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Sunday, November 18, 2012

प्रकाशन संस्थानों की चुनौती

महीने भर पहले विश्व प्रकाशन जगत में एक बेहद अहम घटना घटी जिसपर विचार किया जाना आवश्यक है । विश्व के दो बड़े प्रकाशन संस्थानों- रैंडम हाउस और पेंग्विन ने हाथ मिलाने का फैसला किया । रैंडम हाउस और पेंग्विन विश्व के छह सबसे बड़े प्रकाशन संस्थानों में से एक हैं । दोनों कंपनियों के सालाना टर्न ओवर के आधार पर या माना जा रहा है कि इनके साथ आने के बाद अंग्रेजी पुस्तक व्यवसाय के पच्चीस फीसदी राजस्व पर इनका कब्जा हो जाएगा । अगर हम विश्व के पुस्तक कारोबार खास कर अंग्रेजी पुस्तकों के कारोबार पर नजर डालें तो इसमें मजबूती या कंसॉलिडेशन का दौर काफी पहले से शुरू हो गया था । रैंडम हाउस जो कि जर्मनी की एक मीडिया कंपनी का हिस्सा है उसमें भी पहले नॉफ और पैंथियॉन का विलय हो चुका है । उसके अलावा पेंग्विन, जो कि एडुकेशन पब्लिकेशन हाउस पियरसन का अंग है, ने भी वाइकिंग और ड्यूटन के अलावा अन्य छोटे छोटे प्रकाशनों गृहों को अपने में समाहित किया हुआ है । अब हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि आखिरकार पेंगविन और रैंडम हाउस में विलय की योजना क्यों बनी और उसका विश्व प्रकाशन के परिदृश्य पर कितना असर पड़ेगा । इस बारे में अमेरिका के एक अखबार की टिप्पणी से कई संकेत मिलते हैं । अखबार ने लिखा कि रैंडम हाउस और पेंग्विन में विलय उस तरह की घटना है जब कि एक पति पत्नी अपनी शादी बचाने के लिए बच्चा पैदा करने का फैसला करते हैं । अखबार की ये टिप्पणी बेहद सटीक है । पुस्तकों के कारोबार से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि अमेजॉन और किंडल पर ई पुस्तकों की लगातार बढ़ रही बिक्री ने पुस्तक विक्रेताओं और प्रकाशकों की आंखों की नींद उड़ा दी है । माना जा रहा है कि अमेजॉन के दबदबे से निबटने के लिए रैंडम हाउस और पेंग्विन ने साथ आने का फैसला लिया है । कारोबार का एक बेहद आधारभूत सिद्धांत होता है कि किसी भी तरह के आसन्न खतरे से निबटने के लिए आप अपनी कंपनी का आकार इतना बड़ा कर लें कि प्रतियोगियों को आपसे निबटने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़े ।
कारोबार के जानकारों के मुताबिक आनेवाले वक्त में पुस्तक कारोबार के और भी कंसोलिडेट होने के आसार हैं । उनके मुताबिक अब वो दिन दूर नहीं कि जब कि दुनिया भर में एक या दो प्रकाशन गृह बचें जो बडे़ औद्योगिक घरानों की तरह से काम करें ।  हम अगर पुस्तकों के कारोबार पर समग्रता से विचार करें तो यह पाते हैं कि दुनियाभर में या कम से कम यूरोप और अमेरिका में ई बुक्स के प्रति लोगों की बढ़ती रुझान की वजह से पुस्तकों के प्रकाशन पर कारोबारी खतरा तो मंडराने लगा है । एक तो पुस्तकों के मुकाबले ई बुक्स की कीमत काफी कम है दूसरे किंडल और अमेजॉन पर एक क्लिक पर आपकी मनपसंद किताबें उपलब्ध है । दरअसल जिन इलाकों में इंटरनेट का घनत्व बढ़ेगा उन इलाकों में छपी हुई किताबों के प्रति रुझान कम होता चला जाएगा । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि छपी हुई किताबों का अपना एक महत्व है । पाठकों और किताबों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता होता है । किताब पढ़ते वक्त उसके स्पर्श मात्र से एक अलग तरह की अनुभूति होती है । लेकिन तकनीक के विस्तार और पाठकों की सुविधाओं के मद्देनजर ई बुक्स की लोकप्रियता में इजाफा होता जा रहा है । कुछ दिनों पहले एक सेमिनार में ये बात उभर कर सामने भी आई । एक वक्ता ने सलमान रश्दी की नई किताब जोसेफ एंटन का उदाहरण देते हुए कहा कि करीब साढे छह सौ पन्नों की किताब को हाथ में उठाकर पढ़ना असुविधाजनक है । उसका वजन काफी है और लगातार उसे हाथ में लेकर पढ़ने रहने से हाथों में दर्द होने लगता है । आप अगर उसी किताब को इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में पढ़ते हैं तो ज्यादा सहूलियत होती है । उनकी तर्कों को हंसी में नहीं उड़ाया जा सकता है या एकदम से खारिज भी नहीं किया जा सकता है । छह सात सौ पन्नों के किताबों को हाथ में लंबे समय तक थामे रहने का धैर्य आज की युवा पीढ़ी में नहीं है । वो तो पन्ने पलटने की बजाए स्क्रोल करना ज्यादा सुविधाजनक मानता है । यह पीढियों की पसंद और मनोविज्ञान का मसला भी है । ई बुक्स की लोकप्रियता की एक वजह ये भी है । यूरोप और अमेरिका के अखबारों में बेस्ट सेलर की ई बुक्स की अगल कैटेगिरी बन गई है । ये इस बात को दर्शाता है कि ई बुक्स ने पुस्तक प्रकाशन कारोबार के बीच अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है ।
पेंग्विन और रैंडम हाउस की तरह से हिंदी के दो बड़े प्रकाशकों का भी विलय कुछ वर्षों पहले हुआ था । हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन गृहों में से एक राजकमल प्रकाशन समूह ने इलाहाबाद के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान लोकभारती प्रकाशन का अधिग्रहण कर हिंदी प्रकाशन जगत में अपनी उपस्थिति और मजबूत की थी । उस वक्त भी ये लगा था कि हिंदी में भी कंसोलिडेशन शूरू हो गया है लेकिन राजकमल का लोकभारती का अधिग्रहण के बाद उस तरह की किसी प्रवृत्ति का संकेत नहीं मिला । अंग्रेजी के प्रकाशनों और प्रकाशकों की तुलना में हिंदी की बात करें तो हमारे यहां अभी प्रकाशकों के मन में ई बुक्स को लेकर बहुत उत्साह देखने को नहीं मिल रहा है । भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया ने दो तीन महीने पहले ज्ञानोदय के संपादकीय में इस बात का संकेत किया था कि वो ज्ञानपीठ के प्रकाशनों को ई बुक्स के फॉर्म में लाने पर गंभीरता से काम कर रहे हैं । इसके अलावा इक्का दुक्का प्रकाशन संस्थान इस बारे में विचार कर रहे हैं । हिंदी के अखबारों ने इस दिशा में बेहतरीन पहल की । आज हालत यह है कि तमाम भाषाओं के अखबारों के ई पेपर मौजूद हैं । इसका उन्हें राजस्व में तो फायदा हुआ ही है, उनकी पहुंच भी पहले से कहीं ज्यादा हो गई है और यों कहें कि वैश्विक हो गई है । आज अगर अमेरिका या केप टाउऩ में बैठा कोई शख्स दैनिक जागरण पढ़ना चाहता है तो वो वो एक क्लिक पर अपनी ख्वाहिश पूरी कर सकता है । अखबारों ने उससे भी आगे जाकर उस तकनीक को अपनाया है कि मोबाइल पर भी उनके अखबार मौजूद रहें । लेकिन भारत के खास करके हिंदी के प्रकाशकों में तकनीक के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में ज्यादा रुचि दिखती नहीं है । सरकारी खरीद की वजह से आज हिंदी में करीब चार से पांच हजार प्रकाशन गृह हैं । अगर उन कागजी कंपनियों को छोड़ भी दें तो कम से कम पचास तो ऐसे प्रकाशक हैं ही जो गंभीरता से किताबें छाप कर पाठकों के बीच ले जाने का उपक्रम करते हैं या उपक्रम करते दीखते हैं । लेकिन इन पचास प्रकाशनों में से कईयों के तो अपनी बेवसाइट्स तक नहीं है, ई बुक्स की तो बात ही छोड़ दीजिए । उन्हें अब भी सरकारी खरीद और पाठकों पर भरोसा है । ये भरोसा गलत नहीं है । सिर्फ इसी भरोसे पर रहकर उनके पिछड़ जाने का खतरा है । भारत में थर्ड जेनरेशन यानि 3 जी मोबाइल और इंटरनेट सेवा के बाद अब चंद महीनों में 4 जी सेवा शुरू होने जा रही है जिसे इंटरनेट की दुनिया में क्रांति के तौर पर देखा जा रहा है । माना यह जा रहा है कि 4जी के आने से उपभोक्ताओॆ के सामने अपनी मनपसंद चीजों को चुनने के कई विकल्प होंगे । उनमें से एक ई बुक्स भी होंगे । हिंदी के प्रकाशकों को इन बातों को समझना होगा और क्योंकि भारत में भी इंटरनेट का घनत्व लगातार बढ़ता जा रहा है और उसके यूजर्स भी । ऐसे में हिंदी के प्रकाशक अगर समय रहते नहीं चेते तो उनका नुकसान हो सकता है । दरअसल हिंदी के प्रकाशकों के साथ दिक्कत ये है कि वो अति आत्मविश्वास में हैं । इस आत्मविश्वास की बड़ी वजह है सरकारी खरीद । लेकिन वो भूल जाते हैं कि सरकारी खरीद से कोई भी कारोबार लंबे समय तक नहीं चल सकता है । वो छोटे से फायदे के बीच ई बुक्स के बड़े बाजार और बड़े फायदा को छोड़ दे रहे हैं जो कारोबार के लिहाज से भी उचित नहीं हैं । प्रकाशकों को वर्चुअल दुनिया में घुसना ही होगा नहीं तो उनके सामने हाशिए पर चले जाने का खतरा भी होगा । एक बार ई बुक्स की चर्चा होने पर हमारे एक प्रकाशक मित्र ने कहा था कि वो देख लेंगे कि ई बुक्स में कितना दम है लेकिन हाल के दिनों में पता चला है कि वो ई बुक्स के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं । प्रेमचंद ने कहा ही था कि विचारों में जड़ता नहीं होनी चाहिए उन्हें समय के हिसाब से बदल लेना चाहिए । हिंदी के प्रकाशकों को प्रेमचंद की बातों पर ध्यान देना चाहिए ।   

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