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Saturday, August 31, 2013

कविता का मजबूत कोना

आज हिंदी में एक अनुमान के मुताबिक 500 से ज्यादा कवि लगातार कविताएं लिख रहे हैं । छप भी रहे हैं । उसमें बुरी कविताओं की बहुतायत है । हिंदी में बुरी और स्तरहीन कविताओं के शोरगुल में अच्छी कविताएं कहीं गुम सही हो गई हैं । बुरी और स्तरहीन कविताओं के हो हल्ले में सबसे बड़ा योगदान साहित्यिक पत्रिकाओं या तथाकतइत लघु पत्रिकाओं के संपादकों की समझ का भी है । साहित्यक या लघु पत्रिकाओं के संपादकों ने स्तरहीन कविताओं को छाप-छाप कर अच्छी कविताओं को ओझल कर दिया है । आज हालात ये हो गए हैं कि हिंदी के प्रकाशक कविता संग्रह छापने से कन्नी काटने लगे हैं । मैं दर्जनों स्थापित कवियों को जानता हूं जिन्हें अपना संग्रह छपवाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है । प्रकाशकों की रुचि पाठकों के मूड का पता देती है या फिर यों कह सकते हैं  प्रकाशक जिस विधा की ओर ज्यादा भागते हैं उससे इस बात का संकेत मिलता है कि पाठक इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं । आजकल कविता संग्रह तो छपने ही कम हो गए । कुछ स्थापित कवियों को छोड़ दें तो ज्यादातर कविता संग्रह कवि खुद के श्रम से छपवाता है । हमें इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि  इसकी वजह क्या है । क्या कविता पाठकों से दूर हो गई । क्या विचारधारा विशेष के तहत लिखी गई कविताओं और विचारधारा के बाहर की कविताओं के नोटिस नहीं लेने की वजह से ऐसा हुआ । मुझे लगता है कि कविताओं में क्रांति, यथार्थ, सामाजिक विषमताओं, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श आदि आदि  का इतना ओवरडोज हो गया कि वो आम पाठकों से दूर होती चल गई । मुझे लगता है कि कविता का रस तत्व यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । मेरे सारे तर्क बेहद कमजोर हो सकते हैं लेकिन मैं विनम्रतापूर्वक यह सवाल उठा रहा हूं कि इस बात पर गंभीरता पूर्वक विचार हो कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि जन और लोक की बात करनेवाले लेखक ही बहुत हद तक इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेखक संघों ने जिस तरह से कवियों को अपने पाले में खींचा और उसको बढाया उससे भी कविता को नुकसान हुआ । पार्टी लाइन पर कविताएं लिखी जाने लगी । लेखक संघों के प्रभाव में कई कवि लागातर स्तालिन और ज्दानेव की संकीर्णतावादी राजनीतिक लाइन पर चलते रहे । यह मानते हुए कि पार्टी लाइन न कभी जन विरोधी हो सकती है और ना ही सत्साहित्य विरोधी । जब लेखक संघों का दौर था तब उसी दौर में मुक्तिबोध ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि कलात्मक कृतियों को महत्व देना ही होगा और गैरकलात्मक प्रगतिशील लेखन की आलोचना करनी ही होगी फिर उसका लेखक चाहे कितना ख्यात और प्रसिद्ध क्यों न हो । मुक्तिबोध के मुताबिक छिछली, जार्गनग्रस्त, रूढ और अवसरवादी आलोचना ही सबसे ज्यादा ही प्रगतिशील आंदोलन की पिछले दशकों में हुई क्षति के लिए उत्तरदायी है । ऐसा नहीं है कि हमारे सभी कवि ऐसा ही लिखते रहे । केदार, नागार्जुन और मुक्तिबोध गहरे राजनीतिक सरोकार वाले कवि हैं । केदार ने आंदोलनात्मक राजनीतिक कविताएं लिखी लेकिन लोकजीवन, प्रेम और प्रकृति की विलक्षण कविताएं भी लिखी । केदारनाथ सिंह और रघुवीर सहाय ने भी । दोनों लोकप्रिय भी हुए । लेकिन जो खुद को नक्सलबाड़ी की संतानें कहा करते थे वो उस दौर के साथ ही ओझल हो गए । वजह पर विमर्श होना चाहिए । आज हिंदी को एक निरपेक्ष प्रगतिशीलता की दरकार है जिससे कविता का स्वर्णिम दौर फिर से वापस लौट सके ।
अभी अभी एक दिन डाक से मुझे वरिष्ठ कवि, आलोचक और लंबे समय से साहित्यक पत्रिका अभिप्राय का संपादन कर रहे राजेन्द्र कुमार का कविता संग्रह मिला । अंतिका प्रकाशन से बेहद सुरुचिपूर्ण तरीके से यह संग्रह प्रकाशित है । इस संग्रह को पढ़ने के बाद पता चला कि यह राजेन्द्र कुमार जी का दूसरा कविता संग्रह है । उनका पहला संग्रह 1978 में छपा था । लगभग पैंतीस वर्षों बाद भी राजेन्द्र कुमार की कविताओं का संकलन शैलेय जी ने किया है । इस संकलन के बारे में लिखते हुए शैलेय कहते हैं- इस कविता संग्रह के रूप में राजेन्द्र कुमार की कविताओं को संकलित करना उस काव्य खनिज का उत्खनन करने जैसा रहा जो अन्यथा उनकी डायरियों और विभिन्न पत्र-फत्रिकाओं के पन्नों में ही दबा पड़ा रह जाता । शैलेय ठीक ही कह रहे हैं । राजेन्द्र कुमार ने प्रचुर मात्रा में लेखन किया है लेकिन उनका मूल्यांकन ठीक से नहीं हो पाया है । लेखन में केंद्र पर रहने के बावजूद राजेन्द्र कुमार का लेखन अबतक साहित्यक परिधि पर है । इस पर भी साहित्य के कर्ताधर्ताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए
राजेन्द्र कुमार का नया कविता संग्रह -हर कोशिश है एक बगावत- उनके लगभग पचास वर्षों के लंबे कालखंड में लिखी गई साठ कविताओं का संकलन है । राजेन्द्र कुमार के नये कविता संग्रह-  हर कोशिश है एक बगावत को पढ़ने के बाद लगा कि राजेन्द्र जी का अनुभव संसार और रेंज बहुत व्यापक है लेकिन उनकी कविताओं मेंसमाज और आसपास का परविवेश और उस दौर में घट रही प्रमुख घटनाएं बेहद प्रमुखता से आता है वहां चिड़िया है, फाटक है, सरकारी दफ्तर है, सड़कों का बनना है, मंगफूली के छिलके हैं, आतंकी और आतंकवादी हैं । इन सारे विषयों को कवि ने अपनी कविताओॆ में समेटा है । दो हजार आठ की उनकी दो कविताएं आतंकी और आतंकवादी विशेष रूप से उल्लेखनीय है । आतंकी कविता में आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने और अपने होने को सिद्ध करने की ललक के तौर पर देखते हैं । वहीं आतंकवादी कविता में कवि शुरू में तो उनको हमारी तरह का ही मानते हैं वे सब भी हमारी ही तरह थे/अलग से कुछ भी नहीं, कुदरती तौर पर । इन लाइनों में कुदरती तौर पर शब्द पर गौर किया जाना चाहिए । इसके अलावा इस कविता में कवि ने जो बिंब चुने हैं वो भी बेहतर हैं । जैसे एक जगह वो कहते हैं हवा भी उनके लिए आवाज थी, कोई छुअन नहीं/कि रोओं में सिबरन बन व्यापे/वो सिर्फ कानों में सरसराती रही/और उन्हें लगा कि उन्हें ही तय करना है-/दुनिया में क्या पाक है और क्या नापाक । दोनों कविता में कवि अपनी भावनाओं को व्यक्त करते वक्त बेहद सावधान रहता है और इस बात को लेकर सतर्क भी कविताओं से आतंकवाद का महिमामंडन ना हो । जैसे आतंकवादी कविता के अंत में कहता है- और वो जंग, जिसमें सबकी हार ही हार है/जीत किसी की भी नहीं/उसे वे जेहाद कहते हैं । इसमें दो पंक्तियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए । सबकी हार ही हार है और जीत किसी की भी नहीं । यानी कवि कवि जोर देकर कह रहा है कि आतंकवाद से किसी का भी भला नहीं है ।
इस संग्रह को मोटेतौर पर तीन हिस्सों में बांटा गया है । पहले हिस्से- हर कोशिश है एक बगावत के अलावा दो हिस्सों में कविता के सवाल और कविता के किरदार हैं । एरक बेहद दिलचस्प कविता है- अमरकांत, गर तुम क्रिकेटर होते । इसमें अपने साथी को क्रिकेटर के तौर पर देखना और उसी बहाने तंज करना, यह राजेन्द्र कुमार की कविताओं को एक नया आयाम तो देता ही है एक अलग स्तर पर भी ले जाता है । कविता के किरदार का रेंज बड़ा तो है ही विशेष भी है । उसमें बहादुर शाह जफर भी हैं तो ओसामा बिन लादेन भी हैं । भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा हैं तो अज्ञेय भी हैं । वहीं छन्नन और मनसब मियां भी हैं । राजेन्द्र कुमार के इस कविता संग्रह को पढ़ने के बाद मुझे पर्याप्त आनंद आया और लगा कि इतने घटाटोप भरे कविता समय में भी हिंदी कविता कुछ हाथों में सुरक्षित है । इस बात की जरूरत है कि कविता के आलोचक अच्छी कविताओं को चिन्हित करें और बुरी कविताओं को बहुत ही मजबूती के साथ खारिज करें- लिखित और मौखिक दोनों स्तर पर ।

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