Translate

Friday, February 1, 2013

संजय गांधी की कहानी


आजाद भारत के इतिहास में संजय गांधी इकलौते ऐसे राजनेता हैं जिनके व्यक्तित्व और क्रियाकलापों के बारे में जानने की जिज्ञासा भारतीय जनमानस में अब भी है, लेकिन उनके बारे में ज्यादा लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है, लिहाजा उनके बारे में सबसे ज्यादा किवदंतियां सुनी जाती रही हैं । संजय गांधी खुद कहा करते थे कि उनकी रैलियों के दौरान किसी को भी पैसे देकर रैली में नहीं लाया जाता है बल्कि ये लोगों की मेरे बारे में जानने और मुझको देखने की जिज्ञासा से मेरी रैली में खिंचे चले आते हैं । इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी के तानाशाही रवैये को लेकर काफी कुछ लिखा गया है, उनके दोस्तों और युवा कांग्रेस कार्यकर्ताओं की ज्यादतियों के बारे में भी सैकडो़ं लेख लिखे गए , किताबें भी आईं । इस बात की भी काफी चर्चा हुई कि संजय गांधी की महात्वाकांक्षा इंदिरा गांधी को लगातार कमजोर करती रही । संजय गांधी को भारत में कई लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म करने या कमजोर करने का भी जिम्मेदार माना जाता है । इमरजेंसी, उस दौरान सरकारी कामकाज, इंदिरा गांधी के दांव पेंच आदि के बारे में राजनीतिक टिप्पणीकार इतने उलझ गए कि संजय गांधी की जीवनी या उनपर कोई मुक्कमल किताब लिखने के बारे में सोचा ही नहीं गया । अगर सोचा गया होता तो संजय गांधी पर लिखने के लिए बेहद श्रम करना होता क्योंकि उनके व्यक्तित्व कई पहलू हैं और विश्लेषण के अनेक विंदु । संजय गांधी को भगवान ने बहुत छोटी सी उम्र दी लेकिन उस छोटी उम्र में ही संजय ने देश को हिलाकर रख दिया था ।
मेरे जानते अबतक संजय गांधी की एकमात्र जीवनी लिखी गई है जिसका नाम है द संजय स्टोरी और उसके लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता । यह जीवनी भी ना तो प्रामाणिक होने का दावा करती है और ना ही आधिकारिक । भारत जब इमरजेंसी की बेड़ियों से मुक्त होने का जश्न मना रहा था और कई पत्रकार, लेखक इमरजेंसी की ज्यादतियों पर अपनी लेखनी चला रहे थे उसी वक्त विनोद मेहता ने इमरजेंसी के कथित खलनायक संजय गांधी की जीवनी छपवाने का साहसपूर्ण निर्णय लिया था । जयको पब्लिशिंग से 1978 में विनोद मेहता की किताब छपी थी उस वक्त इसकी कीमत पैंतीस रुपए थी । अब चौंतीस साल बाद विनोद मेहता की नई भूमिका के साथ इस किताब का पुनर्प्रकाशन हुआ है । विनोद मेहता ने इस किताब की नई भूमिका में लिखा है मैंने कोशिश की है कि उस व्यक्ति के जीवन के बारे में पाठकों को बताऊं जो एक दिन राजा बननेवाला था । वह व्यक्ति जिसने लगभग राजगद्दी पर कब्जा कर लिया था, अगर उसने हवाई जहाज उडा़ने के वक्त कोल्हापुरी चप्पल नहीं पहनी होती । दरअसल जब विनोद मेहता कोल्हापुरी चप्पल की बात कर रहे हैं तो वो उस हादसे की ओर इशारा कर रहे हैं जो दिल्ली के आसमान में 23 जून 1980 की सुबह घटा। उस विमान हादसे की बात कर रहे हैं जिसमें संजय गांधी की मौत हो गई थी । विनोद मेहता ने इस पूरी किताब में संजय गांधी के व्यक्तित्व का जो खाका खींचा है उसके मुताबिक संजय गांधी अपने निर्णयों पर अडिग रहने वाले शख्सियत थे । वो अगर किसी चीज को करने की ठान लेते थे तो फिर किसी की भी नहीं सुनते थे चाहे वो उनकी मां इंदिरा गांधी ही क्यों ना हों । यही जिद संभवत संजय गांधी की मौत की वजह भी बनी । माना जाता है कि राजीव गांधी, जो कि एक ट्रेंड पायलट थे, हमेशा संजय को विमान उड़ाने वक्त जूते पहनने की सलाह दिया करते थे और चप्पल पहन कर विमान उड़ाने से मना करते थे, लेकिन संजय ने कभी उनकी बात नहीं मानी ।

संजय गांधी की जीवनी में विनोद मेहता ने बेहद वस्तुनिष्ठता के साथ संजय गांधी के बहाने उस दौर को भी परिभाषित किया है । इमरजेंसी की ज्यादतियों के अलावा मारुति कार प्रोजेकट के घपलों पर तो विस्तार से लिखा है लेकिन साथ ही इमरजेंसी हटने पर सरकारी कामकाज में ढिलाई पर भी अपने चुटीले अंदाज में वार किया है । वो लिखते हैं- जिस दिन 21 मार्च को इमरजेंसी हटाई गई उस दिन राजधानी एक्सप्रेस चार घंटे की देरी से पहुंची । कानपुर में एल आई सी के कर्मचारियों ने लंच टाइम में मोर्चा निकाला, दिल्ली के प्रेस क्लब में मुक्केबाजी हुई, कलकत्ता में दो फैमिली प्लानिंग वैन जलाई गई, बांबे के शाम के अखबारों में डांस क्लासेस के विज्ञापन छपे, तस्करी कर लाई जानेवाली व्हिस्की की कीमत दस रुपए कम हो गई । देश में हालात सामान्य हो गए । व्यगंयात्मक शैली में ये कहते हुए विनोद इमरजेंसी के दौर में इन हालातों के ठीक होने की तस्दीक करते हैं ।
संजय की स्टोरी की शुरुआत विनोद मेहता आनंद भवन से करते हैं और कहते हैं कि माना जाता है कि आनंद भवन उसी जगह पर स्थित है जहां राम के 14 वर्षों के बनवास से लौटने के बाद भरत मिलाप हुआ था । आनंद भवन की कहानी में मोती लाल नेहरू के अलावा जवाहर लाल नेहरू और कमला नेहरू के दांपत्य जीवन के बारे में कई दिलचस्प प्रसंग हैं । किस तरह से नेहरू शादी के बाद हनीमून के लिए कश्मीर गए तो कमला को दो हफ्ते के लिए होटल में छोड़ कर अपने एक रिश्तेदार के साथ ट्रेकिंग पर चले गए । इंदिरा और फिरोज के प्रेम संबंधों के बारे में विनोद मेहता ने जो लिखा है वो वरिष्ठ पत्रकार प्रणय गुप्ते की किताब - मदर इंडिया अ पॉलिटकल बायोग्राफी ऑफ इंदिरा गांधी से कई जगहों पर अलग नजर आता है । तथ्यों में भी कई असमानताएं हैं लेकिन हम फिलहाल संजय गांधी की जीवनी पर बात कर रहे हैं ।
इस किताब में संजय गांधी के स्कूल के दिनों और बाद में स्कूल छोड़कर वापस दिल्ली आने और यहां अपने दोस्तों का साथ उधम मचाने का विनोद मेहता ने बेहद ही दिलचस्प वर्णन किया है । दिल्ली के शिव निकेतन स्कूल से वेलहम्स होते हुए संजय गांधी दून स्कूल पहुंचते हैं । संजय गांधी का दिल पढ़ाई में कहीं नहीं लगा । एक बार जब छुट्टियों में संजय गांधी प्रधानमंत्री निवास तीन मूर्ति भवन लौटे तो उन्होंने कहा था- आई हेट स्कूल, आई डोंट वांट टू गो बैक । विनोद मेहता की किताबों में कई तथ्य पुराने हैं- जैसे दून स्कूल में ही संजय को कमलनाथ जैसा दोस्त मिला जो लगातार दो साल तक फेल हो चुका था । स्कूल से वापस आने के बाद संजय गांधी की दोस्तों के साथ मस्ती काफी बढ़ गई थी और विनोद मेहता ने बिल्कुल फिक्शन के अंदाज में उसको लिखा है जिसकी वजह से रोचकता अपने चरम पर पहुंच जाती है । संजय गांधी की इस किताब में जो सबसे दिलचस्प अध्याय है वो है मारुति कार के बारे में देखे गए संजय के सपने के बारे में । मारुति- सन ऑफ द विंड गॉड में विनोद मेहता ने संजय गांधी की किसी भी कीमत पर अपनी मन की करने, किसी भी कीमत पर अपनी चाहत को हासिल करने की, उस हासिल करने के बीच में रोड़े अटकाने वाले को हाशिए पर पहुंचा देने की मनोवृत्ति का साफ तौर पर चित्रण किया है । संजय गांधी की बचपन से मशीनों और उपकरणों में खास रुचि थी जिसे देखकर नेहरू जी कहा करते थे कि उनका नाती एक बेहतरीन इंजीनियर बनेगा । संजय गांधी इंजीनियर तो नहीं बन पाए लेकिन रॉल्स रॉयस में मैकेनिक का काम सीखने जरूर गए जिसे आधे में ही छोड़ आए थे । वापस दिल्ली लौटने पर एक गैरेज मालिक अर्जुन दास मिले जिसमें संजय को अपने कार बनाने के सपने का साथी दिखाई दिया । अर्जुन दास के साथ एक गैरेज खोला लेकिन उनका सपना तो कार बनाना था । संजय के सपने को पूरा करने के लिए उस वक्त की सरकार ने अपनी नीतियों में आमूल चूल बदलाव कर दिया । उनके कार बनाने के प्रस्ताव का औपचारिक ऐलान उस वक्त के उद्योग मंत्री ने 13 नवंबर 1968 को संसद में किया था । बताया गया था कि संजय ने जो प्रस्ताव दिया है उसके मुताबिक उनकी कंपनी मात्र 6 हजार रुपए में ऐसी कार बनाएगी जो 53 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलेगी । इस एलान के बाद संसद में जमकर हंगामा हुआ था जार्ज फर्नांडिस से लेकर मधु लिमेय, राज नारायण, ज्योतिर्मय बोस और श्यामनंदन मिश्रा ने इंदिरा गांधी को घेरा था । अटल बिहारी वाजपेयी ने तो इसे करप्शन अनलिमिडेट की संज्ञा दी थी । लेकिन संजय गांधी ने किसी की परवाह नहीं की और प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया । हरियाणा के मुथ्यमंत्री बंसीलाल ने डंडे के जोर पर गुड़गांव के पास मारुति को सैकड़ों एकड़ जमीन मुहैया करवाकर संजय के दरबार में अपनी स्थिति पक्की कर ली थी । इस अध्याय में विनोद मेहता ने विस्तार से मारुति कंपनी के माध्यम से शेयर होल्डिंग पैटर्न के जरिए लाभ लेने की स्थितियों का खुलासा भी किया है जो नई पीढ़ी के लिए चौंकानेवाली नहीं हे क्योंकि अब के समय में ऐसा होना आम है ।
जाहिर सी बात है कि जब संजय गांधी की जीवनी लिखी जाएगी तो तुर्कमान गेट, नसबंदी कार्यक्रम और युवा कांग्रेस के बारे में बात तो होगी ही । विनोद मेहता ने अपनी इस किताब में तुर्कमान गेट से झोपड़पट्टी हटाने के वक्त की घटनाओं का सूक्षम्ता से विवरण दिया है, विवेचन भी किया है । नसबंदी पर तो एक पूरा अध्याय इंद्रिय बचाओ ही है । नसबंदी को विनोद मेहता परोक्ष रूप से देश के लिए जरूरी मानते हैं लेकिन जोर जबरदस्ती की वकालत वो नहीं करते हैं । संजय गांधी के दौर में जब भी युवा कांग्रेस की चर्चा होगी तो गुवाहाटी सम्मेलन और अंबिका सोनी का नाम भी आएगा । गुवाहाटी सम्मेलन के दौरान ही संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम को देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सार्वजनिक रूप से मंजूरी ही नहीं दी बल्कि समर्थन भी किया । राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि गुवाहाटी में ही इंदिरा गांधी ने संजय गांधी में अपना वारिस ढूंढ लिया था और नवंबर 76 तक तो वो यह मानने लगी थी कि देश का भविष्य संजय के हाथों में सुरक्षित है । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । अपनी इस किताब में विनोद मेहता ने उस दौर की पत्र पत्रिकाओं और उसके संपादकों की भूमिका को भी परखा है  विनोद मेहता के मुताबिक इमरजेंसी की हार के बाद भी इंदिरा गांधी अपने बेटे संजय को लेकर बेहद पजेसिव थी और उसकी पसंदगी का ख्याल रखती थी ।
विनोद मेहता का दावा है कि उनकी संजय गांधी से कभी मुलाकात नहीं हुई । उन्होंने जीवनी लिखने के वक्त संजय और मेनका से मिलने की कई कोशिशें की लेकिन वो कामयाब नहीं हो सके । संजय की शर्तें उन्हें मंजूर नहीं थी । विनोद मेहता अगर इस जीवनी को लिखने के क्रम में संजय गांधी से मिल लेते और उनकी राय और बातें इस किताब में होती तो ये आधिकारिक होती, प्रामाणिक भी । विनोद मेहता की एक खूबी यह है कि वो अपनी बातें अफवाहों के सहारे बखूबी कहते रहे हैं । इंदिरा गांधी और संजय के संबंधों के बारे में उन्होंने इस जीवनी में चार थ्योरी दी है और फिर उनमें से तीन को काटकर अपनी बात कही है । ठीक उसी तरह जिस तरह अपनी आत्मकथा- लखनऊ ब्यॉय में मैच फिक्सिंग के प्रसंग में कपिलदेव के भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से मिलने और अपने हिंदू होने की दुहाई देने का प्रसंग है । लेखन के इस स्टाइल का फायदा यह होता है कि सारी बातें भी आ जाती हैं और उसको काटकर लेखक अपनी विश्वसनीयता भी बचा कर ले जाता है । इस किताब का एक फायदा यह है कि नई पीढ़ी को भारत के एक ऐसे नेता के बारे में जानने को मिलेगा जिनको राजनीतिक विश्लेषक इतिहास के फुटनोट की तरह देखते हैं ।

5 comments:

Abdul Rashid said...

behtarinn lekh badhai ho

editor
www.aawaz-e-hind.i

सिद्धांत मिश्र said...

I think if Sanjay alive today the situation of India is very different.peoples are generally talk that point about sardar Patel but I think that if Sanjay became pm of India instead of sardar Patel .The whole situation of India is completely changed.

Unknown said...

नसबन्दीप्रोग्राम को जबर्दस्तती मे किसने बदला इसकी जांंच होनी चाहिये थी दरअसल इंदिरा गांधी जी की कुछ नीतियां थी जैसे चकबंदी भूमि सीलिंग सेफालतू हुईं कृषि-भूमि को भूमिहीनों देना महाजनी सूदखोरों पर लगाम लगाना।यही नीतियां उस समय के गैर राजनीतिक संस्था को बुरी लगी और इंदिरा विरोधी आंदोलन बनाम जेपी आन्दोलन बनाया।

जगदीश त्रिपाठी said...

संजय गांधी को चौदह वर्ष की वय में देखा था। जब वह अमेठी से दूसरी बार चुनाव लड रहे थे। इस चुनाव में वह जीते थे। पहले वाला चुनाव हार गए थे। संजय के कई किस्से सुल्तानपुर में सुने जा सकते हैं। हालांकि अब उस समय के लोग कम रह गए हैं। लेकिन हैं। आपके आलेख से कई जानकारियां मिलीं। संजय के जीवन से इतर भी। खास तौर से कपिल देव की भाजपा नेताओं से मिलने की।

जगदीश त्रिपाठी said...

संजय गांधी को चौदह वर्ष की वय में देखा था। जब वह अमेठी से दूसरी बार चुनाव लड रहे थे। इस चुनाव में वह जीते थे। पहले वाला चुनाव हार गए थे। संजय के कई किस्से सुल्तानपुर में सुने जा सकते हैं। हालांकि अब उस समय के लोग कम रह गए हैं। लेकिन हैं। आपके आलेख से कई जानकारियां मिलीं। संजय के जीवन से इतर भी। खास तौर से कपिल देव की भाजपा नेताओं से मिलने की।