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Monday, March 21, 2011

संगीन इल्जाम, लचर दलील

भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से चौतरफा घिरी मनमोहन सरकार के लिए विकिलीक्स के खुलासे के बाद मुश्किलें और बढ़ गई हैं । मनमोहन सिंह की सरकार की साख पर लगातार लग रहे बट्टे ने प्रधानमंत्री की छवि को कमजोर किया है । यूपीए वन के दौरान जिस तरह से न्यूक्लियर डील पर सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद फरोख्त का खुलासा हुआ है, उसके बारे में उस वक्त भी काफी चर्चा हुई थी और जांच वगैरह भी हुई थी । लेकिन ताजा खुलासे ने विपक्ष को सरकार पर एक बार फिर हमला करने का मौका दे दिया । खुलासे पर फजीहत होते देख पहले सरकार के कद्दावर मंत्री और संकटमोचक प्रणब मुखर्जी ने मोर्चा संभाला । संसद में विपक्ष के हमलावर तेवर पर पलटवार करते हुए वित्त मंत्री ने यह कहकर विपक्ष के आरोपों की हवा निकालने की कोशिश की यह पूरा मामला चौदहवीं लोकसभा का है और पंद्रहवीं लोकसभा पिछली लोकसभा में हुई घटनाओं पर विचार नहीं कर सकती । इतने संगीन इल्जाम पर सरकार की ओर से वित्त मंत्री और कानून, संसदीय परंपरा और सरकारी नियमों के चलते फिरते इंसाइक्लोपीडिया माने जानेवाले प्रणब मुखर्जी ने बेहद हल्की बात करके पूरे देश को चौंका दिया । प्रणब मुखर्जी की याददाश्त का लोहा पूरा देश मानता है । क्या प्रणब मुखर्जी यह भूल गए कि जब इमरजेंसी के खत्म होने के बाद हुए चुनाव के बाद सातवीं लोकसभा का गठन हुआ थो तो सदन ने इंदिरा गांधी को उसके पहले के लोकसभा के दौरान उनके किए कार्यों पर कार्रवाई की थी । उस वक्त इंदिरा गांधी के निकट सहयोगी रहे प्रणब दा क्या यह भी भूल गए कि जब जनता सरकार के पतन के बाद उन्नीस सौ अस्सी में इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आई और आठवीं लोकसभा का गठन हुआ तो उसने फिर से पिछली लोकसभा के इंदिरा गांधी के मुतल्लिक लिए गए फैसलों को पलट दिया था । इन दोनों उदाहरणों से यह साबित होता है कि सरकार के सबसे बड़े संकटमोचक से चूक हो गई । क्या प्रणब मुखर्जी और कांग्रेस पार्टी कुछ ही दिन पहले लिए गए सरकार के निर्णय को ही भूल गई । कुछ ही दिन पहले सरकार ने टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय दल का गठन किया है जो पिछली लोकसभा के दौरान लिए गए निर्णयों को कसौटी पर कसेगा । इन आधारहीन तर्कों को खारिज करते हुए विपक्ष ने सरकार पर अपना हमला जारी रखा और प्रधानमंत्री से सदन में बयान देने का दबाव बढ़ा दिया । नतीजे में प्रधानमंत्री को संसद में बयान देना पड़ा ।
आक्रमण सबसे अच्छा बचाव की तर्ज पर प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया । अपनी सरकार और पार्टी का जोरदार बचाव करते हुए प्रधानमंत्री ने नोट के बदले वोट के आरोपों को खारिज करते हुए विपक्ष पर तीखा प्रहार किया । मनमोहन सिंह ने अपनी पिछली सरकार को बचाने के लिए सांसदों की खरीद फरोख्त के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए विपक्ष को यह कहते हुए आईना दिखाने की कोशिश की कि जनता ने आमचुनाव में विपक्ष के इन आरोपों को तवज्जो नहीं दी । कांग्रेस पार्टी को पिछले आमचुनाव में 2004 के चुनाव के मुकाबले ज्यादा सीटें मिली । प्रधानमंत्री मनमोहमन सिंह ने संसद में दिए अपने बयान में बीजेपी और वामदलों को चुनाव में मिली कम सीटें भी गिना दीं । मनमोहन सिंह ने यह तर्क दिया कि विपक्ष जनता द्वारा नकारे गए आरोपों को फिर से हवा देकर बेवजह सरकार को घेरने की कोशिश कर रहा है । अपने वित्त मंत्री की राह पर चलते हुए प्रधानमंत्री ने भी बेहद लचर तर्कों का सहारा लिया । क्या चुनाव जीत जाने से सारे आरोप और जुर्म खारिज हो जाते हैं । क्या सही गलत का फैसला जनता की अदालत में ही हुआ करेगी, क्या अब जांच एजेंसी और जांच कमेटियां बेमानी हो जाएंगी ।
अगर प्रधानमंत्री के इन बयानों को मान लिया जाए तो तमाम अपराधी और गुंडे जो विधायक या सांसद बन जाते हैं उनके जुर्म चुनाव जीतते ही खत्म हो जाते हैं । इस तर्क के आधार पर बिहार के बाहुबली सांसद रहे शाहबुद्दीन के तमाम जुर्म गलत हैं क्योंकि अदालत द्वारा मुजरिम करार दिए जाने और कोर्ट से चुनाव लड़ने पर रोक लगाने के पहले तो शाहबुद्दीन को जनता लगातार चुनकर लोकसभा में भेजती रही थी । क्या अपने बयान से प्रधानमंत्री यह संदेश देना चाह रहे हैं कि आप चाहें जितना भी बड़ा अपराध करें अगर जनता ने आपको चुन लिया है तो आपके सारे पाप धुल जाते हैं । क्या प्रधानमंत्री अपने इस बयान से डीएमके के नेताओं को यह संदेश देना चाह रहे हैं कि ए राजा पर चाहे एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के टेलीकॉम घोटाले का आरोप लगा हो लेकिन अगर वो फिर से चुनाव जीत जाते हैं तो सारे आरोप खारिज हो जाएंगे । देश के शीर्ष पद पर बैठा एक जिम्मेदार व्यक्ति अगर देश की सबसे बड़ी पंचायत में इस तरह का गैर जिम्मेदाराना बयान देता है तो लोकतंत्र के लिए बेहद चिंता की बात है । चिंता इस बात को लेकर भी होती है कि जिसके हाथ में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चलाने और उसकी गरिमा को बचाने की जिम्मेदारी है वह लोकतंत्र और जनता के समर्थन को ही घोटालों से बचने की ढाल बना रहा है । संसद में प्रधानमंत्री के उक्त बयान को कांग्रेस के लोग बेहद आक्रामक और हमलावर बयान करार देकर खुद की पीठ थपथपा रहे हैं । आक्रामक दिखने वाले उक्त बयान में ना तो गंभीरता है और ना ही दम ।
जिस तरह की लचर दलील और जनता के समर्थन की आड़ लेकर प्रधनामंत्री मनमोहन सिंह ने नोट के बदले वोट के आरोपों को नकारनेवाला बयान दिया है उसी से मिलता जुलता बयान लंदन में भारत के हाई कमिश्नर रहे बी के नेहरू ने भी दिया था । जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनावी गड़बड़ियों के आधार पर खारिज कर दिया था, तब बी के नेहरू ने कहा था कि अदालत के इस फैसले से इंदिरा गांधी के राजनीतिक भविष्य पर कोई असर नहीं पड़नेवाला है । श्रीमती गांधी को अब भी देश की जनता का जबरदस्त समर्थन हासिल है और मुझे लगता है कि भारत के प्रधानमंत्री को उस वक्त तक अपने पद पर बने रहना चाहिए जब तक कि जनादेश उनके खिलाफ ना हो । उस वक्त इंदिरा गांधी के चमचों ने उन्हें देश में इमरजेंसी लगाने की सलाह दी थी और पद छोड़ने के भयानक दबाव में श्रीमती गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा थी । उसके बाद क्या हुआ यह इतिहास है । अब वक्त आ गया है कि सरकार देश को गुमराह करना छोड़े, जनता की आड़ लेकर लोकतंत्र को कमजोर करनेवालों लोगों की इमानदारी से पहचान की जाए और उन्हें सख्त सजा मिले ताकि भविष्य में इस तरह की हरकतें नहीं दुहारई जाएं ।

Saturday, March 19, 2011

पत्रकारिता के अभिमन्यु !

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज में हिंदी पत्रकारिता और ग्लोबल समस्याएं विषय पर एक सेमिनार आयोजित था । कॉलेज के उत्साही शिक्षक डॉ हरीश अरोड़ा ने बेहद श्रमपूर्व दो दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी । दो दिनों की इस संगोष्ठी के अंतिम दिन और अंतिम सत्र में मुझे भी बोलना था । मेरा साथ वक्ता थी साप्ताहिक आउटलुक की सहायक संपादक गीताश्री और हमारे सत्र के अध्यक्ष थे डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा के के एएम मुंशी इंस्टीट्यूट ऑफ हिंदी स्टडीज के प्रोफेसर हरिमोहन । दो विद्वान वक्ताओं के बीच में मुझे ही सबसे पहले बोलना था । गीता जी मुझसे वरिष्ठ हैं और नब्बे के शुरुआती दशक में जब मैं दिल्ली आया था और काम और पहचान की तलाश से जूझ रहा था तो गीता जी ने ही मुझे पहला असाइनमेंट दिया था । उस वक्त वो स्वतंत्र भारत अखबार के आईएनएस दफ्तर में बैठती थी । इस अवांतर प्रसंग की चर्चा इस वजह से कर रहा हूं क्योंकि मुझे दोनों से पहले बोलना था और मेरी हालात खराब हो रही थी ।
जब मैं वहां पहुंचा तो सभागार लगभग भरा हुआ था लेकिन यह जानकर आश्चर्य हुआ कि श्रोताओं में दिल्ली विश्वविद्यालय के तमाम कॉलेज के पत्रकारिता विभाग से जुड़े शिक्षक मौजूद थे । पहले मुझे यह अंदाज था कि कॉलेज के पत्रकारिता विभाग के छात्र होंगे जिनसे बातचीत करनी होगी । खैर समारोह शुरू हुआ और मंच संचालन कर रहे सज्जन ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए पिछले दिन और पूर्वान्ह के सत्र में हुई बातचीत का संक्षिप्त ब्योरा दिया । पहली बात उन्होंने कही कि पूर्ववर्ती वक्ताओं ने मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के गिरते स्तर पर चिंता जताई । उन्होंने जोर देकर कहा कि न्यूज चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों ने खुद को अभिमन्यु बताया और कहा कि वो पत्रकारिता के चक्रव्यूह में फंस गए हैं और उससे निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ पा रहे हैं लिहाजा वहीं नौकरी करने को अभिशप्त हैं । दूसरी बात उन्होंने ब्लाग के माध्यम से हो रही पत्रकारिता को प्रमुखता से रेखांकित किया । इस भूमिका के बाद उन्होंने मुझे मंच पर आमंत्रित कर लिया । मैंने सबसे पहले खबरिया चैनलों के अभिमन्युयों को पत्रकारिता के चक्रव्यूह में फंसे होने पर दुख प्रकट किया । मेरा साफ तौर पर मानना है कि न्यूज चैनलों में कुछ ऐसे पत्रकारों की जमात है जो न्यूज चैनल के मंच का, उसके ग्लैमर का, उसकी पहुंच का इस्तेमाल कर अपनी छवि भी चमकाते हैं और जब भी जहां भी सार्वजनिक तौर पर बोलने का मौका मिलता है वहां न्यूज चैनलों को गरियाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते । उनका यह रूप और चरित्र मुझे हमेशा से परेशान करता है । मेरा मानना है कि यह अपने पेशे से एक तरह का छलात्कार है जो क्षणिक तो मजा देता है लेकिन पत्रकारिता का बड़ा नुकसान कर डालता है । खुद की छवि को चमकाने के लिए पत्रकारिता पर सवाल खड़े करनेवाले इन पत्रकारों की वजह से दूसरे लोगों को आलोचना का मौका और मंच दोनों मिल जाता है । मेरा मीडिया के उन अभिमन्युओं से नम्र निवेदन है कि वो अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसकर दम तोड़ने की बजाए युद्ध का मैदान छोड़ दें । अगर न्यूज चैनलों में उनका दम घुटता है तो वो वहां से तत्काल आजाद होकर अपना विरोध प्रकट करें लेकिन जिसकी खाते हैं उसको ही गरियाना कहां तक उचित है यह मेरी समझ से बाहर है । मैं कई न्यूज चैनलों के अभिमन्युओं से वाकिफ हूं और मेरे जानते अब तक ऐसा कोई वाकया सामने नहीं आया जहां इस तरह के पत्रकार वंधुओं ने व्यवस्था का विरोध किया हो । विरोध करना तो दूर की बात कभी अपनी नाखुशी भी जताई हो । मालिकों से सामने भीगी बिल्ली बने रहनेवाले इन पत्रकारों को सार्वजनिक विलाप से बचना चाहिए, यह उनके भी हित में है और पत्रकारिता के हित में भी । किसी भी चीज की स्वस्थ आलोचना हमेशा से स्वागतयोग्य है लेकिन वयक्तिगत छवि चमकाने के लिए की गई आलोचना निंदनीय है ।
दूसरी बात बताई गई कि हिंदी में ब्लाग के माध्यम बड़ा काम हो रहा है । यह बिल्कुल सही बात है कि ब्लाग और नेट के माध्यम से हिंदी के लिए बडा़ काम हो रहा है ।लेकिन कुछ ब्लागर और बेवसाइट जिस तरह से बेलगाम होते जा रहैं वह हिंदी भाषा के लिए चिंता की बात है । ब्लाग पर जिस तरह से व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए उलजलूल बातें लिखी जा रही हैं वो बेहद निराशाजनक हैं । कई ब्लाग तो ऐसे हैं जहां पहले किसी फर्जी नाम से कोई लेख लिखा जाता है फिर बेनामी टिप्पणियां छापकर ब्लैकमेलिंग का खेल शुरू होता है । कुछ कमजोर लोग इस तरह की ब्लैकमेलिंग के शिकार हो जाते हैं और कुछ ले देकर अपना पल्ला छुडा़ते हैं । लेकिन जिस तरह से ब्लाग को ब्लैकमेलिंग और चरित्रहनन का हथियार बनाया जा रहा है उनसे ब्लाग की आजादी और उसके भविष्य को लेकर खासी चिंता होती है । बेलगाम होते ब्लाग और बेवसाइट पर अगर समय रहते लगाम नहीं लगाया गया तो सरकार को इस दिशा में सोचने के लिए विवश होना पड़ेगा । ब्लाग एक सशक्त माध्यम है, गाली गलौच और बेसिर पैर की बातें लिखकर अपनी मन की भड़ास निकालने का मंच नहीं । इस बात पर हिंदी के झंडाबरदारों को गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है । मैंने विनम्रतापूर्वक ब्लाग पर चल रहे इस घटिया खेल पर विरोध जताया और हॉल में फैले सन्नाटे से मुझे लगा कि वहां मौजूद लोग मेरी बातों से सहमत हैं ।
चूंकि उक्त सेमिनार में दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ानेवाले शिक्षक उपस्थित थे और वैश्विक समस्या पर मुझे बोलना था । मुझे लगा कि पत्रकारिता की फैक्ट्री में काम करनेवाले लोग वहां मौजूद हैं इस वजह से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के सामने मुझे उनसे जुड़ी बात ही रखनी चाहिए । वैश्विक समस्या पर तो बाद में चर्चा हुई लेकिन सबसे पहले मैंने पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के बाबा आदम जमाने के होने की बात उठाई । कुछ दिनों पहले मैंने देश के सबसे प्रतिष्ठित युनिवर्सिटी में से एक के पत्रकारिता के छात्रों से मिला था जहां उनके सिलेबस पर बात की थी । प्रथम वर्ष में एक पेपर था- लेटर प्रेस और मुद्रण की विधियां । जब मैंने ये विषय देखा तो अपना सर पीट लिया । क्योंकि अखबार भी अब इनसे आगे निकल चुके थे । अब तो सारा कुछ कंप्यूटराइज्ड होता है । वो दिन लदे भी अब सालों हो गए जब लेटर प्रेस पर अखबार छपा करते थे । लेकिन हमारे युनिवर्सिटी के पत्रकारिता के छात्रों को अब भी लेटर प्रेस और मुद्रण की विधियां पढाई जा रही है । इसके अलावा भी अगर पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को देखें तो उसे समय के हिसाब से बिल्कुल नहीं बदला गया है । पता नहीं सालों पहले जब उसको बनाया गया था उसके बाद किसी ने भी उसको अद्यतन करने की जरूरत समझी या नहीं । अगर हम न्यूज चैनलों की कार्यपद्धति की बात करें तो उसमें तकनीक ने क्रातिकारी परिवर्तन किया है और हर रोज कोई ना कोई अपडेट हो रहा है जिसकी छात्रों को तो दूर विश्वविद्यालय में पढानेवाले शिक्षकों को भी जानकारी नहीं । तो पत्रकारिता की फैक्ट्री में जहां से देश के होनहार पत्रकार निकलते हैं वहां यह आधारभूत दोष अब भी कायम है और इसको दूर करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जाना अफसोसनाक है । अपनी इस चिंता को मैंने सेमिनार में जाहिर किया जिसपर बाद में कई शिक्षकों ने कड़ी आपत्ति जताई कि उनके ज्ञान पर सरेआम सवाल कैसे खड़ा किया जा रहा है । लेकिन बातचीत के बाद उन्होंने माना कि तकनीक के अपडेशन के बारे में उनकी जानकारी नहीं के बराबर है । छात्रों को कैमरा पढ़ानेवाले शिक्षक ने शायद ही कभी कैमरा देखा-छुआ हो यह जरूरी भी नहीं है लेकिन कम से कम कैमरा तकनीक में हुए आधुनिकीकरण के बारे में जानकारी तो होनी ही चाहिए । न्यूजरूम सिस्टम के बारे में तो पता होना ही चाहिए ।
सवाल सिर्फ पत्रकारिता के सिलेबस का नहीं है सवाल अन्य विषयों का भी है जहां के सिलेबस में समय के साथ बदलाव नहीं किया गया । शिक्षा के तमाम कर्ताधर्ताओं को भी कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई । अब वक्त आ गया है कि सरकार को इस ओर तत्काल ध्यान देकर इन खामियों को दूर करना होगा ताकि देश में शिक्षा का स्तर उंचा हो सके और कॉलेजों में दी जानेवाली शिक्षा का उपयोग नौकरी में हो सके ।

Monday, March 14, 2011

लोक से दूर होती कविता !

एक दिन दफ्तर के साथियों से कविता पर बात शुरू हुई । मेरे मन में सवाल बार-बार कौध रहा था खि अब कोई दिनकर, बच्चन या श्याम नारायण पांडे जैसी कविताएं कोई क्यों नहीं लिखता । आज जिस तरह की कविताएं लिखी जा रही हैं वो सिर्फ कुछ खास लोगों की समझ में आती है और एक सीमित दायरे में ही उसका प्रचार प्रसार और सम्मान मिलता है , लोक के बीच ना तो उन्हें प्रियता हासिल होती है और ना ही वो लोगों की जुबान पर चढ़ जाता है । कविता के मामले में मेरी जानकारी बिल्कुल नहीं है लेकिन बहुधा मन में यह सवाल उठता है कि छंद वाली कविता या फिर जोश या जुनून पैदा करनेवाली कविता क्यों नहीं लिखी जा रही है । आज भी दिनकर की पंक्तियां- रे रोक युधिष्ठिर को ना यहां जाने दे उसको स्वर्ग धीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर या फिर बच्चन की – बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला या फिर श्याम नारायण पांडे की – रण बीच चौकड़ी भर-भर कर,चेतक बन गया निराला था, राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा को पाला था- जैसी कविता क्यों नहीं लिखी जा रही है । मेरे इन सवालों पर मेरे एक मित्र ने कहा कि प्रगतिवादियों के विकास ने और साहित्य पर वामपंथियों के दबदबे ने इस तरह की कविता को बहुत नुकसान पहुंचाया । मैंने जब इसका विरोध किया तो वो और मजबूती से अपनी बात कहने लगे । उनका तर्क था कि जिस तरह से हिंदी में एक खास तरह की विचारधारा वाली कविता का दौर शुरू हुआ और मार्क्सवादी आलोचकों ने उसको जिस तरह से उठाया उसने कविता का बड़ा नुकसान किया । उनका तर्क था कि मार्क्सवादी आलोचकों ने विचारधाऱा वाली कविता को श्रेष्ठ साबित करने के लिए छंद में कविता लिखनेवालों को मंचीय कवि कहकर मजाक उड़ाना शुरू कर दिया । पूरे हिंदी साहित्य में ऐसा परिदृश्य निर्मित कर दिया गया कि अगर आप छंदोबद्ध कविता करते हैं और मंच पर सुर में कविता पाठ करते हैं तो आप प्रतिष्ठित कवि या गंभीर कवि नहीं हैं । उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि इस दुष्प्रचार का नतीजा यह हुआ कि आगे आनेवाली पीढ़ी ने छंद वाली कविता लिखना बंद कर दिया । मंच पर जाना बंद कर दिया । कविता का जो संवाद लोक से होता वह बंद हो गया । मंच पर होनेवाली कवि गोष्ठी से लोगों में पढ़ने का जो एक संस्कार बनता था वह खत्म हो गया । किसी कवि की अगर कोई रचना लोगों को पसंद आती थी तो श्रोता उसकी किताब ढूंढते थे और खोजकर उसको ना केवल खरीदते थे बल्कि पढ़कर उसपर चर्चा करते थे । इस तरह से समाज में कवि और कविता को लेकर एक संस्कार एक समझ विकसित होती थी । लेकिन कवि गोष्ठी के खत्म होने या फिर कमरों में सिमट जाने से कवियों का जो एक वृहत्तर संवाद होता था उसका दायरा भी सिमट गया । इसका नतीजा यह हुआ कि पाठकों में भी कमी आई, रचना का प्रचार प्रसार कम से कमतर होता चला गया । पाठकों को नई रचनाओं के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई जिसके आभाव में कविता संग्रह या तो प्रकाशकों के पास सालों साल रहते रहे या फिर सरकारी खरीद के बूते लाइब्रेरी शोभा बढ़ाते रहे ।
मेर मित्र अपनी बातें इस मजबूती से कह रहे थे कि हम तीन लोग भावविभोर होकर उनको सुन रहे थे । बीच बीच में टोका टाकी उनको और मजबूती प्रदान कर रही थी लेकिन उनके तर्कों में ताकत थी जिस वजह से हम उन्हें सुनना चाह रहे थे । नई पीढ़ी के कवियों के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि नए लड़कों को लगने लगा कि अगर वो विचारधाऱा की या आम आदमी की यथार्थवादी कविता नहीं लिखेंगे तो हिंदी साहित्य में उनकी नोटिस नहीं ली जाएगी, उनकी पहचान नहीं बन पाएगी, उनको पुरस्कार आदि नहीं मिल पाएगा । यह उस माहौल का नतीजा था जो मार्क्सवादी आलोचकों और उस दौर के कर्ता-धर्ताओं ने बनाया था । लेकिन जिस यथार्थवाद और आम आदमी की आड़ में पूरा आंदोलन चल रहा था वही कविता से दूर होता चला गया । हम काफी देर तक उनकी बातें सुनते रहे लेकिन अचानक से मेरे दूसरे मित्र ने हस्तक्षेप किया और उनको रोकते हुए कहा कि वो जिस तरह से पूरे परिदृश्य का सरलीकरण या सामान्यीकरण कर रहे हैं वो उचित नहीं है । अब दोनों थोड़े भिड़ने के अंदाज में बहस करने लगे । दूसरे मित्र का तर्क था कि बाद के दिनों में माहौल बदला और समादज के सामने कोई चुनौती नहीं थी कोई बड़ा लक्ष्य नहीं था । जोश और जुनून बाले दौर में देश की आजादी और उसके बाद की स्थितियां जिम्मेदार थी । बाद में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो भी वीररस से सराबोर कविताएं लिखी गई । उसके बाद इमरजेंसी के दौर में नागार्जुन ने भी कई लोकप्रिय कविताएं लिखी जो जनता की जुबान पर ही नहीं चढ़ी बल्कि जयप्रकाश आंदोलन के दौर में आंदोलनकारियों के लिए प्रेरक भी साबित हुई । कविता पर अच्छी बहस चल रही थी जिसमें मैं अपनी अज्ञानता की वजह से कोई खास हस्तक्षेप नहीं कर पा रहा था । लेकिन फिर भी बार बार मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि आज की कविता जनता से दूर क्यों हो गई है ।
इस बहस के कुछ दिन बाद कवि मित्र तजेन्द्र लूथरा का संदेश मिला कि वो अपने घर पर एक कवि गोष्ठी का आयोजन कर रहे हैं जो अनौपचारिक होगा जिसमें कुछ कवि मित्र अपनी रचनाएं सुनाएंगे और मिल बैठकर बातें करेंगे । मेरी कवि गोष्ठी में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही लेकिन कुछ दिनों पहले कविता पर हो रही बहस और कवि मित्रों से मिलने का लोभ ने मुझसे हां करवा लिया । दिल्ली की ट्रैफिक से जूझता जब में उनके घर पहुंचा तो कवि गोष्ठी शुरू हो चुकी थी और युवा कवि राजेन्द्र शर्मा अपनी कविता का पाठ कर रहे थे । श्रोताओं में कवियत्रि शबनम, बिपिन चौधरी, गोल्डी मल्होत्रा, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ममता जी, बरखा सिंह, मदन कश्यप, मिथिलेश श्रीवास्तव और वरिष्ठ कवि विष्णु नागर मौजूद थे । जो श्रोता ते वही कवि भी थे, मेरे जैसे दो लोग और थे जो शुद्ध रूप से श्राता थे । वहां भी साफ तौर पर छंद वाली कविता और यथार्थवादी कविता का फर्क मुझे दिखा लेकिन जिस तरह की कविता शबनम, गोल्डी मल्होत्रा, ममता जी और लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने सुनाई वो समस्याओं के अलावा कर्णप्रिय भी था । उस दिन मुझे जो एक खास बात नजर आई वो यह कि कविता में अब आरटीआई से लेकर पीआईएल जैसे शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है । मौजूद सभी कवियों को तीन तीन कविताएं सुनाने की छूट थी । तजेन्द्र शर्मा की कविता शब्द से बातचीत मुझे बेहद पसंद आई दूसरी कविता लुहार का डर समाज की कई प्रवृतियों पर चोट करती प्रतीत हुई । इस अनौपचारिक गोष्ठी का संचालन पत्रकार-कवि-उपन्यासकार अरुण आदित्य कर रहे थे । उनकी कविता एक फूल का बॉयोडाटा और कागज का आत्मकथ्य बड़े सवाल तो खड़े कर ही रही थी समाज को हकीकत का आईना भी दिखा रही थी । दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष बरखा सिंह ने भी कुछ गजलें गाकर सुनाई । विष्णु नागर और मदन कश्यप ने भी गंभीरता से अपनी बात अपनी कविता में कही ।उसी कवि गोष्ठी के बाद राजेन्द्र शर्मा ने एक छोटी सी पुस्तिका- गाथा पांवधोई की – मुझे दी । घर आकर जब उसे पलटा तो जानकर खुशी हुई कि सहारनपुर में पांवधोई नदी जो कि नाले में तब्दील हो गई थी उसका जीर्णोद्धार जिलाधिकारी आलोक कुमार ने स्थीनय जनता की मदद से करवाया । उत्तर प्रदेश में यह अपने तरह की अनोखी पहल थी जहां प्रशासन ने जनसहयोग से जनहित के एक ऐसे काम को अंजाम देकर अपनी ऐतिहासिक विरासत को संवारा । इस एक छोटी सी घटना से अगर उत्तर प्रदेश में प्रशासन और जन सहयोग का नया अध्याय शुरू हो सके तो सूबे के लोगों के लिए बेहतर होगा ।