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Monday, February 28, 2011

सपने भी सच होते हैं

क्या आपने कभी कोई सपना देखा है । क्या आपने कभी सपने को हकीकत में बदलते देखा है । कम ही ऐसे लोग होते हैं जिनके ख्बाव हकीकत में बदलते हैं, जो अपने सपनों को महसूस करते हुए उसके साथ जीते हैं । अभी कुछ दिनों पहले मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ जो एक सपने के सच होने जैसा था । पिछले दिनों बातों-बातों में तय हुआ कि दफ्तर के कुछ लोग पहाड़ों पर चलें । दफ्तर के दोस्तों के साथ शिमला नारकंडा जाने का कार्यक्रम बना, प्रस्ताव भी हमारे बॉस संजीव पालीवाल की तरफ से आया था और हमारे ग्रुप की अगुवाई भी उन्हें ही करनी थी । मैं तकरीबन पंद्रह साल पहले सड़क मार्ग से अपने परिवार के साथ शिमला गया था । धुंधली सी स्मृति मेरे जेहन में थी । खतरनाक और घुमावदार पहाड़ी रास्ते का अंदाजा भी था । इसलिए जब यह तय हुआ कि अपनी गाड़ियों से नारकंडा चलेंगे तो मन में एक अजीब सा डर था । पहाड़ी रास्तों पर ना जाने का अनुभव इस डर को बढ़ा रहा था । घबराहट इस बात की भी हो रही थी मुझे अपने वरिष्ठ सहयोगी तसलीम खान की गाड़ी में जाना था । खान साहब गाड़ी बेहद तेज चलाते हैं सौ सवा सौ किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से तो आमतौर पर चलाते ही हैं, ड्राइविंग के वक्त एडवेंचरस भी हो जाते हैं । कभी जब भी ऑफिस से उनके साथ घर लौटा हूं, राम-राम करते ही बारह किलोमीटर का रास्ता कटता है । हलांकि गाड़ी पर उनका नियंत्रण रहता है लेकिन फिर भी सांस अटकी रहती है । खैर पहाड़ पर बर्फ देखने का जोश उस डर पर भारी पड़ा और हम सात लोग दो गाड़ियों में भरकर जन्नत देखने निकल पड़े । दिल्ली से निकलते ही खान साहब ने अपनी गाड़ी का एक्सीलेटर दबा दिया और गाड़ी के स्पीडोमीटर का कांटा एक सौ पचास को चूमने को बेताब होने लगा। उसकी बेकरारी लगातार बनी रही और वो डेढ़ सौ के साथ गलबहियां करता रहा और साथ वाली सीट पर बैठा मैं मन ही मन हनुमान चालीसा बुदबुदाता रहा । खैर स्पीडोमीटर और उसकी सुई का रोमांस जारी था लेकिन अंबाला के आसपास कोहरा खलनायक बनकर रास्ते पर आ गया और उसने कांटे और डेढ़ सौ के निशान को काफी समय तक दूर कर दिया । फिर तो इन दोनों का मिलन लौटते वक्त ही सोनीपत में हो पाया ।
दिल्ली से सुबह निकले हम सब लोग तकरीबन ग्यारह बजे जाबली में रुके और वहां एक होटल में रुककर पूड़ी और आलू की सब्जी का नाश्ता किया । हिमाचल में घुसते ही बेहद स्वादिष्ठ खाना इस बात की आश्वस्ति दे रहा था कि आनेवाले दो दिन अच्छा भोजन मिलेगा । थोड़ी देर रुककर हमलोग फिर रवाना हो गए । लेकिन इस बीच मेरी सीट बदल गई थी और मैं पीछे बैठ गया था इसलिए स्पीडोमीटर और सुई के खतरनाक रोमांस को देख नहीं पा रहा था, दूसरी तरफ पहाड़ी रास्ता शुरू होने के बाद इस रोमांस पर ब्रेक भी लग चुका था । जाबली से हम आगे बढ़े तो एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ हजारो फीट गहरी खाई देखकर डर थोड़ा और बढ़ा लेकिन घंटे भर की ड्राइव के बाद ये डर जाता रहा और फिर मैं उस घुमावदार रास्ते को इंज्वॉय करने लगा । नारकंडा पहुंचने के पहले ही, कुफरी से ही बर्फ दिखने लगा था । सड़क के एक तरफ पहाड़ और उस पर जमी बर्फ, हमें पागल बना रहा रहा था । बर्फ को छूने और उसपर खड़े होने का टेंपटेशन पर काबू पाना मुमकिन नहीं था । आखिरकार जगह मिलते ही हमने गाड़ी रास्ते में खड़ी की और बर्फ पर कूद पड़े । मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार इतना बर्फ देखा था । अबतक या तो फ्रिज में जमे बर्फ या फिर स्कूल के दिनों में बर्फ रगड़कर जो गोला मिलता था उसे देखा था । हां जब दिल्ली आया था तो किंग्सवे कैंप से सेंट्रल सेक्रेटेरियट बाली बस में बैठा मलकागंज के बाद बर्फखाना के आसपास ठेले पर लदी बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्ली देखी थी । लेकिन बर्फ का पहाड़ देखकर हमारी खुशी सातवें आसमान पर थी । संजीव जी ने हमारे उत्साह को यह कहकर हवा दे दी कि आगे तो और भी बर्फ मिलेगी ।
चलते चलाते तकरीबन शाम पांच बजे हमलोग नारकंडा पहुंच गए । नारकंडा बाजार में हम थोड़ी देर रुके और खाने-पीने का सारा सामान अपनी गाड़ी में लाद कर वहां से दस बारह किलोमीटर दूर घरयौती के लिए रवाना हो गए । घरयौती में हमें संजीव जी के घर में रुकना था । जैसे ही हम नारकंडा से थोड़ा नीचे उतरे इतनी बर्फ जमा थी कि हम खुद को रोक नहीं पाए । दोनों गाड़ियां रुक गई और हम सात लोग बाहर बर्फ पर । संजीव जी और तसलीम जी हमारी तस्वीरें लेने लगे क्योंकि ये दोनों पहले भी पहाड़ों पर खूब घूम चुके थे । पंकज तो हिमाचल के रहनेवाले ही थे लेकिन बावजूद इसके उनका उत्साह जबदरदस्त था । लेकिन बाकी चार- धीरज, आशुतोष, अमित और मैं तो बर्फ पर चढ़ता ही चला गया । जैसे जैसे आगे जा रहे थे बर्फ बढ़ता जा रहा था । अभी तक मैंने फिल्मों में इतनी बर्फ देखी थी, मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि बर्फ पर सोया भी जा सकता है । स्कीइंग करती तस्वीरें तो देखी थी लेकिन बीस फीट की उंचाई से बर्फ पर सरकना..उफ्फ...क्या अनुभव था । सारे बर्फ सूखे थे लेकिन कपड़ों के अंदर जाकर शैतानी पर उतारू थे, पिघलकर हमें गुदगुदाने में लगे थे । खैर तकरीबन आधे घंटे की धींगामुश्ती के बाद हम सूखे बर्फ के ठंडे और सुखद एहसास के साथ घर की ओर रवाना हो गए।
बारह तेरह घंटे की सड़क यात्रा के बाद कोई थकान नहीं, यह तो देवभूमि में ही संभव था, वर्ना दिल्ली में तो अगर आप मयूर विहार से रोहिणी चले जाइये तो आपके दम निकल जाएगा। खैर हम जा पहुंचे घरयौती । नीचे गाड़ी खड़ी करके तकरीबन 25-30 मीटर की उंचाई पर स्थित संजीव जी के घर तक पहुंचना था । मैंने कंधे पर अपना सामान उठाया और हाथ में चिप्स का पैकेट लेकर चढ़ाई चढ़ने लगा । पगडंडियों से चलते हुए उपर पहुंचना था । तसलीम जी जितनी तेज गाड़ी चला कर आए थे उतनी ही धीमी रफ्तार से चढ़ाई चढ़ रहे थे । उन्होंने मुझे भी धीरे चलने की सलाह दी लेकिन मैं जोश में तेज चल गया लेकिन चंद मीटर के बाद ही औकात में आ गया । फिर तो कंधे पर लटका बैग तो भारी लगने ही लगा, हाथ में मौजूद दस ग्राम का चिप्स का पैकेट भी वजनी महसूस होने लगा। अनुरोध कर पंकज को चिप्स का पैकेट थमाया और फिर धीरे-धीरे घर तक पहुंचा । सेब के बगीचे के बीच तीन फ्लोर का लकड़ी का बना मकान बेहद आकर्षक लग रहा था । बॉलकनी में खड़े होकर आप दूर तक फैले पर्वत श्रृंखला को देख सकते हैं । दूर-दूर तक फैला पहाड़, उसपर जमी बर्फ और काफी दूर- दूर बसे घर । मनोहारी दृश्य, हर फ्रेम ऐसा कि जहां मन हो वहां कैमरा क्लिक कर दो, तस्वीर बेहतरीन ही आएगी । इतने लंबे सफर और थोड़े पैदल चढाई के बाद भी हम सबलोग उर्जा से लबरेज । धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगा,ठंडी हवा के झोंकों के बीच रसरंजन का कार्यक्रम बना । घर का केयर टेकर नंदू ने बॉन फायर का इंतजाम कर रखा था । चारो तरफ पहाड़, उसपर जमी बर्फ, साफ और खुला आसमान, सामने जल रही आग और साथ में रसरंजन । आसमान के तारे भी हमारे साथ इस माहौल में शामिल होने को बेताब लग रहे थे, तभी तो सितारे बेहद करीब लग रहे थे । लग रहा था कि हाथ उठाकर सितारों को छू सकते हैं । माहौल को आशुतोष ने रूमानी बना दिया । अपने मोबाइल से साठ के दशक के रूमानी गाने बजा कर । बॉन फायर और रसरंजन का यह कार्यक्रम रात के दो बजे तक चलता रहा । आठ हजार फीट की उंचाई पर यह सब जारी था । मैंने तो कभी सपने में भी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि सेब की लकड़ी जलाकर आग तापेंगे । जब मैं अपने गांव में रहता था तो सेब घर में तभी आता था जब कोई बीमार पड़ता था । उसी सेब की लकड़ी का बॉन फाय़र । अकल्पनीय लेकिन हो रहा था ।
अगले दिन सुबह हम हाटू पीक जाने के लिए निकले लेकिन रास्ते पर इतनी बर्फ जमी थी कि गाड़ी जा नहीं सकती थी और हम पैदल दो ढाई किलोमीटर से ज्यादा जाने को तैयार नहीं थे । उसी में मस्ती करके धमाल मचा रहे थे । हाटू पीक पर जाने के पहले हम तानी जुब्बर लेक पर भी गए । तकरीबन बीस फीट चौड़े उस झील की खास और चकित कर देनेवाली बात ये थी कि एक किनारे पर धूप और दूसरे किनारे पर तीन फीट तक जमी बर्फ । झील के एक किनारे पर एक छोटा सा मंदिर उस पूरे कैंपस को एक अध्यात्मिक स्वरूप भी दे रहा था । प्राकृतिक सौंदर्य के आगोश में एक और दिन बीत गया और हम फिर लौट आए अपने अड्डे पर । फिर रसरंजन और बॉन फायर का दौर । हम वहां बैठकर नॉस्टेजिक भी हो रहे थे । अपने जमाने के, अपने कॉलेज के, अपने दोस्तो के, अपनी मोहब्बत के किस्से । समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला । सुबह आठ बजे वहां से रवाना हुआ और कुछ देर शिमला में बिताकर रात दस बजे दिल्ली पहुंच गया । लौटने में खान साहब की गाड़ी और तेज चल रही थी लेकिन दो दिन की मस्ती में पहाड़ों में घूमने के बाद रफ्तार के डर काफूर हो चुका था । तीन दिनों तक हिमाचल में घूमने के बाद यह पता चला कि क्यों कहलाता है यह प्रदेश देवभूमि । दफ्तर के तनाव और तमाम पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त ये तीन दिन ऐसे थे जिन्हें भुला पाना मुमकिन नहीं । ऐसे मजेदार ट्रिप के लिए संजीव जी को तहे दिल से शुक्रिया अदा करने के बाद अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सपने सच होते हैं ।

Saturday, February 26, 2011

उपन्यासकार की 'आजादी'

अमेरिकी लेखक जोनाथन फ्रेन्ज का उपन्यास फ्रीडम पिछले कई हफ्तों से बेस्टसेलर की सूची में बना हुआ है । यह उपन्यास ना केवल बेस्ट सेलर की सूची में शीर्ष पर है बल्कि पाठकों के साथ साथ आलोचकों ने भी इसे खुले दिल से सराहा है । इस उपन्यास को लेकर अमेरिका और यूरोप में काफी शोरगुल मचा, हर अखबरा और पत्रिका में इसकी चर्चा हुई । उपन्यास की लोकप्रियता और उसकी शैली को लेकर आलोचक इतने अभिभूत हो गए कि कई लोगों ने इसके लेखक जोनाथन फ्रेंन्ज को टॉलस्टॉय और टॉमस मान के समांतर खड़ा कर दिया । विश्व प्रसिद्ध टाइम पत्रिका ने अपने कवर पर जोनाथन की तस्वीर छापी और उन्हें पिछले दस सालों में प्रकाशन जगत का सबसे ज्यादा ध्यान खींचनेवाला लेखक करार दे दिया । आमतौर पर उपन्यासों को बेदर्दी से तसौटी से पर कसनेवाले अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में जब इसकी समीक्षा छपी तो इसे अमेरिकन फिक्शन का मास्टरपीस करार दिया । लब्बोलुआब यह कि फ्रीडम को उसके पाठकों ने काफी पसंद किया ।
लेखक का दावा है कि उसे यह उपन्यास लिखने में नौ वर्ष लगे ।
दरअसल अगर हम इस उपन्यास के कथानक को देखें तो यह पूरा उपन्यास एक फैमिली ड्रामा है जिसमें वाल्टेयर और पैटी का प्यार परवान चढ़ता है । वो दोनों शादी के बंधन में भी भंधते हैं और फिर सेंट पॉल शहर के प्रतिष्ठित इलाके में घर खरीदकर अपना वैवाहिक जीवन शुरू करते हैं । पैटी एक आदर्श पड़ोसी की तरह व्यवहार करती है जो बहुधा अपने अगल बगल में रहनेवालों को बैटरी रिसाइकल करने की युक्ति बताती है तो कभी लोगों को यह समझाती है कि कैसे स्थानीय पुलिसकर्मियों का उपयोग किया जा सकता है । पैटी और वाल्टर का जीवन बेहद रोमांटिक तरीके से गुजरता है और वाल्टर की नजर में पैटी एक बेहतरीन माशूका है जो पत्नी बनने के बाद भी उतनी ही शिद्दत से उसे प्यार करती है । प्यार और मोहब्बत के बीच चल रही जिंदगी के बीच एक अहम मोड़ तब आता है जब कुछ दिनों बाद उन्हें एक पुत्र पैदा होता है । पुत्र के पैदा होने के बाद समय का पहिया घूमता है और कहानी थोड़ी तेजी से चलती है और समय के साथ पैटी और वॉल्टर जवान जोड़े से बुढाते जोडे़ में तब्दील होने लगते हैं ।
इस उपन्यास की कहानी में रोचक मोड़ तब आता है जब पैटी का बेटा किशोरावस्था में पहुंचता है । टकराहट होती है मां के सपनों और बेटे की आकांक्षाओं में । यहां इस मनोविज्ञान को लेखक ने बेहद सूक्षम्ता से पकड़ा है । किशोरवय बेटे जॉय और मां पैटी के बीच जो मनमुटाव और विचारों का संघर्ष चलता है उसकी परणिति होती है कि एक दिन उनका इकलौता बेटा घर छोड़कर आक्रामक रिपब्लिकन पड़ोसी के घर में रहने चला जाता है । यह उपन्यास एक फैमिली ड्रामा के अलावा अभिभाकत्व के संघर्षों की दास्तां भी है । बाद में जॉय शादी कर लेता है और अपनी पत्नी कोनी के साथ रहने लगता है । बुढ़ाती मां पैटी अपने बेटे के पास तो जाना चाहती है लेकिन उसकी पत्नी कोनी को वो पसंद नहीं करती है। यहां आपको टिपिकल इंडियन मानसिकता भी नजर आ सकती है । जोनाथन के हर उपन्यास में एक भारतीय पात्र तो होता ही है इसलिए मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि जोनाथन ने भारतीय परिवार की मनस्थिति को अमेरिकी परिवेश में ढाला है । गौरतलब है कि जोनाथन ने अपने इस उपन्यास में भी एक भारतीय पात्र को रखा है । इस उपन्यास में वॉल्टर की सेक्रेटरी ललिता एक भारतीय लड़की है । इसके पहले भी जोनाथन ने अपने उपन्यास द ट्वेंटीसेवन्थ सिटी में मंबई की एक लड़की एस जामू को एक शहर के पुलिस प्रमुख के रूप में चित्रित किया है ।
कहानी आगे बढ़ती है तो जॉय अपनी पत्नी के पत्नी के अलावा बेहद खबसूरत लड़की जेना में सुकून तलाशता है । उधऱ पैटी को अपने पति वॉल्टर की सेक्रेटरी ललिता फूटी आंखों नहीं सुहाती । इस तरह के परिवेश में जहां बेटा अपनी पत्नी के रहते अपनी प्रेमिका के जुल्फों में उलझा हो और पति अपनी सेक्रेटरी के साथ इश्क की पींगे बढ़ा रहा हो तो एक महिला के दिमाग में क्या चल रहा होगा । पैटी की मानसिकता और खंडित वयक्तित्व का जो सूक्ष्म चित्रण जोनाथन ने किया है वह इस उपन्यास को रोचरता की नई उंचाई पर ले जाता है । कहानी में ही यह तथ्य भी सामने आता है कि दरअसल पैटी की का जो असुरक्षा बोध है, उसके पीछे का मनोविज्ञान यह है कि पैटी जब किशोरी थी तो देश के प्रथम परिवार के बेटे ने उसके साथ डेट रेप किया था । चूंकि अपराधी देश के बड़े परिवार से था इसलिए पैटी के मां-बाप इस अपराध को भी भुनाने में लग गए और बेटी का सौदा कर अपने फायदे की सोचने लगे। पैटी को जब अपने मोल भाव का पता चला तो वह बेहद खिन्न हो गई । उसे लगने लगा कि घर-परिवार सब बेकार है , सब अपने फायदे की सोचते हैं । उस वक्त से ही पैटी के अंदर बेहद असुरक्षा का बोध घर कर गया था जो उसके मां बनने के बाद बढ़ता चला गया ।
जोनाथन के इस उपन्यास के सारे पात्रों ने कहीं न कहीं जबरदस्त पाबंदी के बाद स्वतंत्रता के स्वाद को चखा है । लेकिन ज्यों ही वो स्वतंत्रता के जोश में उन्मादी होने लगते हैं उन्हें जबरदस्त ठोकर लगती है और वो जमीन पर आ जाते हैं । अगर हम उदाहरण के तौर पर देखें तो बॉस्केटबॉल खिलाड़ी पैटी जब आजाद होकर दौड़ते हुए सड़क पर आती हैं तो अचानक फिसलकर गिरती हैं और अस्पताल पहुंच जाती है । पैटी के जोश और फिर उसके ठोकर खाकर गिर जाने की घटना से इस उपन्यास का एक पैटर्न दिखाई देता है जिसका जिक्र मैं उपर कर चुका हूं । लेकिन जिस तरह से सांप सीढी के खेल की तरह इस उपन्यास कथा चलती है उससे रोचकता बरकरार रहती है और वो पाठकों को लगातार बांधे रखती है । इसके अलावा घटनाओं और परिस्थियों को जो सूक्ष्म चित्रण लेखक ने किया है उससे उनकी मेहनत साफ तौर पर झलकती है । लेखक ने इस बहाने से अमेरिका के समाज का चित्रण किया है । यह उपन्यास बराक ओबामा के अमेरका के राजनीतिक पटल पर उदय के साथ खत्म होता है । जहां जीत की उम्मीद है और बदलाव की आहट भी ।