पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज में हिंदी पत्रकारिता और ग्लोबल समस्याएं विषय पर एक सेमिनार आयोजित था । कॉलेज के उत्साही शिक्षक डॉ हरीश अरोड़ा ने बेहद श्रमपूर्व दो दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी । दो दिनों की इस संगोष्ठी के अंतिम दिन और अंतिम सत्र में मुझे भी बोलना था । मेरा साथ वक्ता थी साप्ताहिक आउटलुक की सहायक संपादक गीताश्री और हमारे सत्र के अध्यक्ष थे डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा के के एएम मुंशी इंस्टीट्यूट ऑफ हिंदी स्टडीज के प्रोफेसर हरिमोहन । दो विद्वान वक्ताओं के बीच में मुझे ही सबसे पहले बोलना था । गीता जी मुझसे वरिष्ठ हैं और नब्बे के शुरुआती दशक में जब मैं दिल्ली आया था और काम और पहचान की तलाश से जूझ रहा था तो गीता जी ने ही मुझे पहला असाइनमेंट दिया था । उस वक्त वो स्वतंत्र भारत अखबार के आईएनएस दफ्तर में बैठती थी । इस अवांतर प्रसंग की चर्चा इस वजह से कर रहा हूं क्योंकि मुझे दोनों से पहले बोलना था और मेरी हालात खराब हो रही थी ।
जब मैं वहां पहुंचा तो सभागार लगभग भरा हुआ था लेकिन यह जानकर आश्चर्य हुआ कि श्रोताओं में दिल्ली विश्वविद्यालय के तमाम कॉलेज के पत्रकारिता विभाग से जुड़े शिक्षक मौजूद थे । पहले मुझे यह अंदाज था कि कॉलेज के पत्रकारिता विभाग के छात्र होंगे जिनसे बातचीत करनी होगी । खैर समारोह शुरू हुआ और मंच संचालन कर रहे सज्जन ने पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए पिछले दिन और पूर्वान्ह के सत्र में हुई बातचीत का संक्षिप्त ब्योरा दिया । पहली बात उन्होंने कही कि पूर्ववर्ती वक्ताओं ने मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के गिरते स्तर पर चिंता जताई । उन्होंने जोर देकर कहा कि न्यूज चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों ने खुद को अभिमन्यु बताया और कहा कि वो पत्रकारिता के चक्रव्यूह में फंस गए हैं और उससे निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ पा रहे हैं लिहाजा वहीं नौकरी करने को अभिशप्त हैं । दूसरी बात उन्होंने ब्लाग के माध्यम से हो रही पत्रकारिता को प्रमुखता से रेखांकित किया । इस भूमिका के बाद उन्होंने मुझे मंच पर आमंत्रित कर लिया । मैंने सबसे पहले खबरिया चैनलों के अभिमन्युयों को पत्रकारिता के चक्रव्यूह में फंसे होने पर दुख प्रकट किया । मेरा साफ तौर पर मानना है कि न्यूज चैनलों में कुछ ऐसे पत्रकारों की जमात है जो न्यूज चैनल के मंच का, उसके ग्लैमर का, उसकी पहुंच का इस्तेमाल कर अपनी छवि भी चमकाते हैं और जब भी जहां भी सार्वजनिक तौर पर बोलने का मौका मिलता है वहां न्यूज चैनलों को गरियाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते । उनका यह रूप और चरित्र मुझे हमेशा से परेशान करता है । मेरा मानना है कि यह अपने पेशे से एक तरह का छलात्कार है जो क्षणिक तो मजा देता है लेकिन पत्रकारिता का बड़ा नुकसान कर डालता है । खुद की छवि को चमकाने के लिए पत्रकारिता पर सवाल खड़े करनेवाले इन पत्रकारों की वजह से दूसरे लोगों को आलोचना का मौका और मंच दोनों मिल जाता है । मेरा मीडिया के उन अभिमन्युओं से नम्र निवेदन है कि वो अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंसकर दम तोड़ने की बजाए युद्ध का मैदान छोड़ दें । अगर न्यूज चैनलों में उनका दम घुटता है तो वो वहां से तत्काल आजाद होकर अपना विरोध प्रकट करें लेकिन जिसकी खाते हैं उसको ही गरियाना कहां तक उचित है यह मेरी समझ से बाहर है । मैं कई न्यूज चैनलों के अभिमन्युओं से वाकिफ हूं और मेरे जानते अब तक ऐसा कोई वाकया सामने नहीं आया जहां इस तरह के पत्रकार वंधुओं ने व्यवस्था का विरोध किया हो । विरोध करना तो दूर की बात कभी अपनी नाखुशी भी जताई हो । मालिकों से सामने भीगी बिल्ली बने रहनेवाले इन पत्रकारों को सार्वजनिक विलाप से बचना चाहिए, यह उनके भी हित में है और पत्रकारिता के हित में भी । किसी भी चीज की स्वस्थ आलोचना हमेशा से स्वागतयोग्य है लेकिन वयक्तिगत छवि चमकाने के लिए की गई आलोचना निंदनीय है ।
दूसरी बात बताई गई कि हिंदी में ब्लाग के माध्यम बड़ा काम हो रहा है । यह बिल्कुल सही बात है कि ब्लाग और नेट के माध्यम से हिंदी के लिए बडा़ काम हो रहा है ।लेकिन कुछ ब्लागर और बेवसाइट जिस तरह से बेलगाम होते जा रहैं वह हिंदी भाषा के लिए चिंता की बात है । ब्लाग पर जिस तरह से व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए उलजलूल बातें लिखी जा रही हैं वो बेहद निराशाजनक हैं । कई ब्लाग तो ऐसे हैं जहां पहले किसी फर्जी नाम से कोई लेख लिखा जाता है फिर बेनामी टिप्पणियां छापकर ब्लैकमेलिंग का खेल शुरू होता है । कुछ कमजोर लोग इस तरह की ब्लैकमेलिंग के शिकार हो जाते हैं और कुछ ले देकर अपना पल्ला छुडा़ते हैं । लेकिन जिस तरह से ब्लाग को ब्लैकमेलिंग और चरित्रहनन का हथियार बनाया जा रहा है उनसे ब्लाग की आजादी और उसके भविष्य को लेकर खासी चिंता होती है । बेलगाम होते ब्लाग और बेवसाइट पर अगर समय रहते लगाम नहीं लगाया गया तो सरकार को इस दिशा में सोचने के लिए विवश होना पड़ेगा । ब्लाग एक सशक्त माध्यम है, गाली गलौच और बेसिर पैर की बातें लिखकर अपनी मन की भड़ास निकालने का मंच नहीं । इस बात पर हिंदी के झंडाबरदारों को गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है । मैंने विनम्रतापूर्वक ब्लाग पर चल रहे इस घटिया खेल पर विरोध जताया और हॉल में फैले सन्नाटे से मुझे लगा कि वहां मौजूद लोग मेरी बातों से सहमत हैं ।
चूंकि उक्त सेमिनार में दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ानेवाले शिक्षक उपस्थित थे और वैश्विक समस्या पर मुझे बोलना था । मुझे लगा कि पत्रकारिता की फैक्ट्री में काम करनेवाले लोग वहां मौजूद हैं इस वजह से कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के सामने मुझे उनसे जुड़ी बात ही रखनी चाहिए । वैश्विक समस्या पर तो बाद में चर्चा हुई लेकिन सबसे पहले मैंने पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के बाबा आदम जमाने के होने की बात उठाई । कुछ दिनों पहले मैंने देश के सबसे प्रतिष्ठित युनिवर्सिटी में से एक के पत्रकारिता के छात्रों से मिला था जहां उनके सिलेबस पर बात की थी । प्रथम वर्ष में एक पेपर था- लेटर प्रेस और मुद्रण की विधियां । जब मैंने ये विषय देखा तो अपना सर पीट लिया । क्योंकि अखबार भी अब इनसे आगे निकल चुके थे । अब तो सारा कुछ कंप्यूटराइज्ड होता है । वो दिन लदे भी अब सालों हो गए जब लेटर प्रेस पर अखबार छपा करते थे । लेकिन हमारे युनिवर्सिटी के पत्रकारिता के छात्रों को अब भी लेटर प्रेस और मुद्रण की विधियां पढाई जा रही है । इसके अलावा भी अगर पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को देखें तो उसे समय के हिसाब से बिल्कुल नहीं बदला गया है । पता नहीं सालों पहले जब उसको बनाया गया था उसके बाद किसी ने भी उसको अद्यतन करने की जरूरत समझी या नहीं । अगर हम न्यूज चैनलों की कार्यपद्धति की बात करें तो उसमें तकनीक ने क्रातिकारी परिवर्तन किया है और हर रोज कोई ना कोई अपडेट हो रहा है जिसकी छात्रों को तो दूर विश्वविद्यालय में पढानेवाले शिक्षकों को भी जानकारी नहीं । तो पत्रकारिता की फैक्ट्री में जहां से देश के होनहार पत्रकार निकलते हैं वहां यह आधारभूत दोष अब भी कायम है और इसको दूर करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया जाना अफसोसनाक है । अपनी इस चिंता को मैंने सेमिनार में जाहिर किया जिसपर बाद में कई शिक्षकों ने कड़ी आपत्ति जताई कि उनके ज्ञान पर सरेआम सवाल कैसे खड़ा किया जा रहा है । लेकिन बातचीत के बाद उन्होंने माना कि तकनीक के अपडेशन के बारे में उनकी जानकारी नहीं के बराबर है । छात्रों को कैमरा पढ़ानेवाले शिक्षक ने शायद ही कभी कैमरा देखा-छुआ हो यह जरूरी भी नहीं है लेकिन कम से कम कैमरा तकनीक में हुए आधुनिकीकरण के बारे में जानकारी तो होनी ही चाहिए । न्यूजरूम सिस्टम के बारे में तो पता होना ही चाहिए ।
सवाल सिर्फ पत्रकारिता के सिलेबस का नहीं है सवाल अन्य विषयों का भी है जहां के सिलेबस में समय के साथ बदलाव नहीं किया गया । शिक्षा के तमाम कर्ताधर्ताओं को भी कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई । अब वक्त आ गया है कि सरकार को इस ओर तत्काल ध्यान देकर इन खामियों को दूर करना होगा ताकि देश में शिक्षा का स्तर उंचा हो सके और कॉलेजों में दी जानेवाली शिक्षा का उपयोग नौकरी में हो सके ।
1 comment:
It was extremely well written and thought provoking writeup- like all your other previous blogs.
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