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Thursday, October 24, 2013

महात्वाकांक्षाओं का हवाई गठबंधन

लोकसभा चुनाव के करीब आने की वजह से अगली सरकार के विकल्पों को लेकर अटकलें तेज होने लगी हैं । चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी आगामी लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी या गठबंधन को बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है । यूपीए और एनडीए से ज्यादा सीटें अन्य पार्टियों के खाते में जाती नजर आ रही हैं । इन कयासों के बीच तीसरे मोर्चे की संभावना पर विचार और मेल मुलाकातों का दौर शुरू हो गया है । लोकतंत्र में जनता से किसी भी राजनीतिक दल को ताकत मिलती है । विचारधारा जनता को पार्टी से जोड़ने का काम करती है ।  विचारधारा को जनता तक पहुंचाने के लिए मजबूत पर लचीले संवाहक की जरूरत होती है । संवाहक ऐसा हो जिसकी साख हो और जनता को उस साख पर भरोसा हो । संवाहक की साख ना हो तो विचारधारा में चाहे कितना भी ओज हो, वो जनता के बीच भरोसा पैदा नहीं कर सकती है । तीसरे मोर्चे के संभावित दलों और उनके नेताओं में इतने ज्यादा अंतर्विरोध है कि उनका साथ आना मुमकिन लगता नहीं है । विचारधारा की कोई डोर उनको एकजुट कर नहीं सकेगी । मायावती किसी भी हाल में मुलायम के साथ नहीं जा सकती, नीतीश और लालू एक साथ आ नहीं सकते, लेफ्ट और ममता बनर्जी एक मंच साझा नहीं कर सकते तो सरकार में कैसे शामिल हों , डीएमके और एआईएडीएमके की सत्ता में साझी भागीदारी हो नहीं सकती । वाईएसआर कांग्रेस और तेलगु देशम पार्टी भी एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते । ऐसे में तीसरे मोर्चे की अटकल या संभावना को हकीकत में बदल देना बहुत मुश्किल काम है । हमारे देश ने नब्बे के आखिरी दशक में तीसरे मोर्चे की सरकारों का दौर देखा है । उस दौर की राजनीति को याद करें तो सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के बिना उसकी कल्पना नहीं हो सकती है।  चाहे वो वीपी सिंह की सरकार हो या उसके बाद के लिए चंद चंद महीनों के लिए बनी देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें हों, सबके गठन में हरकिशन सिंह सुरजीत की जबरदस्त भूमिका रही है, बल्कि कह सकते हैं कि उस वक्त देश की राजनीति के सुरजीत धुरी थे । वाम दलों को एकजुट करने के अलावा सुरजीत ने सभी दलों को एकसाथ लाने में महती भूमिका निभाई थी । यह सुरजीत का ही कमाल था कि वी पी सिंह की सरकार को वामपंथी दलों के साथ साथ दक्षिणपंथी दल का भी समर्थन मिला । लेकिन इस वक्त की राजनीति में सुरजीत जैसा कोई विराट राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं है जो तमाम अलग अलग विचारधाराओं और महात्वाकांक्षओं को काबू में कर सके और उनको एक मंच पर ला सकें ।
सुरजीत के निधन के बाद हाल के वर्षों में वाम दलों की जनता के बीच प्रासंगिकता भी लगभग खत्म होती नजर आ रही है । वाम दल तीसरे मोर्च की धुरी बन सकते थे लेकिन ये दल खुद ही हाशिए पर हैं । ऐसा नहीं है कि वाम दल सिर्फ पश्चिम बंगाल में हाशिए पर हैं । बिहार और अन्य सूबों की राजनीति में हमेशा से वामपंथी पार्टियां एक तीसरी ताकत के साथ मजबूती से उपस्थित रही हैं । अब इन सूबों में भी वाम दलों की उपस्थिति नगण्य मात्र है । अगर त्रिपुरा को छोड़ दें तो वो कहीं सत्ता में नहीं है । केंद्र की राजनीति में भी वो अलग थलग पड़े हुए हैं और अपनी भूमिका की तलाश के लिए हाथ-पांव मारते भी नजर नहीं आ रहे हैं । ले देकर सांप्रदायिकता के नाम पर धर्मनिरपेक्ष दलों को एकजुट करने का एक प्रयास हो रहा है । जनता को जोड़ने के बजाए वो नेताओं को जोड़ने में ज्यादा श्रम करते नजर आ रहे हैं । उससे तो यह लगता है कि जिस पार्टी की पहचान ही संघर्ष और जुझारूपन था वही सुस्त पड़ गई है । वाम दलों के नेताओं में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश भी दिखाई नहीं देती । क्या बुर्जुआ से लोहा लेने का नारा बुलंद करनेवाले वाम दलों के नेता खुद बुर्जुआ होकर आराम परस्त हो गए हैं । लंबे समय तक वाम दलों की राजनीति करनेवाले और लोकसभा के पूर्व स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने वाम दलों की इस गत के लिए शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया है । ।
देश में सबसे ज्यादा लोकसभा सीट वाले राज्य उत्तर प्रदेश में हालत सबसे ज्यादा उलझी हुई है । अस्सी सीटों वाले इस सूबे में चतुष्कोणीय मुकाबला होता दिख रहा है । अगर भाजपा को मोदी फैक्टर का लाभ होता है तो उसकी सीटें बढ़ सकती हैं । मायावती और मुलायम की सीटें बीस से तीस के आसपास रहने की उम्मीद है । कांग्रेस को यहां जबरदस्त नुकसान होता दिख रहा है । ऐसे में मुलायम और मायावती को एक साथ लाकर तीसरे मोर्चे के स्वपन को साकार करना टेढी खीर है । अन्य दलों के बीच मुलायम की विश्वसनीयता भी संदिग्ध है । राष्ट्रपति चुनाव के वक्त मुलायम ने जिस तरह से ममता बनर्जी को धोखा दिया था उसको ममता भूल नहीं पाईं होंगी । उधर बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के तीन बड़े नेता की महात्वाकांक्षा भी हिलोरें ले रही हैं । नीतीश कुमार चाहे लाख इंकार करें कि वो प्रधानमंत्री पद की रेस में नहीं हैं लेकिन वो अपने आपको बेहद चालाकी से पोजिशन कर रहे हैं । नीतीश कुमार की रणनीति यह है कि वो अपने आपको नो नानसेंस और विकास पुरुष के तौर पर पेश करें । नीतीश कुमार की दिक्कत यह है कि भाजपा से गंठबंधन टूटने के बाद लोकसभा में उनके सदस्यों की संख्या कम हो सकती है । अगर ऐसा होता है तो उनकी महात्वाकांक्षा पर लगाम लगेगी और उनकी दावेदारी भी कमजोर होगी । उधर ममता बनर्जी के मूड और स्वभाव में उतार चढ़ाव को देखते हुए अन्य पार्टियों के उनके नाम पर सहमत होना संभव नहीं हैं । ले देकर बचते हैं नवीन पटनायक । नवीन पटनायक सौम्य हैं , ओडिशा में उनके शासनकाल में जबरदस्त विकास भी हुआ है । पाइलीन तूफान के वक्त पूरे देश ने उनकी प्रशासनिक क्षमता को भी देखा । इस बात की भी संभावना है कि उनकी पार्टी को लोकसभा में सीटें भी ठीक ठाक आ जाएं । लेकिन नवीन को अगर सबसे समर्थन का भरोसा नहीं होगा तो वो ओडिशा से निकलने में हिचक दिखाएंगें ।

अब इन सबसे अहम बात यह है कि तीसरे मोर्चे की सरकार को भाजपा या काग्रेस के समर्थन की भी जरूरत पड़ेगी । तथाकथित तीसरे मोर्चे की पार्टियों की विचारधारा को देखते हुए इस वक्त यह बात कही जा सकती है कि वो कांग्रेस के करीब है । भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने में ममता बनर्जी से लेकर नीतीश, मुलायम और नवीव पटनायक को दिक्कत होगी । लिहाजा सांप्रदायिकता की दुहाई देकर उनको कांग्रेस का ही समर्थन लेना होगा । अब कांग्रेस की वैशाखी पर चलनेवाली सरकार के सामने यह मजबूरी भी होगी कि उसकी नीतियों से हटे ना । कांग्रेस पार्टी भी अपने समर्थन की जमकर कीमत वसूलेगी । एक सिपाही की तैनाती पर चंद्रशेखर की सरकार गिरा देनेवाली पार्टी लगातार इस कोशिश में रहेगी कि किस तरह से सरकार चला रहे लोगों को डिसक्रेडिट किया जाए और फिर साख के सवाल पर सरकार गिराकर चुनाव के मैदान में ताल ठोंकी जाए । कहावत है कि इतिहास खुद को दोहराता है । लेकिन सवाल यह है कि तीसरे मोर्च की सरकार देश के लिए कितना फायदेमंद है । अभी तक के तीसरे मोर्च की सरकारों का अनुभव देश के लिए बहुत बुरा रहा है । क्षेत्रीय क्षत्रपों की महात्वाकांक्षाओं के टकराव में नीतिगत निर्णयों से लेकर नियमित प्रशासनिक फैसलों में भी देरी होती है जो किसी भी देश के लिए ठीक नहीं है । इन सारी परिस्थियों के मद्देनजर 2014 का चुनाव हमारे लोकतंत्र की मैच्युरिटी का भी टेस्ट होगा । 

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