पिछले दिनों कई संपादकों की किताबें आई जिनमें आउटलुक के प्रधान संपादक विनोद मेहता की लखनऊ ब्यॉय और एस निहाल सिंह की इंक इन माई वेंस अ लाइफ इन जर्नलिज्म प्रमुख हैं । ये दोनों किताबें कमोबेश उनकी आत्मकथाएं हैं जिनमें उनके दौर की राजनीतिक गतिविधियों का संक्षिप्त दस्तावेजीकरण है । विनोद मेहता और एस निहाल सिंह की किताब के बाद युवा संपादक आशुतोष की किताब आई है - अन्ना-थर्टीन डेज दैट अवेकंड इंडिया । जैसा कि किताब के नाम से ही स्पषट है कि यह किताब अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखी गई है । एक ओर जहां विनोद मेहता और निहाल सिंह की किताब एक लंबे कालखंड की राजनीतिक घटनाओं को सामने लाती है वहीं आशुतोष अपनी किताब में बेहद छोटे से कालखंड को उठाते हैं और उसमें घट रही घटनाओं को सूक्ष्मता से परखते हुए अपने राजनीतिक विवेक के आधार पर टिप्पणियां करते चलते हैं । किताब की शुरुआत बेहद ही दिलचस्प और रोमांचक तरीके से होती है । रामलीला मैदान में अपने सफल अनशन के बाद अन्ना मेदांता अस्पताल में इलाज करवा रहे होते हैं अचानक एजेंसी पर खबर आती है कि उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई है । जबकि कुछ घंटे पहले ही अन्ना के डॉक्टरों ने ऐलान किया था उन्हें पूरी तरह से ठीक होने में चार से पांच दिन लगेंगे । अचानक से आई इस खबर के बाद संपादक की उत्तेजना और टेलीविजन चैनल के न्यूजरूम में काम कर रहे पत्रकारों के उत्साह से लबरेज माहौल से यह किताब शुरू होती है । जिस तरह से खबर आगे बढ़ती है उसी तरह से रोमांच अपने चरम पर पहुंचता है । इसमें एक खबर को लेकर संपादक की बेचैनी और उसके सही साबित होने का संतोष भी लक्षित किया जा सकता है । आशुतोष ने अपनी इस किताब में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई मुहिम को शुरुआत से लेकर अन्ना के मुंबई के असफल अनशन तक को समेटा है । अन्ना और उनके आंदोलन पर लिखी गई इस किताब को आशुतोष ने बीस अध्याय में बांटकर उसके पहलुओं को उद्घाटित किया है ।
एक संपादक के तौर पर आशुतोष उस वक्त चिंतित और खिन्न दिखाई पड़ते हैं जब बाबा रामदेव की अगुवाई के लिए प्रणब मुखर्जी के एयरपोर्ट जाने की खबर आती है । आशुतोष लिखते हैं- जब यह खबर आती है तो वो एडिटर गिल्ड की मीटिंग में प्रणब मुखर्जी के साथ मौजूद हैं । दफ्तर से जब यह पूछते हुए फोन आता है कि क्या प्रणब मुखर्जी बाबा रामदेव की अगुवानी के लिए एयरपोर्ट जा रहे हैं तो उसके उत्तर में वो कहते हैं- क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है । तुम ये सोच भी कैसे सकते हो कि प्रणब मुखर्जी रामदेव को रिसीव करने जाएंगे । रामदेव कोई हेड ऑफ स्टेट नहीं हैं । इसके बाद जब यह खबर सही साबित होती है तो आशुतोष इसे सरकार के संत्रास के दौर पर देखते हैं और उसके राजनीतिक मायने और आगे की राजनीति पर पड़नेवाले प्रभाव पर अपनी चिंता जताते हैं । दरअसल आशुतोष अन्ना के दिल्ली के आंदोलनों के चश्मदीद गवाह रहे हैं चाहे वो जंतर मंतर का अनशन हों या राजघाट का अनशन या फिर रामलीला मैदान का ऐतिहासिक अनशन जिसने सरकार को घुटने पर आने को मजबूर कर दिया था । आशुतोष की इस किताब को पढ़ने के बाद एक बात और साफ तौर उभर कर सामने आती है कि इस आंदोलन के दौरान उनके अंदर का रिपोर्टर बेहद सक्रिय था । संपादक के अंदर का वह रिपोर्टर का एक साथ टीम अन्ना और सरकार के अपने सूत्रों से जानकारियां ले रहा था । अपने सूत्रों से मिल रही जानकारियों से ना सिर्फ अपने प्रतियोगियों को पीछे छोड़ रहा था बल्कि दर्शकों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा कर संतोष का अनुभव कर रहा था । अन्ना हजारे को जब उनके सहयोगियों अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के साथ दिल्ली के मयूर विहार से हिरासत में लिया गया था उस वक्त अरविंद के एसएमएस लगातर उनके पास आ रहे थे जो अन्ना की पल पल की गतिविधयों की जानकारी दे रहे थे । इसी तरह रामलीला मैदान में अनशन के दौरान भी उनके पास खबरें पहले आ रही थी ।
अपनी इस किताब में आशुतोष ने अन्ना के आंदोलन को ठीक तरीके नहीं निबट पाने के लिए गैर राजनीतिक मंत्रियों को जिम्मेदार माना है । उनके मुताबिक यह एक राजनीति आंदोलन था जिसे राजनीतिक रूप से ही निबटा जा सकता था । आशुतोष के मुताबिक दो गैरराजनैतिक वकील मंत्रियों ने इस पूरे मामले को मिसहैंडिल किया । जाहिर तौर पर उनका इशारा चिदंबरम और कपिल सिब्बल की ओर है । आंदोलन के दौरान सोनिया गांधी की देश से अनुपस्थिति को भी आशुतोष उसी मिसहैंडलिंग से जोड़कर देखते हैं । आशुतोष अन्ना के आंदोन में संघ की भागीदारी पर बेबाकी से कलम चलाते हैं और कई संदर्भों और लोगों की बातों को आधार बनाकर अपनी बात कहते हैं ।
इस किताब की खूबसूरती इस बात में है कि इसमें अन्ना के आंदोलन के समाने और परदे के पीछे के तथ्यों और गतिविधियों का प्रामाणिक दस्तावेजीकरण किया गया है । लेकिन जब भी जहां भी लेखक को लगता है वो अन्ना और उनकी टीम की आलोचना से भी नहीं हिचकते हैं । जब इमाम बुखारी के बयान के दबाव में अनशन स्थल पर रोजा खुलवाने जैसा कार्यक्रम आयोजित किया जाता है तो उसे आशुतोष सस्ता राजनीति हंथकंडा के तौर पर देखते हैं और कड़ी टिप्पणी करते हैं । किताब के अंत में एपिलॉग में आशुतोष ने मुंबई में अन्ना के आंदोलन के असफल होने की वजहें भी गिनाई हैं । इस किताब का प्राक्कथन मशहूर समाजवादी चिंतक आशीष नंदी और इंड्रोडक्शन योगेन्द्र यादव ने लिखा है । अगर हम समग्रता में देखें तो इस किताब में अन्ना के आंदोलन को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा और परखा गया है । अन्ना के आंदोलन को जानने और समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है ।
2 comments:
पत्रकार आशुतोष को इस किताब के लिए और आप को इस समीक्षा के लिए बधाई.
मैं आशुतोष जी को इस किताब के लिए बधाई देना चाहूँगा. क्या यह हैरत की बात नहीं है कि इस तरह की किताब हिंदी में नहीं आती. किताब कहाँ से प्रकाशित है. यह जानकारी नहीं मिलती. मैं आपको भी समीक्षा के लिए धन्यवाद् देना चाहूँगा.
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