चंद महीने पहले
जब पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम की आत्मकथा का दूसरा भाग - टर्निंग प्वाइंटस,
ए जर्नी थ्रू चैलेंजेस – आया तो उसको लेकर भारत की राजनीति
में लंबे समय से चल रहे कुछ विवादों पर विराम लग गया । कई भ्रांतियां दूर हुई । इसके
पहले जब 1999 में कलाम की किताब विंग्स ऑफ फायर आई थी तो उसने भारतीय प्रकाशन जगत में
बिक्री के नए आंकड़ों को छुआ था । आत्मकथा के पहले खंड में कलाम ने अपनी जिंदगी के
कहे ,अनकहे पहलुओं पर लिखा था जिसमें उनकी
जिंदगी की 1992 तक की घटनाएं दर्ज थी । विंगस ऑफ फायर के प्रकाशन के तेरह साल बाद उसका
सीक्वल टर्निंग प्वाइंट बाजार में आया है और उसकी भी बिक्री अच्छी हो रही है । लेकिन
सवाल कलाम की किताब की बिक्री का नहीं है । इस किताब की लोकप्रियता और राजनीतिक धुंध
को छांटने में उसकी भूमिका के बाद एक बड़ा सवाल मेरे जेहन में खड़ा हो गया है । सवाल
यह कि हमारे देश के राजनेता सक्रिय राजनीति में रहते हुए अपनी आत्मकथा क्यों नहीं लिखते
हैं । सवाल यह है भी है कि क्या हमारे देश के नेताओं में लेखकीय संवेदना बची भी है
या नहीं । सवाल यह भी है क्या हमारे नेताओं में सच लिखने का साहस है । सवाल यह भी है
कि क्या हमारे नेताओं में कुर्सी और भविष्य का मोह इतना ज्यादा है जो उन्हें आत्मकथा
में राजनीति के अप्रिय प्रसंगों को लिखने से रोक देता है । सवाल यह भी है कि क्या हमारे
समाज की मानसिकता उस हद तक मैच्योर हो पाई है जिसमें उसे हमारे राजनेताओं को उनकी पारिवारिक
या सार्वजनिक गलतियों को स्वीकारने के बाद उनको माफी सके । सवाल यह भी है कि क्या नेता अपनी जिंदगी
के उन पहलुओं को सार्वजनिक करना चाहते हैं जिसे भारतीय समाज में नितांत निजी माना जाता
है ।
विदेशों में तो सक्रिय राजनेताओं की आत्मकथा या पॉलिटिकल और प्राइवेट ऑटोबॉयोग्राफी लिखने की लंबी परंपरा है । ज्यादा पीछे नहीं जाकर अगर हम पिछले पांच सालों को ही लें तो कई महत्वपूर्ण विदेशी नेताओं की आत्मकथाएं सामने आई हैं । दो तीन साल पहले ब्रिटेन के पू्र्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की आत्कथा–अ जर्नी- छपकर आई थी । टोनी ब्लेयर को आत्मकथा लिखने के लिए प्रकाशक ने बतौर अग्रिम पांच मिलियन पौंड की धनराशि दी । ब्लेयर की आत्मकथा जबरदस्त हिट रही थी । उसके प्रकाशन के महीने भर के अंदर ही एक लाख प्रतियां बिकने की रिपोर्ट आई थी और प्रकाशक को चार हफ्ते में छह रिप्रिंट करने पड़े थे । इसके अलावा उनके सहयोगी एल्सटर कैंपबेल और पीटर मैंडलसन की किताब – द थर्ड मैन, लाइफ एट द हर्ट ऑफ न्यू लेबर – भी आई थी । ये सब सक्रिय राजनीतिक जीवन में थे । मैंडलसन की किताब तो कई हफ्तों तक बेस्ट सेलर रही थी । टोनी ने अपनी आत्मकथा में अपने और चेरी के कई अंतरंग प्रसंगों का भी जिक्र किया है । एक प्रसंग है कि जब चेरी और टोनी क्वीन के स्कॉटिश कैसल, बालमोर में छुट्टियां बिताने जा रहे थे तो चेरी वहां गर्भ निरोधक नहीं ले जा सकी क्योंकि उसे इस बात की शर्मिंदगी थी नौकर-चाकर इस तरह की चीजें उसके सामान में कैसे रखेंगे । नतीजा यह हुआ कि बालमोर में चेरी के गर्भ में उनकी चौथी संतान आ गई । क्या हमारे देश के राजनेताओं में इस तरह का साहस और समाज में उस तरह की समझदारी विकसित हो पाई है कि इस तरह के लेखन को सहजता से ले सकें ।
तकरीबन सात सौ पन्नों की इस आत्मकथा में टोनी ने अपनी राजनीति में प्रवेश से लेकर अपने समकालीन विश्व राजनेताओं के अलावा ब्रिटेन की अपू्र्व सुंदरी प्रिंसेस डायना पर भी लिखा है । टोनी के अलावा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आत्मकथात्मक संस्मरण लिखा - डिसीजन प्वाइंट । लगभग पांच सौ पन्नों की इस किताब में बुश अपने स्वभाव की तरह ही खास किस्म की आक्रामकता के साथ उपस्थित हैं । बुश ने इस किताब में अपने तमाम निर्णयों पर भी बेहद साफगोई से लिखा ।
लेकिन भारत का कोई सक्रिय राजनेता आत्मकथा लिखने की कोशिश नहीं करता है । एक प्रकाशक मित्र ने बताया कि वो इंदिरा गांधी के बेहद करीबी रहे और बाद में सांसद बने एक नेता को लंबे समय से इस बात के लिए राजी करने की कोशिश कर रहे हैं कि वो अपनी आत्मकथा लिखें या लिखवा दें । लेकिन उनको सफलता हासिल नहीं हो पाई । चंद्रशेखर जी के पीछे भी लोग लंबे समय तक उनकी आत्मकथा के लिए पीछे पड़े रहे थे लेकिन किसी को सफलता हाथ नहीं लगी । दरअसल भारत में नेताओं को उम्र के आखिरी पड़ाव तक अपने लिए संभावनाएं नजर आती रहती है और उन्हें लगता है कि किसी के बारे में भी लिखने में जरा सी भी चूक हो गई तो करियर खत्म । जो लोग अपनी सारी संभावनाएं खत्म मान लेते हैं वो ही संस्मरण या आत्मकथा लिख पाए हैं । इस मामले में हाल के वर्षों में में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता लाल कृष्ण आडवाणी अपवाद हैं । आडवाणी अब भारत के उन गिने चुने नेताओं में बचे रह हए हैं जो लागातर नई से नई किताबें पढ़ते हैं और अपने विचारों को ताजगी देते हैं । आडवाणी ने अपनी आत्मकथा उस वक्त लिखी और प्रकाशित करवाई जब वो अपने राजनीतिक करियर के शिखर पर थे । दो हजार आठ में जब उनकी आत्मकथा माई कंट्री माई लाइफ प्रकाशित हुई तो उस वक्त वो विपक्ष के शीर्ष नेता थे और अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार । बाबजूद इसके तमाम खतरे उठाकर उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी । आडवाणी पर अपनी आत्मकथा में कई विषयों को नहीं छूने को लेकर आलोचना भी हुई । आत्मकथा और उसके कंटेंट पर विवाद हो सकता है, बहस भी । लेकिन इस बात को लेकर उनकी तारीफ तो की ही जानी चाहिए कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रहने के बावजूद आत्मकथा लिखने का साहस किया ।
सोमनाथ चटर्जी जैसा साहसी, बेबाक और विद्वान नेता भी राजनीति से संन्यास लेने के बाद ही अपनी आत्मकथा लिख पाए । कांग्रेस के नेता अर्जुन सिंह ने सक्रिय राजनीति के बेहद अंतिम दिनों में अपनी आत्मकथा लिखने की शुरुआत की थी लेकिन उसके जो अंश किताब के छपने से पहले लीक हुए वो बेहद सुनियोजित थे । उसमें अर्जुन सिंह के राजनीतिक प्रतिद्वंदी पी वी नरसिंहाराव और नेहरू-गांधी परिवार को लेकर उनकी राय को जाहिर किया गया । अर्जुन सिंह की आत्मकथा में नरसिंहाराव, राममंदिर विवाद से लेकर उनके कांग्रेस से अलग होने की बात कही गई है । अर्जुन सिंह ने अपनी इस आत्मकथा को खुद के हाशिए पर चले जाने के बाद अपने को राजनीति में पुनर्जीवित करने के लिए लिखना शुरू किया था । राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अर्जुन सिंह ने अपनी इस इस किताब के माध्यम से कांग्रेस आलाकमान को ये संदेश देना चाहते थे कि उनकी सेवा का फल कांग्रेस ने उन्हें नहीं दिया । उनकी प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश को आलाकमान ने पंख नहीं लगाया । राजनैतिक विश्लेषकों के मुताबिक अपनी आत्मकथा को हथियार बनाकर अर्जुन सिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने लिए कोई ठौर ढूंढने की जुगत में थे । उस वजह से किताब के चुनिंदा अंश लीक करवाए गए थे ताकि आलाकमान पर दबाव बन सके । लेकिन ना तो अर्जुन सिंह को कोई फायदा हुआ और ना ही उनके जीवित रहते उनकी किताब प्रकाशित हो सकी ।
आजादी बाद के करी सभी बड़े नेताओं ने अपनी आत्मकथाएं लिखी – गांधी से लेकर नेहरू, मौलाना आजाद तक । लेकिन अब के राजनेताओं से इस तरह की उम्मीद बेमानी है । ज्यादातर नेताओं में ना तो कोई विजन दिखता है और ना ही लेखन को लेकर कोई उत्साह । आत्मकथा तो दूर की बात है । हां एक नया ट्रेंड अवश्य शुरू हो गया है वो है जीवनी लेखन का । राजनेता किसी पद पर पहुंचे नहीं कि उनकी आत्मकथा सामने, उम्र चाहे चालीस की भी ना हो । ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का है । उनके मुख्यमंत्री बनते ही उनकी जीवनी बाजार में आ गई, पता नहीं वो अधिकृत है या नहीं । उसी तरह राहुल गांधी की भी जीवनी बाजार में उपलब्ध है, नारायण राणे से लेकर सुशील कुमार शिंदे और सुरेश कलमाडी तक के । लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित हैं कि क्या हमारे नेताओं में पश्चिम के देशों के नेताओं की तरह का साहस आ सकेगा कि वो अपनी आत्मकथा और अपनी जिंदगी के अच्छे बुरे पड़ावों को सार्वजनिक कर सकें । अगर ऐसा हो सके तो भविष्य की पीढ़ी को अपने देश के रहनुमाओं को जानने में मदद हो सकेगी । नहीं तो अनधिकृत जीवनियों की बाढ़ में तथ्यों के बह जाने का खतरा है ।
विदेशों में तो सक्रिय राजनेताओं की आत्मकथा या पॉलिटिकल और प्राइवेट ऑटोबॉयोग्राफी लिखने की लंबी परंपरा है । ज्यादा पीछे नहीं जाकर अगर हम पिछले पांच सालों को ही लें तो कई महत्वपूर्ण विदेशी नेताओं की आत्मकथाएं सामने आई हैं । दो तीन साल पहले ब्रिटेन के पू्र्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की आत्कथा–अ जर्नी- छपकर आई थी । टोनी ब्लेयर को आत्मकथा लिखने के लिए प्रकाशक ने बतौर अग्रिम पांच मिलियन पौंड की धनराशि दी । ब्लेयर की आत्मकथा जबरदस्त हिट रही थी । उसके प्रकाशन के महीने भर के अंदर ही एक लाख प्रतियां बिकने की रिपोर्ट आई थी और प्रकाशक को चार हफ्ते में छह रिप्रिंट करने पड़े थे । इसके अलावा उनके सहयोगी एल्सटर कैंपबेल और पीटर मैंडलसन की किताब – द थर्ड मैन, लाइफ एट द हर्ट ऑफ न्यू लेबर – भी आई थी । ये सब सक्रिय राजनीतिक जीवन में थे । मैंडलसन की किताब तो कई हफ्तों तक बेस्ट सेलर रही थी । टोनी ने अपनी आत्मकथा में अपने और चेरी के कई अंतरंग प्रसंगों का भी जिक्र किया है । एक प्रसंग है कि जब चेरी और टोनी क्वीन के स्कॉटिश कैसल, बालमोर में छुट्टियां बिताने जा रहे थे तो चेरी वहां गर्भ निरोधक नहीं ले जा सकी क्योंकि उसे इस बात की शर्मिंदगी थी नौकर-चाकर इस तरह की चीजें उसके सामान में कैसे रखेंगे । नतीजा यह हुआ कि बालमोर में चेरी के गर्भ में उनकी चौथी संतान आ गई । क्या हमारे देश के राजनेताओं में इस तरह का साहस और समाज में उस तरह की समझदारी विकसित हो पाई है कि इस तरह के लेखन को सहजता से ले सकें ।
तकरीबन सात सौ पन्नों की इस आत्मकथा में टोनी ने अपनी राजनीति में प्रवेश से लेकर अपने समकालीन विश्व राजनेताओं के अलावा ब्रिटेन की अपू्र्व सुंदरी प्रिंसेस डायना पर भी लिखा है । टोनी के अलावा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आत्मकथात्मक संस्मरण लिखा - डिसीजन प्वाइंट । लगभग पांच सौ पन्नों की इस किताब में बुश अपने स्वभाव की तरह ही खास किस्म की आक्रामकता के साथ उपस्थित हैं । बुश ने इस किताब में अपने तमाम निर्णयों पर भी बेहद साफगोई से लिखा ।
लेकिन भारत का कोई सक्रिय राजनेता आत्मकथा लिखने की कोशिश नहीं करता है । एक प्रकाशक मित्र ने बताया कि वो इंदिरा गांधी के बेहद करीबी रहे और बाद में सांसद बने एक नेता को लंबे समय से इस बात के लिए राजी करने की कोशिश कर रहे हैं कि वो अपनी आत्मकथा लिखें या लिखवा दें । लेकिन उनको सफलता हासिल नहीं हो पाई । चंद्रशेखर जी के पीछे भी लोग लंबे समय तक उनकी आत्मकथा के लिए पीछे पड़े रहे थे लेकिन किसी को सफलता हाथ नहीं लगी । दरअसल भारत में नेताओं को उम्र के आखिरी पड़ाव तक अपने लिए संभावनाएं नजर आती रहती है और उन्हें लगता है कि किसी के बारे में भी लिखने में जरा सी भी चूक हो गई तो करियर खत्म । जो लोग अपनी सारी संभावनाएं खत्म मान लेते हैं वो ही संस्मरण या आत्मकथा लिख पाए हैं । इस मामले में हाल के वर्षों में में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता लाल कृष्ण आडवाणी अपवाद हैं । आडवाणी अब भारत के उन गिने चुने नेताओं में बचे रह हए हैं जो लागातर नई से नई किताबें पढ़ते हैं और अपने विचारों को ताजगी देते हैं । आडवाणी ने अपनी आत्मकथा उस वक्त लिखी और प्रकाशित करवाई जब वो अपने राजनीतिक करियर के शिखर पर थे । दो हजार आठ में जब उनकी आत्मकथा माई कंट्री माई लाइफ प्रकाशित हुई तो उस वक्त वो विपक्ष के शीर्ष नेता थे और अगले साल होनेवाले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार । बाबजूद इसके तमाम खतरे उठाकर उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी । आडवाणी पर अपनी आत्मकथा में कई विषयों को नहीं छूने को लेकर आलोचना भी हुई । आत्मकथा और उसके कंटेंट पर विवाद हो सकता है, बहस भी । लेकिन इस बात को लेकर उनकी तारीफ तो की ही जानी चाहिए कि उन्होंने सक्रिय राजनीति में रहने के बावजूद आत्मकथा लिखने का साहस किया ।
सोमनाथ चटर्जी जैसा साहसी, बेबाक और विद्वान नेता भी राजनीति से संन्यास लेने के बाद ही अपनी आत्मकथा लिख पाए । कांग्रेस के नेता अर्जुन सिंह ने सक्रिय राजनीति के बेहद अंतिम दिनों में अपनी आत्मकथा लिखने की शुरुआत की थी लेकिन उसके जो अंश किताब के छपने से पहले लीक हुए वो बेहद सुनियोजित थे । उसमें अर्जुन सिंह के राजनीतिक प्रतिद्वंदी पी वी नरसिंहाराव और नेहरू-गांधी परिवार को लेकर उनकी राय को जाहिर किया गया । अर्जुन सिंह की आत्मकथा में नरसिंहाराव, राममंदिर विवाद से लेकर उनके कांग्रेस से अलग होने की बात कही गई है । अर्जुन सिंह ने अपनी इस आत्मकथा को खुद के हाशिए पर चले जाने के बाद अपने को राजनीति में पुनर्जीवित करने के लिए लिखना शुरू किया था । राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अर्जुन सिंह ने अपनी इस इस किताब के माध्यम से कांग्रेस आलाकमान को ये संदेश देना चाहते थे कि उनकी सेवा का फल कांग्रेस ने उन्हें नहीं दिया । उनकी प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश को आलाकमान ने पंख नहीं लगाया । राजनैतिक विश्लेषकों के मुताबिक अपनी आत्मकथा को हथियार बनाकर अर्जुन सिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने लिए कोई ठौर ढूंढने की जुगत में थे । उस वजह से किताब के चुनिंदा अंश लीक करवाए गए थे ताकि आलाकमान पर दबाव बन सके । लेकिन ना तो अर्जुन सिंह को कोई फायदा हुआ और ना ही उनके जीवित रहते उनकी किताब प्रकाशित हो सकी ।
आजादी बाद के करी सभी बड़े नेताओं ने अपनी आत्मकथाएं लिखी – गांधी से लेकर नेहरू, मौलाना आजाद तक । लेकिन अब के राजनेताओं से इस तरह की उम्मीद बेमानी है । ज्यादातर नेताओं में ना तो कोई विजन दिखता है और ना ही लेखन को लेकर कोई उत्साह । आत्मकथा तो दूर की बात है । हां एक नया ट्रेंड अवश्य शुरू हो गया है वो है जीवनी लेखन का । राजनेता किसी पद पर पहुंचे नहीं कि उनकी आत्मकथा सामने, उम्र चाहे चालीस की भी ना हो । ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का है । उनके मुख्यमंत्री बनते ही उनकी जीवनी बाजार में आ गई, पता नहीं वो अधिकृत है या नहीं । उसी तरह राहुल गांधी की भी जीवनी बाजार में उपलब्ध है, नारायण राणे से लेकर सुशील कुमार शिंदे और सुरेश कलमाडी तक के । लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित हैं कि क्या हमारे नेताओं में पश्चिम के देशों के नेताओं की तरह का साहस आ सकेगा कि वो अपनी आत्मकथा और अपनी जिंदगी के अच्छे बुरे पड़ावों को सार्वजनिक कर सकें । अगर ऐसा हो सके तो भविष्य की पीढ़ी को अपने देश के रहनुमाओं को जानने में मदद हो सकेगी । नहीं तो अनधिकृत जीवनियों की बाढ़ में तथ्यों के बह जाने का खतरा है ।