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Saturday, May 18, 2013

राजभाषा नहीं रोजगार भाषा बने हिंदी

फ्रांस के शहर कान में चल रहे अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने समारोह की शुरुआत की । यह बॉलीवु़ड समेत पूरे भारतीय फिल्म जगत के लिए गर्व की बात है । हिंदी फिल्मों के सौ साल पूरे होने के मौके पर अमिताभ बच्चन को संयुक्त रूप से इस समारोह के आगाज की इज्जत बख्शी गई । कान में अंतराष्ट्रीय श्रोताओं और तमाम देशों के जगमगाते सितारों के बीच अमिताभ बच्चन ने हिंदी का भी मान बढाया । बगैर इस बात की परवाह किए कि सुनने वाला कौन है, अमिताभ बच्चन ने समारोह की शुरुआत हिंदी में भाषण देकर की । बाद में अमिताभ बच्चन ने इस बात को स्वीकार किया कि हिंदी फिल्म जगत की वजह से उन्हें पहचान और सम्मान मिला लिहाजा उनका यह दायित्व था कि काम फिल्म फेस्टिवल में वो अपना संबोधन हिंदी में करें । अमिताभ बच्चन सही मायने में हिंदी के ब्रांड एंबेसडर हो सकते हैं, हैं भी । उन्होंने अपने बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम- कौन बनेगा करोड़पति - में जिस तरह की हिंदी बोली और जिस तरह से हिंदी के कई शब्दों को पुनर्स्थापित किया वह तारीफ के काबिल है । पंचकोटि जैसे शब्द एक बार फिर से चलन में आए । जब भी मौका मिलता है अमिताभ बच्चन हिंदी में बात करते हैं । अमिताभ इस बात का खासा ख्याल रखते हैं कि उनका श्रोता कौन है और वो उसके हिसाब से ही भाषा का चुनाव करते हैं । लेकिन कान में अमिताभ ने अपने श्रोताओं की पसंद की बजाए अपनी मातृभाषा को तवज्जो दी ।  कान में हिंदी बोलकर अमिताभ बच्चन ने देशावासियों को दिल उसी तरह से मोह लिया जैसे विदेश मंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक को हिंदी में संबोधित कर किया था । हिंदी के मसले पर अमिताभ बच्चन अपने साथी कलाकारों से अलग नजर आते हैं । हिंदी फिल्मों में काम करनेवाले कलाकरों की आपसी बोलचाल की भाषा भी अंग्रेजी है । कहा तो यहां तक जाता है कि सितारों को हिंदी की स्क्रिप्ट रोमन में लिखकर दी जाती है । लेकिन फिल्मों से जुड़े लोग बताते हैं कि अमिताभ बच्चन को स्क्रिप्ट हिंदी में ही दी जाती है ।
अगर हम देश में हिंदी को लेकर लोगों के मन में भाव देखें तो तस्वीर बिल्कुल अलहदा नजर आती है । रीडरशिप सर्वे और प्रसार संख्या के आंकड़ों के जारी होने के बाद एक बार फिर से यह बात साबित हो गई कि पूरे देश में हिंदी के पाठक सबसे ज्यादा हैं । हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों के बीच प्रसार संख्या और पाठक संख्या दोनों का फासला भी बहुत बड़ा है । बावजूद इसके देश का हिंदी भाषी मानस अंग्रेजी को अपनाने के लिए ताबड़तोड़ कोशिश करता है । आज हिंदी भाषी प्रदेशों में तकरीबन हर माता पिता की इच्छा होती है कि उनकी संतान किसी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़े । नतीजा यह हुआ है कि हर गली मुहल्ले में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं । इन स्कूलों में ना तो बच्चों को ठीक से हिंदी पढ़ाई जाती है और ना ही अंग्रेजी । बच्चों के भाषा संस्कार का विकास ही नहीं हो पाता है । कहावत है ना कि ना माया मिली ना राम । ना अंग्रेजी मिल पाती है और हिंदी से भी दूर होते चले जाते हैं । दरअसल यह एक मानसिकता है । आप अपने आसपास ही देखें तो पाते हैं कि मुहल्ले की परचून की दुकान की पर हिंदी में बात करनेवाला शख्स जब किसी मॉल में खरीदारी के लिए पहुंचता है तो वहां वह फौरन हिंदी का त्याग कर देता है । मॉल की दुकानों में घुसते ही एक्सक्यूज मी । टूटी फूटी और अशुद्ध अंग्रेजी बोलकर भी उनका सीना चौड़ा हो जाता है । यह हमारी वह मानसिकता है जो आजादी के छियासठ साल बाद अबतक गुलाम है । अंग्रेजी में बोलना फैशन नहीं है बल्कि अपने को श्रेष्ठ साबित करने की तमन्ना है, अपनी कुंठा को छुपाने का तरीका । हम अपनी भाषा की अस्मिता और उसकी ताकत को पहचान पाने में बुरी तरह से विफल रहे हैं ।
हां ,बाजार ने हिंदी की ताकत को जरूर पहचान लिया है । तमाम तरह के विज्ञापनों के कैंपन हिंदी भाषी लोगों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं । स्टार ग्रुप के सीईओ उदय शंकर ने हिंदी की ताकत को पहचानते हुए क्रिकेट की कमेंटरी हिंदी में करवानी शुरू की और उसके लिए अपने ग्रुप का एक अलग चैनल चिन्हित कर दिया। अब सौरव गांगली से लेकर कपिलदेव से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू लगातार सिर्फ हिंदी में ही बात करते हैं । यह हिंदी के बाजार को भांपते हुए किया गया है । इसके अलावा अगर आप इंडिगो एयरलाइंस में सफऱ करेंगे तो उनके केबिन क्रू यह बात जोर देकर कहते हैं कि वो हिंदी में भी बात करते हैं । अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं कि एयरलाइंस उद्योग खासतौर पर अंग्रेजीदां उद्योग समझा जाता था । वहां हिंदी में बातचीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । लेकिन देश के सबसे बड़े निजी एयरलाइंस में से एक ने हिंदी को अपनाया है । कई बार तो इंडिगो में जिस ठोंगे में समोसा दिया जाता है उसपर हिंदी में एक छोटी कहानी लिखी होती है । एक मिनट की कहानी । यह एयरलाइंस उद्योग के कल्चर में आए बदलाव को इंगित करता है । यह सिर्फ इक्का दुक्का जगहों पर ही नहीं हो रहा है । हिंदी को लेकर बाजार बेहद उत्साहित है वजह साफ है कि बाजार ने हिंदी वालों की क्रयशक्ति को पहचाना है और उसको भुनाने में लगे हैं ।
बाजार तो हिंदी को भुनाने में लगी है, यह बाजार का स्वभाव भी है और चरित्र भी लेकिन हिंदी के कर्ता-धर्ता बाजार को अब भी अस्पृश्य मानते हैं । उनको लगता है कि बाजार हिंदी को नष्ट कर रही है । इस मसले पर वो हिंदी में बननेवाले विज्ञापनों का उदाहरण देते हैं जहां ये अंग्रेजी के शब्दों का मिलाकर ये दिल मांगे मोर बनाया जाता है । हिंदी की शुद्धता और शुचिता की वकालत करनेवाले और हिंदी के साथ अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल की की आलोचना करनेवाले यह भूल जाते हैं कि हिंदी ने उस वाक्य में अपनी जगह तो बनाई । सवाल इस बात का अवश्य है कि हमें हिंदी के व्याकरण, उसके नियम कानून की रक्षा करनी चाहिए लेकिन सवाल यह भी है कि हिंदी को विश्व में उसकी सही जगह दिलाने के लिए हमें थोड़ा लचीला रुख अपनाना होगा ।  आज हिंदी के तमाम लोग जिनपर हिंदी को बढ़ाने का दायित्व है वो बाजार को कोसते हुए घर बैठे हैं । हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए क्या कर रहे हैं यह ज्ञात नहीं है । बाजार के अपने नियम और कायदे होते हैं । वह अपने हिसाब से हर चीज का उपयोग करना चाहती है । लेकिन बाजार आज एक हकीकत है, उससे मुंह नहीं मोड़ा जा साकता है , ना ही बाजार की ताकत से टकराया जा सकता है । तो ऐसे में सही रणनीति तो यही होनी चाहिए कि बाजार की ताकत का इस्तेमाल अपने हक में करें । आज हिंदी को बढा़ने के लिए बाजार का इस्तेमाल करने की जरूरत है, बाजार को कोसने की नहीं । आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी के विकास के लिए बनाई गई संस्थाएं एकजुट होकर रणनीति बनाएं और बाजार के औजार का इस्तेमाल करते हुए उसके साथ नए लोगों को जोड़ने की पहल करें । हिंदी को अगर ताकतवर बनाना है तो उसको नए क्षेत्रों में लेकर जाना होगा । हिंदी को अन्य भारतीय भाषा के दुश्मन के तौर पर पेश नहीं करके उसको दोस्त की तरह से स्थापित करना होगा । फिल्मों और टेलीविजन चैनल पर चलनेवाले मनोरंजन के कार्यक्रमों को हिकारत की नजर से नहीं देखना होगा बल्कि उसको हिंदी के संवाहक होने की इज्जत बख्शनी होगी ।
सरकार से हिंदी के विकास और अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी के फैलाव के प्रयास की अपेक्षा करना व्यर्थ है । इस दिशा में हिंदी के लोगों को खुद ही आगे बढ़कर पहल करनी होगी । एक ऐसी पहल जिसमें हिंदी के लोगों को अपनी भाषा को लेकर आत्मविश्वास बढ़े और गैर हिंदी भाषियों के बीच हिंदी को लेकर दुश्मनी का भाव खत्म हो । हिंदी बाजार की भाषा बनने की राह पर बहुत आगे निकल गई है और अब जरूरत है कि इस भाषा को रोजगार से जोड़ा जाए । जिस दिन हिंदी को रोजगार की भाषा बनाने में हम कामयाब हो गए उस दिन हिंदी की ताकत कई गुना बढ़ जाएगी और कान जैसे समारोह में हिंदी की स्वीकार्यता और इज्जत दोनों बढ़ेगी ।

Sunday, May 12, 2013

कीर्तन नहीं अखंड पाठ जरूरी

हंस के मई 2013 अंक के संपादकीय में इसके यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव ने लिखा है - इधर हमारे अशोक वाजपेयी अपने रोजनामचे यानी कभी-कभार में अक्सर ही बताते रहते हैं कि उन्होंने देश-विदेश की किन गोष्ठियों में भाग लिया और उनकी तुलना में हिंदी कहां-कहां और कितनी दरिद्र है । इस दरिद्रता का कीर्तन अनंत विजय भी उसी उत्साह से करते हैं । वे दुनिया भर की चर्चित और अचर्चित पुस्तकें उसी उन्माद से घोंटते हैं जैसे अशोक वाजपेयी । फर्क इतना है कि अशोक वाजपेयी गंभीर, दार्शनिक या कविता केंद्रित पुस्तकें पढ़ते हैं तो अनंत विजय लगभग चर्चित, कुचर्चित और सनसनीखेज पुस्तकों के पढाकू हैं । वस्तुत: यह सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि हम लोगों में क्या कमी है और हिंदी कहां-कहां पिछड़ी हुई है । यह हिंदी वैशिंग मुझे मनोरोग जैसा लगने लगा है । मेरे दफ्तर में आनेवाले ज्यादातर लोग जब हिंदी कविता और कहानी की कमजोरियों और कमियों का रोना रोते हैं तो उसके पीछे भावना यही होती है कि देखिए इन कमियों और कमजोरियों को किस तरह अपनी महान रचनाओं के द्वारा मैं पूरा कर रहा हूं । यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है । लगता है कि या तो ये लोग सिर्फ अपने बारे में बोल सकते हैं या हिंदी की कमियों को लेकर छाती माथा-कूटने की लत में लिप्त हैं । कभी कभी तो मुझे कहना पड़ता है कि हम हिंदुस्तानी या हम हिंदीवाले का रोदन बंद कीजिए और बताइये कि हमें क्या रहना है ।
अपने संपादकीय में यादव जी ने हमें जो इज्जत बख्शी है मैं इसके लिए उनका आभार प्रकट करता हूं लेकिन हिंदी की दरिद्रता के कीर्तन की जो व्यंग्य वाण उन्होंने मुझपर छोड़ा है उसके जख्म पर तो मरहम लगाना ही होगा । हिंदी में जो नहीं है या हमारी अपनी भाषा में जो कमियां हैं क्या उस बारे में लिखना गुनाह है । हिंदी में सर्जनात्मक लेखन में पिछले सालों में जो गिरावट या कहें कि हल्कापन आया है उस बारे में लिखकर लेखकों को चुनौती देना क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता है । अपने संपादकीय में यादव जी ने हमें निशाने पर तो लिया लेकिन बेहद सफाई से यह नहीं बताया कि कीर्तन से धुन क्या निकलती है । दरिद्रता के कीर्तन से निकलनेवाले धुन के बारे में अगर वो लिखते तो पाठकों को यह तय करने में सहूलियत होती कि कीर्तन से निकलनेवाली धुन या बोल सही हैं या गलत लेकिन यादव जी ने तो अश्वत्थामा हतो नरो के बाद कृष्ण की तरह शंख बजा दिया जिसमें वा कुंजरो दबकर रह गया । महाभारत के दौर में तो कृष्ण का यह दांव चल सकता है लेकिन समकालीन हिंदी साहित्य के सुधी पाठकों को शंख बजाकर बरगलाया नहीं जा सकता है । हिंदी में जो कमियां हैं हमें उसे खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए । स्त्री विमर्श पर बात करनेवाले लेखकों का वूमेन इरोटिका या फिर देश की महिलाओं के सेक्सुअल डिजायर पर लिखने में हाथ क्यों कर कांपने लगता है । कालिदास और रीतिकाल की परंपरा वाले देश में लेखक इस विषय से कतरा कर निकल जाते हैं । इस बात का जवाब शायद यादव जी के पास नहीं है । दूसरा आज हिंदी में साइंस फिक्शन क्यों नहीं लिखा जा रहा है । हिंदी में जीवनी लेखन की परंपरा क्यों नहीं मजबूत हो पा रही है । हिंदी के मशहूर लेखकों की प्रामाणिक जीवनियां क्यों नहीं उपलब्ध हैं । हिंदी में बीमारी पर कोई किताब क्यों नहीं है । मशहूर साइक्लिस्ट लांस आर्मस्ट्रांग की कैंसर पर लिखी गई अद्धभुत किताब- एवरी सेकेंड्स काउंट्स- जैसी कोई किताब हिंदी के किसी लेखक ने क्यों नहीं लिखी विज्ञान और समाजविज्ञान पर हिंदी में मौलिक लेखन कितना हो रहा है यह यादव जी को मुझसे बेहतर पता होगा । इन गंभीर मसलों पर कीर्तन तो कम है अखंड जागरण होना चाहिए जिससे कि हिंदी के लेखकों की तंद्रा टूटे । आज अंग्रेजी के पाठकों की कम संख्या होने के बावजूद लाखों में किताबें बिकती हैं लेकिन वृहद हिंदी पाठक वर्ग के बावजूद हिंदी की किताब दस पांच हजार भी नहीं बिक पाती कोई तो वजह होगी  
राजेन्द्र यादव हिंदी बैशिंग को मनोरोग मानते हैं । यह उनकी सोच-समझ हो सकती है लेकिन मेरे लिए तो ये लेखकों को चुनौती देने और उन्हें नींद से जगाने का उपक्रम है । यादव जी हिंदी के उन गिने चुने लेखकों में से एक हैं जिन्होंने बहुत ज्यादा विश्व साहित्य पढ़ा है वो दिल पर हाथ रखकर कहें कि हिंदी में उन कृतियों की तुलना में कितना और कैसा लिखा गया है । विश्व साहित्य की बात छोड़िए यादव जी ये बताएं कि खुद उनके और उनके समकालीनों के आसपास भी हिंदी का अब का लेखन पहुंच पा रहा है । मैं बहुत विनम्रतापूर्वक उनसे यह पूछना चाहता हूं कि पिछले दो तीन सालों में किस एक किताब ने चाहे वो उपन्यास हो, कहानी संग्रह हो या फिर कविता संग्रह हो, ने हिंदी जगत को झकझोर दिया, पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया या आलोचकों ने उसकी जमकर चर्चा की । अगर हिंदी में किसी कृति की हजार प्रति भी नहीं बिकने पर सवाल खडे किए जाते हैं तो यह यादव जी को छाती कूटना लगता है जबकि दरअसल यह अपने समाज को आईना दिखाने जैसा है । पुस्तक संस्कृति से लेकर, प्रकाशकों की चालाकियों से लेकर लेखक संगठनों की अकर्मण्यता पर मैंने चौथी दुनिया समेत कई पत्र-पत्रिकाओं में दर्जनों लेख लिखे । उन लेखों में इस बारे में क्या होना चाहिए इस पर भी चर्चा थी लेकिन संभवत यादव जी शुरुआती हिंदी बैशिंग को पढ़कर लेखों को बीच में छोड़ देते होंगे जिस वजह से- क्या होना चाहिए- यह उनकी नजरों से ओझल रहा होगा । यादव जी आप हिंदी के इस वक्त के शीर्ष लेखक हैं और इस नाते हिंदी की कमी की बात तो आपको सुननी ही होगी । आप यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं कि यह सुनकर आपके कान पक गए हैं । अब वक्त आ गया है कि हिंदी के लेखकों को गंभीरता से इन विषयों पर काम करना होगा नहीं तो जिस तरह से बारह सौ का संस्करण पहले सात सौ का हुआ फिर तीन सौ का और अब ना जाने कितने का है ।का संस्करण पहले सात सौ का हुआ फिर तीन सौ का और अब ना जाने कितने का है । यादव जी हिंदी पर कीर्तन नहीं बल्कि अखंड पाठ की जरूरत है ।

Saturday, May 11, 2013

1000 का बेस्टसेलर ?

हिंदी में साहित्यक किताबों की बिक्री का खूब रोना रोया जाता है । इस बात पर भी जमकर छाती कूटी जाती है कि हिंदी के साहित्यिक पाठक खत्म होते जा रहे हैं । गोष्ठियों और सेमिनारों में इस कमी पर लगातार चिंता व्यक्त की जाती है । गंभीर मंथन भी होता है, लेकिन हालात सुधरने की बजाए बिगड़ते ही चले जा रहे हैं । पहले हिंदी में साहित्यक कृतियों का संस्करण तीन हजार कॉपी का हुआ करता था । राजेन्द्र यादव का कहानी संग्रह- जहां लक्ष्मी कैद है का पहला संस्करण भी तीन हजार प्रतियों का छपा था । थोड़ा पहले जाएं तो ये पांच हजार का भी होता था । प्रेमचंद ने जब- गोदान- लिखा था तो उस वक्त हंस- पत्रिका में एक विज्ञापन छपा था जिसमें बताया गया था कि इसकी पांच हजार प्रतियां छपी हैं । कालांतर में यह संख्या लगातार कम होती चली गई । लंब समय तक यह हजार और पांच सौ के बीच रही । लेकिन तकनीक के विकास ने इसको और कम कर दिया । कंप्यूटर के बढ़ते प्रयोग से यह संख्या और कम हो गई और यह तीन सौ तक सिमट गई । अब तो यह भी कहा जाता है कि संस्करणों की कोई निश्चित संख्या नहीं होती है जितने का ऑर्डर मिलता है , प्रकाशक उतनी प्रतियां छापकर उपलब्ध करवा देता है । लेखकों का एक बड़ा समुदाय प्रकाशक की पाठकों तक पहुंचने में उदासीन रवैया और सरकारी खरीद में ज्यादा रुचि लेने को इसकी वजह मानते हैं । ऐसा मानने वाले गाहे बगाहे प्रकाशकों पर दिनों दिन अमीर होने और लेखकों के गरीब होने का रोना भी रोते हैं । ऐसा नहीं है कि हिंदी में पाठकों की कमी है । हिंदी के पाठक लगातार बढ़ रहे हैं , यह बात नेशनल रीडरशिप सर्वे से लेकर इंडियन रीडरशिप सर्वे के साल दर साल के आंकड़ों से साबित भी होता है । अखबारों की प्रसार संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है । नए नए शहरों से उनके संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं । लेकिन सवाल यहां हिंदी के पाठकों का नहीं है , सवाल तो साहित्यक पाठकों का है ।
एक तरफ अमेरिका और यूरोप में ई एल जेम्स की -फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे- और गिलियन फ्लिन की -गॉन गर्ल- की संयुक्त बिक्री संख्या एक करोड़ प्रतियों को छूने छूने पर है । वहां की बात अगर छोड़ भी दें तो भारत में भी अनुजा चौहान की -दोज प्राइसी ठाकुर गर्ल- या फिर अद्वैत काला की -ऑलमोस्ट सिंगल- की हजारों प्रतियां बिक चुकी है । हिंदी में अब भी सबसे ज्यादा प्रेमचंद ही बिकते हैं । या फिर देवकी नंदन खत्री की किताब चंद्रकांता संतति या भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा या एक हद तक धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता । एक अनुमान के मुताबिक चंद्रकांता के अब तक अस्सी से ज्यादा संस्करण हो चुके हैं । इसके अलावा हरिवंश राय बच्चन की किताब मधुशाला के भी तकरीबन पचास संस्करण हो चुके हैं । राजेन्द्र यादव का उपन्यास सारा आकाश भी लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं ।  लेकिन ये सारी कृतियां काफी वक्त पहले लिखी गईं और इनके आकड़े एक लंबे कालखंड में उस उंचाई तक पहुंच पाए । हिंदी में साल दो साल पहले कोई ऐसी कृति नहीं आई है जो हजारों में बिक सकें लाखों की बात तो बहुत दूर है । जबकि ई एल जेम्स की फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे और गिलियन फ्लिन की गॉन गर्ल ने तकरीबन साल भर लोकप्रियता का रिकॉर्ड बनाया ।
हिंदी में इसका एक दूसरा पक्ष भी है । दरअसल हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा ही नहीं है । हिंदी के कई साहित्यकारों का मानना है कि जो किताबें लोकप्रिय होती हैं उनकी सेल्फ वैल्यू नहीं होती । वो लंबे समय तक एक टाइटिल के रूप में याद नहीं किए जाते हैं । ऐसा दावा करनेवाले विद्वान पश्चिमी देशों का उदाहरण देते हैं और कई किताबों का नाम गिनाते हैं जो धूमकेतु की तरह चमकते हुए गायब हो जाते है  । लेकिन अपने इस उत्साह में वो भूल जाते हैं कि दर्जनों ऐसे बेस्ट सेलर हैं जिनका एक कृति के रूप में स्थायी महत्व भी है । जैसे अभी हाल ही में अमेरिकी लेखक जोनाथन फ्रेंजन का उपन्यास फ्रीडम- आया था जो बेस्ट सेलर भी रहा और आलोचकों ने भी उसकी जमकर तारीफ की । हिंदी में एक अजीब सी धारणा बना दी गई कि जो कृति लोकप्रिय होती है वो प्रतिष्ठित नहीं होती बल्कि वो अल्पजीवी होती है । आज से तकरीबन सवा सौ साल पहले जब चंद्रकांता का प्रकाशन हुआ था तब उसने गैर हिंदी पाठकों को भी अपनी ओर आकृष्ट किया था । माना तो यह भी जाता है कि चंद्रकांता ने हिंदी का एक विशाल पाठक वर्ग तैयार किया । उस वक्त के सरस्वती पत्रिका के संपादक पदुमलाल पन्नालाल बख्शी ने लिखा था- वह चंद्रकांता का युग था । वर्तमान युग के पाठक उस युग की क्लपना नहीं कर सकते जब देवकीनंदन खत्री के मोहजाल में पड़कर हम लोग निद्रा और क्षुधा छोड़ बैठे थे । इतने व्यापक प्रभाव के बावजूद आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे दिग्गज आलोचक ने चंद्रकांता को तिलिस्म और ऐयारी कहकर खारिज कर दिया था । उसी तरह हिंदी में शिवानी की लोकप्रयता को कभी सम्मान नहीं मिला । गुलशन नंदा से लेकर सुरेन्द्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा को तो विचार योग्य भी नहीं माना गया । जबकि ये लेखक लाखों में बिकते रहे हैं । वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास -वर्दी वाला गुंडा- तो हिंदी में राजनीतिक हत्या पर लिखा एक बेहतरीन और संभवत एकमात्र उपन्यास है । नतीजा यह हुआ कि हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा पनप ही नहीं पाई । हिंदी की साहित्यक पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव का मानना है कि किसी कृति के आकलन के लिए संख्या स्वस्थ दृष्टि नहीं है क्योंकि अज्ञेय की कृति नदी के द्वीप और धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता की तुलना नहीं हो सकती । हो सकता है कि ये तर्क ठीक हों लेकिन क्या कोई कृति ज्यादा बिकती है इसलिए उसे खारिज कर दिया जाए,यह उचित नहीं है ।  
हिंदी साहित्य के इस घटाटोप अंधेरे भरे वक्त में वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी ने साहस दिखाते हुए युवा और चर्चित लेखिका ज्योति कुमारी के कहानी संग्रह दस्तखत और अन्य कहानियां को हिंदी के युवा लेखकों के बीच का बेस्ट सेलर घोषित किया । उनका दावा है कि सिर्फ दो महीने में इस कृति की एक हजार प्रतियां बिक गई । इस बात को भी साफ किया गया कि यह सरकारी थोक खरीद नहीं बल्कि व्यक्तिगत पाठकों द्वारा खरीदी गई हैं । यह ऐसे वक्त में हुआ है जब प्रकाशकों पर किताबों की बिक्री के आंकड़ों को छुपाने और रॉयल्टी नहीं देने के संगीन इल्जाम लग रहे हैं । क्या इसे हिंदी साहित्यक प्रकाशन जगत में शुभ संकेत माना जाना चाहिए । इस बात का जवाब आने वाले दिनों में मिलने की उम्मीद है । लेकिन सवाल यह है कि एक हजार प्रतियों पर बेस्ट सेलर हो जाना क्या शर्मिंदगी का सबब नहीं है । साठ करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी के देश में यह संख्या कहां है इसका अंदाजा पाठक लगा सकते हैं । दरअसल हिंदी में बेस्ट सेलर की कोई परंपरा रही नहीं है और ना ही इसको बनाने की कोशिश की गई । गाहे बगाहे ऐसी सूची बनती रही है । उन्नीस सौ चौरानवे में जब अवध नारायण मुदगल के संपादन में भारी भरकम साहित्यक पत्रिका छाया मयूर का प्रकाशन हुआ था तो उसमें भारत भारद्वाज ने बेस्ट सेलर की एक सूची बनाई थी । लेकिन पत्रिका का प्रकाशन बाधित होने की वजह से इसकी निरंतरता भी बाधित हो गई । अंग्रेजी में एक पूरा तंत्र है जो किताबों की बिक्री पर नजर रखता है और उसके आंकड़े जारी करता है जिसके आधार पर बेस्ट सेलर की सूची बनती है । हिंदी में ऐसा कोई तंत्र विकसित ही नहीं हो पाया । हिंदी में तो अब भी बिक्री का आंकड़ा प्रकाशक की मर्जी पर निर्भर करता है । हिंदी में वाणी प्रकाशन ने जिस बेस्ट सेलर की शुरुआत की है उसको आगे बढ़ाने की जरूरत है । अपने तमाम पूर्वग्रहों को छोड़कर । बेस्ट सेलर में भी दो तरह की श्रेणी बनाई जा सकती है एक लोकप्रिय श्रेणी और एक आलोचकों के मानदंडों पर खरी उतरने वाली कृति । इसका एक मैकेनिज्म बनाना होगा ताकि उसकी विश्वसनीयता भी बने और उसकी व्यापक स्वीकार्यता भी हो । इस तरह के मैकेनिज्म के लिए सभी प्रकाशकों को अपने राग-द्वेष मिटाकर एक मंच पर आना होगा और लेखकों के प्रतिनिधियों के सहयोग लेकर इस परंपरा की शुरुआत करनी होगी ।

लेखकों की उपेक्षा का जिम्मेदार कौन

अभी कुछ दिनों पहले फेसबुक पर टहलते हुए वरिष्ठ पत्रकार और फिलहाल यायावरी कर रहे मित्र अरविंद कुमार सिंह की वॉल पर उनका पोस्ट पढ़ा जो कुछ यूं था- रचनाकारों के प्रति सम्मान...ताजिकिस्तान है तो छोटा देश, लेकिन यहां के लोग अपने लेखकों, कवियों और रचनात्मक प्रतिभाओं वाले लोगों का बेहद सम्मान करते हैं..तजकिस्तान की मुद्रा यानि नोटों पर सबसे ज्यादा तस्वीरें रुदाकी से लेकर तमाम बड़े लेखकों और कवियों की ही मिलेगी..जगह-जगह उनके स्मारक तो हैं ही उनके बारे में विवरण भी पढ़ने को मिल जाते हैं...जीवन परिचय सहित..सरकारी दफ्तरों से लेकर तमाम सार्वजनिक जगहों और पार्कों और लोगों की जेबों तक में इनकी यादें जीवित हैं....और भारत में..... चंद साल पहले हिंदी के आलोचक भारत भारद्वाज ने क्यूबा की यात्रा से लौटकर कुछ इसी तरह की बात की थी और बताया था वि वहां भी लेखकों और कवियों के नाम पर एयरपोर्ट से लेकर इमारतों तक के नाम हैं, सड़कें तो हैं ही उनके नाम पर । अरविंद जी की इस वॉल पोस्ट से कई बड़े सवाल खड़े होते हैं । अरविंद ने जहां भारत में कहकर छोड़ दिया है सवाल वहीं से उठते हैं । भारत में लेखकों और कवियों को लेकर हमारे समाज में उत्साह क्यों नहीं बन पाता है । देश की राजधानी दिल्ली में तमाम छोटे बड़े नेताओं के नाम पर सड़कों के नाम हैं लेकिन सुब्रह्मण्यम भारती और दिनेश नंदिनी डालमिया को छोड़कर शायद ही दिल्ली तक में कोई सड़क हमारे साहित्यकारों के नाम पर है । मुझे नहीं याद है कि भारत के किसी शहर में कोई हवाई अड्डा साहित्यकारों के नाम पर है । क्या प्रेमचंद से लेकर निराला तक, रामधारी सिंह दिनकर से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक किसी भी साहित्यकार ने समाज को इतना प्रभावित नहीं किया कि हम उनका ऋण उतारने के लिए इतना भी सम्मान उनको दे सकें । आज देश के हर गली कूचे में आपको जवाहर लाल नेहरू से लेकर, संजय गांधी, राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के नाम की पट्टिका लगी मिल जाएगी । देश के कई एयरपोर्ट से लेकर अस्पताल और स्कूल कॉलेज गांधी परिवार के इन लोगों के नाम पर हैं । संजय गांधी को छोड़कर इन लोगों का देश के प्रति बहुत योगदान रहा है, लिहाजा उनके नाम पर सड़क इत्यादि का नाम रखने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन क्या हमारे लेखकों ने इस देश के लिए कुछ नहीं किया । क्या देश की आजादी में हिंदी के लेखकों का कोई योगदान नहीं है । या फिर हमारे समाज में लेखकों को लेकर कोओई उत्साह नहीं है ।
एक जमाना था जब राज्यसभा में साहित्यकार के कोटे से मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन और श्रीकांत वर्मा जैसे कवि लेखकों का मनोमयन होता था । लेकिन कालांतर में यह क्रम भी टूटा और अब साहित्यकार और कलाकार के कोटे से अब तो लोकसभा चुनाव हारे राजनेताओं का मनोनयन होने लगा । । आजादी के पहले और बाद में भी हिंदी में कई ऐसे लेखक हुए जिनको समाज में हीरो का दर्जा तो प्राप्त है लेकिन उनकी मृत्यु के बाद हम उनको लगभग भुला बैठे हैं । 
अब अगर हम इसकी वजहों की तलाश करते हैं तो सिर्फ और सिर्फ एक वजह सतह पर आते हैं वह है लेखकों के प्रति उपेक्षा के भाव का बढ़ते जाना । दूसरी वजह यह है कि देश का जो राजनीतिक वर्ग है उनका पढ़ने लिखने से रिश्ता कम होते जाना । आज के नेताओं में चाहे वो शासक वर्ग के हों या फिर विपक्ष में बैठने वाले, मौलिक लेखन और चिंतन करनेवाले कम हैं या ये कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लिखने पढ़ने की संवेदनशीलता लिए कोई नेता अब बचा ही नहीं है । बातों बातों में जब मैंने हंस संपादक राजेन्द्र यादव से इस बारे में बात की तो उन्होंने भी कमोबेश यही कहा । राजेन्द्र जी का मानना है कि शासक वर्ग की लेखकों और उनकी रचना के बारे में अज्ञानता ही इसकी वजह है कि हमारे देश में लेखकों को अहमियत नहीं मिल पाती है । इसके अलावा राजेन्द्र जी ने यह भी माना कि आज के राजनेताओं में संवेदनशीलता भी नहीं के बराबर बची है चाहे वो समाज के प्रति हो या किसी व्यक्ति के प्रति तो फिर लेखकों के लिए उनके मन में कहां से सम्मान आएगा । यही राजनेता यह भी तय करते हैं कि कौन सी इमारत या कौन सी सड़क या फिर कौन सी योजना अमुक व्यक्ति के नाम पर बनेगी ।
यह तो रही नेताओं और देश के नीति नियंताओं की लेखकों और लेखक समाज के बारे में अज्ञानता की बात । नेताओं ने लेखकों को नजरअंदाज किया इस बारे में कोई शक शुबहा नहीं है लेकिन लेखक बिरादरी को भी एक बार अपने गिरेबां में झांक कर देखना होगा । आजादी के बाद के जिन लेखकों के बारे में हम बात कर रहे थे या फिर जिनको पार्लियामेंट की मेंबरी मिली थी उसके बाद की पीढी के लेखकों ने क्या समाज के प्रति अपनी उस भूमिका का निर्वाह किया जो उनसे अपेक्षित था । क्या अब लेखक समुदाय से समाज के किसी मुद्दे पर संगठित आवाज सुनाई देती है । यूपीए सरकार के दौरान जब देश में एक से बढ़कर एक घोटाले हो रहे थे तो लेखकों ने उसके खिलाफ कोई आवाज उठाई । क्या किसी भी बड़े लेखक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई । क्या अपनी लेखनी से किसी आंदोलन को समर्थन दिया या फिर उसके समर्थन में माहौल बनाने में कोई भूमिका निभाई । इसके अलावा जब पिछले साल दिल्ली में चलती बस में एक मेडिकल की छात्रा के साथ गैंगरेप हुआ तो लेखक समुदाय ने उसके बारे में कोई टिप्पणी की । हो सकता है कि राजेन्द्र जी ने हंस के संपादकीय में या एक दो अन्य लेखकों ने छिटपुट रचनाएं लिखी हो लेकिन कोई संगठित लेखन नहीं हुआ जिससे कि समाज में एक वातावरण बन सके, सरकार पर दबाव बन सके । जब हम समाज के किसी मुद्दे पर लेखक अपनी राय नहीं प्रकट करेंगे या फिर समाज पर अपने विचारों की छाप नहीं छोड़ेंगे तब तक क्यों कर कोई राजनेता उनको जानेगा या उनके बारे में कुछ करने की सोचेगा । सत्ता का अपना व्याकरण होता है और वह उसी के हिसाब से चलती है । जरूरत लेखक समुदाय को भी उस व्याकरण को अपने हिसाब से बदलने की है ।

Saturday, May 4, 2013

संसदीय संस्था की बर्बादी

इन दिनों एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपए के टेलीकॉम घोटाले में संसद की संयुक्त संसदीय कमेटी के अध्यक्ष और कांग्रेस नेता पी सी चाको की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं । चाको के पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा को कमेटी के सामने नहीं बुलाने के फैसले पर विरोधी दल के सदस्य खासे लाल-पीले हो रहे हैं । इस मामले में लंबे समय तक जेल काट चुके डीएमके के नेता और पूर्व मंत्री राजा ने जेपीसी के सामने पेश होकर अपनी सफाई देने का अनुरोध किया था जिसे चाको ने खारिज कर दिया । दरअसल चाको प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम को आरोपों के घेरे में आने से बचाने की कोशिश में जुटे हैं । राजा के तर्क हैं कि दो हजार सात के स्पेक्ट्रम आवंटन के पहले उन्होंने प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्त मंत्री से इस बारे में विस्तार से चर्चा की थी । राजा ने अपने 100 पेज की चिट्ठी में दावा किया है कि नवंबर 2007 से लेकर जनवरी 2008 के बीच उन्होंने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से व्यक्तिगत मुलाकात कर दोनों को अपनी नीतियों का बारे में जानकारी दी थी । राजा का कहना है कि पहले आओ पहले पाओ की नीति के बारे में भी उन्होंने प्रधानमंत्री और उनके दफ्तर को बता दिया था । लेकिन जेपीसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट में इसका कोई जिक्र नहीं है । विपक्ष के नेताओं का आरोप है कि ड्राफ्ट रिपोर्ट में प्रधानमंत्री कार्यालय के आला अफसर पुलॉक चटर्जी और पीएम के उस वक्त के प्रधान सचिव टी ए के नायर ने 29 दिसंबर 2007 को पीएम के निर्देश पर पहले आओ पहले पाओ की नीति की समीक्षा की थी और उसमें तीन चरणों में बदलाव पर सहमति जताई थी । लेकिन जेपीसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट में इसका कोई जिक्र नहीं है । विपक्ष का आरोप है कि अगर राजा दोषी हैं तो फिर प्रधानमंत्री इसकी कालिख से कैसे बच सकते हैं ।  लिहाजा जेपीसी अध्यक्ष और उसके ड्राफ्ट रिपोर्ट को लेकर विपक्ष ने आसमान सर पर उठा रखा है । पहले जेपीसी गठन की मांग को लेकर संसद ठप रहा और अब जेपीसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट पर हंगामा जारी है । संसदीय व्यवस्था का मजाक बन रहा है और लगातार संसद की कार्रवाई ठप होने से जनता भी खिन्न हो रही है ।  
दरअसल हमारे देश की संसदीय व्यवस्था में संयुक्त संसदीय समिति की परंपरा को शुरुआत से ही गलत तरीके से अपनाया गया  जिसकी वजह से कालांतर में यह समिति राजनीति का अखाड़ा बनती चली गई । 1947 में जब देश आाजद हुआ और उसके बाद संसदीय परंपरा को लेकर संविधान सभा में लंबी लंबी बहसें हुई और सभा के विद्वान सदस्यों के बीच तर्कों का लंबा दौर चला था । उसके बाद यह तय किया गया था कि देश में इंगलैंड की तर्ज पर ही संसदीय व्यवस्था को अपनाया जाए । हमने अपने देश की संसद को इंगलैंड की हॉउस ऑफ कामंस और हाउस ऑफ लॉर्ड्स की परंपराओं और कार्यवाहियों के हिसाब से ही चलाना तय किया, जिसे वेस्टमिनिस्टर मॉडल भी कहते हैं । संविधान के निर्माताओं ने यह भी तय किया था कि संसद का बहुत सारा काम उसकी समितियों के जरिए हुआ करेगी । समितियों को मिनी संसद का अघोषित सा दर्जा दिया गया । इन्हीं समितियों में से एक संयुक्त संसदीय समिति भी है । इसमें दोनों सदनों के सदस्य होते हैं । उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि ये राजनीति से उपर उठकर देशहित से जुड़ों अहम मसलों पर माथापच्ची करें और अपने सुझाव दें । हमने जिस तरह से इंललैंड की अलिखित परंपराओं से प्रेरणा ली और अपने मनमुताबिक उसकी व्याख्या करते चले गए उससे कई समितियों के काम करने का अर्थ ही बदलता चला गया ।  संसद की संयुक्त समिति को हमने अपने यहां जिस तरह से अपनाया वह घपले घोटालों की जांच करनेवाली कमेटी में तब्दील होती चली गई जो पक्ष-विपक्ष की राजनीति का बेहतरीन मंच बन गया । जहां हर राजनीतिक दल अपनी राजनीति के हिसाब से अपनी सियासी दांव चलने लगे । नतीजा यह हुआ कि संयुक्त समिति का इस्तेमाल जिस वेस्टमिनिस्टर मॉडल से हमने उठाया था वह उद्देश्य ही अपने रास्ते से भटक गया । इंगलैंड के लोकतांत्रिक इतिहास में बहुत कम मौकों पर संयुक्त संसदीय समिति का गठन हुआ लेकिन हमारे यहां तो हल्ला हंगामा करके विपक्ष ने जेपीसी की मांग मनवा ली या फिर अपनी खाल बचाने के लिए सरकार ने खुद से जेपीसी जांच का ऐलान कर दिया । देश को अहम मसले पर अपनी राय देने के बदले जेपीसी जांच एजेंसी में बदलती चली गई । आज भी इंगलैंड में पार्लियामेंट की एक स्थायी संयुक्त संसदीय समिति है जो मानवाधिकार से जुड़े मसलों पर सरकार को अपनी राय देती है । लेकिन हमारे देश में जेपीसी इन मसलों पर बनी ही नहीं । कभी शेयर घोटाले पर तो कभी कोला विवाद पर तो कभी टेलीकॉम घोटाले पर जेपीसी बनती रही । जहां पक्ष विपक्ष के नेताओं ने सैद्धांतिक सुक्षाव देने के बजाए राजनीतिक स्टैंड लिए और अपने दलसीय लाभ के लिए या फिर सरकार को घेरने के लिए जेपीसी के मंच का उपयोग किया ।
जिस तरह से भारत में संयुक्त संसदीय समिति में राजनीति हो रही है उससे संसद की साख को भी बट्टा लग रहा है और इस तरह की समितियों से जुड़े नेताओं की भी जनता के बीच सिर्फ हंगामा करनेवाले नेता की छवि बन रही है, एक संसदीय संस्था की गरिमा तो ध्वस्त हो ही रही है । लेकिन अफसोस और दुख की बात यह है कि इतनी गंभीर संसदीय संस्था की गरिमा लगातार ध्वस्त हो रही है और लोकसभा और राज्यसभा के अध्यक्ष और सभापति इसको बचाने की दिशा में कोई ऐसा कदम नहीं उठा रहे हैं जिससे इनकी गरिमा बची रह सके । हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए कि क्या इतिहास हमें इस बात के लिए माफ करेगा कि हम अपनी संसदीय व्यवस्था की गरिमा नहीं बचा सके ।