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Wednesday, October 23, 2013

भागो नहीं बदलो

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के बाद हुए लोकसभा उपचुनाव से लेकर स्थानीय निकायों तक के चुनाव में वामदलों का सूपड़ा साफ होता रहा है । समय समय पर हुए इन चुनावों से साफ तौर पर ये संकेत मिल रहे हैं कि वामपंथी दल बंगाल में अपने को खड़ा नहीं कर पा रहे हैं । या फिर दशकों तक सत्ता पर काबिज रहने की वजह से नेतृत्व का जुझारूपन कुंद हो गया है । या फिर जनता के बीच वाम दलों के कुशासन को लेकर जो गुस्सा था वो कम नहीं हो पा रहा है । हाल के पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकाय चुनावों या फिर लोकसभा उपचुनाव में जिस तरह से वहां वाम दलों के गठबंधन का सूपड़ा साफ हुआ उससे एक बार फिर से वाम दलों के सामने चुनौती खड़ी हो गई है । वामपंथी विचारधारा से मोहभंग को मैं इसकी वजह इसलिए नहीं मानता क्योंकि अगर वो कोई कारक होता तो नतीजे सोवियत रूस के पतन के बाद ही दिखाई देने लगते । मेरी समझ से ये कुशासन का नकीजा है । जनतंत्र के नाम पर जनता के साथ तानाशाही व्यवहार उसकी एक वजह हो सकती है । लोकतंत्र में जनता से किसी भी राजनीतिक दल को ताकत मिलती है । विचारधारा जनता को पार्टी से जोड़ने का काम करती है ।  विचारधारा को जनता तक पहुंचाने के लिए मजबूत पर लचीले संवाहक की जरूरत होती है । संवाहक ऐसा हो जिसकी साख हो और जनता को उस साख पर भरोसा हो । संवाहक की साख ना हो तो विचारधारा में चाहे कितना भी ओज हो लेकिन वो जनता के बीच भरोसा पैदा नहीं कर सकती है । हाल के वर्षों में वाम दलों के साथ ऐसा ही हो रहा है । ऐसा नहीं है कि वाम दल सिर्फ पश्चिम बंगाल में हाशिए पर हैं । बिहार और अन्य सूबों की राजनीति में हमेशा से वामपंथी पार्टियां एक तीसरी ताकत के साथ मजबूती से उपस्थित रही हैं । अब इन सूबों में भी वाम दलों की उपस्थिति नगण्य मात्र है । अगर त्रिपुरा को छोड़ दें तो वो कहीं सत्ता में नहीं है । जिस तरह से केंद्र की राजनीति में भी वो अलग थलग पड़े हुए हैं और अपनी भूमिका की तलाश के लिए हाथ-पांव मारते भी नजर नहीं आ रहे हैं । ले देकर सांप्रदायिकता के नाम पर धर्मनिरपेक्ष दलों को एकजुट करने का एक प्रयास हो रहा है । उससे तो यह लगता है कि जिस पार्टी की पहचान ही संघर्ष और जुझारूपन था वही सुस्त पड़ गई है ।
अगर हम भारतीय राजनीतिक इतिहास में ज्यादा पीछे नहीं जाएं और नब्बे के दशक की राजनीति को याद करें तो सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के बिना उसकी कल्पना नहीं हो सकती है।  चाहे वो वीपी सिंह की सरकार हो या उसके बाद के लिए चंद चंद महीनों के लिए बनी देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें हों, सबके गठन में हरकिशन सिंह सुरजीत की जबरदस्त भूमिका रही है, बल्कि कह सकते हैं कि उस वक्त देश की राजनीति के सुरजीत धुरी थे । अब जबकि लोकसभा चुनाव सर पर आ गए हैं । सात महीने से भी कम वक्त बचे हैं । तमाम तरह के ओपनियन पोल और चुनावी पंडित इस बात के संकेत दे रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है । ऐसे हालात में भी वाम दलों के नेताओं में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश भी दिखाई नहीं देती । क्या बुर्जुआ से लोहा लेने का नारा बुलंद करनेवाले वाम दलों के नेता खुद बुर्जुआ होकर आराम परस्त हो गए हैं । नफरत बहुधा प्यार में बदल जाती है ।
लंबे समय तक वाम दलों की राजनीति करनेवाले और लोकसभा के पूर्व स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने वाम दलों की इस गत के लिए शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया है । सोमनाथ दा ने कहा कि जिस तरह से खेल में हार या जीत का सेहरा कप्तान या कोच के सर बंधता है उसी तरह से राजनीति में भी हार या जीता का सेहरा टीम के कप्तान के सर होना चाहिए । उन्होंने कहा कि फुटबॉल के खेल में लगातार हार के बाद कोच को बदल दिया जाता है उसी तरह से राजनीति में भी लगातार हार के बाद नेतृत्व परिवर्तन होना चाहिए । सोमनाथ चटर्जी का सीधा-सीधा इशारा प्रकाश करात की तरफ था । प्रकाश करात से उनकी अदावत पुरानी है । अमेरिका से परमाणु करार के दौरान पार्टी के हुक्म को नहीं मानने पर करात ने सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा स्पीकर रहते हुए पार्टी से निकाल दिया था । सोमनाथ चटर्जी ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से इस प्रसंग पर लिखा है । उन्होंने प्रकाश करात की तानाशाही के बारे में साफ साफ लिखा है । दरअसल वाम दलों के बारे सोमनाथ चटर्जी ने जो बात कही है या फिर नेतृत्व बदलने की जो राय दी है उसमें एक पुराने कॉमरेड का दर्द झलकता है व्यक्तिगत खुन्नस नहीं । सोमनाथ दा ने इस बात पर भी जोर दिया कि वक्त आ गया है कि वाम दल गंभीर रूप से आत्मविश्लेषण करें । आपको याद होगा कि दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के पहले भी सोमनाथ चटर्जी ने वामदलों की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए उनके हार की भविष्यवाणी की थी, जो लगभग सही साबित हुई थी । अब सोमनाथ चटर्जी जब पार्टी के आत्मविश्लेषण की बात करते हैं तो उसके पीछे पार्टी और उसके नेतृत्व की कार्यप्रणाली में सुधार की बात साफ तौर पर अंडरलाइन की जा सकती है। यह मानने में किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि प्रकाश करात वामदलों के कुनबे को नेतृत्व देने में लगभग नाकाम रहे हैं । उनके पूरे व्यक्तित्व से एक खास किस्म का अभिजात्य स्वरूप प्रतिबिंबित होता है जो सर्वहारा से उनको जोड़ नहीं पाता है । यह भी तथ्य है कि उनके नेतृत्व में लड़े गए सारे चुनावों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा । त्रिपुरा को अपवाद मान सकते हैं क्योंकि वहां के चुनाव में माणिक सरकार पार्टी के चेहरा थे । इसके अलावा प्रकाश करात गैर कांग्रसी और गैर बीजेपी विकल्प की धुरी भी नहीं बन पा रहे हैं । सवाल साख का ही है । सवाल कार्यप्रणाली का भी है । अब भी अगर नहीं चेते तो दो हजार चौदह में कोई नामलेवा भी नहीं बचेगा

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