हिंदी में सालों से प्रकाशक
और लेखक दोनों पाठकों की कमी का रोना रोते रहते हैं । बहुत शोर मचता है कि हिंदी के
पाठक कम हो रहे हैं । हिंदी के आलोचकों ने भी कई बार इस बात का ऐलान किया है कि हिंदी
में गंभीर लेखन पढ़नेवालों की लगातार कमी होती जा रही है । कई उत्साही आलोचकों ने तो
नए पाठकों की अपनी भाषा से विमुखता को भी रेखांकित किया । वर्षों से पाठकों की कमी
के कोलाहल के बीच हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ती रही जो लेखकों, प्रकाशकों और
आलोचकों की पाठकों की कमी की चिंता के विपरीत था । हिंदी के प्रकाशकों का कारोबार भी
लगातार फैलता जा रहा है वह भी इस चिंता के उलट है । एक अनुमान के मुताबिक हिंदी में
अलग अलग विधाओं की करीब पच्चीस से तीस हजार किताबें हर साल छापी जाती हैं । सवाल ये
है कि अगर बिकती नहीं हैं तो इतनी किताबें छपती क्यों हैं । इन सवालों के बरक्श हम
हिंदीवालों को अपने अंदर झांक कर देखने की जरूरत है । किताबें क्यों नहीं बिकती या
किताबें पाठकों के बीच क्यों नहीं लोकप्रिय होती है । सामाजशास्त्रीय विश्लेषण करने
से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इक्कीसवीं सदी के पाठकों की रुचि में सत्तर और
अस्सी के दशक के पाठकों की रुचि में जमीन आसमान का अंतर आ चुका है । सन 1991 को हम
इस रुचि का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं । हमारे देश में 1991 से अर्थव्वयस्था को विदेशी
कंपनियों के लिए खोला गया और उससे करीब सात साल पहले देश में संचार क्रांति की शुरुआत
हो चुकी थी । हमारे देश के लिए ये दो बहद अहम पड़ाव थे जिसका असर देश की साहित्य संस्कृति
पर बेहद गहरा पड़ा । लेकिन वो एक अवांतर प्रसंग है जिसपर चर्चा इस लेख में उपयुक्त
नहीं है । संचार क्रांति और उदारीकरण का असर यह हुआ कि देश में पश्चिमी संस्कृति से
देश की जनता का परिचय हुआ । जो बातें अबतक सुनी जाती थी वो प्रत्यक्ष रूप से देखी जानी
लगी । बाजारवाद और नवउदारवाद के प्रभाव में भारत में आम जनता की और खासकर युवा वर्ग
की रुचि में बदलाव तो साफ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है ।
युवा वर्ग और उन दशकों में
जवान होती पीढ़ी में धैर्य कम होता चला गया और एक तरह से इंस्टैंट का जमाना आ गया चाहे
वो काफी हो या अफेयर । यह अधीरता कालांतर में और बढ़ी । यह लगभग वही दौर था जब हमारे
देश के आकाश को निजी टेलीविजन के तरंगों के लिए खोल दिया गया । मतलब यह है कि देश में
कई देशी विदेशी मनोरंजन और न्यूज चैनलों ने अपना प्रसारण शुरू किया । यह वही वक्त था
जब हिंसा प्रधान फिल्मों की जगह बेहतरीन रोमांटिक फिल्मों ने ली । मार-धाड़ वाली फिल्मों
की बजाय शाहरुख काजोल की रोमांटिक फिल्मों को जबरदस्त सफलता मिली । लगभग इसी वक्त राष्ट्रीय
अखबारों के पन्ने रंगीन होने लगे और फिल्मों के रंगीन परिशिष्ट अखबारों का एक अहम अंग
बन गया । यह सब बताने का तात्पर्य यह है कि नवें दशक में हमारे देश की लोगों की पसंद
बदलने लगी । लेकिन इतने बदलाव को हिंदी के लेखक सालों तक नहीं पकड़ पाए और उनके लेखन
का अंदाज बदला जरूर लेकिन वो बदलते समय के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पाए । नतीजा
यह हुआ कि हिंदी का फिक्शन लेखन पाठकों की पसंद में लगातार पिछड़ता चला गया । पहले
हिंदी में किसी भी उपन्यास का एक संस्करण हजार प्रतियों का होता था जो बाद में घटकर
पांच सौ प्रतियों का होने लगा और अब तो प्रकाशन जगत के जानकारों का दावा है कि ये आंकड़ा
तीन सौ का हो गया है । कुछ प्रकाशक तो इतना भी नहीं छाप रहे । जितनी प्रतियों का ऑर्डर
मिल जाता है उसको छापकर तैयार कर लेते हैं । आधुनिक तकनीक की वजह से यह मुमकिन भी है
। हिंदी के फिक्शन लेखक जब अपनी किताबें नहीं बिक पाने का रोना रोते हैं तो उसके पीछे
कम से कम पाठकों की कमी, तो वजह बिल्कुल नहीं है । हिंदी में फिक्शन पढ़नेवाले पाठक
हैं लेकिन लेखकों को उनकी रुचि के हिसाब से लेखन शैली बदलनी होगी । लेखकों को इस बारे
में गंभीरता से विचार करना होगा कि हिंदी के प्रकाशकों की सूची से फिक्शन का अनुपात
कम क्यों होता जा रहा है । आज प्रकाशकों की रुचि गैर साहित्यक किताबें छापने में ज्यादा
हो गई है । प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से लुई एल हे की यू कैन हील योर लाइफ, दीपक चोपड़ा
की सफलता और अध्यात्म से जुड़ी किताबें बिक रही हैं तो उसके पीछे पाठकों की बदलती रुचि
है । हिंदी में इन दिनों आत्मकथा और जीवनियों की भी जमकर बिक्री हो रही है । चाहे वो
सायना नेहवाल की जीवनी हो, चाहे कलाम की टर्निंग प्वाइंट्स हो । पाठकों के इस मनोविज्ञान
का विश्लेषण करने से यह बात और साफ होती है कि अब हिंदी का पाठक यथार्थ के नाम पर नारेबाजी,
क्रांति के नाम पर भाषणबाजी, सामाजिक बदलाव के नाम पर विचारधारा विशेष का पोषण को पसंद
नहीं कर रहा है ।
अब हिंदी प्रकाशन जगत के लिए
यह जानना बेहद जरूरी है कि पाठकों की पसंद क्या है और किस तरह की किताबें धड़ाधड़ बिक
सकती हैं । अगर हम अंग्रेजी प्रकाशन जगत को देखें तो युवाओं को केंद्र में रखकर लिखे
गए रोमांटिक प्लॉट वाले उपन्यास या कहानी संग्रह खूब बिक रहे हैं । इसके अलावा चिक
लिट बुक्स हैं जो अपनी रोमांटिक और चमक दमक वाली जिंदगी की वजह से युवतियों के बीच
खासी लोकप्रिय हो जाती हैं । अंग्रेजी में ज्यादातर बेस्ट सेलर किताबों में लव सेक्स
और संघर्ष की कहानी होती है जो बीस से तीस वर्ष के युवाओं को लुभाता है और उन्हें खरीदकर
पढ़ने को मजबूर करता है । अंग्रेजी में भी भारतीय लेखकों की एक नई फौज आई है जो इस
तरह के प्लॉट को उठा रही हैं जिनमें कविता दासवानी, सिद्धार्थ नारायण ,प्रीति शिनॉय,
निकिता सिंह, नवनील चक्रवर्ती और सचिन गर्ग जैसे लेखक प्रमुख हैं । इनका लेखन और प्लॉट
अमिताभ घोष, अमिश त्रिपाठी, ताबिश खैर जैसे भारतीय लेखकों से अलग है । अंग्रेजी में
लिखनेवाले इन लेखकों की सफलता का राज उनकी भाषा और उनके उपन्यासों के शीर्षक हैं जो
गंभीरता के बोझ से मुक्त हैं । इन युवा लेखकों की वही भाषा है जो आज के युवाओं के बीच
बोली जाती है । उनके उपन्यासों के शीर्षक भी उन्हीं बोलचाल के शब्दों से उठाए जाते
हैं । जैसे ओह शिट्, नॉट अगेन, नॉटी मैन, बॉंबे गर्ल, ऑफ कोर्स आई लव यू, ओह यस आई
एम सिंगल जैसे दो सवा दो सौ पन्नों के उपन्यास खासे लोकप्रिय हो रहे हैं । जाहिर तौर
पर इन उपन्यासों के नायक नायिकाएं युवा होते हैं और उपन्यासों का परिवेश भी उनके आस
पास का ही होता है । ऐसा नहीं है कि सारे के सारे युवा लेखक सिर्फ हल्के फुल्के प्रेम
प्रसंगों पर ही लिख रहे हैं । कई लेखक तो गंभीर बीमारियों को भी अपने उपन्यास का विषय
बना चुके हैं लेकिन उसमें भी कहीं ना कहीं प्रेम का तत्व डाल ही देते हैं । इन उपन्यासों
की एक विशेषता और है कि ये दो सौ रुपए से कम में पाठकों को उपलब्ध है जिसकी वजह से
चलते चलाते भी उसकी खरीदारी हो जाती है ।
हिंदी में इस तरह का लेखन-प्रकाशन
जरा कम हुआ है । हिंदी में युवाओं के बदलते मनमिजाज और प्राथमिकताओं पर गीताश्री ने
कई बेहतर कहानियां लिखी हैं लेकिन उनका कोई संग्रह या उपन्यास नहीं आया है जिससे लोकप्रियता
का मूल्यांकन हो सके । अभी अभी सामयिक प्रकाशन दिल्ली ने युवा लेखक लेखिकाओं की कहानियों
और उपन्यासों को पूरा सेट प्रकाशिकत किया है । जिसमें जयश्री राय, अजय नावरिया, पंकज
सुबीर, कविता,रजनी गुप्त, शरद सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ की किताबें एक साथ प्रकाशित की
हैं । लेकिन अब हिंदी के पुराने लेखक सर्वहारा और उस तरहब की नारेबाजी से मुक्त नहीं
हो पाए हैं । जयश्री राय के कहानी संग्रह के ब्लर्ब पर संजीव ने जिस तरह की भाषा का
इस्तेमाल किया है उससे खूबसूरत कहानियां उभरती नहीं है बल्कि बौद्धिकता के बोझ से दब
जाती हैं । दरअसल अब हिंदी के प्रकाशकों को भी ब्लर्ब की शास्त्रीयता से मुक्त होने
की जरूरत है । रजनी गुप्त ने अपने उपन्यास कुल जमा बीस में जो विषय चुना है वो समय
के साथ है । उसमें किशोर के मनस्थिति उसके संघर्ष, वर्चुअल दुनिया को लेकर उसके मन
में चल रहे द्वंद के इर्द-गिर्द कथा बुनी गई है । युवाओं के बीच इस उपन्यास को पढ़े
जाने की उम्मीद है । कविता का पहला उपन्यास -मेरा पता कोई और है -को भी पाठक पसंद करेंगे
लेकिन यहां भी ब्लर्ब पर वही बौद्धिकता और भारी भारी शब्दों का इस्तेमाल । सामयिक प्रकाशन
से जिस तरह से हिंदी के अहम युवा लेखक लेखिकाओं की किताबें एक साथ प्रकाशित हुई हैं
उससे एक उम्मीद तो जगती है । हॉर्ड बाउंड में छपी इन किताबों के मूल्य ढाई सौ से चार
सौ रुपए तक हैं लेकिन प्रकाशक को युवाओं तक पहुंचने के लिए उसको दो सौ के अंदर रखना
होगा भले ही चाहे वो पेपर बैक में क्यों ना छपे ।