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Saturday, August 31, 2013

कविता का मजबूत कोना

आज हिंदी में एक अनुमान के मुताबिक 500 से ज्यादा कवि लगातार कविताएं लिख रहे हैं । छप भी रहे हैं । उसमें बुरी कविताओं की बहुतायत है । हिंदी में बुरी और स्तरहीन कविताओं के शोरगुल में अच्छी कविताएं कहीं गुम सही हो गई हैं । बुरी और स्तरहीन कविताओं के हो हल्ले में सबसे बड़ा योगदान साहित्यिक पत्रिकाओं या तथाकतइत लघु पत्रिकाओं के संपादकों की समझ का भी है । साहित्यक या लघु पत्रिकाओं के संपादकों ने स्तरहीन कविताओं को छाप-छाप कर अच्छी कविताओं को ओझल कर दिया है । आज हालात ये हो गए हैं कि हिंदी के प्रकाशक कविता संग्रह छापने से कन्नी काटने लगे हैं । मैं दर्जनों स्थापित कवियों को जानता हूं जिन्हें अपना संग्रह छपवाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है । प्रकाशकों की रुचि पाठकों के मूड का पता देती है या फिर यों कह सकते हैं  प्रकाशक जिस विधा की ओर ज्यादा भागते हैं उससे इस बात का संकेत मिलता है कि पाठक इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं । आजकल कविता संग्रह तो छपने ही कम हो गए । कुछ स्थापित कवियों को छोड़ दें तो ज्यादातर कविता संग्रह कवि खुद के श्रम से छपवाता है । हमें इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि  इसकी वजह क्या है । क्या कविता पाठकों से दूर हो गई । क्या विचारधारा विशेष के तहत लिखी गई कविताओं और विचारधारा के बाहर की कविताओं के नोटिस नहीं लेने की वजह से ऐसा हुआ । मुझे लगता है कि कविताओं में क्रांति, यथार्थ, सामाजिक विषमताओं, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श आदि आदि  का इतना ओवरडोज हो गया कि वो आम पाठकों से दूर होती चल गई । मुझे लगता है कि कविता का रस तत्व यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । मेरे सारे तर्क बेहद कमजोर हो सकते हैं लेकिन मैं विनम्रतापूर्वक यह सवाल उठा रहा हूं कि इस बात पर गंभीरता पूर्वक विचार हो कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि जन और लोक की बात करनेवाले लेखक ही बहुत हद तक इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेखक संघों ने जिस तरह से कवियों को अपने पाले में खींचा और उसको बढाया उससे भी कविता को नुकसान हुआ । पार्टी लाइन पर कविताएं लिखी जाने लगी । लेखक संघों के प्रभाव में कई कवि लागातर स्तालिन और ज्दानेव की संकीर्णतावादी राजनीतिक लाइन पर चलते रहे । यह मानते हुए कि पार्टी लाइन न कभी जन विरोधी हो सकती है और ना ही सत्साहित्य विरोधी । जब लेखक संघों का दौर था तब उसी दौर में मुक्तिबोध ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि कलात्मक कृतियों को महत्व देना ही होगा और गैरकलात्मक प्रगतिशील लेखन की आलोचना करनी ही होगी फिर उसका लेखक चाहे कितना ख्यात और प्रसिद्ध क्यों न हो । मुक्तिबोध के मुताबिक छिछली, जार्गनग्रस्त, रूढ और अवसरवादी आलोचना ही सबसे ज्यादा ही प्रगतिशील आंदोलन की पिछले दशकों में हुई क्षति के लिए उत्तरदायी है । ऐसा नहीं है कि हमारे सभी कवि ऐसा ही लिखते रहे । केदार, नागार्जुन और मुक्तिबोध गहरे राजनीतिक सरोकार वाले कवि हैं । केदार ने आंदोलनात्मक राजनीतिक कविताएं लिखी लेकिन लोकजीवन, प्रेम और प्रकृति की विलक्षण कविताएं भी लिखी । केदारनाथ सिंह और रघुवीर सहाय ने भी । दोनों लोकप्रिय भी हुए । लेकिन जो खुद को नक्सलबाड़ी की संतानें कहा करते थे वो उस दौर के साथ ही ओझल हो गए । वजह पर विमर्श होना चाहिए । आज हिंदी को एक निरपेक्ष प्रगतिशीलता की दरकार है जिससे कविता का स्वर्णिम दौर फिर से वापस लौट सके ।
अभी अभी एक दिन डाक से मुझे वरिष्ठ कवि, आलोचक और लंबे समय से साहित्यक पत्रिका अभिप्राय का संपादन कर रहे राजेन्द्र कुमार का कविता संग्रह मिला । अंतिका प्रकाशन से बेहद सुरुचिपूर्ण तरीके से यह संग्रह प्रकाशित है । इस संग्रह को पढ़ने के बाद पता चला कि यह राजेन्द्र कुमार जी का दूसरा कविता संग्रह है । उनका पहला संग्रह 1978 में छपा था । लगभग पैंतीस वर्षों बाद भी राजेन्द्र कुमार की कविताओं का संकलन शैलेय जी ने किया है । इस संकलन के बारे में लिखते हुए शैलेय कहते हैं- इस कविता संग्रह के रूप में राजेन्द्र कुमार की कविताओं को संकलित करना उस काव्य खनिज का उत्खनन करने जैसा रहा जो अन्यथा उनकी डायरियों और विभिन्न पत्र-फत्रिकाओं के पन्नों में ही दबा पड़ा रह जाता । शैलेय ठीक ही कह रहे हैं । राजेन्द्र कुमार ने प्रचुर मात्रा में लेखन किया है लेकिन उनका मूल्यांकन ठीक से नहीं हो पाया है । लेखन में केंद्र पर रहने के बावजूद राजेन्द्र कुमार का लेखन अबतक साहित्यक परिधि पर है । इस पर भी साहित्य के कर्ताधर्ताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए
राजेन्द्र कुमार का नया कविता संग्रह -हर कोशिश है एक बगावत- उनके लगभग पचास वर्षों के लंबे कालखंड में लिखी गई साठ कविताओं का संकलन है । राजेन्द्र कुमार के नये कविता संग्रह-  हर कोशिश है एक बगावत को पढ़ने के बाद लगा कि राजेन्द्र जी का अनुभव संसार और रेंज बहुत व्यापक है लेकिन उनकी कविताओं मेंसमाज और आसपास का परविवेश और उस दौर में घट रही प्रमुख घटनाएं बेहद प्रमुखता से आता है वहां चिड़िया है, फाटक है, सरकारी दफ्तर है, सड़कों का बनना है, मंगफूली के छिलके हैं, आतंकी और आतंकवादी हैं । इन सारे विषयों को कवि ने अपनी कविताओॆ में समेटा है । दो हजार आठ की उनकी दो कविताएं आतंकी और आतंकवादी विशेष रूप से उल्लेखनीय है । आतंकी कविता में आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने और अपने होने को सिद्ध करने की ललक के तौर पर देखते हैं । वहीं आतंकवादी कविता में कवि शुरू में तो उनको हमारी तरह का ही मानते हैं वे सब भी हमारी ही तरह थे/अलग से कुछ भी नहीं, कुदरती तौर पर । इन लाइनों में कुदरती तौर पर शब्द पर गौर किया जाना चाहिए । इसके अलावा इस कविता में कवि ने जो बिंब चुने हैं वो भी बेहतर हैं । जैसे एक जगह वो कहते हैं हवा भी उनके लिए आवाज थी, कोई छुअन नहीं/कि रोओं में सिबरन बन व्यापे/वो सिर्फ कानों में सरसराती रही/और उन्हें लगा कि उन्हें ही तय करना है-/दुनिया में क्या पाक है और क्या नापाक । दोनों कविता में कवि अपनी भावनाओं को व्यक्त करते वक्त बेहद सावधान रहता है और इस बात को लेकर सतर्क भी कविताओं से आतंकवाद का महिमामंडन ना हो । जैसे आतंकवादी कविता के अंत में कहता है- और वो जंग, जिसमें सबकी हार ही हार है/जीत किसी की भी नहीं/उसे वे जेहाद कहते हैं । इसमें दो पंक्तियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए । सबकी हार ही हार है और जीत किसी की भी नहीं । यानी कवि कवि जोर देकर कह रहा है कि आतंकवाद से किसी का भी भला नहीं है ।
इस संग्रह को मोटेतौर पर तीन हिस्सों में बांटा गया है । पहले हिस्से- हर कोशिश है एक बगावत के अलावा दो हिस्सों में कविता के सवाल और कविता के किरदार हैं । एरक बेहद दिलचस्प कविता है- अमरकांत, गर तुम क्रिकेटर होते । इसमें अपने साथी को क्रिकेटर के तौर पर देखना और उसी बहाने तंज करना, यह राजेन्द्र कुमार की कविताओं को एक नया आयाम तो देता ही है एक अलग स्तर पर भी ले जाता है । कविता के किरदार का रेंज बड़ा तो है ही विशेष भी है । उसमें बहादुर शाह जफर भी हैं तो ओसामा बिन लादेन भी हैं । भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा हैं तो अज्ञेय भी हैं । वहीं छन्नन और मनसब मियां भी हैं । राजेन्द्र कुमार के इस कविता संग्रह को पढ़ने के बाद मुझे पर्याप्त आनंद आया और लगा कि इतने घटाटोप भरे कविता समय में भी हिंदी कविता कुछ हाथों में सुरक्षित है । इस बात की जरूरत है कि कविता के आलोचक अच्छी कविताओं को चिन्हित करें और बुरी कविताओं को बहुत ही मजबूती के साथ खारिज करें- लिखित और मौखिक दोनों स्तर पर ।

Thursday, August 29, 2013

बीस की कहानी

समकालीन साहित्यक परिदृश्य में स्त्री विमर्श के नाम पर लेखिकाओं की एक ऐसी फौज खड़ी हो गई है जो प्रसद्धि के लिए तमाम तरह के दंद फंद से भी नहीं हिचक रही है। उन्हें हर कीमत पर सिर्फ और सिर्फ प्रसिद्धि चाहिए और वो भी इंस्टेंट । पुरुष मानसिकता, पितृसत्तात्मक समाज, महिलाओं के हालात, उनके हर तरह के शोषण, पुरुषों से आजादी, बंधनों से मुक्ति, सेक्स संबंधों की स्वतंत्रता, शादी नाम के संस्था से बगावत आदि आदि ऐसे कई जुमले हैं जो समकालीन क्रांतिकारी महिला लेखन में आग के गोले की तरह से धधकते हैं । लेखन ऐसा कि पढ़ने वाला झुलस जाए और अगर बच गया तो आग की तपिश लंबे समय तक महसूसता घूमता रहेगा । महिला लेखन की इस आग की लालसा समाज के सारे पुरुषों को जला कर राख कर देने की है । जिस तरह से आग अगर लगती है तो वह किसी को नहीं छोड़ती या कह सकते हैं कि वह झुलसाने में कोई भेद भाव नहीं बरतती, उसी तरह से पुरुष विरोध की आग में हो रहा लेखन किसी को भी बख्शने को तौयार नहीं है । महिला लेखन की इस आग के पीछे बहुधा समाज में स्त्रियों की दशा बदलने की मंशा कम, प्रचार पाने की चाहत ज्यादा है । उनको लगता है कि सेक्स प्रसंगों के बारे में खुलकर बात करने, उससे आजादी की बात करने से देश में क्रांति हो जाएगी । महिलाओं को आजादी मिल जाएगी, उनका हर तरह का शोषण खत्म हो जाएगा ।  देह मुक्ति का नारा लगाते लगाते महिला लेखन कब विरोध की आग में झुलसकर बदसूरत हो गया है उसका पता ना तो लेखिकाओं को चल पाया और ना ही स्त्री विमर्श के झंडाबरदारों को । कई लेखिकाओं को लगता है कि गाली गलौच वाले लेखन से उनको प्रसिद्धि मिल जाएगी । कईयों को मिली भी, लेकिन यह प्रसिद्धि लंबे वक्त तक कायम नहीं रह सकती है ।  यह तथ्य है कि भारतीय समाज प्राचीन काल से ही पुरषों के पक्ष में झुका रहा है । इससे किसी को भी इंकार भी नहीं है । महिलाओं पर बहुत अत्याचार हुए । उनका दैहिक और मानसिक दोनों तरह का शोषण किया गया और कई जगहों पर अब भी यह बदस्तूर जारी है ।  लेकिन यह भी तथ्य है कि पिछले कई दशकों में हालात बहुत बदले हैं । हर क्षेत्र में महिलाएं आगे आने लगीं । पुरुषों ने भी महिलाओं को उनका हक दिलाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर जतन किए । इसलिए एक ही लाठी से सबको हांकने की महिला लेखन की प्रवृत्ति बेहद खतरनाक है और वो उसको किसी मुकाम तक ले जा पाएगी इसमें मुझे संदेह है ।
मैं हमेशा से यह बात कहता रहा हूं कि कुछ स्त्रीवादी लेखिकाएं हाथ में ए के 47 लेकर घूम रही हैं और वो अपने लेखन रूपी अस्त्र से सबको ध्वस्त करने की ख्वाहिश भी पाले बैठी हैं । लेकिन सपने बहुधा सच नहीं होते और खासकर तब तो बिल्कुल भी नहीं जबकि सपनों के पीछे की मंशा संदेह के घेरे में हो या फिर मंशा लक्ष्य हासिल करना ना हो बल्कि खुद को आगे बढ़ाने की हो  । स्त्री विमर्श के कोलाहल के बीच कई लेखिकाएं ऐसी भी हैं जो इन दंद फंद से दूर रहकर गंभीर लेखन कर रही हैं,। नए नए विषयों को छूने का साहस जुटा कर साहित्य को समृद्ध करने में लगी हैं । देह मुक्ति के छद्म आंदोलन से अलग रहकर, बगैर प्रसिद्धि की चाहत में गंभीर रचनाकर्म में लगी हैं । इस बात का खतरा उठाते हुए भी कि महिला लेखन की महंथाइनें उन्हें हाशिए पर डालने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगीं । समकालीन साहित्यक परिदृश्य में रजनी गुप्त एक ऐसी ही लेखिका हैं । रजनी गुप्त के तीन उपन्यास- कहीं कुछ और, किशोरी का आसमां और एक ना एक दिन प्रकाशित हो चुके हैं । इन उपन्यासों ने अपने विषय से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था । उनकी कहानियां भी लागातर प्रकाशित होकर पाठकों को सोचने पर विवश करती रही हैं । उसके अलावा स्त्री विमर्श पर आधारित दो पुस्तकों- आजाद औरत, कितनी आजाद और मुस्कुराती औरतों का भी वो संपादन कर चुकी हैं । अभी अभी उनका नया उपन्यास-कुल जमा बीस- प्रकाशित हुआ है । इस उपन्यास के केंद्र में यौवन की दहलीज पर कदम रख रहा ऐसा किशोर है जो अपने करियर को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है । क्या करे कि ना करे की मानसिकता से ग्रस्त है । उसका बचपन डिस्टर्बड रहा है । उसने पिता की मौत के बाद अपनी मां को परपुरुष की बाहों में देखा है । यह दृश्य उसे बार बार हॉंट करता है । दादी का साथ रहता है । साथियों के साथ मौज मस्ती करता है । दादी उसकी मानसिकता को समझ कर उसकी हर छोटी-बड़ी जायज-नाजायज मांग पूरी करती है । दरअसल इस उपन्यास के पात्र के बहाने रजनी गुप्त ने आज की इंटरनेट पीढ़ी की पूरी मानसिकता को सामने लाने की कोशिश की है । ऐसी पीढ़ी की मानसिकता जिसके लिए रिश्ते कोई मायने नहीं रखते, वर्जनाओं की उन्हें परवाह नहीं, कपड़ों की तरह साथी भी बदलने में उन्हें कोई हिचक नहीं । सबकुछ इंस्टेंट चाहिए दोस्ती से लेकर शारीरिक संबंध तक । प्यार व्यार क्या होता है ये वो जानते नहीं और उसके चक्कर में पड़ना भी नहीं चाहते । उनके लिए दैहिक रिश्ते सिर्फ अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने भर का जरिया मात्र है । चाहे वो लड़की हो या लड़का । समाज, परिवार, दोस्त, रिश्तेदार सभी को वह इसी मानक पर तौलता है और उसी हिसाब से अपनी जिंदगी के बारे में फैसले लेता है । अपने फैसलों में उसको किसी का दखल भी मंजूर नहीं होता है ।  लेकिन तन्हाई के क्षणों में वो मां के बिछोह में तड़पता भी है और तब उसको उसको महरूम अपने पापा की याद भी आती है । पापा की याद में तड़पता किशोर अपने किसी साथी में सुकून भी तलाशता है । यहीं से चाहत होती है किसी कंधे की जो उसे कहीं और ले जाता है । 
रजनी गुप्त के इस उपन्यास की भाषा उसके पात्रों के हिसाब से गढ़ी गई है । उसमें लेखिका पर्याप्त रूप से सफल भी रही है । हिंदी-अंग्रेजी की मिली जुली जिस तरह की बोली वाणी यह पीढ़ी अपने उपयोग में लाती है वही भाषा रजनी ने अपनाई है । इसमें लेखिका बहुत हद तक कामयाब भी रही है । उस उपन्यास में मुझे कई जगह एक हिचक दिखाई देती है । जैसे जब भी कोई सेक्स प्रसंग आता है तो लेखिका नैतिकता और यथार्थ के द्वंद भी फंसी नजर आती है । जैसे जब आशु अपनी मां को उसके साथी के साथ देखता है तो लेखिका की हिचक वहां दिखाई देती है और लगता है कि वो जल्द इस प्रसंग को खत्म कर आगे बढ़  जाना चाहती है । इस तरह के प्रसंग जब भी जहां आते हैं वहां यह हिचक यह साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । कुल मिलाकर रजनी गुप्त ने एक ऐसे विषय को चुना है जिसपर हिंदी लेखकों का ध्यान कम जा रहा है वो तो यथार्थ की जमीन तोड़ने में लगे हैं । जमाने के रफ्तार के साथ रजनी ने विषय को पकड़ा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि पाठकों को रजनी गुप्त का यह उपन्यास काफी पसंद आएगा । एक बात और कहना चाहूंगा कि रजनी ने जिस तरह से उपन्यास की भाषा को नई पीढ़ी के हिसाब से रखा है वही सतर्कता उनको उपन्यास के शीर्षक में भी बरतनी चाहिए थी । ऐसा करने से युवा पीढ़ी को बेहतर तरीके से उपन्यास की ओर आकृष्ट किया जा सकता था ।

Saturday, August 24, 2013

राह से भटकी अकादमियां

हिंदी साहित्य जगत में मासिक पत्रिका हंस के कार्यक्रम के कथिक क्रांतिकारी लेखकद्वय के बहिष्कार के बीच मले कोलाहल को परिधि पर धकेलकर कुछ दिनों के लिए भोजपुरी साहित्य चर्चा के केंद्र में आ गया था । बिहार की लगभग मृतप्राय भोजपुरी अकादमी को लगा कि वो विवादों के ऑक्सीजन से अकादमी में जान फूंक सकती है । बिहार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष ने मशहूर लोकगायिका मालिनी अवस्थी को अकादमी का अंतराष्ट्रीय सांस्कृतिक राजदूत बनाने का ऐलान कर दिया । इस ऐलान के बाद भोजपुरी भाषा और उसकी राजनीति करनेवालों ने खासा बवाल मचाया । उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से समाजवादी पार्टी के टिकट पर योगी आदित्यनाथ के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़कर हार चुके गायक कलाकार मनोज तिवारी ने विरोध को वाणी देते हुए बिहार भोजपुरी अकादमी के इस फैसले पर कड़ा एतराज जताया । भोजपुरी गायक ,अभिनेता और राजनेता मनोज तिवारी ने आनन फानन में भोजपुरी अकादमी के इस फैसले के खिलाफ बिहार सरकार का सम्मान लौटाने की भी धमकी दी । इस प्रसंग में मनोज तिवारी और भोजपुरी अकादमी के बीच जमकर बयानों के तीर चले । इस विवाद का अंत किया मालिनी अवस्थी ने । मालिनी ने बेहद गरिमापूर्ण तरीके से खत लिखकर भोजपुरी अकादमी के सम्मान के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया । मालिनी ने भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष को लिखा- मैं पूरब की बेटी हूं और पूरब में ही पली बढ़ी हूं । पूर्वी उत्तर प्रदेश में भोजपुरी की गंगा बहती है । मुझे गर्व है कि उन्हीं भोजपुरी संस्कारों ने सींचा और निखारा है और लोकप्रियता दिलाई है । महोदय आपने भोजपुरी के प्रति मेरा समर्पण और योगदान देखकर मुझे बिाहर भोजपुरी अकादमी का अंतराष्ट्री सांस्कृतिक राजदूत नियुक्त किया था । किंतु कुछ व्यक्तियों ने स्वार्थवश इस नियुक्ति पर अकारण सवाल खड़े किए । इस वजह से मेरा अंतर्मन कहता है कि मैं इसके लिए दी गई अपनी स्वीकृति वापस ले लूं । मालिनी के इस खत ने विवाद का तो पटाक्षेप कर दिया लेकिन इस विवाद के बीच कई बड़े सवाल खड़े हो गए ।
सबसे बड़ा और अहम सवाल तो बिहार भोजपुरी अकादमी के कामकाज पर खड़ा हो गया है । बिहार भोजपुरी अकादमी ने भोजपुरी भाषा के विकास के लिए अब तक क्या काम किया है इसबात की पड़ताल होनी चाहिए और उसको सार्वजनिक भी किया जाना चाहिए। साहित्य जगत को भोजपुरी अकादमी के कामकाज के बारे में ज्ञात नहीं है । भोजपुरी साहित्य और संस्कृति के विकास के लिए भोजपुरी अकादमी ने क्या कदम उठाए हैं वो भी भोजपुरी भाषा भाषियों के अलावा गैर भाषा के लोगॆं को भी पता चलना चाहिए नहीं है । क्या सिर्फ किसी मशहूर शख्सियत को अकादमी का सांस्कृतिक दूत बनाकर भोजपुरी साहित्य का भला हो सकता है या फिर भोजपुरी साहित्य को विस्तार और नए आयाम मिल सकते हैं, इस बारे में विचार करना होगा । इस पूरे विवाद पर फिल्म समीक्षा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त लेखक विनोद अनुपम ने बेहद सटीक टिप्पणी की । उनका कहना है कि विश्व की किसी भी भाषा के लिए ब्रांड एंबेसडर की परिकल्पना नहीं गई थी । इसके साथ ही विनोद अनुपम ने सवाल भी उठाया कि क्या किसी भी भाषा का विकास ब्रांड एंबेसडर के सहारे हो सकता है । दरअसल ब्रांड एंबेसडर की नियुक्ति के पीछे भाषा के विकास से ज्यादा प्रचार की लालसा होती है । और उसी लालसा में मालिनी को सांस्कृतिक राजदूत बनाने का फैसला हुआ ।  
लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन भाषा अकादमियों के कामकाज पर गंभीरता से विचार हो और उनके कर्ताधर्ताओं की अकाउंटिबिलिटी तय की जाए । हम गंभीरता से इन अकादमियों के कामकाज पर विचार करें तो उसके आधार पर बेहद आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ये अकादमियां सरकारी कृपापात्रों के आरामगाह में तब्दील हो चुके हैं । आजादी के पहले 1944 में ब्रिटिश हुकूमत ने भारत में सैद्धांतिक रूप से साहित्यक सांस्कृतिक गतविधियां बढ़ाने के नेशनल कल्चरल ट्रस्ट बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी । आजादी के बाद भारत सरकार ने इस सैद्धांतिक मंजूरी को अमली जामा पहनाने की दिशा में काम करते हुए साहित्य, कला और नाटक के लिए तीन अलग अलग अकादमियों का गठन किया । इन अकादमियों के गठन के पहले हर भाषा के विद्वानों में विस्तार से विमर्श हुआ और अकादमियों के उद्देश्यों और क्रियाकलापों पर जमकर चर्चा हुई । संसद के सेंट्रल हॉल में जब 12 मार्च 1954 को जब साहित्य अकादमी की शुरुआत हुई थी तो अपने भाषण में मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अकादमी के उद्देश्यों पर बोलते हुए कहा था कि साहित्य का उच्चतम स्तर हासिल करना अकादमी का ध्येय होना चाहिए । उसी मौके पर तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था साहित्य अकादमी उन लोगों का जमावड़ा है जो मौलिक और आलोचनात्मक लेखन में रुचि रखते हैं ।
दरअसल साहित्य अकादमी की स्थापना और इसके नामकरण के पीछे यही भावना थी । साहित्य संस्कृत का शब्द है औक अकादमी ग्रीक भाषा का शब्द है । अकादमी शब्द एकेडेमस से लिया गया है । इस शब्द का पहली बार उपयोग महान दार्शनिक प्लूटो ने किया था जब उन्होंने अपने बगीचे में पौराणिक ग्रीक नायक एकेडमस के नाम पर एक स्कूल खोला था । बाद में उसे अंग्रेजी में एकेडमी और हिंदी में अकादमी कहा जाने लगा । इतना सब कहने के पीछे की सोच यही है कि भाषा की अकादमियों का गठन एक बेहद पावन उद्देश्य के लिए किया गया था जहां साहित्य विमर्श और लेखन से साहित्य का उच्चतम स्तर हासिल किया जा सके ।बाद में केंद्र की तर्ज पर राज्यों में भी भाषा अकादमियों का गठन हुआ । शुरुआत में तो राज्यों की ये भाषा अकादमियां ठीक से काम काज करती रहीं लेकिन कालांतर में इनके क्रियाकलापों पर राजनीति की छाप पड़ने लग गई । खास कर इमरजेंसी के बाद से इन अकादमियों का राजनीतिकरण शुरू हो गया । सीपीआई और उसके पिछलग्गू लेखक संगठन प्रलेस ने इमरजेंसी लगाने के इंदिरा गांधी के फैसले को जायज ठहराया और उसे अनुशासन पर्व तक कहकर इंदिरा गांधी का महिमामंडन किया । पुरस्कारस्वरूप इंदिरा गांधी ने साहित्य संस्कृति की कमान कथित प्रगतिवादियों के हाथों में सौंप दी। यहीं से इन अकादमियों के राजनीतिकरण की शुरुआत हुई । अकादमी के अध्यक्ष और अन्य पदों पर इन्हीं प्रगतिवादियों का बोलबाला हो गया । तमाम तरह के पुरस्कार और सांस्कृतिक आदान प्रदान के तहत लाल झंडा उठानेवाले लेखकों को विदेश यात्रा पर भेजा जाने लगा । अस्सी के दशक में तो दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी के प्रांगण में दूसरी विचारधारा के लोगों को तो अस्पृश्य माना जाता था । सालों तक साहित्य अकादमी के पुरस्कार विचारधारा विशेष के लेखकों को दिए गए, चाहे वो किसी भी भाषा के क्यों ना हों। केंद्र की अकादमियों में व्याप्त विचारधारावाद का असर राज्य की अकादमियों पर भी हुआ और वहां भी राजनीति शुरू हो गई ।
नब्बे के दशक में लालू यादव के शासनकाल में बिहार में साहित्य संस्कृति नेपथ्य में चले गए । साहित्यक संस्थाओं पर ताले लगने शुरू हो गए । पटना के साहित्य सम्मेलन जैसे साहित्यक केंद्रों पर अपराधियों का कब्जा हो गया । तकरीबन डेढ दशक के बाद जब नीतीश कुमार ने सूबे की कमान संभाली तो इन अकादमियों में जान तो वापस लौटी लेकिन अब भी सारी संस्थाएं आईसीयू में वेंटिलेटर पर ही हैं । सुखदा पांडे के संस्कृति मंत्री रहते हुए इस दिशा में कुछ उम्मीद जगी थी , सूबे में सांस्कृतिक हलचलें शुरू हो गई थी । लेकिन राजनीतिक वजहों से बीजेपी और नीतीश कुमार को अलग होना पड़ा । इस अलवाग के बाद बिहार में कला और संस्कृति मंत्री का जिम्मा नीतीश कुमार के पास ही है । मशहूर लेखक पवन वर्मा के बिहार के मुख्यमंत्री के सांस्कृतिक सलाहकार हैं । उनकी नियुक्ति को भी लंबा अरसा हो गया है । पवन वर्मा का ध्यान भी इन मृतप्राय अकादमियों की तरफ नहीं जा पाया है । दरअसल अगर हम इन भाषा अकादमियों के गठन से लेकर बाद के दो तीन दशक तक देखें तो यह पाते हैं कि उस दौर के राजनेताओं की भी साहित्य और संस्कृति में रुचि थी । वो खुद भी रचते थे । विमर्श करते थे । लेकिन अब के नेताओं में यह रचने की प्रवृत्ति नहीं बची जिसकी वजह से उनकी प्राथमिकताओं में अकादमियां रही ही नहीं । अगर कोई शख्स जुगाड़ लगा पाने में कामयाब हो गया तो वो अकादमी का अध्यक्ष तो बन जाता है लेकिन सरकार से उसे काम करने में अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता है । सरकारों को साहित्य के प्रति संवेदनशील बनाने का जिम्मा लेखकों को उठाना होगा और लेखक संघों की राजनीति से उपर उठकर संगठित होना होगा । अगर ऐसा हो पाता है तो साहित्य का भला होगा नहीं तो इसी तरह से कोई किसी को भी ब्रांड एबेंसडर बनाकर विवादों से घिरता रहेगा और अकादमियों की छीछालेदार होती रहेगी । यह स्थिति किसी भी भाषा के लिए अप्रिय होगी । 

Wednesday, August 21, 2013

रघुराज रामन की चुनौतियां

भारतीय मुद्रा का लगातार अवमूल्यन हो रहा है । डॉलर के मुकाबले रुपया हर दिन ऐतिहासिक निचले स्तर को छूते हुए 62 रुपए को चूम रहा है।  शेयर बाजार में खून खच्चर मचा है । भारतीय अर्थव्यवस्था पर पर मंदी का गंभीर संकट मंडरा रहा है । महंगाई अपने चरम पर है । अंतराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां लगातार भारतीय अर्थव्यवस्था की रेटिंग कम करने का दबाव बना रही हैं । रिटेल में विदेशी निवेश को मंजूरी के बाद भी देश में अपेक्षित पूंजी निवेश नहीं हो पा रहा है । रिटेल में एफडीआई के भविष्य को लेकर विदेशी कंपनियां सशंकित हैं । देश का राजकोषीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है । आयात और निर्यात के बीच का संतुलन भी बिगड़ा हुआ है। अमेरिकी सरकार के फैसलों से बीपीओ इंडस्ट्री पर भी खतरा मंडरा रहा है । अगले साल लोकसभा के लिए चुनाव होने हैं । इन सारे मसलों को लेकर मनमोहन सिंह की सरकार चौतरफा घिरी हुई है । विपक्ष हमलावर है । घटाटोप समय में भारत सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की कमान मशहूर अर्थशास्त्री रघुराम राजन को सौंपी है । रघुराज रामन इसके पहले अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष में अर्थशास्त्री और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं । यह सालों बाद हुआ है कि बैंक के काडर के बाहर का शख्स गवर्नर बना हो । इसके पहले नब्बे के दशक के आखिरी सालों में विमल जालान को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाकर भारत सरकार ने इस तरह का प्रयोग किया था ।
शिकागो के एक विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ा चुके रघुराम राजन दो हजार आठ से भारत की अर्थव्यवस्था को बहुत नजदीक से देख रहे हैं । रघुराम राजन लगातार इस बात की वकालत करते रहे हैं कि रिजर्व बैंक की भूमिका को महंगाई दर पर नजर रखने तक तक सीमित करना चाहिए और भारतीय बैंकों और उनकी नीतियों को नियंत्रित करने के लिए एक अलग संस्था होनी चाहिए । रघुराम राजन ने जब दो हजार आठ में यह प्रस्ताव दिया था तब इसको लेकर अर्थशास्त्रियों के बीच लंबी बहस चली थी । वर्तमान गवर्नर डी सुब्बा राव ने इस प्रस्ताव का यह कहते हुए विरोध किया था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मद्देनजर इस तरह के फैसले व्यावहारिक नहीं हैं ।  सुब्बा राव को रिजर्व बैंक के कई पूर्व गवर्नरों का भी समर्थन प्राप्त हुआ । रघुराम राजन की सिफारिश पर एक अलग संस्था तो बनी लेकिन रिजर्व बैंक की भूमिका को सीमित नहीं किया जा सका । अब जब रघुराम राजन को रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया गया है तब उनके सामने अपने ही प्रस्ताव को प्रभावी तरीके से लागू करने-करवाने की चुनौती है । यह देखना भी दिलचस्प होगा कि रिजर्व बैंक के अधिकारों में कमी के अपने प्रस्ताव के समर्थन में बैंक के अन्य आला अफसरों को कैसे तैयार कर पाते हैं ।  रिजर्व बैंक के अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि राजन के प्रस्ताव के प्रभावी ढंग से लागू होने से उनके अधिकारों में कटौती होगी । सरकारी बाबू चाहे जो हो जाए अपने अधिकारों में कटौती बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं । आखिरी दम तक लड़ते हैं । लेकिन रघुराम राजन के पक्ष में एक बात जाती है कि उनको सरकार खासकर वित्त मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का विश्वास प्राप्त है । इसी विश्वास की ताकत से सरकार और जनता दोनों की अपेक्षा भी उनसे ज्यादा है । सरकार की अपेक्षा यह है आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर महंगाई कम करने के लिए रिजर्व बैंक कोई ठोस कदम उठाए । डी सुब्बा राव ने अपने कार्यकाल में सरकार की लोकलुभान योजनाओं पर पानी फेर दिया और वही किया जो अर्थव्यवस्था के लिहाज से उनको बेहतर लगा । सुब्बा राव ने वित्त मंत्री को कई बार प्रत्यक्ष तो कई बार परोक्ष रूप से यह जता दिया कि वो एक स्वायत्तशासी संस्थान के मुखिया हैं और वो सरकार के दबाव में नहीं आएंगे । उधर जनता की अपेक्षा यह है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती का ऐलान करे ताकि महीने की किश्तों पर चलनेवाले मध्यम वर्ग के लोगों पर ईएमआई का बोझ कम हो सके ।
लेकिन रघुराम राजन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है रुपए की गिरती कीमत को संभालना । दो हजार ग्यारह में एक डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत पैंतालीस रुपए थी जो अब बढ़कर इकसठ को पार करती नजर आ रही है । रिजर्व बैंक और सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद रुपए की गिरावट को रोका नहीं जा सका है । भारतीय जनता पार्टी के नेता इसको यूपीए की विफलता के रूप में पेश कर सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं । रुपए की गिरावट का असर सबसे ज्यादा पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर पड़ता है । कच्चे तेल का आयात महंगा होता है तो बढ़े हुए दाम का बोझ आम आदमी पर डाल दिया जाता है । सरकार ने बेहद चालाकी से पेट्रोल और डीजल की कीमतें बाजार के हवाले कर अपना पल्ला झाड़ रखा है । पेट्रोल और डीजल की कीमत का असर तमाम उपभोक्ता वस्तुओं पर तो पड़ता ही है बच्चों की शिक्षा और यातायात पर भी पड़ता है । शिक्षा पर यों कि बच्चों के स्कूल जाने के बस का किराया बढ़ जाता है । मध्यम वर्ग सीधा प्रभावित होता है । रुपए की कीमत को रोकने की चुनौती के साथ राजन पर सरकार इस बात का भी दबाव बनाएगी कि ब्याज दरों में कटौती कर आम आदमी को राहत दी जाए । मौजूदा हालात में अगर रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करता है तो इस बात की आशंका है कि रुपए की कीमत और गिर जाए । इन हालात में रघुराम राजन को अपनी पुरानी सोच से अलग जाकर काम करना पड़ सकता है ।

अगर इस वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के नतीजों पर गौर करें तो अर्थव्यवस्था की हालत पतली नजर आती है । सेंसेक्स तय करनेवाली प्रमुख कंपनियों के मुनाफे में भारी कमी दर्ज की गई है, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत नहीं है । सरसरी तौर पर स्टील,सीमेंट, उपभोक्ता वस्तु बनाने वाली कंपनियों के बैंलेंस सीट का विश्लेषण करें तो यह तिमाही मुनाफा पिछले चार साल के सबसे निचले स्तर पर है । सिर्फ टेलीकॉम और साफ्टवेयर कंपनियों के नतीजे बेहतर हैं । सॉफ्टवेयर कंपनियों के नतीजे तो रुपए के अवमूल्यन से ठीक हुए हैं । इस तरह के हालात में रघुराम राजने के सामने अपने आपको साबित करने की तो चुनौती है ही साथ ही सबकी अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना है । अपने नाम के ऐलान के बाद हलांकि रघुराम राजन ने साफ कहा कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि वो आते ही सारी समस्याओं का हल पेश कर देंगे । उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि इस स्थिति से उबरने में कई साल लग सकते हैं। रघुराम राजन ने उम्मीद जताई थी कि सरकार और रिजर्व बैंक मिलकर इस समस्या से उबरने के लिए कदम उठाएंगे । लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि विद्वान अर्थशास्त्री रघुराम राजन सरकार के कंधा से कंधा मिलाने के क्रम में रिजर्व बैंक की स्वायत्ता के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे । खुद उन्होंने इस बात को कहा भी है कि वो देश की केंद्रीय बैंक की समृद्ध परंपराओं से परिचित हैं और उस विरासत को ठेस पहुंचानेवाले कोई काम नहीं करेंगे । लेकिन चुनावी साल में राजन को बहुत संभलकर सरकार के साथ काम करना होगा क्योंकि सरकार जनता को भाने वाले कदम उठाने का दबाव बनाएगी । उसी वक्त रघुराम राजन की असली परीक्षा होगी कि वो सरकार के दबाव में आ जाते हैं या फिर रिजर्व बैंक की गौरवाशाली परंपरा को कायम रखते हुए देशहित में फैसला लेते हैं ।  

Tuesday, August 20, 2013

कविताओं की नई दुनिया

ठीक से याद नहीं है कि मैं लेखिका और अनुवादक के तौर पर हिंदी और उड़िया में ख्याति अर्जित कर चुकी सुजाता शिवेन से कब मिला लेकिन अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो तकरीबन पंद्रह साल पहले उनसे दिल्ली के उनके लक्ष्मीनगर के घर पर मुलाकात हुई थी । उनके पति जयप्रकाश पांडे हमारे मित्र हैं । उस वक्त हमलोग एक ही संस्थान में काम करते थे लिहाजा दोस्ती रोज रोज के साथ दफ्तर आने जाने की भी थी । बहुधा जयप्रकाश जी, जिनको मैं शरारतपूर्वक पंडित जी कहकर बुलाता था, के घर हमारी बैठकी हुआ करती थी । उस वक्त भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पत्रिका यंग इंडिया के संपादक अनिल अत्रि भी हमारी बैठकी में शामिल होते थे बल्कि शायद वो पंडित जी के साथ ही रहते थे । अनिल अत्री से भी मेरा परिचय भी वहीं हुआ था । हमलोग पंडित जी के घर पर जमकर विमर्श करते थे । बात शुरू होती थी राजनीति और समकालीन विषयों पर लेकिन कई बार साहित्य तक भी जा पहुंचती थी । इन बहसों के बीच सुजाता जी स्नेहपूर्वक हमें लगातार चाय पानी मुहैया करवाती रहती थीं । कई बार बहसों के दौरान कुछ टिप्पणियां भी कर देती थी । यह सिलसिला कई सालों तक चला । बाद में सुजाता जी और पंडित जी के दिल्ली के द्वारका और मेरे मयूर विहार से इंदिरापुरम इलाके में शिफ्ट हो जाने की वजह से यह सिलसिला टूट गया । लेकिन इस बीच सुजाता जी ने अनुवाद का प्रचुर काम किया और एक अनुवादक के तौर पर अपने को स्थापित कर लिया । उन्होंने हिंदी रचनाओं का उड़िया में अनुवाद किया जो उड़ीसा की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छपीं । सुजाता जी ने चित्रा मुद्गल, विश्वनाथ तिवारी, राजेन्द्र अवस्थी जैसे वरिष्ठ लेखकों की रचनाओं का तो अनुवाद किया ही , साथ ही नए लेखकों में से सूर्यनाथ सिंह और ब्रजेन्द्र त्रिपाठी की रचनाओं से उड़िया पाठकों का परिचय करवाया । सुजाता शिवेन ने साथ ही ओडिया के अहम लेखकों की रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया । सुजाता जी की एक अनुवादक के रूप में छिपी प्रतिभा का पता मुझे बहुत बाद में चला । वो एक बेहतरीन अनुवादक हैं । उन्होंने हिंदी के पाठकों को उड़िया साहित्य के एक बड़े लेखक वर्ग और उनकी रचनाओं से परिचय कराया है। उनकी अबतक अनुवाद की तकरीबन दर्जनभर किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और पांच किताबें प्रकाशनाधीन हैं । उनकी किताबें हिंदी के लगभग सभी शीर्ष प्रकाशकों के यहां से छप चुकी हैं । उन्होंने मनोज दास की कई रचनाओं का हिंदी अनुवाद किया जो पुस्तकाकार प्रकाशित हैं । इसके अलावा सीताकांत महापात्र, रमाकांत रथ, प्रतिभा राय, जे पी दास , बिपिन बिहारी मिश्र से लेकर इंदुलता मोहंती और महेन्द्र के मिश्र जैसे उड़िया के बड़े लेखकों की कृतियों का भी अनुवाद किया । उन्हें हिंदी में एक अनुवादक के रूप में पर्याप्त ख्याति मिल चुकी है । सुजाता जी की हिंदी से उडिया और उड़िया से हिंदी में आवाजाही से दोनों भाषा के पाठकों को लाभ मिलता है । उनके द्वारा उड़िया से हिंदी में अनुदित कई कृतियों को मैंने पढ़ा है जो अनुवाद के बेहतर उदाहरण के तौर पर पेश किए जा सकते हैं । किसी एक कृति का नाम लेना अन्य कृतियों के साथ नाइंसाफी होगी । लेकिन मैं इतना अवश्य कह सकता हूं कि उड़िया और हिंदी दोनों भाषाओं के स्थानीय शब्दों का ज्ञान होने की वजह से अनुवाद का प्रवाह बना रहता है । भाषा की रवानगी बाधित नहीं होती है और पाठकों को अपनी ही भाषा में पढ़ने का आस्वाद मिलता है ।
मुझे सुजाता जी के अनवाद के क्षेत्र में काम का अंदाजा था लेकिन उनके कवि होने का इल्म भी मुझे नहीं था। यह मेरी अज्ञानता थी क्योंकि बाद में पता चला कि उनकी हिंदी में लिखी कविताएं कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रकिकाओं में छप चुकी थी । मेरी नजर तो तब पड़ी जब एक दिन मैं शिल्पायन प्रकाशन के दफ्तर गया था । वहां मुझे ताजा ताजा छपकर आई किताब कुछ और सच दिखा जिसकी लेखिका सुजाता शिवेन थी । मैंने किताब को पलटा तो पता चला कि ये सुजाता की कविताओं का संग्रह था । मैं उनका कविता संग्रह अपने साथ ले आया । घर लौटकर जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो मुझे सुजाता जी के अंदर छिपी एक कवि प्रतिभा का पता चला । कुछ और सच में सुजाता शिवेन की छोटी बड़ी छियनवे कविताएं प्रकाशित हैं । हिंदी में किताबों के ब्लर्ब किसी मशहूर लेखक से लिखवाने या फिर बगैर नाम के खुद ही लिख देने की परंपरा रही है । लेकिन सुजाता शिवेन ले अपने कविता संग्रह का ब्लर्ब खुद से ही लिखा और उसमें बताया कि इनमें खुशियां भी हैं, सपने और उम्मीदें भी । जाहिर है जीवन संघर्ष तो इसमें होगा ही, हर नारी के जीवन में शायद यह किसी भी पुरुष से ज्यादा जो होता है । इस एक वाक्य से सुजाता की कविताओं के बारे में पाठकों को अंदाजा हो जाता है । अपनी कविता जाने क्यों में सुजाता कहती हैं यूं ही क्या कम था/गम जिंदगी में/फसाना जाने क्यों/बना के लोग/जख्म बना देते हैं/क्यों हुए बेआबरू हम/फूछने की फुर्सत किसे/जाने क्यों कानाफूसी करने की लोग/जहमत उठा लेते हैं । इन पंक्तियों से कवयित्री के अंदर का जो भाव निकल कर आता है वह हमारे समाज की मानसिकता पर, हमारे आसपास के लोगों की महिलाओं को लेकर सोच का पता देती है। इसी कविता की अंतिम लाइनें हैं जिंदगी ने जब भी /पिलाया कड़वा घूंट/ हमने छक कर पी /जाने क्यों लोग/ बस अमृत /पीना चाहते हैं । इन पंक्तियों से कवयित्री का एरक तरीके से मोहभंग और समाज को लेकर एक उपेक्षा बाव दोनों सामने आती है ।
एक और कविता अलगाव में सुजाता शिवेन ने नारी मन की व्यथा को वाणी देते हुए बताती हैं कि किस तरह से एक महिला खुद में सिमटने लगती है जब वो किसी के बिछोह में होती है । सुजाता शिवेन की कविताओं का रेंज सिर्फ घर परिवार समाज ही नहीं बल्कि उससे भी आगे जाता है । लेकिन उनकी कविता का मूल स्वर नारी की संवेदना और नारीमन के विश्लेषण के अलग अलग शेड्स लिए हुए है । इन कविताओं से गुजरते हुए पाठक बहुधा उससे एक रागात्मक संबंध बनाते हैं जो सुजाता शिवेन की कविता की ताकत है । भावना प्रधान कविताओं में मिलने की खुशी है तो बिछड़ने का गम भी है, दर्द को पी जाने का जज्बा भी । कुल मिलाकर सुजाता शिवेन की कविताएं आज के दौर में विचारधारा विशेष के प्रभाव में लिखी जानेवाली नारेबाज कविता से अलग हटकर है जो पाठकों को सुकून देती है । सुजाता की कविताएं मानवीय सरोकार के बंधन में बंधी है और विचारधारा की बेड़ी में नहीं जकड़ी हुई है इस वजह से यह पाठकों के मन के करीब है । कुल मिलाकर मैं यह कह सकता हूं कि सुजाता शिवेन अनुवाद के क्षेत्र में तो अहम काम कर ही रही हैं उन्होंने अपनी कविता संग्रह के माध्यम से अपने लेखक व्यक्तित्व के एक और पहलू को सामने रखा है । मुजे पूरा विश्वास है कि हिंदी के पाठक सुजाता जी कविताओं को भी उसी तरह से पसंद करेंगे जैसे उनके द्वारा अनुदित रचनाओं का स्वागत किया है ।

Sunday, August 11, 2013

साख पर सवाल

लोकतंत्र के इस संक्रमण काल में देश की संवैधानिक संस्थाएं एक एक करके राजनेताओं की कारगुजारियों की शिकार हो रही है । इस माहौल में भी देश की न्यायपालिका और न्यायमूर्तियों में देश का भरोसा बरकरार है । निचली अदालतों में भ्रष्टाचार की बातें गाहे बगाहे समाने आती रहती हैं लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को अब भी कमोबेश भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद से मुक्त माना जाता है । कोई भी संस्थान को जनता का यह भरोसा जीतने में सालों लग जाते हैं, पीढियां गुजर जाती है । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से देश के सर्वोच्च न्यायालय और चीफ जस्टिस के बारे में खबरें छप रही हैं वो बेहद चिंता जनक हैं । सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर के रिटायर होने के पहले उनकी बहन की कलकत्ता हाईकोर्ट में नियुक्ति को लेकर खबर छपी, वो चौंकानेवाली थी । उस वक्त कलकत्ता हाई कोर्ट के जज रहे और अभी गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भास्कर भट्टाचार्य ने अल्तमस कबीर पर बेहद संगीन इल्जाम लगाते हुए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस बारे में खत लिखा था । भास्कर भट्टाचार्य ने आरोप लगाया कि उन्होंने जस्टिस कबीर की बहन के कलकत्ता हाईकोर्ट में नियुक्ति का विरोध किया था जिसकी वजह से कबीर ने उनके सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन में अडंगा लगाया । जस्टिस भट्टाचार्य ने अपने खत में बेहद कड़े शब्दों में कबीर की बहन की नियुक्ति का विरोध किया था । भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर एक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस का आरोप लोगों के विश्वास को हिला गया । इस बीच सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस अल्तमस कबीर रियाटर हो गए । उसके बाद एक और खबर ने सवाल खड़े कर दिए । खबर ये थी कि अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में जस्टिस कबीर ने कोलोजियम की बैठक बुलाकर सुप्रीम कोर्ट में एक जज की नियुक्ति को हरी झंडी दिलवाने की कोशिश की थी, लेकिन नए बनने वाले चीफ जस्टिस सताशिवम के विरोध के बाद ये नहीं हो सका था । चीफ जस्टिस के पद से रिटायर होने के बाद कबीर ने जस्टिस भट्टाचार्य के आरोपों और अंतिम दिन जस्टिस की नियुक्ति के प्रयासों पर लिखित सफाई दी और आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया ।
यह विवाद अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि जस्टिस कबीर का एक और जजमेंट आया । वह था कॉमन मेडिकल टेस्ट कराने के मेडिकल काउंसिल के अधिकार को खत्म करने का । इस फैसले पर भी विवाद हुआ और स्वास्थय मंत्री गुलाम नबी आजाद ने फैसले की शाम ही रिव्यू पिटीशन की बात की । विवाद इस बात को लेकर भी हुआ कि जजमेंट के चंद घंटे पहले ही एक बेवसाइट ने फैसले की जानकारी सार्वजनिक कर दी थी । इस फैसले से प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों को राहत मिली । उसके बाद जस्टिस कबीर की ही एक बेंच ने एक निजी कंपनी पर सौ करोड़ के जुर्माने के हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले पर बगैर स्टे दिए कंपनी को जुर्माने की राशि की किश्त जमा कराने की डेडलाइन में ढील दे दी । खबरों के मुताबिक जस्टिस सताशिवम ने चीफ जस्टिस का पद संभालने के बाद इस फैसले पर कड़ा एतराज जताया । हलांकि इस मामले में जस्टिस कबीर ने फिर से सफाई देते हुए एक इंटरव्यू दिया । मामला चाहे जो भी रहा हो लेकिन इस तरह की बातें सार्वजनिक होने से न्यायपालिका की साख और उसकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े हो गए । अखबारों में खबर छपने के बाद उसपर विमर्श भी शुरू हो गया है । ज्यूडिशियरी की साख को लेकर यह कोई पहला मामला नहीं है । इसके पहले भी दो हजार नौ में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पी डी दिनकरन को लेकर एक अप्रिय प्रसंग खड़ा हो गया था । बाद में जब उनपर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने लगी तो उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया । उनपर जमीन पर कब्जे के आरोप लगे थे । इसी तरह कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र मोहन पर भी महाभियोग चला । उनपर भी संगीन इल्जाम लगे थे । पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मल यादव जब आरोपों के घेरे में आई तो उन्हें कोलिजियम ने लंबी छुट्टी पर भेज दिया । फिलहाल जस्टिस निर्मल यादव पर केस चल रहा है ।
भारत के लोगों को सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों पर अगाध आस्था है, उनकी ईमनादारी और इंटीग्रिटी की मिसालें दी जाती हैं । यही आस्था हमारे लोकतंत्र को लंबे समय से मजबूती प्रदान करती रही है । लेकिन जब उच्च न्यायपालिका से इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं, जजों के फैसलों को लेकर सवाल खड़े होते हैं, तो देश की जनता का न्याय के मंदिर पर से आस्था डिगने लगती है। किसी भी न्यायधीश के आचरण की वजह से अगर ज्यूडीशियरी की मर्यादा को ठेस पहुंचती है तो परिणामस्वरूप देश के लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचती है । देश की सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता के इस विश्वास की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए । इसके लिए देश की न्यायपालिका को सरकार के साथ मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे । जनता के इस विश्वास की रक्षा तभी हो सकेगी जब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को बेहद पारदर्शी बनाया जाए । दरअसल हमारे देश में उच्च न्यायपालिका में जजों को नियुक्त करने के लिए जो कोलिजियम सिस्टम है वह लंबे समय से सवालों के घेरे में हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस ए पी शाह को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाने के फैसले की जमकर आलोचना हुई थी । लीगल सर्किल में यह माना जाता था कि जस्टिस शाह इंपेकेबल इंटिग्रिटी के न्यायाधीश हैं । उनको सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति नहीं देना, हैरान करनेवाला फैसला था । दबी जुबान में इस तरह के फैसलों की आलोचना होती है लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है । समय समय पर देश के कई कानून मंत्री ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड एंड अकाउंटिबिलिटी बिल को लेकर उत्साह दिखाते रहे हैं लेकिन कानून मंत्रियों के उत्साह के बावजूद वह बिल अबतक ठंडे बस्ते में ही है । अब वक्त आ गया है कि उक्त बिल पर जल्द से जल्द गहन विचार-विमर्श हो और उसमें अपेक्षित बदलाव करके उसको संसद से पास करवाकर कानून बना दिया जाए । यह काम जितना जल्द होगा न्यायपालिका की साख के लिए वह उतना ही अच्छा होगा ।    

Saturday, August 10, 2013

बीजेपी की चुनौतियां

महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी की परिभाषा, रिटेल में विदेशी निवेश के उत्साहजनक परिणाम नहीं मिल पाने और खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के बहाने सहयोगियों के साथ चल रहे शह और मात के खेल के बीच पूरे देश में कांग्रेस के विरोध में एक माहौल दिखाई देता है । मनमोहन सिंह सरकार पर फैसले नहीं लेने के आरोप लग रहे हैं । देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के खिलाफ इस माहौल को भुनाने में जुटी हुई है । बीजेपी के सामने दो हजार चौदह का आम चुनाव है और उसने नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लड़ने का फैसला किया है । मोदी को एक मजबूत नेता के तौर पेश करने की बेहद सधी हुई रणनीति पर काम किया जा रहा है । उनके पक्ष में माहौल बनाने में वो खुद और पार्टी प्राणपन से लगी है । सफलताएं भी मिल रही है । लेकिन हाल में भारतीय जनता पार्टी में दो ऐसी घटनाएं हो गई जो पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है । पार्टी की रणनीति पर ब्रेक लगा सकती है । पहली घटना हुई मध्य प्रदेश में । सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इंदौर के महाकाल मंदिर से चुनाव पूर्व साठ दिनों की अपनी जन आशीर्वाद यात्रा शुरू की । यह यात्रा सूबे के दो सौ उनतीस विधानसभाओं से गुजरेगी । उस यात्रा की आगाज के दौरान पोस्टरों से नरेन्द्र मोदी का नदारद रहना बहुत कुछ कह गया । शिवराज की इस यात्रा की शुरुआत के दौरान लालकृष्ण आडवाणी के पोस्टर बेहद प्रमुखता से लगाए गए । उनके अलावा अटल बिहारी वाजपेयी, पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और यहां तक कि अनंत कुमार के भी पोस्टर लगे लेकिन नरेन्द्र मोदी गायब । जबकि नरेन्द्र मोदी पार्टी की कैंपेन कमेटी के मुखिया हैं । जब शिवराज से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने जवाब टाल दिया । यह कोई चूक नहीं बल्कि एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है । मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सूबे के कामकाज और आगामी विधानसभा और लोकसभा में सफलता का सेहरा किसी और के सिर नहीं बंधने देना चाहते हैं । शिवराज सिंह चौहान का व्यक्तित्व बेहद विनम्र है और वो बड़े बड़े दावों और जुमलों के वीर नहीं हैं लेकिन अपनी बात बेहद दृढता और सोच समझ कर रखते हैं । उन्होंने अपनी जन आशीर्वाद यात्रा का दौरान इस बात को जोर देकर दोहराया कि आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के सर्वोच्च नेता है । उन्होंने यह भी कहा कि आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी में उनके जैसे कई और नेता तैयार किए । इशारा साफ था ।
दरअसल शिवराज सिंह चौहान और मोदी के बीच सबकुछ सामान्य नहीं होने की नींव पार्टी की संसदीय बोर्ड से शिवराज को बाहर रखने के बाद से ही पड़ गई थी । शिवराज सिंह चौहान को जब भी मौका मिलता है वो इस बात को लेकर अपनी नाराजगी प्रदर्शित कर ही देते हैं । लेकिन उनकी नाराजगी का अंदाज अलहदा है । सूबे में विकास के बावत पूछे जाने पर उन्होंने एक इंटरव्यू में तमाम लोगों के साथ जुम्मन का नाम लेते हुए कहा था कि जब तक विकास उस तक नहीं पहुंचता है तब तक वो अर्थहीन है । यहां भी इशारा साफ था । वो समावेशी विकास के पैरोकार हैं । जबकि मोदी तो मुस्लिम टोपी तक पहनने से इंकार करते रहे हैं ।  इसके अलावा अगर हम उत्तराखंड त्रासदी के वक्त के शिवराज सिंह चौहान के ट्वीट देखें तो वहां से भी जो संकेत मिलते हैं वो मोदी के लिए चिंताजनक हैं । उन्होंने ट्वीट किया था कि मध्य प्रदेश सरकार के हेलीकॉप्टर ने उत्तराखंड में फंसे तीर्थयात्रियो को बाहर निकाला बगैर यह देखे कि वो किस राज्य के हैं । यह वो दौर था जब मोदी गुजरात के लोगों को वहां से बाहर निकालने में जुटे थे । उके विरोधी उनको क्षेत्रीय नेता के तौर पर पेश कर रहे थे। इस तरह के माहौल में शिवराज ने ट्वीट कर अपनी पोजिशनिंग एक ऐसे नेता की कर ली जो क्षेत्रीय क्षत्रप से ज्यादा की सोच रखता है।
हलांकि नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आशीर्वाद प्राप्त है लेकिन इस फ्रंट पर भी शिवराज सिंह चौहान को कमजोर कर नहीं आंका जा सकता है । उनकी ट्रेनिंग भी स्वयंसेवक के तौर पर ही हुई है और मध्य प्रदेश में उन्होंने संघ के एजेंडे को बेहतर तरीके से बगैर किसी हो हल्ले के लागू भी किया है । हो सकता है कि संघ शिवराज सिंह चौहान को मोदी के पक्ष में मना ले लेकिन शिवराज को जो संदेश देना था वो उन्होंने दे दिया । जनता और कार्यकर्ताओं के बीच जो संदेश जाना था चला गया । संघ ने मोदी को आगे बढाया है और अब उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वो मोदी-शिवराज के बीच के इस मनभेद को दूर करे । मोदी को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि वो किसी भी चीज को जल्दी भूलते नहीं हैं। वो बातचीत में कहते भी हैं कि माफ कर दो लेकिन भूलो नहीं। उनका यह स्वभाव भी दोनों के बीच की स्थितियों के सामान्य होने की राह में बड़ी बाधा है । 
दूसरी घटना हुई कि पार्टी के वरिष्ठ नेता और वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे शत्रुघ्न सिन्हा ने भी इशारों इशारों में अपना मोदी विरोध जता दिया । शिवराज की ही तरह सिन्हा ने भी आडवाणी को पार्टी का सर्वोच्च नेता करार दिया है । शत्रुध्न सिन्हा पार्टी के उस धड़े को वाणी दे रहे हैं जो यह मानता है कि वो नमोनिया से ग्रस्त नहीं हैं । शत्रुध्न सिन्हा दो दिनों तक गरजते रहे लेकिन पार्टी के बड़े नेताओं ने अध्यक्ष राजनाथ सिंह के विदेश में होने के बहाने की आड़ में इस प्रकरण से पल्ला झाड़े रखा । शत्रुघ्न सिन्हा का बयान इस लिहाज से भी अहम हो गया है कि हाल ही में बिहार में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन टूटा है । दोनों पार्टी के नेता एक दूसरे के खिलाफ जहर उगल रहे हैं । माहौल ऐसा बनता जा रहा है कि चुनाव बाद की स्थितियों में नीतीश कुमार किसी भी कीमत पर मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी को समर्थन नहीं देंगे ।  दरअसल बिहार में बीजेपी अपने दम पर लोकसभा चुनाव में ज्यादा सीटें जीतने का आकलन किए बैठी है । ऐसे माहौल में शत्रु भैया की नाराजगी पार्टी को भारी पड़ सकती है । शत्रुध्न सिन्हा और शिवराज के बयानों से जिस तरह से आडवाणी के लिए शब्द निकल रहे हैं वही चुनाव बाद की स्थितियों में नरेन्द्र मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती हो सकती है ।  लोकसभा चुनाव में अभी तकरीबन दस महीने बाकी हैं । यह देखना दिलचस्प होगा कि भारतीय जनता पार्टी जनता की कांग्रेस से नाराजगी को भुनाने में कामयाब होती है या फिर आपसी महात्वाकांक्षा का शिकार होकर रह जाती है ।

Tuesday, August 6, 2013

आतंक पर सियासत क्यों ?

दिल्ली की अदालत ने आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन के आरोपी शहजाद अहमद उर्फ पप्पू को दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चंद शर्मा के कत्ल का दोषी पाया और उम्रकैद की सजा सुनाई । सजा के ऐलान के बाद एक बार फिर से इस बात पर मुहर लग गई कि दिल्ली का बटला हाउस एनकाउंटर फर्जी नहीं था । अदालत के इस आदेश के बाद बटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी या फिर उसको सवालों के घेरे में लेनेवालों का मुंह फिलहाल बंद हो गया है। पिछले दशक में यह एक फैशन बन गया है कि किसी भी एनकाउंटर पर सवाल खड़े कर पुलिस को ही कठघरे में खड़ा कर दो । चाहे वो नक्सलियों के साथ सुरक्षा बलों का मुठभेड़ हो या फिर आतंकवादियों को मार गिराने का मसला हो । यह बात भी कई बार साबित हुई है कि पुलिस ने आतंकवादियों के नाम पर कई बेगुनाह मुस्लिमों को जेल में बंद कर दिया जो कानूनी लड़ाई के बाद अदालतों से बरी हो गए । कुछ ऐसे मामले सामने आने के बाद यह मान लिया गया कि आतंक के मामले में पुलिस बहुधा एक समुदाय विशेष के लोगों को फंसाने का काम करती है । नतीजा यह हुआ कि अदालतों के फैसलों के खिलाफ भी एक शक का वातावरण तैयार किया जाने लगा । विचारधारा की आड़ में खुद को सेक्युलर या फिर गरीबों के पक्ष में खड़े दिखने की एक होड़ लग गई । इस रोमांटिसिज्म ने देश का बहुत नुकसान किया है । नक्सलियों को भी इसी तरह के रोमांटिसिज्म से ताकत मिलती है। क्योंकर आज नक्सलियों से सहानूभूति रखनेवाला कोई भी उनकी बर्बरता के खिलाफ नहीं बोलता । क्यों नक्सली सरेआम दो लोग का सर काटकर सड़क पर रख जाते हैं लेकिन अपने को बौद्धिक और विचारधारा से संपन्न लोगों के चेहरे पर शिकन तक नहीं आती । यह इसी रोमांटिसिज्म का नतीजा है । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है । हम बात कर रहे थे बटला हाउस एनकाउंटर की ।
बटला हाउस एनकाउंटर के बाद से उसके कांग्रेस के नेताओं ने उसका राजनीतिकरण करने और उससे सियासी फसल काटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । बटला हाउस एनकाउंटर के राजनीतिकरण में कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह अगुवा रहे । बटला हाउस एनकाउंटर के कुछ फोटोग्राफ्स के आधार पर उन्होंने इस मुठभेड़ को शक के दायरे में ला दिया । उन्होंने साफ तौर पर इस मुठभेड़ को फर्जी तो करार नहीं दिया लेकिन उसपर सियासी आंसू बहाकर एक समुदाय विशेष को बरगलाने और उनकी संवेदनाओं को भुनाने का खतरनाक खेल खेला । जबकि उनकी पार्टी के कद्दावर मंत्री पी चिदंबरम इस एनकाउंटर को सही करार दे चुके थे । बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी मुठभेड़ को फर्जी मानने से इंकार कर दिया था । लेकिन राजनेता कहां बाज आने वाले थे । उन्नीस सितंबर दो हजार आठ में दिल्ली के जामियानगर इलाके में हुए इस मुठभेड़ के बाद राजनेताओं ने इस पर जमकर सियासी रोटियां सेंकी । दिग्विजय सिंह और उनकी पार्टी कांग्रेस ने दो हजार दस के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त वोटों के ध्रुवीकरण के लिए बटला हाउस एनकाउंटर को भुनाने की कोशिश की थी लेकिन वहां दांव उल्टा पड़ गया था । कांग्रेस इस बात का आकलन नहीं कर पाई कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को इस बात का एहसास हो गया था कि कांग्रेस वोटों के लिए उनकी भावनाओं के साथ लगातार खिलवाड़ कर रही है । लिहाजा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सौ सीटों पर जीत की उम्मीद पाल रही कांग्रेस का बेहद बुरा हाल हुआ था । कांग्रेस को यह बात समझने की जरूरत है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भी अगर वो वोटों की राजनीति करेगी तो उसका फायदा लंबे समय तक मिलने वाला नहीं है । संवेदनाओं को बार बार नहीं भुनाया जा सकता है ।  सियासी जमात को यह भी सोचना होगा कि ऐसा करके वो एक पूरी जमात को इस बात का एहसास बार-बार दिलाते हैं कि पूरे समाज के साथ इंसाफ नहीं हो पा रहा है । सत्ता हथियाने और अपनी छवि चमकाने के लिए वो देश का बड़ा नुकसान कर देते हैं । एक समुदाय विशेष को अगर बार बार यह एहसास दिलाया जाएगा कि उनके साथ न्याय नहीं हो पा रहा है तो उस समुदाय की राष्ट्र और कानून में आस्था धीरे धीऱे कम होने लगती है । वैसी स्थिति भारतीय भारत के लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक होगी । मंथन तो मुस्लिम समाज को भी करना होगा कि कब तक चुनावी फायदे के लिए हमारे राजनेता उनकी संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे । कब तक उनका इस्तेमाल वोट बैंक के तौर पर होता रहेगा । मुस्लिम समाज को वोट बैंक की राजनीति करनेवालों की पहचान कर उनको सबक सिखाना होगा । मुस्लिम समाज के रहनुमाओं को यह हिम्मत भी दिखानी होगी कि अगर कोई आतंकवादी है चाहे वो किसी भी समुदाय का हो तो उसकी सार्वजनिक निंदा करनी होगी । उन्हें दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं से मुसलमानों की शिक्षा और सामाजिक उत्थान के बारे में सवाल करना होगा । मुस्लिम समाज के नवयुवकों के लिए रोजगार और कारोबार के अवसरों के बारे में पूछना होगा । अगर ऐसा होता है तो ना केवल उस समुदाय की बेहतरी होगी बल्कि मुल्क की जम्हूरियत को भी इससे ताकत मिलेगी ।

Saturday, August 3, 2013

विचारों का वामपंथी फासीवाद

प्रेमचंद की जयंती के मौके पर हिंदी साहित्य की मशहूर पत्रिका हंस की सालाना गोष्ठी राजधानी दिल्ली के साहित्यप्रेमियों के लिए एक उत्सव की तरह होता है । जून आते आते लोगों में इस बात की उत्सुकता जागृत हो जाती है कि इस बार हंस की गोष्ठी के लिए उसके संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार राजेन्द्र यादव किस विषय का चुनाव करते हैं । इस उत्सुकता के पीछे पिछले अट्ठाइस साल से इस गोष्ठी में होने वाला गहन चिंतन और मंथन करनेवाले प्रतिष्ठित वक्ताओं के विचार रहे हैं । पिछले तीन चार सालों से इस गोष्ठी पर विवाद का साया मंडराने लगा है । कई लोगों का कहना है कि राजेन्द्र यादव जानबूझकर विषय और वक्ता का चुनाव इस तरह से करते हैं ताकि विवाद को एक जमीन मिल सके । हो सकता है ऐसा सोचनेवालों के पास कोई ठोस और तार्किक आधार हो, लेकिन इतना तय है कि इस आयोजन में बड़ी संख्या में राजधानी के बौद्धिकों की सहभागिता होती है । पूर्व में हंस पत्रिका की संगोष्ठी में हुए विमर्श की गरमाहट राजधानी के बौद्धिक समाज के अलावा देशभर के संवेदनशील लोगों ने महसूस की । लेकिन इस वर्ष की हंस की संगोष्ठी साहित्य से जुड़े एक ऐसे विषय से जुड़ा है जिसपर साहित्य जगत को गंभीरता से सोचने की आवश्कता है । इस बार की संगोष्ठी ने खुद को हिंदी समाज का प्रगतिशील और जनवादी बौद्धिक तबका करार देने वालों के पाखंड को उजागर कर दिया ।
दरअसल इस पूरे विवाद को समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा । प्रेमचंद की जयंती इकतीस जुलाई को होने वाले इस सालाना जलसे का विषय था- अभिव्यक्ति और प्रतिबंध और वक्ता के तौर पर हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दीक्षित और पूर्व भारतीय जनता पार्टी नेता गोविंदाचार्य, अंतराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका और नक्सलियों की हमदर्द अरुंधति राय, नक्सलियों के एक और समर्थक और कवि वरवरा राव को आमंत्रित किया गया था । वरवरा राव की कविताओं से हिंदी जगत परिचित हो या ना हो लेकिन उनकी ऐसी क्रांतिकारी छवि गढ़ी गई है जो उनको वैधता और प्रतिष्ठा दोनों प्रदान करती है । माओवाद के रोमांटिसिज्म और मार्क्सवाद की यूटोपिया की सीढ़ी पर चढ़कर वो प्रतिष्ठित भी हैं । कार्यक्रम की शुरुआत शाम पांच बजे होनी थी। अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य तो समय पर पहुंच गए । अरुंधति राय और वरवरा राव का घंटे भर से ज्यादा इंतजार के बाद कार्यक्रम शुरु हुआ । पहले तो बताया गया कि वरवरा राव दिल्ली पहुंच रहे हैं और कुछ ही वक्त में सभास्थल पर पहुंच रहे हैं । नहीं पहुंचे । कार्यक्रम के खत्म होने के बाद से सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर चर्चा शुरु हो गई । किसी ने लिखा कि जनपक्षधर कवि वरवरा राव ने हंस के कार्यक्रम का बहिष्कार किया क्योंकि उन्हें गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी के साथ मंच साझा करना मंजूर नहीं था । किसी ने अरुंधति की बगैर मर्जी के कार्ड पर नाम छाप देने को लेकर राजेन्द्र जी पर हमला बोला ।  
यह सब चल ही रहा थी कि सोशल मीडिया पर ही वरवरा राव का एक खुला पत्र तैरने लगा । उस पत्र की वैधता ज्ञात नहीं है लेकिन कई दिनों के बाद भी जब वरवरा राव की तरफ से कोई खंडन नहीं आया तो उस खत को उनका ही मान लिया गया है । उस पत्र में वरवरा राव ने गोष्ठी में नहीं पहुंचने की बेहद बचकानी और हास्यास्पद वजहें बताईं । अपने पत्र में वरवरा राव ने लिखा- मुझे हंस की ओर से ग्यारह जुलाई को लिखा निमंत्रण पत्र लगभग दस दिन बाद मिला । इस पत्र में मेरी सहमति लिए बिना ही राजेन्द्र यादव ने छूटलेकर मेरा नाम निमंत्रण पत्र में डाल देने की घोषणा कर रखी थी । बहरहाल मैंने इस बात को तवज्जो नहीं दिया कि हमें कौन और क्यों और किस मंशा से बुला रहा है । मेरे साथ इस मंच पर मेरा साथ बोलनेवाले कौन हैं । वरवरा राव के इस भोलेपन पर विश्वास करने का यकीन तो नहीं होता लेकिन अविश्वास की कोई वजह नहीं है । भोलापन इतना कि किसी ने बुलाया और आप विषय देखकर चले गए । वरवरा राव ने आगे लिखा कि दिल्ली पहुंचने पर उनको यह जानकर हैरानी हुई कि उनके साथ मंच पर गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी हैं । राव के मुताबिक अशोक वाजपेयी का सत्ता प्रतिष्ठान और कॉरपोरेट से जुड़ाव सर्वविदित है । राव यहीं तक नहीं रुकते हैं और अशोक वाजपेयी की प्रेमचंद की समझ को लेकर भी उनको कठघरे में खड़ा कर देते हैं । इसके अलावा गोविंदाचार्य को हिंदूवादी राजनीति करनेवाला करार देते हैं। गोविंदाचार्च के बारे में उनकी राय सही हो सकती है लेकिन अशोक वाजपेयी के कॉरपोरेट से संबंधों की बात वरवरा राव की अज्ञानता की तरफ ही इशारा करती है । वरवरा राव को अशोक वाजपेयी का सांप्रदायिक राजनीति से विरोध ज्ञात नहीं है । शायद हिंदी के चेले चपाटों ने उन्हें बताया नहीं । खैर अशोक वाजपेयी वरवरा राव से कमतर ना तो साहित्यकार हैं और ना ही उनसे कम उनके सामाजिक सरोकार हैं । अशोक वाजपेयी को राव के सर्टिफिकेट की भी जरूरत नहीं है  । अरुंधति की तरफ से समारोहा में उनके ना आने की वजह का कोई आधिकारिक बयान नहीं आया । लेकिन साहित्यक हलके में यही चर्चा है कि उनको भी गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी के साथ मंच साझा करना मंजूर नहीं था । अरुंधति हंस के कार्यक्रम में पहले भी ऐसा कर चुकी हैं जब उनको और छत्तीसगढ़ के डीजी रहे विश्वरंजन को एक मंच पर आमंत्रित किया गया था । उस वक्त भी वो नहीं आई थी ।  
दरअसल हंस की गोष्ठी के दौरान हुआ यह ड्रामा वामपंथी फासीवाद का बेहतरीन नमूना है । वरवरा राव ने अपने खुले पत्र में खुद की लाल विचारधारा का भी परचम लहराया है । राजसत्ता द्वारा अपनी अपनी प्रताड़ना का छाती कूट कूट कर प्रदर्शन किया है ।  राजेन्द्र यादव भी खुद को वामपंथी रचनाकार कहते रहे हैं लेकिन इस मसले पर वामपंथियों के इस फासीवाद के बचाव में उनके तरकश में कोई तीर है नहीं, बातें चाहे वो जितनी कर लें। राजनीति की किताबों में फासीवाद की परिभाषा अलग है लेकिन लेनिन के परवर्तियों ने फासीवाद की अलग परिभाषा गढ़ी । उसके मुताबिक फासीवाद अन्य लोकतांत्रिक दलों का खात्मा कर पूरे समाज को एक सत्ता में बांधने का प्रयास करता है । फासीवाद के उनके इस सिद्धांत का सबसे बड़ा उदाहरण रूस और चीन हैं जहां लाखों लोगों को कम्युनिस्ट पार्टी और उसके नेता की विरोध की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी । सैकड़ों नहीं, हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया । वामपंथी राजनीति का दुर्गुण ही यही है कि जिसे वो फासीवाद मानते हैं वास्तविकता में उसी को अपनाते हैं । हंस की गोष्ठी में वरवरा राव और अरुंधति का गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी के साथ शामिल नहीं होना यही दर्शाता है । दरअसल यह विचारों का फासीवाद तो है ही एक तरह से विचारों को लेकर अस्पृश्यता भी है । क्या वामपंथी विचारधारा के अनुयायियों के पास इतनी तर्कशक्ति नहीं बची कि वो दूसरी विचारधारा का सामना कर सकें । क्या वाम विचारधारा के अंदर इतना साहस नहीं बचा कि वो दूसरी विचारधारा के हमलों को बेअसर कर सकें । अगर मैं ऑरवेल के डबल थिंक और डबल टॉक शब्द उधार लूं तो कह सकता हूं कि हिंदी समाज के वामपंथी विचारधारा को माननेवाले लोग इस दोमुंहे बीमारी के शिकार हैं । दरअसल सोवियत संघ के विघटन के बाद भी हमारे देश के मार्क्सवादियों ने यह सवाल नहीं खड़ा किया कि इस विचारधारा में या उसके प्रतिपादन में क्या कमी रह गई थी । दरअसल सवाल पूछने की जगह भारत के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने मार्कसवाद की अपने तरीके से रंगाई पुताई की और उसकी बिनाह पर अपनी राजनीति चमकाते रहे । रूस में राजसत्ता का कहर झेलनेवाले मशहूर लेखक सोल्झेनित्सिन ने भी लिखा था- कम्युनिस्ट विचारधारा एक ऐसा पाखंड है जिससे सब परिचित हैं, नाटक के उपकरणों की तरह उसका इस्तेमाल भाषण के मंचों पर होता है ।भारत में इस तरह के उदाहरण लगातार कई बार और बार बार मिलते रहे हैं । एक विचारधारा के तौर पर मार्क्सवाद पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं लेकिन उसको एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता है । लेकिन इस विचारधारा के वरवरा राव जैसे अनुयायी उसको फासीवादी बाना पहनाने पर आमादा हैं । राव और अरुंधति को गोविंदाचार्य और अशोक वाजपेयी के साथ अभिव्यक्ति और प्रतिबंध विषय पर अपने विचार रखने चाहिए थे । अपने तर्कों से दोनों को खारिज करते । लेकिन हमारे समाज में वरवरा राव जैसे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी अब भी मौजूद हैं जो विचारधारा की कारागार में सीखचों के पीछे रहकर प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता प्राप्त कर रहे हैं । इस बार जिस तरह से हंस की गोष्ठी में राव और राय के नहीं आने को लेकर सोशल मीडिया और अखबारों में संवाद शुरू हुआ है उससे तो यही कहा जा सकता है कि हंस की गोष्ठी अब शुरू हुई है और वो विचारों के कारागार से मुक्त है ।