकाओं के लिए कहा गया यह शब्द बिल्कुल आपत्तिजनक है लेकिन वेश्या जितना अपमानजनक नहीं है । यह गाली है और किसी भी लेखक को अपनी बिरादरी की महिलाओं के लिए इस शब्द के प्रयोग की इजाजत नहीं दी जा सकती है ।
जैसा कि उपर संकेत दिया जा चुका है कि यह इंटरव्यू लगभग हफ्तेभर से छपकर विवादित नहीं हो पा रहा था क्योंकि हिंदी सत्ता की भाषा नहीं है, सत्ता की भाषा तो अंग्रेजी है । अंग्रेजी अखबार के गैर जिम्मेदाराना अनुवाद ने आग में घी का काम किया और विरोध की चिंगारी को भड़का दिया । लेखिलाओं का जितना अपमान विभूति नारायण राय किया उससे ज्यादा बड़ा अपमान तो अंग्रेजी के वो अखबार कर रहे हैं जो लगातार लेखिकाओं को वेश्या बता रहे हैं । मीडिया में इसके उछलने के बाद विभूति नारायण राय पर चौतरफा हमला शुरू हो गया । हिंदी के लेखकों के अलावा कई महिला संगठनों ने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति को लेखिकाओं के खिलाफ इस अमर्यादित टिप्पणी को लेकर कठघरे में खड़ा किया और उनके इस्तीफे और बर्खास्तगी की मांग होने लगी।
मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल और राष्ट्रीय महिला आयोग तक भी ये मामाला पहुंच गया । लगभग मृतप्राय लेखक संगठनों में भी जान आ गई और उन्होंने भी विभूति नारायण राय के खिलाफ एक निंदा बयान जारी कर दिया । चौतरफा घिरे विभूति नारायण राय को मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तलब किया और उनके यहां से निकलकर राय ने बिना शर्त लिखित माफी मांग ली । फिर अखबार में लेख लिखकर भी माफी मांगी। विभूति के विरोध के अलावा लेखकों ने नया ज्ञानोदय और उसके संपादक के खिलाफ भी मोर्चा खोला । ज्ञानोदय छापने वाली संस्था भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर पर प्रदर्शन भी किया । विरोध बढ़ता देखकर नया ज्ञानोदय के संपादक
रवीन्द्र कालिया ने इसे संपादकीय भूल मानते हुए खेद प्रकट किया और नया ज्ञानोदय का उक्त अंक बाजार से वापस मंगाकर विवादास्पद शब्द को हटाकर पत्रिका को फिर से छापने का वादा किया । लेकिन बावजूद इसके लेखकों का एक वर्ग इन दोनों का फांसी पर लटकाने को आमदा है । इनकी मांग है कि विभूति नारायण राय और कालिया को उनके पद से बर्खास्त किया जाए । इसके लिए बकायादा एक मोर्चे का गठन भी किया गया है । लेकिन माफी मांग लेने के बाद विरोध जारी रखने का औचित्य समझ में नहीं आता ।
विरोध पर डटे रहने के कुछ साहित्येत्तर कारण हो सकते हैं- या तो विभूति से व्यक्तिगत खुन्नस, कालिया से नाराजगी या फिर सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ गुस्से का दिखावा । किसी भी साहित्यिक मुद्दे पर लेखकों की इतनी सक्रियता चौंकानेवाली है । कुछ दिनों पहले हिंदी के ही एक अन्य लेखक भगवान दास मोरवाल के उपन्यास रेत के खिलाफ जब ‘गिहार’ समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाले एक संगठन- भारतीय आदिवासी गिहार विकास समिति ने उत्तर प्रदेश के छिबरामऊ की अदालत में उपन्यासकार के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया तो कहीं से कोई विरोध की आवाज तो दूर मोरवाल के समर्थन में किसी लेखक ने बयान तक नहीं दिया । लेखक संगठन तक कुंभकर्णी नींद सोते रहे । आज भी मोरवाल अकेले उस लड़ाई को लड़ रहे हैं । जमानत लेने से लेकर तमाम अदालती झंझटों से अकेले निबट रहे हैं । तसलीमा नसरीन को जब पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने कोलकाता से निकाला तो बयानबाजी की रस्म अदायगी की गई । कहीं भी धरना प्रदर्शन तो दूर की बात कोई हस्ताक्षर अभियान तक नहीं चला । हिंदी के एक स्वनामधन्य आलोचक, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक थे, को जब एक दलित छात्रा के यौन शोषण के आरोप में जब विश्वविद्यालय ने उन्हें हटा दिया तब भी उनका
विरोध किसी लेखक या लेखक संगठन ने नहीं किया । दरअसल हिंदी साहित्य में विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया के खेद प्रकट करने के बाद जो विरोध हो रहा है उसके पीछे कहीं ना कहीं कुछ दूसरे कारण हैं जो कम से कम साहित्यिक तो नहीं है । अब विशाल हिंदी समाज को यह तय करना है कि ये विरोध कितना जायज और किस उद्देश्य के लिए किया जा रहा है ।

Tuesday, August 10, 2010

पच्चीस का ‘हंस’

आज से पच्चीस साल पहले जब अगस्त 1986 में राजेन्द्र यादव ने हंस पत्रिका का पुर्नप्रकाशन शुरू किया था तब किसी को भी उम्मीद नहीं रही होगी कि यह पत्रिका निरंतरता बरकरार रखते हुए ढाई दशक तक निर्बाध रूप से निकलती रहेगी, शायद संपादक को भी नहीं । उस वक्त हिदी में एक स्थिति बनाई या प्रचारित की जा रही थी कि यहां साहित्यिक पत्रिकाएं चल नहीं सकती । सारिका बंद हो गई, धर्मयुग बंद हो गया जिससे यह साबित होता है कि हिंदी में गंभीर साहित्यक पत्रिका चल ही नहीं सकती । लेकिन तमाम आशंकाओं को धता बताते हुए हंस ने अगस्त में अपने पच्चीस साल पूरे करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी में गंभीर साहित्य के पाठक हैं और पिछले पच्चीस सालों में इसे शिद्दत से साबित भी कर दिया । मेरे जानते हिंदी में व्यक्तिगत प्रयास से निकलने वाली हंस इकलौती कथा पत्रिका है जो लगातार पच्चीस सालों से प्रकाशित हो रही है और इसका पूरा श्रेय जाता है इसके संपादक और वरिष्ठ लेखक राजेन्द्र यादव को । जब इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था तब इस बात को लेकर खासी सुगबुगाहट हुई थी कि यह प्रेमचंद की पत्रिका हंस है या दिल्ली के हंसराज कॉलेज की पत्रिका हंस । लेकिन कालांतर में इस पत्रिका ने साबित कर दिया कि वह सचमुच में प्रेमचंद वाला हंस ही है । राजेन्द्र यादव स्वंय प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं और नई कहानी आंदोलन के अवांगार्द । बहुत पहले यादव जी ने एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी थी- प्रेमचंद की विरासत बाद में कहानीकार होते हुए भी उन्होंने प्रेमचंद की विरासत को ही अपनाया और हंस का पुनर्प्रकाशन किया । पिछले पच्चीस सालों में हंस ने हिंदी साहित्य को ना केवल एक नई दिशा दी बल्कि उसने दलित और स्त्री विमर्श के साथ-साथ तत्कालीन प्रासंगिक मुद्दों को उठाकर हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का एक नया इतिहास भी लिखा और साहित्यिक पत्रकारिता के कुछ नए मानक भी स्थापित किए तरह की खुली बहस से दूसरी पत्रिका के संपादकों के हाथ पांव फूल जाते थे उसे राजेन्द्र यादव ने हंस में जोरदार तरीके से उठाया । खुद अपने संपादकीय में बिना किसी डर-भय और लाग लपेट के यादव जी ने अपनी बातें कहकर बहस में सार्थक हस्तक्षेप किया । अपने प्रकाशन के शुरुआती दिनों से ही हंस ने साहित्यिक माहौल को गर्मागर्म बनाए रखा और जो मुर्दनीछाप शास्त्रीय किस्म का माहौल था उसे सक्रिय करते हुए जुझारू तेवर भी प्रदान किए । हो सकता है कि राजेन्द्र यादव के स्टैंड से आप सहमत ना हों लेकिन पच्चीस बरसों की लंबी अवधि में यादव जी ने अनेक विचारोत्तेजक मुद्दे पर बहस चलाई और साहित्यकि माहौल को सजीव बनाए रखा । यादव जी के एजेंडे में सिर्फ साहित्यिक मुद्दे ही नहीं रहे । अनेक सामाजिक मु्द्दों को भी हंस ने अपनी परिधि में लेकर सार्थक बहसें चलाई । आज अगर दलित विमर्श या दलित चेतना, स्त्री विमर्श या स्त्री चेतना हमारे समय की महत्वपूर्ण प्रवृतियों के रूप में व्यापक रूप से मान्यता पा चुके हैं तो इसका काफी श्रेय हंस और इसके संपादक राजेन्द्र यादव को जाता है ।
इसके अलावा हंस ने पच्चीस सालों में तकरीबन चार पीढियों को साहित्य में दीक्षित करने का काम भी किया । मुझे मेरा साहित्यिक संस्कार जरूर परिवार से मिला लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी हिचक नहीं है कि हंस ने उसे परिष्कृत किया । हंस को पढ़ते हुए ही कई मसलों को देखने समझने की नई दृष्टि भी मिली ।
इसके अलावा जो एक बड़ा काम यादव जी ने हंस के माध्यम से किया को यह कि कहानीकारों की एक लंबी फौज खड़ी कर दी । यह कहते हुए मुझे कोई संकोच या किसी तरह का कोई हिचक नहीं है कि पिछले ढाई दशक की हिंदी की महत्वपूर्ण कहानियां हंस में ही छपी । एक बार बातचीत में यादव जी ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा था – अगर झूठी शालीनता ना बरतूं तो कह सकता हूं कि हिंदी में अस्सी प्रतिशत श्रेष्ठ कहानियां हंस में ही प्रकाशित हुई हैं और ऐसे एक दर्जन से ज्यादा कवि हैं जिनकी पहली कविताएं हंस में ही छपी और आज उनमें से कई हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। यादव जी की इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है , हंस ने अपने प्रकाशन के शुरुआती वर्षों में ही उदय प्रकाश की तिरिछ, शिवमूर्ति कू तिरिया चरित्तर, ललित कार्तिकेय का तलछट का कोरस, रमाकांत का कार्लो हब्शी का संदूक, चंद्रकिशोर जायसवाल की हंगवा घाट में पानी रे और आनंद हर्षुल की उस बूढे आदमी के कमरे में छापकर हिंदी कथा साहित्य का एक नया जीवनदान दिया । बाद में भी हंस में ही छपी उदय प्रकाश की चर्चित कहानियां – और अंत में प्रार्थना, पीली छतरी वाली लड़की, अरुण प्रकाश की जल प्रांतर, अखिलेश की चिट्ठी, स्वयं प्रकाश की अविनाश मोटू उर्फ..., सृंजय की कॉमरेड का कोट आदि कहानियों ने भी कथा साहित्य को झकझोर दिया था ।
यह लेख तो हंस के पच्चीस साल पूरे होने पर उसेक मूल्यांकन के तौर पर लिख रहा हूं लेकिन इसी महीने राजेन्द्र यादव बयासी साल के हो रहे हैं । उम्र के इस पड़ाव पर भी वो जिस मुस्तैदी और लगन के साथ हंस का संपादन करते हैं और पत्रिका को नियत समय पर निकालते हैं वो किसी के लिए भी रश्क की बात हो सकती है । अगर आप उनके संपर्क में हैं तो वो लगातार आपको कुछ नया करने के लिए उकसाते रहेंगे और तबतक नहीं मानेंगे जबतक कि वो आपसे कुछ करवा ना लें । एक संपादक के तौर पर राजेन्द्र यादव बेहद ही लोकतांत्रिक हैं । हंस में पाठकों के जो पत्र छपते हैं वो इस बात की ताकीद करते हैं कि राजेन्द्र यादव अपनी आलोचना को भी बेहद प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं । आप उनके लेखन और विचार से अपनी असहमति लिखकर या मौखिक भी दर्ज करा सकते हैं । उनसे बातचीत करते वक्त आपको इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं होगा कि आप हिंदी के इतने बड़े लेखक या संपादक से बात कर रहे हैं । उनका वयक्तित्व आतंकित नहीं करता बल्कि रचनाशीलता के लिए उकसाता है । उनके लेखन में ही नहीं बल्कि उनके स्वभाव में भी एक खिलंदड़ापन और छेड़छाड़ की प्रवृत्ति है । यादव जी अपने बातचीत में ही नहीं अपने लेखन में भी समकालीन बने रहना चाहते हैं । हाल के दिनों में उनके संपादकीय में गजब की पठनीयता आ गई है । यादव जी पर संपादकीय में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर आलोतना भी झेलनी पड़ती रही है । अशोक वाजपेयी कहते हैं- अपने संपादकीयों में जिस तरह हर तीसरे वाक्य में बेवजह अंग्रेजी के वाक्य ठूंसते हैं, जबकि उनके लिए हिंदी में काफी दिनों से प्रचलित पर्याय सुलभ हैंट यह अंतत उन्हें बौद्धिक रूप से एक भाषा विपन्न लेखक बल्कि संपादक सिद्ध करता है । अशोक वाजपेयी और नामवर सिंह से यादव जी की नोंक झोंक चलती रहती है । लेकिन इन लोगों की इस नोंक झोंक से साहित्यिक परिदृश्य सजीव बना रहता है । हमारी कामना है कि यादव जी दीर्घायु हों और हंस का संपादन पचास साल तक करते रहें ।

Friday, August 6, 2010

काश पूछो कि मुद्दआ क्या है / विभूति नारायण राय

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक मे छ्पे मेरे इंटरव्यू पर हुई प्रतिक्रियाओ से एक बात स्पष्ट हो गयी कि मैने अपनी लापरवाही से एक गम्भीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गवां दिया ।मैने कुछ ऐसे शब्दो का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था ।मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिन्दी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है मैने अपनी गल्ती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली ।मैं शर्मिन्दा हूँ कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे है,इनमे बडी सख्यां में लेखिकायें भी हैं पर मेरे मन मे उनके लिये सम्मान भी बढा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मजम्मत की । हालाकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिन्दा रखना चाह्ते हैं, इन्टरव्यू में उठाये गये मुद्दों पर बहस न कर के अभी भी उन शब्दों के वाक्जाल मे उलझे हुए हैं जिनपर मै खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूँ । मै मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मै मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं ।
इंटरव्यू पर शुरुआती प्रतिक्रिया उन लोगों की तरफ से आयी जिन्होने उसे पढा ही नही था ।अब जब कि अधिकतर लोगों नें इंटरव्यू पढ लिया है मुझे लगता है उसमें उठाये गये प्रश्नों पर बातचीत होनी चाहिये । संक्षेप में कहूँ तो मेरे मन में मुख्य शकां यह है कि महिला लेखन मे देहकेन्द्रित लेखन को कितना स्थान मिलना चाहिए । एक मित्र ने आपत्ति की कि यह प्रश्न पुरुषों के लेखन पर भी उठना चाहिये । सही है पर विमर्श सिर्फ वंचित या हाशिये पर पहुचे हुए तबकों के लेखन से निर्मित होता है । मसलन दलित लेखन जैसा विमर्श निर्मित करता है वैसा विमर्श ब्राह्मण लेखन नही कर सकता । दलित लेखन जहाँ मानव मुक्ति की कामना करता है या उसका मुख्य संघर्ष दबे कुचलों को उनका खोया सम्मान वापस लौटाने के लिये होगा वहीं यदि ब्राह्मण लेखन जैसा कोई लेखन किया जाय तो स्वाभाविक है कि उसकी चिंता का केन्द्र मनुष्य विरोधी वर्ण व्यवस्था को वैध ठहराने के लिये तर्क तलाशना होगा और मुझे नही लगता कि ऐसे लेखन से कोई उल्लेखनीय विमर्श निर्मित होगा । इसी प्रकार महिला लेखन के केन्द्र मे स्त्री मुक्ति के प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे । स्त्री मुक्ति में अपनी देह पर स्त्री का अधिकार एक महत्वपूर्ण तर्क है पर और भी गम है जमानें में मोहब्बत के सिवा । मेरा मानना है कि स्त्री देह पर अंतिम अधिकार उसका है पर साथ मे मै यह भी मानता हूँ कि भारत के सदंर्भ में स्त्री मुक्ति से जुडे और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं । आज भी परिवारों में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को है , स्त्रियाँ केवल उन्हें लागू करती हैं । तमाम बहस मुबाहिसों के बावजूद घरेलू श्रम के लिये उसका पारिश्रमिक तय नही हो पा रहा है । पंचायती राज्य की संस्थाओं में आरक्षण के बल पर चुनी गयी महिलाओं मे से बहुत सी अभी भी घरों में कैद हैं और उनके प्रधान पति कागजों पर उनकी मुहरें लगाते हैं । बहुत से ऐसे मुद्दे है जिनपर बहस होनी चाहिये । अंत मे , इन सबसे महत्वपूर्ण यह प्रश्न कि क्या स्त्री मुक्ति आइसोलेशन मे हो सकती है ? क्या आदिवासियों , अल्पस्ंख्यकों या दलितों के प्रश्नों से जोडे बिना इस मुद्दे पर कोई बडी बहस खडी की जा सकती है । अगर एक बार यह सहमति बन सके तो गुजरात जैसी स्थिति से बचा जा सकता है जिसमे महिलाओं ने भी अल्पसख्यकों के सहांर मे हिस्सा लिया था ।मुझे 1990 का इलाहाबाद याद आ रहा है जहां मैं नियुक्त था और जो मडंल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के खिलाफ चल रहे आन्दोलन का केन्द्र था । मैने आन्दोलनकारियों के साथ सख्ती की तो बहुत सारे दूसरे तबकों के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की सवर्ण लड्कियों ने मेरे खिलाफ मोर्चा निकाला और अपनी पूरी कोशिशों के बावजूद मैं उन्हें यह नही समझा पाया कि उन्हें पिछ्डों के साथ खडा होना चाहिये । यदि उनके अन्दर यह समझ होती कि वे तो पिछडों में भी पिछ्डी हैं तो सम्भवत: उन्हे मेरी बात ज्यादा आसानी से समझ मे आ जाती। एक बार फिर अपने शब्दों के लिये माफी मांगते हुये मै अनुरोध करूंगा कि इन मुद्दों पर भी बातचीत की जाय।

Thursday, August 5, 2010

विवादित इंटरव्यू के बाद निभूति नारायण राय की सफाई

विभूति नारायण राय के इंटरव्यू पर पूरे हिंदी साहित्य में घमासान मचा है । कुलपति विभूति नारायण राय के माफी मांगने के बावजूद उनकी बर्खास्तगी की मांग हो रही है । हमें लगता है कि अगर किसी को उसकी गलती का एहसास हो जाए और वो उसपर सार्वजनिक रूप से लिखित और मौखिक माफी मांग ले तो उसे माफ कर दिया जाना चाहिए । इस पूरे मसले पर विभूति नारायण राय ने हाहाकार के लिए एक लेख लिखने का वादा किया है । जो जल्द ही प्रकाशित होगा । विवादित इंटरव्यू के बाद विभूति नारायण राय का ये पहला लेख जल्द ही हाहकार पर प्रकाशित होगा

Tuesday, August 3, 2010

'छिनाल' और 'लफंगे' से शर्मसार हिंदी साहित्य

पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्यरूप से शरीर केंद्रित है । यह भी कह सकते हैं कि वह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है । लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है । मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक कितनी बिस्तरों पर कितनी बार हो सकता है । इस तरह के उदाहरण बहुत सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे - यह कहना है महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय का । विभूति का यह विवादास्पद साक्षात्कार भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुआ है । तकरीबन हफ्तेभर पहले जब पत्रिका का अंक बाजार में आया तो हिंदी के लेखकों के बीच इस साक्षात्कार को लेकर कानाफूसी शुरू हो गई थी लेकिन खुला विरोध नहीं हो रहा था । अचानक से एक दिन दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित कर विवाद खड़ा कर दिया । अंग्रेजी अखबार के नादान संवाददाता ने छिनाल शब्द का अंग्रेजी अनुवाद प्रोस्टीट्यूट कर दिया । जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया । दरअसल छिनाल शब्द भोजपुरी के छिनार शब्द का परिष्कृत रूप है । यह एक आंचलिक शब्द है जिसका प्रयोग बिहार और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में किया जाता है । छिनाल उन स्त्रियों को कहा जाता है जो कुलटा होती हैं या फिर स्त्रियोचित मर्यादा को भंग कर अपनी मर्जी से कई पुरुषों से संबंध बनाती है । लेकिन वो किसी भी हाल में वेश्या नहीं होती । बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी इलाकों में शादी ब्याह के मौके पर गाए जानेवाले लोकगीतों में महिला और पुरुष दोनों को छिनाल या छिनार कहा जाता है । शादी ब्याह के मौके पर जब महिलाएं मंगलगीत गाती हैं तो उसमें दूल्हे की मां और मौसी और फूआ को गाली दी जाती है तो उनमें छिनार शब्द का प्रयोग किया जाता है । तो यह शब्द बिल्कुल आपत्तिजनक है लेकिन वेश्या जितना अपमानजनक नहीं है । यह गाली है और किसी भी लेखक को अपनी बिरादरी की महिलाओं के लिए इस शब्द के प्रयोग की इजाजत नहीं दी जा सकती है ।
जैसा कि उपर संकेत दिया जा चुका है कि यह इंटरव्यू लगभग हफ्तेभर से छपकर विवादित नहीं हो पा रहा था क्योंकि हिंदी सत्ता की भाषा नहीं है, सत्ता की भाषा तो अंग्रेजी है । और अंग्रेजी अखबार के गैर जिम्मेदाराना अनुवाद ने आग में घी का काम किया और विरोध की चिंगारी को भड़ा दिया । लेखिलाओं का जितना अपमान विभूति नारायण राय ने किया उससे ज्यादा बड़ा अपमान तो अंग्रेजी के वो अखबार कर रहे हैं जो लगातार लेखिकाओं को वेश्या बता रहे हैं । न्यूज चैनलों को भी इस मसालेदार खबर में संभावना दिखी और एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में उन्होंने छिनाल और वेश्या के अंतर को मिटा दिया। किसी ने भी यह जांचने –परखने की कोशिश नहीं की कि दोनों में क्या अंतर है । मीडिया में इसके उछलने के बाद विभूति नारायण राय पर चौतरफा हमला शुरू हो गया । हिंदी के लेखकों के अलावा कई महिला संगठनों ने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति को लेखिकाओं के खिलाफ इस अमर्यादित टिप्पणी को लेकर कठघरे में खड़ा किया और उनके इस्तीफे और बर्खास्तगी की मांग होने लगी। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल और राष्ट्रीय महिला आयोग तक भी ये मामाला पहुंच गया । लगभग मृतप्राय लेखक संगठनों में भी जान आ गई और उन्होंने भी विभूति नारायण राय के खिलाफ एक निंदा बयान जारी कर दिया । राय ने लेखिकाओं के खिलाफ बेहद अपमानजनक और अर्मायदित टिप्पणी की है । इस बात के लिए उनको लेखिकाओं से खेद प्रकट करना ही चाहिए ।
लेकिन इस इंटरव्यू और उसके बाद उसपर उठे विवाद ने एक बार फिर से हिंदी साहित्य में लेखिकाओं के आत्मकथाओं में अश्लील प्रसंगों की बहुतायत पर बहस का एक व्यापक आधार तैयार कर दिया है । पिछले दिनों कई लेखिकाओं की आत्मकथा प्रकाशित हुई जिसमें मैत्रेयी पुष्पा की – गुड़िया भीतर गुड़िया, प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या , मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी के अलावा कृष्णा अग्निहोत्री की लगता नहीं है दिल मेरा और ....और और औरत प्रमुख हैं । मन्नू जी की आत्मकथा को छोड़कर इन आत्मकथाओं में सेक्स प्रसंगों का उल्लेख मिलता है । विभूति नारायण राय जैसे हिंदी के शुद्धतावादियों को इन सेक्स प्रसंगों पर एतराज है और उन्हें लगता है कि ये जबरदस्ती ठूंसे और गढ़े गए हैं ताकि किताबों को चर्चा और पाठक दोनों मिले । ये लोग अपने तर्कों के समर्थन में जॉर्ज बर्नाड शॉ के एक प्रसिद्ध लेख का सहारा लेते हैं जिस लेख में उन्होंने आत्मकथाओं को झूठ का पुलिंदा बताया है । “ऑटोबॉयोग्राफिज़ आर लाइज़” में बर्नाड शा ने कई तर्कों और प्रस्थापनाओं से ये साबित करने की कोशिश की है कि आत्मकथा झूठ से भरे होते हैं । कुछ हद तक बर्नाड शॉ सही हो सकते हैं लेकिन ये कहना कि आत्मकथा तो झूठ का ही पुलिंदा होते हैं, पूरी तरह गले नहीं उतरती । बर्नाड शॉ के अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन विश्व साहित्य में कई ऐसे आत्मकथा हैं जिसमें कूट-कूट कर सच्चाई भरी होती है । हिंदी में भी कई ऐसे आत्मकथा हैं जो सचाई के करीब हैं और झूठ का सिर्फ झौंक लगाया गया है । हो सकता है कि इन एतराज में सचाई हो लेकिन लेखक क्या लिखेगा यह तो वही तय करेगा । शुद्धतावादियों और आलोचक तो ये तय नहीं करेंगे । कुछ आलोचकों का तर्क है कि महिला लेखिकाओं की आत्मकथाएं भी दलित लेखकों की आत्मकथाओं की तरह टाइप्ड होती जा रही हैं- जहां कि समाज के दबंग, लेखकों के परिवार की महिलाओं के साथ लगातार बदसलूकी करते हैं । इस तर्क में कुछ दम हो सकता है लेकिन दलित और महिलाओं की जो स्थिति भारतीय समाज में है उसमें यौन शोषण की स्थितियां भी तो सामान्य हैं । इन दोनों पक्षों के तर्कों पर साहित्य में एक लंबे और गंभीर विमर्श की गुंजाइश है ।
दूसरा बड़ा सवाल जो यह इंटरव्यू खड़ा करती है वो यह कि किसी भी पत्रिका के संपादक का क्या दायित्व होता है । अगर छिनाल शब्द कहने पर विभूति नारायण राय की चौतरफा आलोचना हो रही है तो उतनी ही तीव्रता से नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया को भी विरोध होना चाहिए । किसी भी पत्रिका में क्या छपे और क्या नहीं छपे इसकी जिम्मेदारी तो पूरे तौर पर संपादक की होती है । विभूति ने लेखिकाओं के लिए जो आपत्तिजनक शब्द कहे उसे रवीन्द्र कालिया को संपादित कर देना चाहिए था । अगर उन्होंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया तो उनकी मंशा इस साक्षात्कार को विवादित करने और नया ज्ञानोदय के उक्त अंक को चर्चित करने की थी । अगर संपादक की यह मंशा नहीं थी और असावधानीवश वो शब्द छूट गया तो विभूति के साथ-साथ उन्हें भी खेद प्रकट करना चाहिए ।
अंत में विनम्रतापूर्वक इतना कहना चाहूंगा कि हिंदी साहित्य में विमर्श के स्तर को इतना नहीं गिराइये जहां कोई लेखक अपनी साथी लेखिकाओं को छिनाल कहे और कोई लेखिका अपने साथ के लेखकों को लफंगा । गुस्से में या जानबूझकर दोनों ही स्थितियों में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा को लांघना अनुचित है ।
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