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Sunday, May 12, 2013

कीर्तन नहीं अखंड पाठ जरूरी

हंस के मई 2013 अंक के संपादकीय में इसके यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव ने लिखा है - इधर हमारे अशोक वाजपेयी अपने रोजनामचे यानी कभी-कभार में अक्सर ही बताते रहते हैं कि उन्होंने देश-विदेश की किन गोष्ठियों में भाग लिया और उनकी तुलना में हिंदी कहां-कहां और कितनी दरिद्र है । इस दरिद्रता का कीर्तन अनंत विजय भी उसी उत्साह से करते हैं । वे दुनिया भर की चर्चित और अचर्चित पुस्तकें उसी उन्माद से घोंटते हैं जैसे अशोक वाजपेयी । फर्क इतना है कि अशोक वाजपेयी गंभीर, दार्शनिक या कविता केंद्रित पुस्तकें पढ़ते हैं तो अनंत विजय लगभग चर्चित, कुचर्चित और सनसनीखेज पुस्तकों के पढाकू हैं । वस्तुत: यह सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि हम लोगों में क्या कमी है और हिंदी कहां-कहां पिछड़ी हुई है । यह हिंदी वैशिंग मुझे मनोरोग जैसा लगने लगा है । मेरे दफ्तर में आनेवाले ज्यादातर लोग जब हिंदी कविता और कहानी की कमजोरियों और कमियों का रोना रोते हैं तो उसके पीछे भावना यही होती है कि देखिए इन कमियों और कमजोरियों को किस तरह अपनी महान रचनाओं के द्वारा मैं पूरा कर रहा हूं । यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है । लगता है कि या तो ये लोग सिर्फ अपने बारे में बोल सकते हैं या हिंदी की कमियों को लेकर छाती माथा-कूटने की लत में लिप्त हैं । कभी कभी तो मुझे कहना पड़ता है कि हम हिंदुस्तानी या हम हिंदीवाले का रोदन बंद कीजिए और बताइये कि हमें क्या रहना है ।
अपने संपादकीय में यादव जी ने हमें जो इज्जत बख्शी है मैं इसके लिए उनका आभार प्रकट करता हूं लेकिन हिंदी की दरिद्रता के कीर्तन की जो व्यंग्य वाण उन्होंने मुझपर छोड़ा है उसके जख्म पर तो मरहम लगाना ही होगा । हिंदी में जो नहीं है या हमारी अपनी भाषा में जो कमियां हैं क्या उस बारे में लिखना गुनाह है । हिंदी में सर्जनात्मक लेखन में पिछले सालों में जो गिरावट या कहें कि हल्कापन आया है उस बारे में लिखकर लेखकों को चुनौती देना क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता है । अपने संपादकीय में यादव जी ने हमें निशाने पर तो लिया लेकिन बेहद सफाई से यह नहीं बताया कि कीर्तन से धुन क्या निकलती है । दरिद्रता के कीर्तन से निकलनेवाले धुन के बारे में अगर वो लिखते तो पाठकों को यह तय करने में सहूलियत होती कि कीर्तन से निकलनेवाली धुन या बोल सही हैं या गलत लेकिन यादव जी ने तो अश्वत्थामा हतो नरो के बाद कृष्ण की तरह शंख बजा दिया जिसमें वा कुंजरो दबकर रह गया । महाभारत के दौर में तो कृष्ण का यह दांव चल सकता है लेकिन समकालीन हिंदी साहित्य के सुधी पाठकों को शंख बजाकर बरगलाया नहीं जा सकता है । हिंदी में जो कमियां हैं हमें उसे खुले दिल से स्वीकार करना चाहिए । स्त्री विमर्श पर बात करनेवाले लेखकों का वूमेन इरोटिका या फिर देश की महिलाओं के सेक्सुअल डिजायर पर लिखने में हाथ क्यों कर कांपने लगता है । कालिदास और रीतिकाल की परंपरा वाले देश में लेखक इस विषय से कतरा कर निकल जाते हैं । इस बात का जवाब शायद यादव जी के पास नहीं है । दूसरा आज हिंदी में साइंस फिक्शन क्यों नहीं लिखा जा रहा है । हिंदी में जीवनी लेखन की परंपरा क्यों नहीं मजबूत हो पा रही है । हिंदी के मशहूर लेखकों की प्रामाणिक जीवनियां क्यों नहीं उपलब्ध हैं । हिंदी में बीमारी पर कोई किताब क्यों नहीं है । मशहूर साइक्लिस्ट लांस आर्मस्ट्रांग की कैंसर पर लिखी गई अद्धभुत किताब- एवरी सेकेंड्स काउंट्स- जैसी कोई किताब हिंदी के किसी लेखक ने क्यों नहीं लिखी विज्ञान और समाजविज्ञान पर हिंदी में मौलिक लेखन कितना हो रहा है यह यादव जी को मुझसे बेहतर पता होगा । इन गंभीर मसलों पर कीर्तन तो कम है अखंड जागरण होना चाहिए जिससे कि हिंदी के लेखकों की तंद्रा टूटे । आज अंग्रेजी के पाठकों की कम संख्या होने के बावजूद लाखों में किताबें बिकती हैं लेकिन वृहद हिंदी पाठक वर्ग के बावजूद हिंदी की किताब दस पांच हजार भी नहीं बिक पाती कोई तो वजह होगी  
राजेन्द्र यादव हिंदी बैशिंग को मनोरोग मानते हैं । यह उनकी सोच-समझ हो सकती है लेकिन मेरे लिए तो ये लेखकों को चुनौती देने और उन्हें नींद से जगाने का उपक्रम है । यादव जी हिंदी के उन गिने चुने लेखकों में से एक हैं जिन्होंने बहुत ज्यादा विश्व साहित्य पढ़ा है वो दिल पर हाथ रखकर कहें कि हिंदी में उन कृतियों की तुलना में कितना और कैसा लिखा गया है । विश्व साहित्य की बात छोड़िए यादव जी ये बताएं कि खुद उनके और उनके समकालीनों के आसपास भी हिंदी का अब का लेखन पहुंच पा रहा है । मैं बहुत विनम्रतापूर्वक उनसे यह पूछना चाहता हूं कि पिछले दो तीन सालों में किस एक किताब ने चाहे वो उपन्यास हो, कहानी संग्रह हो या फिर कविता संग्रह हो, ने हिंदी जगत को झकझोर दिया, पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया या आलोचकों ने उसकी जमकर चर्चा की । अगर हिंदी में किसी कृति की हजार प्रति भी नहीं बिकने पर सवाल खडे किए जाते हैं तो यह यादव जी को छाती कूटना लगता है जबकि दरअसल यह अपने समाज को आईना दिखाने जैसा है । पुस्तक संस्कृति से लेकर, प्रकाशकों की चालाकियों से लेकर लेखक संगठनों की अकर्मण्यता पर मैंने चौथी दुनिया समेत कई पत्र-पत्रिकाओं में दर्जनों लेख लिखे । उन लेखों में इस बारे में क्या होना चाहिए इस पर भी चर्चा थी लेकिन संभवत यादव जी शुरुआती हिंदी बैशिंग को पढ़कर लेखों को बीच में छोड़ देते होंगे जिस वजह से- क्या होना चाहिए- यह उनकी नजरों से ओझल रहा होगा । यादव जी आप हिंदी के इस वक्त के शीर्ष लेखक हैं और इस नाते हिंदी की कमी की बात तो आपको सुननी ही होगी । आप यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं कि यह सुनकर आपके कान पक गए हैं । अब वक्त आ गया है कि हिंदी के लेखकों को गंभीरता से इन विषयों पर काम करना होगा नहीं तो जिस तरह से बारह सौ का संस्करण पहले सात सौ का हुआ फिर तीन सौ का और अब ना जाने कितने का है ।का संस्करण पहले सात सौ का हुआ फिर तीन सौ का और अब ना जाने कितने का है । यादव जी हिंदी पर कीर्तन नहीं बल्कि अखंड पाठ की जरूरत है ।

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