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Wednesday, August 18, 2010

कारण कवन नाथ मोहे मारा

नया ज्ञानोदय के अगस्त 2010 अंक मे छ्पे मेरे इंटरव्यू पर हुई प्रतिक्रियाओ से एक बात स्पष्ट हो गयी कि मैने अपनी लापरवाही से एक गम्भीर विमर्श का हेतु बन सकने का मौका गंवा दिया । मैने कुछ ऐसे शब्दो का प्रयोग किया जिनसे बचा जा सकता था। मुझे जैसे ही यह अहसास हुआ कि मेरी भाषा से हिन्दी की बहुत सी लेखिकाओं को कष्ट हुआ है मैने अपनी गलती का अहसास किया और बिना शर्त माफी मांग ली ।मैं शर्मिन्दा हूँ कि मेरी असावधानी से बहुत से ऐसे लोग आहत हुए जो मेरे वर्षों पुराने मित्र रहे है,इनमे बडी सख्यां में लेखिकायें भी हैं पर मेरे मन मे उनके लिये सम्मान भी बढा है कि मित्रता की परवाह किये बगैर उन्होने मेरी मजम्मत की। हालाकि कुछ लोग जो इस मामले को अन्य कारणों से जिन्दा रखना चाह्ते हैं, इन्टरव्यू में उठाये गये मुद्दों पर बहस न कर के अभी भी उन शब्दों के वाक्जाल मे उलझे हुए हैं जिनपर मै खुद खेद प्रकट कर माफी मांग चुका हूँ । मै मानता हूं कि इन लोगों की उपेक्षा कर अब मै मुद्दों पर बहस की अपेक्षा कर सकता हूं ।
यह कहना है महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का । दरअसल जिस बात पर विभूति अपने साथी लेखकों और हिंदी समाज से माफी मांग रहे हैं वो पूरा विवाद विभूति के ही एक साक्षात्कार से उठा । नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई विशेषांक में विभूति नारायण राय का एक लंबा इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है जिसमें एक सवाल के जबाव में विभूति कहते हैं - पिछले वर्षों में हमारे यहां जो स्त्री विमर्श हुआ है वह मुख्यरूप से शरीर केंद्रित है । यह भी कह सकते हैं कि वह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है । लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है । मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक कितनी बिस्तरों पर कितनी बार हो सकता है । इस इंटरव्यू के प्रकाशित होने के बाद हिंदी के लेखकों के बीच इस पर विमर्श शुरू हो गया था । लेकिन बड़े पैमाने पर इसका विरोध तो तब शुरू हुआ जब अचानक से एक दिन दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित कर विवाद खड़ा कर दिया । अंग्रेजी अखबार के संवाददाता ने छिनाल शब्द का अंग्रेजी अनुवाद प्रोस्टीट्यूट कर दिया । जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया । छिनाल उन स्त्रियों को कहा जाता है जो कुलटा होती हैं या फिर स्त्रियोचित मर्यादा को भंग कर अपनी मर्जी से कई पुरुषों से संबंध बनाती है । लेकिन वो किसी भी हाल में वेश्या नहीं होती । महिला लेखिकाओं के लिए कहा गया यह शब्द बिल्कुल आपत्तिजनक है लेकिन वेश्या जितना अपमानजनक नहीं है । यह गाली है और किसी भी लेखक को अपनी बिरादरी की महिलाओं के लिए इस शब्द के प्रयोग की इजाजत नहीं दी जा सकती है ।
जैसा कि उपर संकेत दिया जा चुका है कि यह इंटरव्यू लगभग हफ्तेभर से छपकर विवादित नहीं हो पा रहा था क्योंकि हिंदी सत्ता की भाषा नहीं है, सत्ता की भाषा तो अंग्रेजी है । अंग्रेजी अखबार के गैर जिम्मेदाराना अनुवाद ने आग में घी का काम किया और विरोध की चिंगारी को भड़का दिया । लेखिलाओं का जितना अपमान विभूति नारायण राय किया उससे ज्यादा बड़ा अपमान तो अंग्रेजी के वो अखबार कर रहे हैं जो लगातार लेखिकाओं को वेश्या बता रहे हैं । मीडिया में इसके उछलने के बाद विभूति नारायण राय पर चौतरफा हमला शुरू हो गया । हिंदी के लेखकों के अलावा कई महिला संगठनों ने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति को लेखिकाओं के खिलाफ इस अमर्यादित टिप्पणी को लेकर कठघरे में खड़ा किया और उनके इस्तीफे और बर्खास्तगी की मांग होने लगी।
मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल और राष्ट्रीय महिला आयोग तक भी ये मामाला पहुंच गया । लगभग मृतप्राय लेखक संगठनों में भी जान आ गई और उन्होंने भी विभूति नारायण राय के खिलाफ एक निंदा बयान जारी कर दिया । चौतरफा घिरे विभूति नारायण राय को मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने तलब किया और उनके यहां से निकलकर राय ने बिना शर्त लिखित माफी मांग ली । फिर अखबार में लेख लिखकर भी माफी मांगी। विभूति के विरोध के अलावा लेखकों ने नया ज्ञानोदय और उसके संपादक के खिलाफ भी मोर्चा खोला । ज्ञानोदय छापने वाली संस्था भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर पर प्रदर्शन भी किया । विरोध बढ़ता देखकर नया ज्ञानोदय के संपादक
रवीन्द्र कालिया ने इसे संपादकीय भूल मानते हुए खेद प्रकट किया और नया ज्ञानोदय का उक्त अंक बाजार से वापस मंगाकर विवादास्पद शब्द को हटाकर पत्रिका को फिर से छापने का वादा किया । लेकिन बावजूद इसके लेखकों का एक वर्ग इन दोनों का फांसी पर लटकाने को आमदा है । इनकी मांग है कि विभूति नारायण राय और कालिया को उनके पद से बर्खास्त किया जाए । इसके लिए बकायादा एक मोर्चे का गठन भी किया गया है । लेकिन माफी मांग लेने के बाद विरोध जारी रखने का औचित्य समझ में नहीं आता ।
विरोध पर डटे रहने के कुछ साहित्येत्तर कारण हो सकते हैं- या तो विभूति से व्यक्तिगत खुन्नस, कालिया से नाराजगी या फिर सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ गुस्से का दिखावा । किसी भी साहित्यिक मुद्दे पर लेखकों की इतनी सक्रियता चौंकानेवाली है । कुछ दिनों पहले हिंदी के ही एक अन्य लेखक भगवान दास मोरवाल के उपन्यास रेत के खिलाफ जब ‘गिहार’ समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाले एक संगठन- भारतीय आदिवासी गिहार विकास समिति ने उत्तर प्रदेश के छिबरामऊ की अदालत में उपन्यासकार के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया तो कहीं से कोई विरोध की आवाज तो दूर मोरवाल के समर्थन में किसी लेखक ने बयान तक नहीं दिया । लेखक संगठन तक कुंभकर्णी नींद सोते रहे । आज भी मोरवाल अकेले उस लड़ाई को लड़ रहे हैं । जमानत लेने से लेकर तमाम अदालती झंझटों से अकेले निबट रहे हैं । तसलीमा नसरीन को जब पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने कोलकाता से निकाला तो बयानबाजी की रस्म अदायगी की गई । कहीं भी धरना प्रदर्शन तो दूर की बात कोई हस्ताक्षर अभियान तक नहीं चला । हिंदी के एक स्वनामधन्य आलोचक, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक थे, को जब एक दलित छात्रा के यौन शोषण के आरोप में जब विश्वविद्यालय ने उन्हें हटा दिया तब भी उनका
विरोध किसी लेखक या लेखक संगठन ने नहीं किया । दरअसल हिंदी साहित्य में विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया के खेद प्रकट करने के बाद जो विरोध हो रहा है उसके पीछे कहीं ना कहीं कुछ दूसरे कारण हैं जो कम से कम साहित्यिक तो नहीं है । अब विशाल हिंदी समाज को यह तय करना है कि ये विरोध कितना जायज और किस उद्देश्य के लिए किया जा रहा है ।

1 comment:

Arvind Mishra said...

समीचीन सिंहावलोकन और बेबाक टिप्पणी ! साधुवाद !!