कुछ दिनों पहले नेट पर विदेशी अखबारों को पढ़ रहा था । अचानक से डेली मेल के पन्नों की सर्फिंग करते हुए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की प्रेमिका और उनसे संबंधित लेख पर नजर चली गई । लेख में जे एफ कैनेडी और व्हाइट हाउस की इंटर्न के बीच राष्ट्रपति भवन में ही पनपे प्रेम प्रसंग का जिक्र था । राष्ट्रपति महोदय के बेडरूम के कुछ अंतरंग प्रसंगों के साथ स्टोरी छपी थी । स्टोरी इस तरह लिखी गई थी कि पाठकों को ना सिर्फ बांध सके बल्कि उस किताब को पढ़ने को लेकर उनके मन में ललक पैदा हो । वहां स्टोरी पढ़ने के बाद मैंने नेट पर खोज प्रारंभ की तो एक अमेरिकी टेलीविजन के बेवसाइट पर भी इससे ही जुड़ी स्टोरी छपी थी कि किस तरह से प्रेसीडेंट कैनेडी ने अपनी लिमोजीन भेजकर एक प्रेस इंटर्न को होटल में इश्क फरमाने के लिए बुलवाया। एक और अमेरिकी अखबार में छपा कि तकरीबन आधी सदी के बाद खुला कैनेडी का एक और प्रेम प्रसंग । लब्बोलुआब यह कि जनवरी और फरवरी में अमेरिका से लेकर इंगलैंड और पूरे यूरोप के अखबारों और तमाम टेलीविजन चैनल की बेवसाइट्स पर कैनेडी की इस प्रेम कथा की चर्चा थी । हर जगह स्टोरी को सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत किया गया था । सेक्स प्रसंगों को इस तरह से पेश किया गया था कि जब पूरा अमेरिका क्यूबा मिसाइल संकट के दौर से जूझ रहा था तो अमेरिका का राष्ट्रपति व्हाइट हाउस के प्रेस इंटर्न के साथ स्वीमिंग पूल और अपनी पत्नी के बेडरूम में रंगरेलियां मना रहा था । मैं भी फौरन अपने पसंदीदा बेवसाइट फिल्पकॉर्ट पर गया और वहां इस किताब की तलाश की । पच्चीस डॉलर की किताब छूट के बाद एक हजार पचपन रुपए में उपलब्ध थी । इस किताब के बारे में विदेशी अखबारों में इतना छप चुका था कि मेरे अंदर भी उसको पढ़ने की इच्छा प्रबल हो गई लिहाजा फ्लिपकॉर्ट पर ऑर्डर कर दिया । चूंकि यह किताब इंपोर्टेड एडिशन थी इस वजह से पांच दिनों के बाद मुझे मिली । तकरीबन दो सौ पन्नों की बेहतरीन प्रोडक्शन वाली किताब । किताब का पूरा नाम है – वंस अपॉन ए सिक्रेट, माई अफेयर विद प्रेसीडेंट जॉन एफ कैनेडी एंड इट्स ऑफ्टरमाथ और लेखिका है- मिमी अल्फर्ड । प्रकाशक हैं रैंडम हाउस, न्यूयॉर्क । बैक कवर पर लेखिका की हाल में ली हुई तस्वीर और फ्रंट कवर पर उनकी युवावस्था की ऐसी तस्वीर लगी है जिसमें उनकी मुस्कुराहट दिखाई दे रही है चेहरा नहीं । बेहद सुरुचिपूर्ण कवर । मैंने हिंदी में कई खूबसूरत लेखिकाओं और सुदर्शन लेखकों को उनकी किताबों पर उनकी खुद की तस्वीर छपवाने की सलाह दी लेकिन किसी ने मजाक में उड़ा दिया तो किसी को प्रकाशक ने मना कर दिया । एक मित्र ने तो मुझसे कहा कि अभी वो इतने बड़े लेखक नहीं हुए हैं कि किताब के कवर पर उनकी तस्वीर छपे । लेकिन जब मैंने मिमी की किताब देखी तो मुझे लगा कि कवर पर खुद की तस्वीर लगाने के लिए बड़ा होना जरूरी नहीं है । मिमी की यह पहली किताब है और वह कोई लेखिका भी नहीं है फिर भी पूरी किताब में तीन जगह उसकी पूरे पेज पर तस्वीर लगी है । मुझे तो कई बार यह लगता है कि हिंदी के लेखकों और प्रकाशकों में खुद को लेकर विश्वास की कमी है । कवर पर लेखक या लेखिका की तस्वीर ना छपने का मुझे कोई कारण नजर नहीं आता । चूंकि सालों से यह परंपरा नहीं है तो इसे तोड़ने का जोखिम कोई लेना नहीं चाहता ।
यह तो अवांतर प्रसंग है । मैं एक बार फिर से किताब की ओर लौटता हूं । दरअसल अमेरिका में जॉन एफ कैनेडी के प्रेम प्रसंगों को लेकर किताब छापना एक कुटीर उद्योग की तरह हो गया है । हर साल कैनेडी और उसके सेक्सुअल लाइफ या फिर उनकी प्रेम कथाओं को लेकर किताबें छपती हैं और फिर चर्चित होकर बिक कर साहित्य के परिदृश्य से गायब हो जाती है । इस किताब की लेखिका मिमी ने स्वीकार किया है कि - जून 1962 से लेकर नवंबर 1963 तक मेरे प्रेसीडेंट कैनेडी से सेक्स संबंध रहे और पिछले चासीस सालों से मैंने इस रहस्य को अपने सीने में दबाए रखा । लेकिन हाल के मीडिया रिपोर्ट के बाद मैंने अपने बच्चों और परिवार के साथ इस राज को साझा किया । मेरा पूरा परिवार मेरे साथ खड़ा है । इस पूरी किताब को पढ़ने के बाद एक तस्वीर जो साफ तौर पर उभर कर सामने आती है वह यह है कि जॉन एऱ कैनेडी की कम उम्र लड़कियों में रुचि थी और दूसरी जो भयावह तस्वीर सामने आती है जिसको मिमी ने रेखांकित नहीं किया है वह यह कि कैनेडी के कार्यकाल में उसके कुछ दोस्त उसके सेक्सुअल डिजायर का खास तौर पर ख्याल रखते थे और उसे लड़कियां उपलब्ध हो इसके लिए प्रयासरत भी रहते थे । दौरों के समय भी कैनेडी के लिए लड़कियों का इंतजाम यही गैंग करता था। कैनेडी का स्पेशल असिस्टेंट डेव पॉवर्स इसके केंद्र में था और दो लड़कियां उसकी मदद किया करती थी । यूं तो डेव अमेरिका के राष्ट्रपति के स्पेशल असिटेंट के पद पर तैनात था लेकिन देशभर में वह प्रथम मित्र के रूप में जाना जाता था । जब मिमी व्हाइट हाउस के प्रेस कार्यलय में इंटर्न के तौर पर आई तो उसने कोई आवेदन नहीं किया था उसे तो राष्ट्रपति भवन से बुलावा आया था । दरअसल वो कैनेडी के राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी पत्नी से इंटरव्यू करने आई थी क्योंकि जिस स्कूल में मिमी पढ़ रही थी वहीं से कैनेडी की पत्नी ने भी स्कूलिंग की थी । उसी वक्त वो इस गैंग की नजर में आ गई थी । बाद में राष्ट्रपति भवन के बुलावे पर उसने प्रेस कार्यलय में इंटर्न के तौर पर ज्वाइन करवाया गया । एक दिन अचानक डेव ने उसे फोन करके राष्ट्रपति भवन के स्वीमिंग पूल में दोपहर की तैराकी का आनंद लेने का निमंत्रण दिया जिसे मिमी ने स्वीकार कर लिया । उसी स्वीमिंग पूल में उसकी और कैनेडी की पहली मुलाकात हुई । उसके बाद फिर से डेव ने उसे राष्ट्रपति भवन घूमने का न्योता दिया । लेकिन यहां कैनेडी उसे व्हाइट हाउस घुमाने के बहाने अपने बेडरूम में ले गए और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए । लेखिका खुद इस बात को लेकर भ्रम में है कि कैनेडी ने उसके साथ जबरदस्ती संबंध बनाए या फिर उसकी भी रजामंदी थी । बेहद साफगोई से उसने यह स्वीकार भी किया है । अठारह साल की उम्र में पैंतालीस साल के पुरुष से शारीरिक संबंध बनाने का बेहद ही शालीनता लेकिन सेंसुअल तरीके से वर्णन किया गया है । वर्णन में कहीं कोई अश्लीलता नहीं है। पहले सेक्सुअल एनकाउंटर के बाद एक लड़की की मनस्थिति का जो चित्रण मिमी ने किया है वह पठनीय है । उसके मन में यह द्वंद्व चलता है कि अपने से दुगने उम्र के पुरुष से संबंध बनाना कहां तक उचित है वहीं मन के कोने अंतरे में यह बात भी है कि दुनिया के सबसे ताकतवर पुरुष से उसके तालुक्कात है । वह उसका प्रेमी है ।
इस किताब में कैनेडी की वह छवि और मजबूत होती है कि वो महिलाओं को उपभोग की वस्तु समझता था । इसको अंग्रेजी में सेक्सुअल प्लेजर के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला औजार भी कह सकते हैं । मिमी के साथ ही उसने शारीरिक संबंध ही नहीं बनाए बल्कि अपने सामने अपने स्पेशल असिस्टेंट डेव पॉवर्स के साथ भी सेक्स एक्ट परफॉर्म करने के लिए मजबूर किया । अगली गर्मी में कैनेडी ने फिर से यही काम अपने भाई के लिए करने को कहा जिसे मिमी ने ठुकरा दिया । एक पार्टी में उसने जबरदस्ती मिमी तो ड्रग्स लेने को मजबूर किया ।
सेक्स प्रसंगों के अलावा भी मिमी की जो दास्तां इस किताब में है उससे एक लड़की के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है । एक तरफ वह कैनेडी से सेक्सुअल रिलेशनशिप में है तो दूसरी तरफ अपने मित्र से शादी भी तय कर रही है । जिस दिन कैनेडी की हत्या होती है उस दिन वह अपने मंगेतर के साथ होती है । काफी देर तक सदमे में रहने के बाद वह अपने मंगेतर को यह बताती है कि उसके और कैनेडी के बीच संबंध थे । उसका मंगेतर यह सुनकर दूसरे कमरे में चला जाता है लेकिन अचानक से आकर मिमी पर टूट पड़ता है और मिमी के साथ शारीरिक संबंध बानाता है । उसके बाद वह मिमी से वादा करवाता है कि कैनेडी के संबंध के बारे में वो किसी को नहीं बताएगी । मिमी चार दशक तक उस वादे को निभाती है । उस पूरे प्रसंग को बेहद सधे तरीके से मिमी ने लिखा है । यहां आकर यह नहीं लगता कि यह लेखिका की पहली किताब है । न ही इस किताब में सेक्स प्रसंगों की भरमार है । जहां भी उसकी चर्चा है वह बेहद संजीदे अंदाज में है । हिंदी के कुछ लेखकों को यह देखना चाहिए कि किस तरह से सेक्स प्रसंगों को बगैर अश्लील बनाए भी लिखा जा सकता है । देखना तो हिंदी के प्रकाशकों को भी चाहिए कि किस तरह से पुस्तक की बिक्री को बढ़ाने के लिए उसके चुनिंदा अंश सनसनीखेज तरीके से अखबारों में छपवाए जाते हैं ।
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Wednesday, February 29, 2012
Saturday, February 25, 2012
कसौटी पर अन्ना आंदोलन
पिछले दिनों कई संपादकों की किताबें आई जिनमें आउटलुक के प्रधान संपादक विनोद मेहता की लखनऊ ब्यॉय और एस निहाल सिंह की इंक इन माई वेंस अ लाइफ इन जर्नलिज्म प्रमुख हैं । ये दोनों किताबें कमोबेश उनकी आत्मकथाएं हैं जिनमें उनके दौर की राजनीतिक गतिविधियों का संक्षिप्त दस्तावेजीकरण है । विनोद मेहता और एस निहाल सिंह की किताब के बाद युवा संपादक आशुतोष की किताब आई है - अन्ना-थर्टीन डेज दैट अवेकंड इंडिया । जैसा कि किताब के नाम से ही स्पषट है कि यह किताब अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखी गई है । एक ओर जहां विनोद मेहता और निहाल सिंह की किताब एक लंबे कालखंड की राजनीतिक घटनाओं को सामने लाती है वहीं आशुतोष अपनी किताब में बेहद छोटे से कालखंड को उठाते हैं और उसमें घट रही घटनाओं को सूक्ष्मता से परखते हुए अपने राजनीतिक विवेक के आधार पर टिप्पणियां करते चलते हैं । किताब की शुरुआत बेहद ही दिलचस्प और रोमांचक तरीके से होती है । रामलीला मैदान में अपने सफल अनशन के बाद अन्ना मेदांता अस्पताल में इलाज करवा रहे होते हैं अचानक एजेंसी पर खबर आती है कि उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई है । जबकि कुछ घंटे पहले ही अन्ना के डॉक्टरों ने ऐलान किया था उन्हें पूरी तरह से ठीक होने में चार से पांच दिन लगेंगे । अचानक से आई इस खबर के बाद संपादक की उत्तेजना और टेलीविजन चैनल के न्यूजरूम में काम कर रहे पत्रकारों के उत्साह से लबरेज माहौल से यह किताब शुरू होती है । जिस तरह से खबर आगे बढ़ती है उसी तरह से रोमांच अपने चरम पर पहुंचता है । इसमें एक खबर को लेकर संपादक की बेचैनी और उसके सही साबित होने का संतोष भी लक्षित किया जा सकता है । आशुतोष ने अपनी इस किताब में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई मुहिम को शुरुआत से लेकर अन्ना के मुंबई के असफल अनशन तक को समेटा है । अन्ना और उनके आंदोलन पर लिखी गई इस किताब को आशुतोष ने बीस अध्याय में बांटकर उसके पहलुओं को उद्घाटित किया है ।
एक संपादक के तौर पर आशुतोष उस वक्त चिंतित और खिन्न दिखाई पड़ते हैं जब बाबा रामदेव की अगुवाई के लिए प्रणब मुखर्जी के एयरपोर्ट जाने की खबर आती है । आशुतोष लिखते हैं- जब यह खबर आती है तो वो एडिटर गिल्ड की मीटिंग में प्रणब मुखर्जी के साथ मौजूद हैं । दफ्तर से जब यह पूछते हुए फोन आता है कि क्या प्रणब मुखर्जी बाबा रामदेव की अगुवानी के लिए एयरपोर्ट जा रहे हैं तो उसके उत्तर में वो कहते हैं- क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है । तुम ये सोच भी कैसे सकते हो कि प्रणब मुखर्जी रामदेव को रिसीव करने जाएंगे । रामदेव कोई हेड ऑफ स्टेट नहीं हैं । इसके बाद जब यह खबर सही साबित होती है तो आशुतोष इसे सरकार के संत्रास के दौर पर देखते हैं और उसके राजनीतिक मायने और आगे की राजनीति पर पड़नेवाले प्रभाव पर अपनी चिंता जताते हैं । दरअसल आशुतोष अन्ना के दिल्ली के आंदोलनों के चश्मदीद गवाह रहे हैं चाहे वो जंतर मंतर का अनशन हों या राजघाट का अनशन या फिर रामलीला मैदान का ऐतिहासिक अनशन जिसने सरकार को घुटने पर आने को मजबूर कर दिया था । आशुतोष की इस किताब को पढ़ने के बाद एक बात और साफ तौर उभर कर सामने आती है कि इस आंदोलन के दौरान उनके अंदर का रिपोर्टर बेहद सक्रिय था । संपादक के अंदर का वह रिपोर्टर का एक साथ टीम अन्ना और सरकार के अपने सूत्रों से जानकारियां ले रहा था । अपने सूत्रों से मिल रही जानकारियों से ना सिर्फ अपने प्रतियोगियों को पीछे छोड़ रहा था बल्कि दर्शकों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा कर संतोष का अनुभव कर रहा था । अन्ना हजारे को जब उनके सहयोगियों अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के साथ दिल्ली के मयूर विहार से हिरासत में लिया गया था उस वक्त अरविंद के एसएमएस लगातर उनके पास आ रहे थे जो अन्ना की पल पल की गतिविधयों की जानकारी दे रहे थे । इसी तरह रामलीला मैदान में अनशन के दौरान भी उनके पास खबरें पहले आ रही थी ।
अपनी इस किताब में आशुतोष ने अन्ना के आंदोलन को ठीक तरीके नहीं निबट पाने के लिए गैर राजनीतिक मंत्रियों को जिम्मेदार माना है । उनके मुताबिक यह एक राजनीति आंदोलन था जिसे राजनीतिक रूप से ही निबटा जा सकता था । आशुतोष के मुताबिक दो गैरराजनैतिक वकील मंत्रियों ने इस पूरे मामले को मिसहैंडिल किया । जाहिर तौर पर उनका इशारा चिदंबरम और कपिल सिब्बल की ओर है । आंदोलन के दौरान सोनिया गांधी की देश से अनुपस्थिति को भी आशुतोष उसी मिसहैंडलिंग से जोड़कर देखते हैं । आशुतोष अन्ना के आंदोन में संघ की भागीदारी पर बेबाकी से कलम चलाते हैं और कई संदर्भों और लोगों की बातों को आधार बनाकर अपनी बात कहते हैं ।
इस किताब की खूबसूरती इस बात में है कि इसमें अन्ना के आंदोलन के समाने और परदे के पीछे के तथ्यों और गतिविधियों का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण किया गया है । लेकिन जब भी जहां भी लेखक को लगता है वो अन्ना और उनकी टीम की आलोचना से भी नहीं हिचकते हैं । जब इमाम बुखारी के बयान के दबाव में अनशन स्थल पर रोजा खुलवाने जैसा कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तो उसे आशुतोष सस्ता राजनीति हंथकंडा के तौर पर देखते हैं और कड़ी टिप्पणी करते हैं । किताब के अंत में एपिलॉग में आशुतोष ने मुंबई में अन्ना के आंदोलन के असफल होने की वजहें भी गिनाई हैं । इस किताब का प्राक्कथन मशहूर समाजवादी चिंतक आशीष नंदी और इंड्रोडक्शन योगेन्द्र यादव ने लिखा है । अगर हम समग्रता में देखें तो इस किताब में अन्ना के आंदोलन को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा और परखा गया है । अन्ना के आंदोलन को जानने और समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है ।
एक संपादक के तौर पर आशुतोष उस वक्त चिंतित और खिन्न दिखाई पड़ते हैं जब बाबा रामदेव की अगुवाई के लिए प्रणब मुखर्जी के एयरपोर्ट जाने की खबर आती है । आशुतोष लिखते हैं- जब यह खबर आती है तो वो एडिटर गिल्ड की मीटिंग में प्रणब मुखर्जी के साथ मौजूद हैं । दफ्तर से जब यह पूछते हुए फोन आता है कि क्या प्रणब मुखर्जी बाबा रामदेव की अगुवानी के लिए एयरपोर्ट जा रहे हैं तो उसके उत्तर में वो कहते हैं- क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है । तुम ये सोच भी कैसे सकते हो कि प्रणब मुखर्जी रामदेव को रिसीव करने जाएंगे । रामदेव कोई हेड ऑफ स्टेट नहीं हैं । इसके बाद जब यह खबर सही साबित होती है तो आशुतोष इसे सरकार के संत्रास के दौर पर देखते हैं और उसके राजनीतिक मायने और आगे की राजनीति पर पड़नेवाले प्रभाव पर अपनी चिंता जताते हैं । दरअसल आशुतोष अन्ना के दिल्ली के आंदोलनों के चश्मदीद गवाह रहे हैं चाहे वो जंतर मंतर का अनशन हों या राजघाट का अनशन या फिर रामलीला मैदान का ऐतिहासिक अनशन जिसने सरकार को घुटने पर आने को मजबूर कर दिया था । आशुतोष की इस किताब को पढ़ने के बाद एक बात और साफ तौर उभर कर सामने आती है कि इस आंदोलन के दौरान उनके अंदर का रिपोर्टर बेहद सक्रिय था । संपादक के अंदर का वह रिपोर्टर का एक साथ टीम अन्ना और सरकार के अपने सूत्रों से जानकारियां ले रहा था । अपने सूत्रों से मिल रही जानकारियों से ना सिर्फ अपने प्रतियोगियों को पीछे छोड़ रहा था बल्कि दर्शकों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा कर संतोष का अनुभव कर रहा था । अन्ना हजारे को जब उनके सहयोगियों अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के साथ दिल्ली के मयूर विहार से हिरासत में लिया गया था उस वक्त अरविंद के एसएमएस लगातर उनके पास आ रहे थे जो अन्ना की पल पल की गतिविधयों की जानकारी दे रहे थे । इसी तरह रामलीला मैदान में अनशन के दौरान भी उनके पास खबरें पहले आ रही थी ।
अपनी इस किताब में आशुतोष ने अन्ना के आंदोलन को ठीक तरीके नहीं निबट पाने के लिए गैर राजनीतिक मंत्रियों को जिम्मेदार माना है । उनके मुताबिक यह एक राजनीति आंदोलन था जिसे राजनीतिक रूप से ही निबटा जा सकता था । आशुतोष के मुताबिक दो गैरराजनैतिक वकील मंत्रियों ने इस पूरे मामले को मिसहैंडिल किया । जाहिर तौर पर उनका इशारा चिदंबरम और कपिल सिब्बल की ओर है । आंदोलन के दौरान सोनिया गांधी की देश से अनुपस्थिति को भी आशुतोष उसी मिसहैंडलिंग से जोड़कर देखते हैं । आशुतोष अन्ना के आंदोन में संघ की भागीदारी पर बेबाकी से कलम चलाते हैं और कई संदर्भों और लोगों की बातों को आधार बनाकर अपनी बात कहते हैं ।
इस किताब की खूबसूरती इस बात में है कि इसमें अन्ना के आंदोलन के समाने और परदे के पीछे के तथ्यों और गतिविधियों का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण किया गया है । लेकिन जब भी जहां भी लेखक को लगता है वो अन्ना और उनकी टीम की आलोचना से भी नहीं हिचकते हैं । जब इमाम बुखारी के बयान के दबाव में अनशन स्थल पर रोजा खुलवाने जैसा कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तो उसे आशुतोष सस्ता राजनीति हंथकंडा के तौर पर देखते हैं और कड़ी टिप्पणी करते हैं । किताब के अंत में एपिलॉग में आशुतोष ने मुंबई में अन्ना के आंदोलन के असफल होने की वजहें भी गिनाई हैं । इस किताब का प्राक्कथन मशहूर समाजवादी चिंतक आशीष नंदी और इंड्रोडक्शन योगेन्द्र यादव ने लिखा है । अगर हम समग्रता में देखें तो इस किताब में अन्ना के आंदोलन को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा और परखा गया है । अन्ना के आंदोलन को जानने और समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है ।
Tuesday, February 21, 2012
…कुछ तो है जिसकी परदादारी है
हिंदी में साहित्यिक किताबों की बिक्री के आंकड़ों को लेकर अच्छा खासा विवाद होता रहा है । लेखकों को लगता है कि प्रकाशक उन्हें उनकी कृतियों के बिक्री के सही आंकड़े नहीं देते हैं । दूसरी तरफ प्रकाशकों का कहना है कि हिंदी में साहित्यिक कृतियों के पाठक लगातार कम होते जा रहे हैं । बहुधा हिंदी के लेखक प्रकाशकों पर रॉयल्टी में गड़बड़ी के आरोप भी जड़ते रहे हैं । लेकिन प्रकाशकों पर लगने वाले इस तरह के आरोप कभी सही साबित नहीं हुए । निर्मल वर्मा की पत्नी और राजकमल के बीच का विवाद हिंदी जगत में खासा चर्चित रहा । निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल को लगा था कि राजकमल प्रकाशन से उन्हें उचित रॉयल्टी नहीं मिल रही है लिहाजा उन्होंने हिंदी के शीर्ष प्रकाशन गृह पर रॉयल्टी कम देने का आरोप लगाते हुए निर्मल की सारी किताबें वापस ले ली थी । उसके बाद यह पता नहीं चल पाया कि गगन गिल को निर्मल वर्मा की किताबों पर दूसरे प्रकाशन संस्थानों से कितनी रॉयल्टी मिली । अभी जनवरी के हंस में राजेन्द्र यादव ने एक बार फिर से इस मुद्दे को उटाया है । राजेन्द्र जी ने लिखा- वस्तुत : हिंदी प्रकाशन अभी भी पेशेवर नहीं हुआ है और उसी डंडी मार बनिया युग में बना हुआ है । मेरे उपर आरोप है कि मैं प्रकाशकों का पक्षन लेता हूं ; कि लेखक अभी भी हवाई दुनिया में रहते हैं । दस बीस पुस्तकों के लेखक अपने शोषण और प्रकाशक की शान शौकत को गालियां देते हैं । मेरा कहना है कि प्रकाशक हजारों पुस्तकें प्रकाशित करता है और अपनी लागत पर दस पांच प्रतिशत बचाता भी है तो यह राशि निश्चय ही किसी भी लेखकीय रॉयल्टी से सैकड़ों गुना अधिक होगी । राजेन्द्र यादव आगे लिखते हैं – आज लेखक-प्रकाशक के रिश्ते बेहद अनात्मीय और बाजरू हो गए हैं । कच्चा माल दो और भूल जाओ । अपने इस संपादकीय लेख में यादव जी ने यह भी बताया है कि उनके जवानी के दिनों में ओंप्रकाश जी, विश्वनाथ, रामलाल पुरी और शीला संधू किस तरह से लेखकों से दोस्ती का संबंध रखते थे । लेखकों की हर महीने पार्टी होती थी और एडवांस रॉयल्टी देकर लेखकों को लिखने के लिए दबाब डालते थे । लेकिन राजेन्द्र यादव ने रिश्तों के बाजारू और अनात्मीय होने की वजह नहीं बताई । हिंदी के इस शीर्ष लेखक से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वो इसकी वजह भी बताते और अपने अनुभवों के आधार पर इस रिश्ते की गरमाहट को बचाए रखने के लिए कुछ उपाय सुझाते । लेकिन बजाए एक वरिष्ठ लेखक की भूमिका अख्तियार करने के यादव जी वयक्तिगत लेन देन के ब्यौरे में उलझ कर रह गए । कहने लगे राजकमल और वाणी से मेरी लगभग 90 पुस्तकें प्रकाशित हुई- अनुवादित संपादित और लिखित । नगर दोनों जगह मिलाकर आंकड़ा डेढ लाख मुश्किल से छू पाता है- जबकि दस बीस किताबें ऐसी भी हैं जिनके हर साल संस्करण होते हैं –आठ दस विभिन्न पाठ्यक्रमों में भी लगी है । यादव जी का संपादकीय पढ़ने के बाद मुझे छाया मयूर छपने के बाद का एक प्रसंग याद आ रहा है । छाया मयूर के अंक में भारत भारद्वाज ने हिंदी की चुनिंदा पुस्तकों पर लिखा था । अब ठीक से याद नहीं है लेकिन भारत जी के उस लेख को लेकर राजेन्द्र जी कुछ विचलित और झुब्ध थे । उसके बाद मैंने राजेन्द्र जी का एक इंटरव्यू किया था उसमें यादव जी ने बताया था कि उन्हें साठ या सत्तर के दशक में ही रॉयल्टी के लाख रुपये मिला करते थे । मुझे याद नहीं है कि अब वो इंटरव्यू कहां है लेकिन यह प्रसंग इस वजह से याद है कि तब मैंने सोचा था कि लेखकों को ठीक ठाक पैसे मिलते हैं । साठ सत्तर के दशक में भी लाख-डेढ लाख और चार दशक के बाद भी लाख डेढ लाख – ये तो बेहद नाइंसाफी है । यादव जी को साफ तौर पर बताना चाहिए था कि उन्हें कितने पैसे रॉयल्टी के मिलते हैं और क्या प्रकाशक उन्हें एडवांस भी देते रहे हैं । उनके लेख से यह ध्वनि निकलती है कि किताबघर और सामयिक प्रकाशन उन्हें सही रॉयल्टी देते हैं । लेख को पढ़ते वक्त मेरे दिमाग में यह कौंधा कि यादव जी की क्या मजबूरी है कि वो वाणी और राजकमल के साथ बने हुए हैं क्यों नहीं अपनी किताबें सामयिक और किताबघर को दे देते हैं । रॉयल्टी में कमी का अंदेशा भी है और हंस के पच्चीस साल पूरे होने पर भी जो किताबें छपी वो भी वाणी और राजकमल से ही छपीं । कुछ तो है जिसकी परदादारी है ।
दरअसल यह पूरा मामला बेहद उलझा हुआ है और उतना आसान है नहीं जितना दिखता है । हिंदी में साहित्यिक कृतियों का अब बमुश्किल तीन सौ से लकर पांच सौ प्रतियों का संस्करण होता है और दूसरा संस्करण छपने में सालों बीत जाते हैं । लेकिन इसके ठीक उलट अंग्रेजी में हालात बिल्कुल जुदा है । वहां एक औसत से लेखक की कमजोर कृति भी आठ से दस हजार बिक ही जाती है । ऐसा नहीं है कि हिंदी का बाजार कम बड़ा है बल्कि हाल के दिनों में तो हिंदी का बाजार भी बहुत बढ़ा है । तो फिर क्या वजह है कि हिंदी में एक साहित्यिक कृति के अपेक्षाकृत कम संख्या वाले संस्करण को बिकने में अंग्रेजी की तुलना में काफी ज्यादा वक्त लगता है ।
मुझे लगता है कि इसकी कई वजहें साफ तौर पर नजर आती है । हमारे देश में हिंदी का बाजार अवश्य बढ़ा है यह तो अखबारों की बढ़ती प्रसार संख्या और उसके नए संस्करणों की लोकप्रियता से पता चल जाता है और प्रामाणिक भी लगता है । इसको ही हम हिंदी का विस्तार मानते हुए इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जाते हैं कि साहित्यिक कृतियों का बजार बढ़ा है । मेरे ख्याल से आकलन का यह तरीका सरही नहीं है । अखबारों और पत्रिताओं की संख्या में इजाफा के आधार पर साहित्यिक कृतियों की बिक्री का अंदाजा लगाना गलत है बल्कि इससे एक भ्रम और अविश्वास की स्थिति पैदा होती है । लेखकों को यह लगने लगता है कि उनकी कृतियां काफी बक रही है और प्रकाशक सर पीट रहा होता है कि जितनी पूंजी लगाकर किताब प्रकाशित की उसका निकल पाना भी संभव नहीं हो पा रहा है । ये दोनों ही स्थितियां प्रकाशन जगत के लिए हानिकारक हैं । अब से कुछ दिनों बाद नई दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला लगनेवाला है । वहां भी इस बात की चर्चा होगी, बहस होगी लेकिन होगा कुछ नहीं । प्रकाशकों और लेखकों के बीच इस तरह के अविश्वास की स्थिति हिंदी के लिए अच्छी नहीं है । अब वक्त आ गया है कि राजेन्द्र यादव जैसे बड़े लेखक वयक्तिगत दर्द से उपर उठकर इस मसले के स्थायी हल के लिए पहल करें और एक मुकम्मल रास्ता निकालें ।
दरअसल यह पूरा मामला बेहद उलझा हुआ है और उतना आसान है नहीं जितना दिखता है । हिंदी में साहित्यिक कृतियों का अब बमुश्किल तीन सौ से लकर पांच सौ प्रतियों का संस्करण होता है और दूसरा संस्करण छपने में सालों बीत जाते हैं । लेकिन इसके ठीक उलट अंग्रेजी में हालात बिल्कुल जुदा है । वहां एक औसत से लेखक की कमजोर कृति भी आठ से दस हजार बिक ही जाती है । ऐसा नहीं है कि हिंदी का बाजार कम बड़ा है बल्कि हाल के दिनों में तो हिंदी का बाजार भी बहुत बढ़ा है । तो फिर क्या वजह है कि हिंदी में एक साहित्यिक कृति के अपेक्षाकृत कम संख्या वाले संस्करण को बिकने में अंग्रेजी की तुलना में काफी ज्यादा वक्त लगता है ।
मुझे लगता है कि इसकी कई वजहें साफ तौर पर नजर आती है । हमारे देश में हिंदी का बाजार अवश्य बढ़ा है यह तो अखबारों की बढ़ती प्रसार संख्या और उसके नए संस्करणों की लोकप्रियता से पता चल जाता है और प्रामाणिक भी लगता है । इसको ही हम हिंदी का विस्तार मानते हुए इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जाते हैं कि साहित्यिक कृतियों का बजार बढ़ा है । मेरे ख्याल से आकलन का यह तरीका सरही नहीं है । अखबारों और पत्रिताओं की संख्या में इजाफा के आधार पर साहित्यिक कृतियों की बिक्री का अंदाजा लगाना गलत है बल्कि इससे एक भ्रम और अविश्वास की स्थिति पैदा होती है । लेखकों को यह लगने लगता है कि उनकी कृतियां काफी बक रही है और प्रकाशक सर पीट रहा होता है कि जितनी पूंजी लगाकर किताब प्रकाशित की उसका निकल पाना भी संभव नहीं हो पा रहा है । ये दोनों ही स्थितियां प्रकाशन जगत के लिए हानिकारक हैं । अब से कुछ दिनों बाद नई दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला लगनेवाला है । वहां भी इस बात की चर्चा होगी, बहस होगी लेकिन होगा कुछ नहीं । प्रकाशकों और लेखकों के बीच इस तरह के अविश्वास की स्थिति हिंदी के लिए अच्छी नहीं है । अब वक्त आ गया है कि राजेन्द्र यादव जैसे बड़े लेखक वयक्तिगत दर्द से उपर उठकर इस मसले के स्थायी हल के लिए पहल करें और एक मुकम्मल रास्ता निकालें ।
Tuesday, February 7, 2012
विचारधारा के पूर्वग्रह
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी को वहां आने से रोकने और वीडियो कांफ्रेंसिंग को रुकवाने में सफलता हासिल करने के बाद कट्टरपंथियों और कठमुल्लों के हौसले बुलंद हैं। राजस्थान की कांग्रेस सरकार के घुटने टेकने के बाद अब बंगाल की ममता बनर्जी सरकार ने भी चंद कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक दिए । कोलकाता पुस्तक मेले में तस्लीमा नसरीन की विवादास्पद किताब निर्बासन के सातवें खंड का लोकार्पण करने की इजाजत नहीं दी गई । तसलीमा के कोलकाता जाने पर प्रगतिशील वामपंथी सरकार ने पहले से ही पाबंदी लगाई हुई है जिसे क्रांतिकारी नेता ममता बनर्जी ने भी जारी रहने दिया । तस्लीमा की अनुपस्थिति में कोलकाता पुस्तक मेले में विमोचन को रोकना हैरान करनेवाला है । दरअसल ये कट्टरपंथ का एक ऐसा वायरस है जो हमारे देश में तेजी से फैलता जा रहा है । समय रहते अगर बौद्धिक समाज ने इसपर लगाम लगाने की कोशिश नहीं की तो इसके बेहद गंभीर परिणाम होंगे। प्रगतिशील लेखकों की बिरादरी हुसैन की प्रदर्शनी पर हमले को लेकर तो खूब जोर शोर से गरजती हैं लेकिन जब तस्लीमा या फिर सलमान का मुद्दा आता है तो रस्मी तौर पर विरोध जताकर या फिर चुप रह कर पूरे मसले से कन्नी काट लेते हैं । चिंता इस बात को लेकर है कि भारत में ये प्रवृत्ति अब जोर पकड़ने लगी है । हुसैन की पेंटिंग के विरोध को लेकर खूब हो हल्ला मचा था, माना जा सकता है कि विरोध जायज भी था । लेकिन सलमान के जयपुर ना आने पर विरोध का स्वर काफी धीमा था ।
जयपुर में सलमान रश्दी को अपने ही देश में आने से रोककर राजस्थान की गहलोत सरकार ने जिस खतरनाक परंपरा की शुरुआत की उसके परिणाम कोलकाता पुस्तक मेले में दिखा । दरअसल इस देश में पहले तो कांग्रेस और वामपंथी नेताओं ने सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं पर कब्जा किया और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में देश की परंपराओं और मान्यताओं की परवाह की परवाह करना बंद कर दिया । बाद में भारतीय जनता पार्टी और तमाम छोटे छोटे दलों ने भी यही काम करना शुरू कर दिया । इमरजेंसी के पहले और बाद के दौर में वामपंथी बुद्धिजीवियों का सरकार पर दबदबा रहा । वामपंथियों ने इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की सरकार को जो सहयोग दिया उसके एवज में जमकर कीमत वसूली । इमरजेंसी में मीडियापर पाबंदी को लेकर वामपंथियों ने खामोश समर्थन दिया । देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जरूर यह मानना था कि भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हर तरह की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को मजबूत करना होगा । साहित्य अकादमी के चैयरमैन के तौर पर उन्होंने हमेशा से इस मान्यता को मजबूत करने का काम किया । बाद में इंदिरा गांधी ने तो संस्थाओं और मान्यताओं की जमकर धज्जियां उड़ाई । एक तानाशाह की तरह जो मन में आया वो किया जिसकी परिणति देश में इमरजेंसी के तौर पर हुई । राजीव गांधी की ताजा नेता की छवि से देश को एक उम्मीद जगी थी लेकिन कालांतर में वो भी प्रगतिशील और परंपराओं को तोड़नेवाले नेता की छवि को तोड़ते हुए कट्टरपंथियों के आगे झुकते चले गए । सलमान रश्दी को जयपुर आने से रोकने और तस्लीमा की किताब के लोकापर्ण को रोकना सिर्फ अभिवयक्ति की आजादी पर पाबंदी का मसला नहीं है । इसके पीछे कांग्रेस एक बड़ा राजनीतिक खेल खेल रही है । इस बहाने से वो उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट अपनी ओर खींचना चाहती है । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को कांग्रेस ने अपने युवराज की लोकप्रियता के साथ जोड़कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है । उत्तर प्रदेश में सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा रही है । पार्टी को यह पता है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका बेहद अहम है और उनका समर्थन हासिल कर लेने से सफलता आसान हो जाएगी ।
कोलकाता में ममता बनर्जी ने भी यही खेल खेला । वह भी नहीं चाहती कि उनके सूबे में मुस्लिम नाराज ना हो इस वजह से तसलीमा की किताब का लोकार्पण की इजाजत नहीं मिली, वजह बताया गया कि इससे सांप्रदायिक सद्भाव को झटका लग सकता है और सूबे में कानून व्यवस्था के हालात पैदा हो सकते हैं । ममता बनर्जी ने वामपंथियों के शासन से कोलकाता को मुक्त किया और जोर शोर से यह वादा किया था कि अब सूबे में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा । लेकिन वामपंथी सरकार के तस्लीमा को कोलकाता से बाहर निकालने के फैसले को वापस लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाई । तस्लीमा जिसे अपना दूसरा घर कहती हैं वहां जाने की उनको इजाजत नहीं है । कानून व्यवस्था की आड़ में उनके कोलकाता जाने पर पहले से पाबंदी है । अपनी किताब के विमोचन पर रोक लगाने के बाद तस्लीमा मे ट्विट कर सवाल खड़ा किया कि कोलकाता खुद को बौद्धिक शहर कहता है लेकिन एक लेखक को प्रतिबंधित किया जा रहा है । मेरी अनुपस्थिति में भी किताब जारी होना कतई मंजूर नहीं है ।कोई पार्टी कोई संगठन कुछ नहीं कहता । आखिर ये कबतक होगा । तस्मीमा के ट्विट में जो दर्द है उसको समझते हुए भी लेखक बिरादरी की खामोशी हैरान करनेवाली है ।
दरअसल हमारे देश के बुद्धीजिवयों के साथ यह बड़ी दिक्कत है । उपर भी इस बात का संकेत किया गया है कि प्रगतिशीलता का मुखौटा लगानेवाले लेखक दरअसल प्रगतिशील हैं ही नहीं । जब फिदा हुसैन की पेंटिंग्स को लेकर हिंदू संगठनों ने बवाल खड़ा किया था और उनके प्रदर्शनियों में तोड़ फोड़ की थी तो उस वक्त वामपंथी लेखकों और उनके संगठनों ने जोर शोर से इसका विरोध किया था । लेखकों ने लेख लिखकर, सड़कों पर प्रदर्शन करके विरोध जताया था । अब भी वो तमाम लोग और उनके संगठन हुसैन की कतर की नागरिकता स्वीकार करने के फैसले को हिंदू संगठनों की धमकियों का नतीजा ही मानते हैं । अभी हालिया वाकये में जब दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामानुजम का रामायण से संबंधित एक लेख हटाया गया तो उसका वामपंथ से जुड़े लेखकों और अध्यापकों ने देशव्यापी विरोध किया । विश्वविद्यालय में धरना प्रदर्शन हुआ, देशभर के अखबारों में विरोध में लेख छपे । मंत्रियो को ज्ञापन दिया गया और उसको बहाल करने की मांग उठी । लेकिन जब पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने तस्लीमा को प्रदेश से निकाल बाहर किया तो लेखक संगठनों और प्रगतिशील लेखकों ने चुप्पी साध ली क्योंकि उस वक्त वहां उनकी सरकार थी और लेखकों के ये संगठन किसी भी तरह के कदम के लिए अपनी संबंधित राजनीति पार्टी से निर्देश लेते हैं । ठीक इसी तरह जब अब से कुछ दिनों पहले सलमान रश्दी को भारत आने से रोका गया तो तमाम प्रगतिशील लेखकों से लेकर उनके संगठनों तक ने इस बात पर विरोध जताना उचित नहीं समझा । इस चुप्पी या कमजोर विरोध से उन अनाम से हिंदू संगठनों को ताकत मिलती है जो लेखकीय स्वतंत्रता पर, अभिवयक्ति की आजादी पर हमला करते हैं या उस तरह के हमला करनेवालों को प्रश्रय देते हैं । अब देश में जरूरत इस बात की है कि कट्टरपंथियों के इस तरह के कदमों को बजाए अपनी चुप्पी या सक्रिय साझीदारी के उनपर रोक लगाने की कोशिश की जाए । इसके लिए देशभर के बुद्धिजीवियों को चाहे वो किसी भी विचारधारा से जुड़े हों खुलकर सामने आना होगा । लेखकों का किसी विचारधारा से जुड़ना और उनके हिसाब से लेखन करना गैरबाजिब नहीं है । लेकिन जब अपनी विचारधारा को धारा बनाने और सबसे उसी धारा में बहने का दुराग्रह शुरू हो जाता है तो विश्वसनीयता पर बड़ा संकट खड़ा हो जाता है । वक्त आ गया है कि लेखकों और संगठनों को इससे मुक्त होना होगा और जो कोई भी अभिवयक्ति की आजादी की राह में रोड़ा अटकाने की कोशिश करे या फिर उसमें बाधा बने उसका पुरजोर तरीके से विरोध किया जाना चाहिए। उस वक्त हमें यह भूलना होगा कि हम किस विचारधारा से हैं और हमारी लेखकीय आजादी पर हमला करने वाला किस विचारधारा का है । अगर हमारे देश में ऐसा संभव हो पाता है तो ये लेखक बिरादरी के लिए तो बेहतर होगा ही हमारे लोकतंत्र को भी मजबूकी प्रदान करेगा ।
जयपुर में सलमान रश्दी को अपने ही देश में आने से रोककर राजस्थान की गहलोत सरकार ने जिस खतरनाक परंपरा की शुरुआत की उसके परिणाम कोलकाता पुस्तक मेले में दिखा । दरअसल इस देश में पहले तो कांग्रेस और वामपंथी नेताओं ने सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं पर कब्जा किया और धर्मनिरपेक्षता की आड़ में देश की परंपराओं और मान्यताओं की परवाह की परवाह करना बंद कर दिया । बाद में भारतीय जनता पार्टी और तमाम छोटे छोटे दलों ने भी यही काम करना शुरू कर दिया । इमरजेंसी के पहले और बाद के दौर में वामपंथी बुद्धिजीवियों का सरकार पर दबदबा रहा । वामपंथियों ने इमरजेंसी में इंदिरा गांधी की सरकार को जो सहयोग दिया उसके एवज में जमकर कीमत वसूली । इमरजेंसी में मीडियापर पाबंदी को लेकर वामपंथियों ने खामोश समर्थन दिया । देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जरूर यह मानना था कि भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हर तरह की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को मजबूत करना होगा । साहित्य अकादमी के चैयरमैन के तौर पर उन्होंने हमेशा से इस मान्यता को मजबूत करने का काम किया । बाद में इंदिरा गांधी ने तो संस्थाओं और मान्यताओं की जमकर धज्जियां उड़ाई । एक तानाशाह की तरह जो मन में आया वो किया जिसकी परिणति देश में इमरजेंसी के तौर पर हुई । राजीव गांधी की ताजा नेता की छवि से देश को एक उम्मीद जगी थी लेकिन कालांतर में वो भी प्रगतिशील और परंपराओं को तोड़नेवाले नेता की छवि को तोड़ते हुए कट्टरपंथियों के आगे झुकते चले गए । सलमान रश्दी को जयपुर आने से रोकने और तस्लीमा की किताब के लोकापर्ण को रोकना सिर्फ अभिवयक्ति की आजादी पर पाबंदी का मसला नहीं है । इसके पीछे कांग्रेस एक बड़ा राजनीतिक खेल खेल रही है । इस बहाने से वो उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट अपनी ओर खींचना चाहती है । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को कांग्रेस ने अपने युवराज की लोकप्रियता के साथ जोड़कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है । उत्तर प्रदेश में सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस किसी भी हद तक जा रही है । पार्टी को यह पता है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका बेहद अहम है और उनका समर्थन हासिल कर लेने से सफलता आसान हो जाएगी ।
कोलकाता में ममता बनर्जी ने भी यही खेल खेला । वह भी नहीं चाहती कि उनके सूबे में मुस्लिम नाराज ना हो इस वजह से तसलीमा की किताब का लोकार्पण की इजाजत नहीं मिली, वजह बताया गया कि इससे सांप्रदायिक सद्भाव को झटका लग सकता है और सूबे में कानून व्यवस्था के हालात पैदा हो सकते हैं । ममता बनर्जी ने वामपंथियों के शासन से कोलकाता को मुक्त किया और जोर शोर से यह वादा किया था कि अब सूबे में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा । लेकिन वामपंथी सरकार के तस्लीमा को कोलकाता से बाहर निकालने के फैसले को वापस लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाई । तस्लीमा जिसे अपना दूसरा घर कहती हैं वहां जाने की उनको इजाजत नहीं है । कानून व्यवस्था की आड़ में उनके कोलकाता जाने पर पहले से पाबंदी है । अपनी किताब के विमोचन पर रोक लगाने के बाद तस्लीमा मे ट्विट कर सवाल खड़ा किया कि कोलकाता खुद को बौद्धिक शहर कहता है लेकिन एक लेखक को प्रतिबंधित किया जा रहा है । मेरी अनुपस्थिति में भी किताब जारी होना कतई मंजूर नहीं है ।कोई पार्टी कोई संगठन कुछ नहीं कहता । आखिर ये कबतक होगा । तस्मीमा के ट्विट में जो दर्द है उसको समझते हुए भी लेखक बिरादरी की खामोशी हैरान करनेवाली है ।
दरअसल हमारे देश के बुद्धीजिवयों के साथ यह बड़ी दिक्कत है । उपर भी इस बात का संकेत किया गया है कि प्रगतिशीलता का मुखौटा लगानेवाले लेखक दरअसल प्रगतिशील हैं ही नहीं । जब फिदा हुसैन की पेंटिंग्स को लेकर हिंदू संगठनों ने बवाल खड़ा किया था और उनके प्रदर्शनियों में तोड़ फोड़ की थी तो उस वक्त वामपंथी लेखकों और उनके संगठनों ने जोर शोर से इसका विरोध किया था । लेखकों ने लेख लिखकर, सड़कों पर प्रदर्शन करके विरोध जताया था । अब भी वो तमाम लोग और उनके संगठन हुसैन की कतर की नागरिकता स्वीकार करने के फैसले को हिंदू संगठनों की धमकियों का नतीजा ही मानते हैं । अभी हालिया वाकये में जब दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रामानुजम का रामायण से संबंधित एक लेख हटाया गया तो उसका वामपंथ से जुड़े लेखकों और अध्यापकों ने देशव्यापी विरोध किया । विश्वविद्यालय में धरना प्रदर्शन हुआ, देशभर के अखबारों में विरोध में लेख छपे । मंत्रियो को ज्ञापन दिया गया और उसको बहाल करने की मांग उठी । लेकिन जब पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने तस्लीमा को प्रदेश से निकाल बाहर किया तो लेखक संगठनों और प्रगतिशील लेखकों ने चुप्पी साध ली क्योंकि उस वक्त वहां उनकी सरकार थी और लेखकों के ये संगठन किसी भी तरह के कदम के लिए अपनी संबंधित राजनीति पार्टी से निर्देश लेते हैं । ठीक इसी तरह जब अब से कुछ दिनों पहले सलमान रश्दी को भारत आने से रोका गया तो तमाम प्रगतिशील लेखकों से लेकर उनके संगठनों तक ने इस बात पर विरोध जताना उचित नहीं समझा । इस चुप्पी या कमजोर विरोध से उन अनाम से हिंदू संगठनों को ताकत मिलती है जो लेखकीय स्वतंत्रता पर, अभिवयक्ति की आजादी पर हमला करते हैं या उस तरह के हमला करनेवालों को प्रश्रय देते हैं । अब देश में जरूरत इस बात की है कि कट्टरपंथियों के इस तरह के कदमों को बजाए अपनी चुप्पी या सक्रिय साझीदारी के उनपर रोक लगाने की कोशिश की जाए । इसके लिए देशभर के बुद्धिजीवियों को चाहे वो किसी भी विचारधारा से जुड़े हों खुलकर सामने आना होगा । लेखकों का किसी विचारधारा से जुड़ना और उनके हिसाब से लेखन करना गैरबाजिब नहीं है । लेकिन जब अपनी विचारधारा को धारा बनाने और सबसे उसी धारा में बहने का दुराग्रह शुरू हो जाता है तो विश्वसनीयता पर बड़ा संकट खड़ा हो जाता है । वक्त आ गया है कि लेखकों और संगठनों को इससे मुक्त होना होगा और जो कोई भी अभिवयक्ति की आजादी की राह में रोड़ा अटकाने की कोशिश करे या फिर उसमें बाधा बने उसका पुरजोर तरीके से विरोध किया जाना चाहिए। उस वक्त हमें यह भूलना होगा कि हम किस विचारधारा से हैं और हमारी लेखकीय आजादी पर हमला करने वाला किस विचारधारा का है । अगर हमारे देश में ऐसा संभव हो पाता है तो ये लेखक बिरादरी के लिए तो बेहतर होगा ही हमारे लोकतंत्र को भी मजबूकी प्रदान करेगा ।
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