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Saturday, May 18, 2013

राजभाषा नहीं रोजगार भाषा बने हिंदी

फ्रांस के शहर कान में चल रहे अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने समारोह की शुरुआत की । यह बॉलीवु़ड समेत पूरे भारतीय फिल्म जगत के लिए गर्व की बात है । हिंदी फिल्मों के सौ साल पूरे होने के मौके पर अमिताभ बच्चन को संयुक्त रूप से इस समारोह के आगाज की इज्जत बख्शी गई । कान में अंतराष्ट्रीय श्रोताओं और तमाम देशों के जगमगाते सितारों के बीच अमिताभ बच्चन ने हिंदी का भी मान बढाया । बगैर इस बात की परवाह किए कि सुनने वाला कौन है, अमिताभ बच्चन ने समारोह की शुरुआत हिंदी में भाषण देकर की । बाद में अमिताभ बच्चन ने इस बात को स्वीकार किया कि हिंदी फिल्म जगत की वजह से उन्हें पहचान और सम्मान मिला लिहाजा उनका यह दायित्व था कि काम फिल्म फेस्टिवल में वो अपना संबोधन हिंदी में करें । अमिताभ बच्चन सही मायने में हिंदी के ब्रांड एंबेसडर हो सकते हैं, हैं भी । उन्होंने अपने बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम- कौन बनेगा करोड़पति - में जिस तरह की हिंदी बोली और जिस तरह से हिंदी के कई शब्दों को पुनर्स्थापित किया वह तारीफ के काबिल है । पंचकोटि जैसे शब्द एक बार फिर से चलन में आए । जब भी मौका मिलता है अमिताभ बच्चन हिंदी में बात करते हैं । अमिताभ इस बात का खासा ख्याल रखते हैं कि उनका श्रोता कौन है और वो उसके हिसाब से ही भाषा का चुनाव करते हैं । लेकिन कान में अमिताभ ने अपने श्रोताओं की पसंद की बजाए अपनी मातृभाषा को तवज्जो दी ।  कान में हिंदी बोलकर अमिताभ बच्चन ने देशावासियों को दिल उसी तरह से मोह लिया जैसे विदेश मंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक को हिंदी में संबोधित कर किया था । हिंदी के मसले पर अमिताभ बच्चन अपने साथी कलाकारों से अलग नजर आते हैं । हिंदी फिल्मों में काम करनेवाले कलाकरों की आपसी बोलचाल की भाषा भी अंग्रेजी है । कहा तो यहां तक जाता है कि सितारों को हिंदी की स्क्रिप्ट रोमन में लिखकर दी जाती है । लेकिन फिल्मों से जुड़े लोग बताते हैं कि अमिताभ बच्चन को स्क्रिप्ट हिंदी में ही दी जाती है ।
अगर हम देश में हिंदी को लेकर लोगों के मन में भाव देखें तो तस्वीर बिल्कुल अलहदा नजर आती है । रीडरशिप सर्वे और प्रसार संख्या के आंकड़ों के जारी होने के बाद एक बार फिर से यह बात साबित हो गई कि पूरे देश में हिंदी के पाठक सबसे ज्यादा हैं । हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों के बीच प्रसार संख्या और पाठक संख्या दोनों का फासला भी बहुत बड़ा है । बावजूद इसके देश का हिंदी भाषी मानस अंग्रेजी को अपनाने के लिए ताबड़तोड़ कोशिश करता है । आज हिंदी भाषी प्रदेशों में तकरीबन हर माता पिता की इच्छा होती है कि उनकी संतान किसी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़े । नतीजा यह हुआ है कि हर गली मुहल्ले में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं । इन स्कूलों में ना तो बच्चों को ठीक से हिंदी पढ़ाई जाती है और ना ही अंग्रेजी । बच्चों के भाषा संस्कार का विकास ही नहीं हो पाता है । कहावत है ना कि ना माया मिली ना राम । ना अंग्रेजी मिल पाती है और हिंदी से भी दूर होते चले जाते हैं । दरअसल यह एक मानसिकता है । आप अपने आसपास ही देखें तो पाते हैं कि मुहल्ले की परचून की दुकान की पर हिंदी में बात करनेवाला शख्स जब किसी मॉल में खरीदारी के लिए पहुंचता है तो वहां वह फौरन हिंदी का त्याग कर देता है । मॉल की दुकानों में घुसते ही एक्सक्यूज मी । टूटी फूटी और अशुद्ध अंग्रेजी बोलकर भी उनका सीना चौड़ा हो जाता है । यह हमारी वह मानसिकता है जो आजादी के छियासठ साल बाद अबतक गुलाम है । अंग्रेजी में बोलना फैशन नहीं है बल्कि अपने को श्रेष्ठ साबित करने की तमन्ना है, अपनी कुंठा को छुपाने का तरीका । हम अपनी भाषा की अस्मिता और उसकी ताकत को पहचान पाने में बुरी तरह से विफल रहे हैं ।
हां ,बाजार ने हिंदी की ताकत को जरूर पहचान लिया है । तमाम तरह के विज्ञापनों के कैंपन हिंदी भाषी लोगों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं । स्टार ग्रुप के सीईओ उदय शंकर ने हिंदी की ताकत को पहचानते हुए क्रिकेट की कमेंटरी हिंदी में करवानी शुरू की और उसके लिए अपने ग्रुप का एक अलग चैनल चिन्हित कर दिया। अब सौरव गांगली से लेकर कपिलदेव से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू लगातार सिर्फ हिंदी में ही बात करते हैं । यह हिंदी के बाजार को भांपते हुए किया गया है । इसके अलावा अगर आप इंडिगो एयरलाइंस में सफऱ करेंगे तो उनके केबिन क्रू यह बात जोर देकर कहते हैं कि वो हिंदी में भी बात करते हैं । अभी इस बात को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं कि एयरलाइंस उद्योग खासतौर पर अंग्रेजीदां उद्योग समझा जाता था । वहां हिंदी में बातचीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । लेकिन देश के सबसे बड़े निजी एयरलाइंस में से एक ने हिंदी को अपनाया है । कई बार तो इंडिगो में जिस ठोंगे में समोसा दिया जाता है उसपर हिंदी में एक छोटी कहानी लिखी होती है । एक मिनट की कहानी । यह एयरलाइंस उद्योग के कल्चर में आए बदलाव को इंगित करता है । यह सिर्फ इक्का दुक्का जगहों पर ही नहीं हो रहा है । हिंदी को लेकर बाजार बेहद उत्साहित है वजह साफ है कि बाजार ने हिंदी वालों की क्रयशक्ति को पहचाना है और उसको भुनाने में लगे हैं ।
बाजार तो हिंदी को भुनाने में लगी है, यह बाजार का स्वभाव भी है और चरित्र भी लेकिन हिंदी के कर्ता-धर्ता बाजार को अब भी अस्पृश्य मानते हैं । उनको लगता है कि बाजार हिंदी को नष्ट कर रही है । इस मसले पर वो हिंदी में बननेवाले विज्ञापनों का उदाहरण देते हैं जहां ये अंग्रेजी के शब्दों का मिलाकर ये दिल मांगे मोर बनाया जाता है । हिंदी की शुद्धता और शुचिता की वकालत करनेवाले और हिंदी के साथ अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल की की आलोचना करनेवाले यह भूल जाते हैं कि हिंदी ने उस वाक्य में अपनी जगह तो बनाई । सवाल इस बात का अवश्य है कि हमें हिंदी के व्याकरण, उसके नियम कानून की रक्षा करनी चाहिए लेकिन सवाल यह भी है कि हिंदी को विश्व में उसकी सही जगह दिलाने के लिए हमें थोड़ा लचीला रुख अपनाना होगा ।  आज हिंदी के तमाम लोग जिनपर हिंदी को बढ़ाने का दायित्व है वो बाजार को कोसते हुए घर बैठे हैं । हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए क्या कर रहे हैं यह ज्ञात नहीं है । बाजार के अपने नियम और कायदे होते हैं । वह अपने हिसाब से हर चीज का उपयोग करना चाहती है । लेकिन बाजार आज एक हकीकत है, उससे मुंह नहीं मोड़ा जा साकता है , ना ही बाजार की ताकत से टकराया जा सकता है । तो ऐसे में सही रणनीति तो यही होनी चाहिए कि बाजार की ताकत का इस्तेमाल अपने हक में करें । आज हिंदी को बढा़ने के लिए बाजार का इस्तेमाल करने की जरूरत है, बाजार को कोसने की नहीं । आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी के विकास के लिए बनाई गई संस्थाएं एकजुट होकर रणनीति बनाएं और बाजार के औजार का इस्तेमाल करते हुए उसके साथ नए लोगों को जोड़ने की पहल करें । हिंदी को अगर ताकतवर बनाना है तो उसको नए क्षेत्रों में लेकर जाना होगा । हिंदी को अन्य भारतीय भाषा के दुश्मन के तौर पर पेश नहीं करके उसको दोस्त की तरह से स्थापित करना होगा । फिल्मों और टेलीविजन चैनल पर चलनेवाले मनोरंजन के कार्यक्रमों को हिकारत की नजर से नहीं देखना होगा बल्कि उसको हिंदी के संवाहक होने की इज्जत बख्शनी होगी ।
सरकार से हिंदी के विकास और अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी के फैलाव के प्रयास की अपेक्षा करना व्यर्थ है । इस दिशा में हिंदी के लोगों को खुद ही आगे बढ़कर पहल करनी होगी । एक ऐसी पहल जिसमें हिंदी के लोगों को अपनी भाषा को लेकर आत्मविश्वास बढ़े और गैर हिंदी भाषियों के बीच हिंदी को लेकर दुश्मनी का भाव खत्म हो । हिंदी बाजार की भाषा बनने की राह पर बहुत आगे निकल गई है और अब जरूरत है कि इस भाषा को रोजगार से जोड़ा जाए । जिस दिन हिंदी को रोजगार की भाषा बनाने में हम कामयाब हो गए उस दिन हिंदी की ताकत कई गुना बढ़ जाएगी और कान जैसे समारोह में हिंदी की स्वीकार्यता और इज्जत दोनों बढ़ेगी ।

1 comment:

राजन अग्रवाल said...

शानदार है लेकिन हिन्दी वाले ही तो नहीं चाहते कि हिन्दी को हिन्दी पट्टी से भी बाहर निकलने दें... इसके लिए क्या कीजिएगा सर...