सर विदियाधर नायपॉल और विवादों का
चोली दामन का साथ रहा है । पहले वो अपने लेखन में भारत के बारे में, मुसलमानों के बारे
में टिप्पणियों से विवादों में रहे । नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भारत आने के बाद
भारतीय जनता पार्टी के दफ्तर जाने को लेकर भी भारतीय बौद्धिक जगत में खासा हलचल मचा
था । सर विदिया की बाबरी मस्जिद को गिराने की घटना को भी महान सृजनात्मक जुनून बताकर
साहित्यक जगत में भूचाल ला दिया था । उस वक्त देश-विदेश के कई विद्वानों ने सर विदिया
को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की तीखी आलोचना की थी । नायपॉल भारत को तो एक महान राष्ट्र
मानते रहे हैं लेकिन साथ ही ये भी जोड़ना नहीं भूलते हैं कि इस महान राष्ट्र को मुस्लिम
आक्रमणकारियों ने अपना वर्चस्व कायम करने के लिेए भ्रष्ट कर दिया । अपने लेखन में सर
विदिया मुसलमानों को लेकर एक तरीके से होस्टाइल नजर आते हैं । इस वजह से वो कई बार
भयंकर आलोचनाओं के भी शिकार होते रहे हैं । ताजा विवाद के केंद्र में हैं मुंबई लिटरेचर
फेस्टिवल के दौरान नोबेल और बुकर पुरस्कार प्राप्त ख्यातिलब्ध साहित्यकार सर विदियाधर
नायपॉल को लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया जाना । और फिर उसी मंच से
नाटककार और वरिष्ठ लेखक गिरीश कर्नाड का नायपॉल को सम्मानित किए जाने की तीखी आलोचना
करना । आलोचना अपनी जगह ठीक है, गिरीश के अपने तर्क और अपनी रणनीति है । रणनीति इस
वजह से कि उन्होंने बाद में एक इंटरव्यू में कहा कि वो दस सालों से इस अवरसर की तलाश
में थे । सर विदिया की कई बातों को लेकर गंभीर आलोचना की जाती रही है,मैंने भी की है
। लेकिन किसी को सम्मानित या पुरस्कृत करने को लेकर आलोचना जायज है । सबके अपने अपने
तर्क हैं । हलांकि गिरीश कर्नाड का अपना एक एजेंडा है । वो उसी पर चलते हैं । पहले
भी वो कन्नड़ के लेखक एस एल भैरप्पा की भी आलोचना कर चुके हैं । भैरप्पा ने अपने उपन्यास
आवर्णा में टीपू सुल्तान को धार्मिक उन्मादी बताते हुए कहा था कि उसके
दरबार में हिंदुओं की कद्र नहीं थी । उस वक्त
भी गिरीश कर्नाड ने भैरप्पा पर जोरदार हमला बोला था क्योंकि अपने नाटकों में उन्होंने
टीपू सुल्तान का जमकर महिमामंडन किया था । यह भी तथ्य है कि गिरीश कर्नाड की तमाम आपत्तियों
के बाद भी भैरप्पा के उपन्यास ने बिक्री की नई उंचाइयां हासिल की थी और छपने के पांच
महीने के अंगर ही उसकी दस आवृत्तियां हो गई थी । अभी भी गिरीश कर्नाड ने बैंगलोर के
एक कार्यक्रम में सर विदिया को एक बार फिर से गैर सृजनात्मक और चुका हुआ लेखक करार
दिया लेकिन उसी कार्यक्रम में गिरीश ने उत्साह में गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के नाटकों
को भी बेकार करार दे दिया । गिरीश कर्नाड ने कहा कि भारत के नाटककारों पर शेक्सपियर
का जबरदस्त प्रभाव रहा है । उनके मुताबिक 1947 तक जितने भी नाटक लिखे गए सभी दोयम दर्ज
के थे । गिरीश कर्नाड ने कहा कि टैगोर बेहतरीन कवि थे लेकिन उनके नाटकों को झेलना मुमकिन
नहीं था । ये ठीक है कि कवि के रूप में टैगोर नाटककार टैगोर पर भारी पड़ते हैं, लेकिन
उनके नाटक असहनीय थे इसपर मतभिन्नता हो सकती है, एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता है
। खैर एक बार फिर से वापस लौटते हैं सर विदिया
के लेखन और गिरीश कर्नाड की आलोचना पर ।
सर विदिया के शुरुआती उपन्यासों में एक खास किस्म की ताजगी और नए विषय और उसको समझने और व्याख्यायित करने का नया तरीका नजर आता है । चाहे वो 'मिस्टिक मैसअ'र हो , 'सफरेज ऑफ अलवीरा' हो या फिर 'मायगुल स्ट्रीट'। विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल के शुरुआती उपन्यासों में जो ताजगी दिखाई देती है उसमें जीवन के विविध रंगों के साथ लेखक का ह्यूमर भी करीने से मौजूद है । गिरीश कर्नाड चाहे जो भी कहें लेकिन पश्चिमी देशों के कई आलोचक यह भी स्वीकार करते हैं कि नायपॉल के लेखन ने अपने बाद भारतीय लेखकों की पीढ़ी लिए एक ठोस जमीन भी तैयार कर दी । साठ और सत्तर के दशक में सर विदियासागर के लेखन का परचम अपनी बुलंदी पर था । उस दौरान लिखे उनके उपन्यास - अ हाउस फॉर मि. विश्वास- से उन्हें खासी प्रसिद्धि मिली और इस उपन्यास को उत्तर औपनिवेशिक लेखन में मील का पत्थर माना गया । नायपॉल का लेखक उन्हें लगातार भारत की ओर लेकर लौटता है । नायपॉल ने भारत के बारे में उस दौर में तीन किताबें लिखी - एन एरिया ऑफ ड्राकनेस (1964), 'इंडिया अ वूंडेड सिविलाइजेशन'(1977) और इंडिया: अ मिलियन म्यूटिनी नॉउ(1990), लिखी । इस दौर तक तो नायपॉल के अंदर का लेखक बेहद बेचैन रहता था, तमाम यात्राएं करता रहता था और अपने लेखन के लिए कच्चा माल जुटाता था । 'एन एरिया ऑफ डार्कनेस' को तो आधुनिक ट्रैवल रायटिंग में क्लासिक्स माना जाता है । इसमें नायपॉल ने अपनी भारत की यात्रा के अनुभवों का वर्णन किया है । इस किताब में नायपॉल ने भारत में उस दौर की जाति व्यवस्था के बारे में लिखा है । कालांतर में सर विदिया के लेखन में एक खास किस्म का ठहराव नजर आने लगता है ,विचारों में जड़ता भी । इस्लामिक जीवन का जो चित्र उन्होंने खींचा है या उसके बारे में उनके जो विचार सामने आए हैं, या फिर 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को जिस तरह नायपॉल ने परोक्ष रूप से सही ठहराया, इन सब बातों से उनका विरोध तो बढ़ा ही, उनसे असहमतियां भी बढ़ी । लेकिन इन सबके बावजूद उनके लेखन को एकदम से नकाराना नामुमकिन था ।
उम्र के और बढ़ने पर सर विदिया के लेखन में भारत और भारत के लोगों को लेकर सर विदिया के लेखन में एक खास किस्म का उपहास भी रेखांकित किया जा सकता है । कुछ वर्षों पहले उनकी एक किताब आई थी - अ राइटर्स पीपल, वेज ऑफ लुकिंग एंड फीलिंग- आई है । इसमें विदियाधर नायपॉल के पांच लेख संकलित थे । इस किताब में सर विदिया के लेखन में भारत की महान विभूतियों को लेकर भी एक खास किस्म की घृणा दिखाई देती है । इन लेखों में सर विदिया ने त्रिनिदाद के अपने शुरुआती जीवन से लेकर गांधी और विनोबा को समेटते हुए भारतीय मूल के लेखक नीरद सी चौधरी को केंद्र में रखकर लिखे थे । इन पांच लेखों में सर विदियाधर की भारत और भारतीयों के बारे में मानसिकता को समझने में मदद मिलती है ।
अपने लेख- इंडिया अगेन महात्मा एंड ऑफ्टर में विदिया लिखते हैं - "असल में गांधी किसी तरह की पूर्णता थी ही नहीं, उनका व्यक्तित्व यहां वहां से उठाए गए टुकड़ों से निर्मित हुआ था- व्रत और सादगी के प्रति उनकी मां का प्रेम, इंगलिश कॉमन लॉ, रस्किन के विचार, टॉलस्टॉय का धार्मिक स्वप्न, दक्षिण अफ्रीका की जेल संहिता, मैनचेस्टर की नो ब्रेकफास्ट एसोसिएशन........1888 में जब गांधी इंगलैंड पहुंचे तो वो सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य थे, वे भारत के इतिहास को नहीं जानते थे, उन्हें भूगोल का ज्ञान भी नहीं था, वे पुस्तकों और नाटकों के बारे में नहीं जानते थे। लंदन पहुंचकर उन्हें ये नहीं पता था कि वो वहां अपने पांव कैसे जमाएंगे। गांधी ने डांस भी सीखा और वॉयलिन भी सीखने की कोशिश की लेकिन इन सब के दौरान उनके हाथ लगी तो सिर्फ हताशा।" हलांकि गांधी ने अपनी आत्मकथा में इन सारी स्थितियों का वर्णन करते हुए अपनी अज्ञानता को स्वीकारा भी है। लेकिन नायपॉल ने उसे इस तररीके से पेश किया जैसे वो कुछ नया उद्घाटित कर रहे हों ।
गांधी के बाद नायपॉल ने बिनोबा भावे को एक एक मूर्ख शख्स करार देते हुए काह कि वो पचास के दशक में गांधी की नकल करने की कोशिश कर रहे थे । विदिया ने अपने लेख में बिनोबा के बारे में लिखा कि वो बाद में एक सुधारक, बुद्धिमान व्यक्ति नहीं बल्कि एक धार्मिक मूर्ख के रूप स्थापित हुए जिनके साथ आला नेता फोटो खिंचवाना पसंद करते थे । इसके अलावा सर विदिया ने भारतीय अंग्रेजी लेखक नीरद सी चौधरी को तो शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से छोटा करार दे दिया । ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे नायपॉल की भारत और भारतीयों की मानसिकता और राय को समझा जा सकता है । गिरीश कर्नाड को भी आपत्ति, नायपॉल के मुसलमानों के बारे में जो विचार हैं, उसको लेकर है । अब सर विदिया के समर्थक उनकी पत्नी के मुसलमान होने की बात कहकर विदियाधर सूरजप्रसाद का बचाव कर रहे हैं । उन अज्ञानी लोगों को फ्रैंच पैट्रिक की विदिया की जीवनी पढ़नी चाहिए जिसमें विदिया की पहली पत्नी को लेकर क्रूरता के किस्से हैं जिन्हें बाद में विदिया ने खुद स्वीकारा है । हमारा मानना है कि साहित्यक मसलों की जंग सिर्फ और सिर्फ विचारों से लड़ी जानी चाहिए और ये बात गिरीश कर्नाड को नहीं भूलनी चाहिए ।
सर विदिया के शुरुआती उपन्यासों में एक खास किस्म की ताजगी और नए विषय और उसको समझने और व्याख्यायित करने का नया तरीका नजर आता है । चाहे वो 'मिस्टिक मैसअ'र हो , 'सफरेज ऑफ अलवीरा' हो या फिर 'मायगुल स्ट्रीट'। विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल के शुरुआती उपन्यासों में जो ताजगी दिखाई देती है उसमें जीवन के विविध रंगों के साथ लेखक का ह्यूमर भी करीने से मौजूद है । गिरीश कर्नाड चाहे जो भी कहें लेकिन पश्चिमी देशों के कई आलोचक यह भी स्वीकार करते हैं कि नायपॉल के लेखन ने अपने बाद भारतीय लेखकों की पीढ़ी लिए एक ठोस जमीन भी तैयार कर दी । साठ और सत्तर के दशक में सर विदियासागर के लेखन का परचम अपनी बुलंदी पर था । उस दौरान लिखे उनके उपन्यास - अ हाउस फॉर मि. विश्वास- से उन्हें खासी प्रसिद्धि मिली और इस उपन्यास को उत्तर औपनिवेशिक लेखन में मील का पत्थर माना गया । नायपॉल का लेखक उन्हें लगातार भारत की ओर लेकर लौटता है । नायपॉल ने भारत के बारे में उस दौर में तीन किताबें लिखी - एन एरिया ऑफ ड्राकनेस (1964), 'इंडिया अ वूंडेड सिविलाइजेशन'(1977) और इंडिया: अ मिलियन म्यूटिनी नॉउ(1990), लिखी । इस दौर तक तो नायपॉल के अंदर का लेखक बेहद बेचैन रहता था, तमाम यात्राएं करता रहता था और अपने लेखन के लिए कच्चा माल जुटाता था । 'एन एरिया ऑफ डार्कनेस' को तो आधुनिक ट्रैवल रायटिंग में क्लासिक्स माना जाता है । इसमें नायपॉल ने अपनी भारत की यात्रा के अनुभवों का वर्णन किया है । इस किताब में नायपॉल ने भारत में उस दौर की जाति व्यवस्था के बारे में लिखा है । कालांतर में सर विदिया के लेखन में एक खास किस्म का ठहराव नजर आने लगता है ,विचारों में जड़ता भी । इस्लामिक जीवन का जो चित्र उन्होंने खींचा है या उसके बारे में उनके जो विचार सामने आए हैं, या फिर 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को जिस तरह नायपॉल ने परोक्ष रूप से सही ठहराया, इन सब बातों से उनका विरोध तो बढ़ा ही, उनसे असहमतियां भी बढ़ी । लेकिन इन सबके बावजूद उनके लेखन को एकदम से नकाराना नामुमकिन था ।
उम्र के और बढ़ने पर सर विदिया के लेखन में भारत और भारत के लोगों को लेकर सर विदिया के लेखन में एक खास किस्म का उपहास भी रेखांकित किया जा सकता है । कुछ वर्षों पहले उनकी एक किताब आई थी - अ राइटर्स पीपल, वेज ऑफ लुकिंग एंड फीलिंग- आई है । इसमें विदियाधर नायपॉल के पांच लेख संकलित थे । इस किताब में सर विदिया के लेखन में भारत की महान विभूतियों को लेकर भी एक खास किस्म की घृणा दिखाई देती है । इन लेखों में सर विदिया ने त्रिनिदाद के अपने शुरुआती जीवन से लेकर गांधी और विनोबा को समेटते हुए भारतीय मूल के लेखक नीरद सी चौधरी को केंद्र में रखकर लिखे थे । इन पांच लेखों में सर विदियाधर की भारत और भारतीयों के बारे में मानसिकता को समझने में मदद मिलती है ।
अपने लेख- इंडिया अगेन महात्मा एंड ऑफ्टर में विदिया लिखते हैं - "असल में गांधी किसी तरह की पूर्णता थी ही नहीं, उनका व्यक्तित्व यहां वहां से उठाए गए टुकड़ों से निर्मित हुआ था- व्रत और सादगी के प्रति उनकी मां का प्रेम, इंगलिश कॉमन लॉ, रस्किन के विचार, टॉलस्टॉय का धार्मिक स्वप्न, दक्षिण अफ्रीका की जेल संहिता, मैनचेस्टर की नो ब्रेकफास्ट एसोसिएशन........1888 में जब गांधी इंगलैंड पहुंचे तो वो सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य थे, वे भारत के इतिहास को नहीं जानते थे, उन्हें भूगोल का ज्ञान भी नहीं था, वे पुस्तकों और नाटकों के बारे में नहीं जानते थे। लंदन पहुंचकर उन्हें ये नहीं पता था कि वो वहां अपने पांव कैसे जमाएंगे। गांधी ने डांस भी सीखा और वॉयलिन भी सीखने की कोशिश की लेकिन इन सब के दौरान उनके हाथ लगी तो सिर्फ हताशा।" हलांकि गांधी ने अपनी आत्मकथा में इन सारी स्थितियों का वर्णन करते हुए अपनी अज्ञानता को स्वीकारा भी है। लेकिन नायपॉल ने उसे इस तररीके से पेश किया जैसे वो कुछ नया उद्घाटित कर रहे हों ।
गांधी के बाद नायपॉल ने बिनोबा भावे को एक एक मूर्ख शख्स करार देते हुए काह कि वो पचास के दशक में गांधी की नकल करने की कोशिश कर रहे थे । विदिया ने अपने लेख में बिनोबा के बारे में लिखा कि वो बाद में एक सुधारक, बुद्धिमान व्यक्ति नहीं बल्कि एक धार्मिक मूर्ख के रूप स्थापित हुए जिनके साथ आला नेता फोटो खिंचवाना पसंद करते थे । इसके अलावा सर विदिया ने भारतीय अंग्रेजी लेखक नीरद सी चौधरी को तो शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से छोटा करार दे दिया । ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे नायपॉल की भारत और भारतीयों की मानसिकता और राय को समझा जा सकता है । गिरीश कर्नाड को भी आपत्ति, नायपॉल के मुसलमानों के बारे में जो विचार हैं, उसको लेकर है । अब सर विदिया के समर्थक उनकी पत्नी के मुसलमान होने की बात कहकर विदियाधर सूरजप्रसाद का बचाव कर रहे हैं । उन अज्ञानी लोगों को फ्रैंच पैट्रिक की विदिया की जीवनी पढ़नी चाहिए जिसमें विदिया की पहली पत्नी को लेकर क्रूरता के किस्से हैं जिन्हें बाद में विदिया ने खुद स्वीकारा है । हमारा मानना है कि साहित्यक मसलों की जंग सिर्फ और सिर्फ विचारों से लड़ी जानी चाहिए और ये बात गिरीश कर्नाड को नहीं भूलनी चाहिए ।
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