Translate

Tuesday, November 26, 2013

पांच बरस, सबक सिफर ?

मुंबई पर पाकिस्तानी आतंकवादियों के हमले के पांच बरस बीत गए । जीवित पकड़े गए आतंकवादी कसाब को लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सूली पर लटका दिया गया । लेकिन क्या इन पांच सालों में हमने कोई सबक सीखा है । क्या आज हम दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारी समुद्री सीमा सुरक्षित है । क्या आज हमारी खुफिया एजेंसियां पहले से ज्यादा सतर्क हैं । क्या हम पाकिस्तान को आतंकवाद के मसले पर विश्व राजनीति में घेरने और अलग-थलग करने में नाकाम रहे हैं । क्या अन्य पश्चिमी देशों में मिल रही खुफिया सूचनाओं को गंभीरता से लेते हुए आसन्न खतरे का आकलन कर पा रहे हैं । क्या हमारी सुरक्षा एजेंसियां और पुलिस बल उस तरह के आतंकवादी हमले से निबटने के लिए तैयार है । क्या हमारे राजनेताओं में आतंकवाद से डटकर मुकाबला करने की इच्छाशक्ति दृढ हुई है----आदि आदि कई ऐसे सवाल हैं जो मुंबई हमले के पांच साल बाद भी मुंह बाए खड़े हैं । अगर हमले के वक्त और उसके बाद किए गए दावों की पड़ताल करते हैं तो तस्वीर बहुत संतोषजनक नजर नहीं आती है । मुंबई के होटल ताज, कामा अस्पताल, होटल ट्राइडेंट और लियोपोल्ड कैफे पर दो हजार आठ में हुए हमलों के वक्त हमारे सिस्टम की लापरवाही, लालफीताशाही, प्रशासनिक अड़चनों और नेतृत्व की अदूरदर्शिता ने आतंकवादियों को आराम से तांडव मचाते हुए डेढ सौ से ज्यादा लोगों की जान लेने की छूट दे दी । अभी अभी दो पत्रकार - एड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट क्लार्क की मुंबई हमले पर किताब आई है - द सीज, द अटैक ऑन द ताज । इस किताब में एड्रियन और कैथी ने विस्तार से मुंबई हमले की साजिश, हमले की फूलप्रूफ योजना, हमले के दौरान अपने फोन के जरिए अपने आकाओं से संपर्क में रहने, मुंबई पुलिस की अकर्मण्यता, भारतीय नेताओं के निर्णय लेने की अक्षमता आदि पर विस्तार से लिखा है । द सीज में लेखकद्वय ने लश्कर ए तैयबा के आतंकवादी डेविड कोलमैन हेडली के हवाले से बेहद सनसनीखेडज खुलासे किए हैं । जब डेविड हेडली पाकिस्तान की बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई के संपर्क में था तो उस वक्त उसका ट्रेनर मेजर इकबाल ने उसे भारत से जुड़ी कुछ बेहद अहम और गोपनीय जानकारियों की एक फाइल दी थी । इस किताब में इस बात का भी जिक्र है कि मेजर इकबाल कई बार डेविड हेडली से ये कहता था कि भारतीय सेना और पुलिस में आईएसआई के मुखबिर हैं । इकबाल ने तो एक बार डेविड हेडली को कहा था कि उनका एक सुपर एजेंट- हनी बी-  दिल्ली में है जो उसे लश्कर के नापाक इरादों को अंजाम देने में मदद करेगा । मेजर इकबाल ने डेविड हेडली को यह भी भरोसा दिलाया था मुंबई हमलों की योजना बनाने में भी हनी बी उसकी मदद करेगा । इस किताब में इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि अजमल आमिर कसाब अपने आतंकवादी साथियों के साथ मुंबई के जिस बधवार पार्क इलाके में उतरा था उस जगह को भारतीय मुखबिर हनी बी के ही सहयोग से चुना गया था । बाद में हमले के पहले डेविड हेडली ने भी जाकर उस जगह मुआयना कर उसको परखा था । उसे मुंबई में आतंकवादियों के घुसने के लिए मुफीद पाया था । लेखकों का दावा है कि उन्हें इस किताब को लिखने के दौरान इस बात के पर्याप्त सबूत मिले हैं कि भारत में आईएसआई का ये मददगार हनी बी लंबे वक्त से मौजूद है । अब सवाल यह उठता है कि इस किताब के प्रकाशन के बाद बारत सरकार ने क्या इस बात की तफ्तीश करने की कोशिश की देश का ये गद्दार हनी बी कौन है ।
मुंबई पर हुए हमलों के बाद खुफिया एजेंसियों के बीच सही तालमेल नहीं होने की बात भी उभर कर सामने आई थी । इस बात के सामने आने के बाद सरकार ने नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड का खूब शोर मचाया था लेकिन पांच साल बीत जाने के बाद भी अबतक इस ग्रिड को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है । इस नई किताब के अलावा मुंबई हमले की जांच के लिए बनाई गई प्रधान कमेटी की रिपोर्ट में भी ये बात सामने आई थी कि दो हजार आठ में मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के पहले के पहले अमेरिका ने छब्बीस बार भारत को चेतावनी भेजी थी कि पाकिस्तान और पाक अधिृत कश्मीर में बैठे लश्कर ए तैयबा के आतंकवादी मुंबई को निशाना बना सकते हैं । यह बात प्रधान कमेटी की रिपोर्ट में भी है कि अगस्त दो हजार छह के बाद अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने रॉ और आईबी को कई अलर्ट भेजे कर चेताया था कि आतंकवादी मुंबई के फाइव स्टार होटल पर हमले की योजना बना रहे हैं । एक अमेरिकी अलर्ट में तो ताज होटल और ट्राइडेंट पर हमले का भी जिक्र था । लेकिन भारतीय खुफिया एजेंसियों ने अमेरिका के अलर्ट को नजरअंदाज कर दिया था । वक्त रहते उन चेतावनियों को गंभीरता से लिया जाता और सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा होती तो बहुत मुमकिन है कि ताज में तांडव मचाने से आतंकवादियों को रोका जा सकता था । सुरक्षा जानकारों के मुताबिक अमेरिका ने तो खुले तौर भी कई बार भारत को इस तरह के हमलों से आगाह किया था । अपनी किताब द सीज में एड्रियन और कैथी ने भी इस तरह के संकेत दिए हैं । आतंकवाद और भारत पाकिस्तान के जटिल रिश्तों पर एड्रियन और कैथी की पकड़ और साख बहुत अच्छी है इस वजह से उनके तर्कों को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता है ।
इसके अलावा मुंबई हमलों के वक्त पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठे थे । उस वक्त के पुलिस कमिश्नर हसन गफूर से लेकर कंट्रोल रूम में बैठे आला अफसर राकेश मारिया तक की भूमिका पर सवाल खड़े हुए थे । शहीद अशोक काम्टे की पत्नी विनीता काम्टे ने अपनी किताब द लास्ट बुलेट में कंट्रोल रूम की इस लापरवाही को सूक्षम्ता से उजागर किया है । विनीता ने लंबे संघर्ष के बाद सूचना के अधिकार के तहत जानकारी जुटा कर मुंबई पुलिस के आला अफसरों की लापरवाही और समय रहते फैसले नहीं लेने की क्षमता को उभारा गया है, तथ्यों के साथ । सवाल यह है कि मुंबई पुलिस की इन लापरवाहियों से सबक लेकर भारत के अन्य महानगरों की पुलिस ने कोई सबक लिया है या नहीं । आतंकवादी घटनाओं को रोकना मुमकिन ना हो लेकिन इनसे सबक लेकर सुरक्षा बलों को त्वरित कार्रवाई का पाठ तो पढ़ ही लेना चाहिए ।  लेकिन हाल ही में सीएजी की रिपोर्ट से कई ऐसे खुलासे हुए हैं जो समुद्री सीमा पर हमारी लचर पुलिस व्यवस्था की पोल खोलती हैं । समुद्री सीमा पर निगरानी रखने के लिए उन इलाकों में 27 रडार लगाने का काम भी दो हजार सोलह तक पूरा होने की उम्मीद जताई जा रही है ।
मुबई हमले के पांच बरस के बाद हम ये कह सकते हैं कि हमने सुरक्षा को लेकर कई इंतजाम किए लेकिन क्या ये इंतजाम काफी हैं । क्या पाकिस्तानी एजेंसियों से प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे आतंकवादियों से निबटने के लिए हम पूरी तरह से तैयार हैं । दरअसल हमें तैयारी इस बात की और इस आधार पर करनी होगी कि हमारे देश में आतंक फैलानेवालों को एक ऐसे देश का समर्थन है जो यह मानता नहीं है लेकिन बार बार बेनकाब होता है । जरूरत इस बात की भी है कि पाकिस्तान को अंतराष्ट्रीय मंच पर कूटनीतिक तौर पर भी घेरा जाए । चौतरफा प्रयत्नों से ही देश में आतंकवादी घटनाओं को रोका या कम किया जा सकता है । मुंबई हमला एक सबक था लेकिन क्या हमने उस खतरनाक और खूनी सबक से कुछ सीखा । वक्त इंट्रोस्पेक्शन का भी है ।

Friday, November 15, 2013

दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी

दक्षिण दिल्ली के एक प्रतिष्ठित और मशहूर स्कूल से एक बार फिर से दिल दहला देनेवाली खबर आई खबर ये जिसका सरोकार देश के हर प्रांत से है। हर घर से है हर माता पिता से है स्कूल में एक शिक्षक ने स्टॉफ रूम में पांचवी कक्षा की बच्चियों का यौन शोषण किया इससे भी ज्यादा चिता की बात यह है कि स्कूल में ही बच्चों यौन शोषण लंबे समय से चल रहा था शिक्षक के नाम पर कलंक उस शख्स ने स्कूल के कई बच्चों का यौन शोषण किया। एक मामला सामने आने के बाद कई अभिभावकों ने स्कूल प्रशासन और पुलिस से शिकायत की है शिक्षक के खिलाफ केस दर्ज होने के बाद कई अभिभावकों की शिकायत सामने आने से फिर वही सवाल खड़ हो गया है क्या अभिभावकों को पहले से इस बात ी जानकारी थी और वो बदनामी के डर से मामले को छोटा मानकर भुला चुके थे क्या बच्चों को उस तरह से शिक्षित नहीं किया जा रहा है जिसमें उन्हें यौन शोषण के बारे में जागरूक किया जाए । स्कूलों में बच्चों के साथ यौन शोषण के मामलों में बहुधा यह देखने में आता है कि जब माता पिता स्कूल में शिकायत लेकर जाते भी हैं तो स्कूल प्रशासन जांच की बात कहकर मामले को दबा देता है । परोक्ष रूप से अभिभावकों को भी स्कूल का नाम खराब होने की दुहाई या धमकी देकर मुंह बंद रखने की हिदायत दी जाती है । बच्चों के खिलाफ यौन शोषण को रोकने के लिए पिछले साल लागू हुए प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड अगेंस्ट सेक्सुअल ओफेंस एक्ट (पॉक्सो ) में आरोपियों को बचाने वालों या केस को दबाने की कोशिश करने या फिर केस बिगाड़नेवालों के लिए छह महीने की सजा का प्रावधान है लेकिन स्कूल या संस्थान के खिलाफ किसी कार्रवाई का प्रावधान नहीं है । इस वजह से स्कूल प्रशासन ज्यादातर ऐसे मामलों को आपसी समझौतों से दबा देने में ही बेखौफ होकर जुटा रहता है । समान्यतया अभिभावक भी बच्चों को स्कूल में आगे दिक्कत ना हो, यह सोचकर हालात से समझौता कर लेते हैं । इसी समझौते से अपराधियों को ताकत मिलती है । उसे लगता है कि स्कूल परिसर में अपराध करने से प्रशासन उसको दबाने में जुट जाएगा । लिहाजा वो इस तरह के अपराध के लिए स्कूल के कोने अंतरे को ही चुनता है । दक्षिण दिल्ली के स्कूल में हुई वारदात में भी इस बात की जांच होनी चाहिए कि क्या आरोपी शिक्षक के खिलाफ पहले कोई शिकायत की गई थी । अगर इस तरह की कोई शिकायत पहले आई थी और स्कूल प्रशासन ने कार्रवाई नहीं की थी तो स्कूल के कर्ताधर्ताओं के खिलाफ भी पॉक्सो की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए । इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि आरोपी शिक्षक स्कूल के स्टॉफ रूम को अंदर से बंद कर बच्चों का यौन शोषण करता रहा और इतने लंबे समय तक कैसे स्कूल प्रशासन को इस बात की भनक नहीं लगी । क्या स्टॉफ रूम हर वक्त खाली रहता था या फिर आरोपी ने कुछ ऐसा वक्त चुना था जब वहां कोई मौजूद नहीं रहता था । पड़ताल तो इस बात की भी होनी चाहिए कि जब वो किसी बच्चे को उसके क्लास से बुलाता था तो वर्ग शिक्षक पूछताछ क्यों नहीं करते थे ।

स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण की वारदात को अंजाम देनेवाले अपराधी दरअसल सेक्स कुंठा के शिकार होते हैं और मनानसिक रूप से विकृत भी । मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक वो सेक्सुअल प्लेजर के लिए बच्चों को अपना शिकार बनाता है । यह एक ऐसी मानसिकता जो अपराधी को वारदात अंजाम देने के बाद एक खास किस्म का रोमांच देता है । इस तरह के अपराधी ,आम अपराधियों से ज्यादा शातिर होते हैं । उन्हें इस बात का अंदाज होता है कि स्कूल उसके अपराध को तूल नहीं देगा । लिहाजा वो इसमें नहीं हिचकता है । सवाल यह है कि स्कूल की क्या जिम्मेदारी है । क्या कोई भी स्कूल यह कहकर पल्ला झाड़ सकता है कि अमुक शख्स ने वारदात को अंजाम दिया और कानून के हिसाब से उसको सजा मिलेगी । स्कूल की यह जिम्मेदारी भी है कि उसके परिसर में या फिर स्कूल आने और जाने के वक्त बस में बच्चे सुरक्षित रहें । बच्चों की समय समय पर काउंसलिंग भी होनी चाहिए ताकि उनके खिलाफ हो रहे इस तरह के अपराध उजागर हो सकें । बच्चों को इस तरह के अपराध के बारे में जागरूक करने के लिए स्कूल के साथ साथ अभिभावकों की भी जिम्मेदारी लेनी होगी । अभिभावकों को तो अपराध के बाद साहस के साथ सामने आना होगा । इस तरह के अपराध को रोकने के लिए कानून से ज्यादा जरूरी है जागरूकता । स्कूलों में एक नियमित अंतराल पर शिक्षकों के लिए भी काउंसलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वो भी जागरूक हो सकें । कानून का भय और समाज में जागरूकता को बढ़ाकर ही हम बच्चों के खिलाफ इस तरह के घिनौने कृत्यों को रोक सकते हैं । इस काम में देश के हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वो अपनी भूमिका निभाए । अगर हम ऐसा कर पाएं तो देश के भविष्य के बेहतर बना सकते हैं । बच्चों को देश में सुरक्षित माहौल देना हमारा दायित्व ही नहीं कर्तव्य भी है । 

Sunday, November 10, 2013

मेला नहीं,सांस्कृतिक आंदोलन

संस्कृति के चार अध्याय में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है- विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं होती, जिसका विस्फोट अचानक होता हो । घाव फूटने से पहले बहुत काल तक पकता रहता है । विचार भी. चुनौती लेकर खड़े होने के पहले वर्षों तक अर्धजाग्रत अवस्था में फैलते रहते हैं । आज से तकरीबन साठ वर्ष पहले दिनकर ने वैदिक धर्म के खिलाफ खुले विद्रोह की परिणिति के तौर पर जैन और बौद्ध धर्म को परिभाषित करते हुए कही थी ।  दिनकर का यह कथन उनके गृह प्रदेश बिहार की पुस्तक संस्कृति और सांस्कृतिक जागरण के संदर्भ में दोहराई जा सकती है । पटना पुस्तक मेला ने खुद को सांस्कृतिक आंदोलन में बदलने और सूबे के अलावा पूरे देश में अपनी पहचान स्थापित करने में सफलता प्राप्त की है । दिनकर के उक्त कथन के आसपास ही बिहार में पुस्तक मेले को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई थी । साठ के दशक में ही पटना में एक पुस्तक प्रदर्शनी लगी थी उसके बाद रुक रुक कर लंबे-लंबे अंतराल के बाद पटना में पुस्तक मेले का आयोजन होता रहा । कभी केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने तो कभी नेशनल बुक ट्रस्ट ने तो कभी पुस्तक व्यवसायी संघ ने पटना में पुस्तक मेले का आयोजन किया । हर बार बिहार की जनता ने अपने उत्साह से आयोजकों को फिर से पुस्तक मेला आयोजित करने के लिए बाध्य किाय । लेकिन फिर भी निरंतरता नहीं बन पाई थी । अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों में इस बात की जरूरत महसूस की गई कि कोई एक संगठन नियमित तौर पर पटना में पुस्तक मेले का आयोजन करे । बिहार शैक्षिक संघ बना और उन्नीस सौ नब्बे में 14 दिनों तक चलनेवाले पुस्तक मेले का आयोजन किया गया । यह पुस्तक मेला इतना सफल रहा कि 1991 और 1992 में आयोजित किया गया । फिर तो पुस्तक मेला बिहार के सांस्कृतिक कैलेंडर में स्थायी हो गया । कालांतर में यह एक वर्ष रांची और एक वर्ष पटना में आयोजित होने लगा । हर साल यह आयोजन दोनों जगहों पर सफल होता रहा । मुझे याद है कि पटना पुस्तक मेले की चर्चा पटना से दूर गांवों और कस्वों तक पहुंचने लगी थी। इस काम में बिहार के दैनिक अखबारों ने भी बड़ी भूमिका निभाई है । तमाम शिक्षाविद यह कहते हैं कि लड़के स्कूल और कॉलेज छोड़कर या भागकर फिल्में देखने चले जाते हैं लेकिन कोई भी स्कूल कॉलेज से भागकर पुस्तकालय या फिर पुस्तकों के पास नहीं पहुंचता है । यह बात सत्य हो सकती है पर हमारा अनुभव बिल्कुल अलहदा है । हम तो कलेज छोड़कर अपने दोस्तों के साथ 1992 के पुस्तक मेला को देखने तकरीबन सवा दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके भागलपुर से पटना पहुंचे थे । दो तीन दिनों तक पुस्तक मेले में खरीदारी की थी । वहीं कई हिंदी के प्रकाशकों के स्टॉल पर जाकर पुस्तक क्लब आदि की सदस्यता भी ली थी । मेरे जैसे जाने कितने नौजवान बिहार के दूर दूर के गांवों कस्बों से पटना पुस्तक मेले में पहुंचे थे । बिहार की बारे में मान्यता है कि वहां सबसे ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं बिकती हैं । लोग सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यक रूप से जागरूक हैं । यह हकीकत भी है । यहां के लोग सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं उसपर बेहिचक अपनी राय भी देते हैं । बिहार में इस जागरूकता को और फैलाने और नई पीढ़ी की पढ़ने की रुचि को संस्कारित करने में पटना पुस्तक मेला ने बेहद सकारात्मक और अहम भूमिका निभाई है । बिहार ने इस स्थापना को भी निगेट किया है कि युवा साहित्य नहीं पढ़ते या युवाओं की साहित्य में रुचि नहीं है । पटना पुस्तक मेले के दौरान युवाओं की भागीदारी और उनके उत्साह को देखकर संतोष होता है कि पाठक बचे हैं जरूरत सिर्फ उनतर पहुंचने के उपक्रम की है ।
ऐसा नहीं है कि पटना पुस्तक मेला के आयोजन में बाधा नहीं आई । दो हजार में पटना जिला प्रशासन ने आयोजन स्थल गांधी मैदान के आवंटन के लिए व्यावसायिक दर से शुल्क मांगा जो कि इतना ज्यादा था कि आयोजकों को स्थान बदलने पर मजबूर होना पड़ा । पुस्तक मेला पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से हटकर शहर के एक दूसरे छोर पर स्थित पाटिलपुत्रा कॉलोनी के मैदान जा पहुंचा । गांधी मैदान ना देने का फैसला सरकारी अफसरों की संवेदनहीनता का नमूना था । यह एक ऐसा कदम था जिसकी तुलना हम 1930 के बदनाम बुक बर्लिन ब्लास्ट के साथ कर सकते हैं । 1930 का वह दौर हिटलर के उत्थान और ताकतवर होने का दौर था । नाजीवादी यह मानते थे कि साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है और भावना लोगों को दुर्बल बना देती है । उनका मानना था कि अगर जर्मनी को दुनिया फतह पर करना है तो कमजोर लोगों से काम नहीं चल सकता । लिहाजा विश्व साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों को बर्लिन विश्वविद्यालय के विशाल प्रांगण में जला दिया गया था । इसे बुक बर्लिन ब्लास्ट कहते हैं । हिटलर के पतन के बाद इस घटना की जोरदार प्रतिक्रिया हुई । जिस दिन किताबें जलाई गई उसी दिन अब हर साल बर्लिन विश्वविद्यालय के उसी जगह को विश्व भर की किताबों से पाट दिया जाता है । उन लेखकों के नाम लिखे जाते हैं जिनकी किताबें 1903 में जला दी गई थी । बर्लिन में उस दिन को किताब उत्सव की तरह मनाया जाता है । हर जगह पर लोग किताब पढ़कर एक दूसरे को सुनाते हैं, रेस्तरां से लेकर फुटपाथ तक, चौराहों से लेकर पार्कों तक में । यह विरोध का एक तरीका है । बर्लिन की तरह ही पटना के लोगों ने भी गांधी मैदान से पुस्तक मेले को हटाने का जोरदार विरोध किया था । शहर में जुलूस निकले थे । लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के जबरदस्त विरोध में सरकार ने नियमों में बदलाव कर पुस्तक मेला के लिए विशेष इंतजाम किया । ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी मैदान से पुस्तक मेले को हटाने की प्रतिक्रिया में ही वहां हर साल यह आयोजन होने लगा । बागीदारी भी बढ़ी और पुस्तक मेले का दायरा भी । पुस्तकों से आगे जाकर उसने सांस्कृतिक आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर ली । पटना पुस्तक मेले में लेखकों, पत्रकारों और विशेषज्ञों के साथ विषय विशेष पर विमर्श भी होते हैं । फिल्मों पर गंभीर चर्चा के अलावा मेले के दौरान फिल्मों पर एक कार्यक्रम बाइस्कोप भी होता है । इसमें किसी एक थीम पर हर दिन एक फिल्म का प्रदर्शन होता है। पटना पुस्तक मेला ने सूबे में समाप्तप्राय नुक्कड़ नाटक को एक विधा के तौर फिर से संजीवनी प्रदान की।
एक ओर जहां देशभर में लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य के मीना बाजार में तब्दील होते जा रहे हैं । जहां साहित्य और साहित्यकार को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का खेल खेला जा रहा है । साहित्य और संस्कृति की आड़ में मुनाफा कमाने का उद्यम हो रहा है ,ऐेसे माहौल में पटना पुस्तक मेला देश की साहित्यक सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के अभियान में जुटी है । पटना पुस्तक मेला में देशभर के बुद्धिजीवियों की भागीदारी उसको एक व्यापक फलक भी प्रदान करती है । हिंदी के तमाम साहित्यकरों और संस्कृतिकर्मियों को भी इस मेले में सहभागिता से चीजों को देखने की एक नई दृष्टि मिलती है । अब जरूरत इस बात की है कि पटना पुस्तक मेले को भारत सरकार अपने सांस्कृतिक कैलेंडर में शामिल करे और विश्व के साहित्यक पर्यटकों को यहां बुलाने का उद्यम करे । अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को विश्व के स्तर पर पहचान भी मिलेगी और शोहरत भी । जरूरत तो इस बात की भी है कि बिहार सरकार इस पुस्तक मेले को बिहार के गौरव के साथ जोड़कर प्रचारित करे ताकि बिहार की गंभीर छवि से पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों का परिचय हो सके ।

करिश्मे के केजरीवाल

एक पार्टी है आम आदमी पार्टी । उसके नेता है अरविंद केजरीवाल । केजरीवाल दिल्ली में विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं । उनका दावा है कि वो चुनाव जीतेंगे । वो अपने अलावा सभी को नेताओं को भ्रष्ट मानते हैं । पहले अन्ना हजारे के साथ थे । अब नहीं हैं । पहले अरुणा राय के साथ थे । अब नहीं हैं । पहले रामदेव और किरण बेदी के साथ थे । अब नहीं हैं । यह सूची उनके सार्वजनिक जीवन के महीनों की संख्या से लंबी है । केजरीवाल वैकल्पिक राजनीति का स्वप्न दिखाते हैं । वो सार्वजनिक जीवन में शुचिता और पारदर्शिता की बात करते हैं । भ्रष्टाचार के घुन से देश को बचाना चाहते हैं । वो गर्व के साथ ये ऐलान करते हैं कि उनकी आम आदमी पार्टी जाति, धर्म, संप्रदाय आदि आदि से अलग हटकर काम करती है । उन्होंने दिल्ली चुनाव के पहले ये भी ऐलान किया था कि विधानसभा क्षेत्र की जनता ही उम्मीदवारों का चुनाव करेगी । कुछ ऐसा दिखाने का यत्न भी किया गया । लेकिन कई विधानसभा क्षेत्र के उम्मीदवारों के नाम जनता की अदालत में जाने से पहले ही सामने आ गए । यह सब बताने का मकसद यह है कि अरविंद केजरीवाल जो भारतीय राजनीति में जरा अलग हटकर दिखने की युक्ति करते हैं दरअसल वो भी भारतीय राजनीति व्यवस्था का ही एक हिस्सा हैं सिर्फ अपनी पैकेजिंग अलग तरीके से की है । पैकेजिंग अलग होने के साथ साथ आकर्षक भी है जो बहुधा लोगों को पहली नजर में लुभाती भी है ।
जैसे जैसे दिल्ली चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है वैसे वैसे आम आदमी पार्टी की वैकल्पिक राजनीति की पैकेजिंग की असलियत सामने आने लगी है । अभी हाल ही में केजरीवाल ने बरेली जाकर विवादित मुस्लिम नेता तौकीर रजा से मुलाकात की । तौकीर रजा दो हजार दस के बरेली दंगों के दौरान भड़काऊ भाषण देने के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं । उसके पहले निर्वासित बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन के खिलाफ फतवा जारी कर उनको किताबें जलाने की नसीहत दे चुके हैं । पहले तो केजरीवाल ने बेहद मासूमियत से तौकीर रजा के अतीत के बारे में जानकारी होने से इंकार करते रहे । अब अपनी उस मुलाकात को संयोग से घटित होना बता रहे हैं । उनकी राय है कि तौकीर रजा बरेली इलाके के प्रतिष्ठित और सम्मानित शख्सियत हैं, लिहाजा वो उनसे मिलने चले गए । उधर मौलाना तौकीर ने कहा कि केजरीवाल उनसे मिलने उनके घर पर आए थे। मौलाना के मुताबिक चूंकि केजरीवाल बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ हैं लिहाजा उनके विचार मिलते जुलते हैं । वो केजरीवाल की सादगी पर भी फिदा हो गए । जब विचार भी मिले और शख्सियत भी पसंद आ जाए तो फिर समर्थन लाजमी है, सो मौलाना ने केजरीवाल को समर्थन का भरोसा दे दिया । यही भरोसा केजरीवाल की छवि की चमक को फीकी कर गया । सभी राजनीतिक दलों से अलग तरीके की राजनीति का दावा करनेवाले केजरीवाल भी वोट के लिए तुष्टीकरण के दलदल में जा घुसे । ये पहला मौका नहीं है जब केजरीवाल ने ऐसा किया है । अगस्त 2011 में अन्ना हजारे के रामलीला मैदान के अनशन के दौरान भी जब जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने उस आंदोलन को गैर इस्लामिक करार दिया था तो उसके बाद मंच पर टोपीधारी मुसलमानों की संख्या बढ़ी थी और रामलीला मैदान शाम की नमाज के बाद रोजा इफ्तार शुरू हुआ था । अन्ना आंदोलन पर किताब लिखनेवाले आशुतोष ने अपनी किताब में इस पूरे प्रसंग को सस्ता राजनीतिक हथकंडा करार दिया है । रामलीला मैदान में अन्ना हजारे का अनशन तुड़वाने के लिए भी एक दलित और एक मुस्लिम बच्ची का लाया गया था । संदेश साफ है । अरविंद केजरीवाल का हर कदम सोच समझकर एक संदेश देने के लिए उठता है । कुछ दिनों पहले बटला हाऊस एनकाउंटर पर भी सवाल खड़े हुए थे ।
दरअसल अगर हम अरविंद केजरीवाल की यात्रा को देखें तो एक बात साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है कि ये शख्स बेहद जल्दी में है । हो सकता है सत्ता पाने की भी जल्दी भी हो । अरविंद में लोगों को इस्तेमाल कर लेने की अद्भुत क्षमता भी है । जब लोकपाल के मुद्दे पर अरुणा राय ने उनको थोड़ा इंतजार की सलाह दी तो वो अन्ना हजारे को ढूंढ लाए । अन्ना की गांधी टोपी और निर्दोष व्यक्तित्व के सहारे आगे बढ़े । ना सिर्फ आगे बढ़े बल्कि अन्ना के आंदोलन के दौरान इस बात को भी योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ाया कि असल रणनीतिकार वही हैं । जब खुद को स्थापित कर लिया तो अन्ना नेपथ्य में चले गए । अन्ना के नेपथ्य में जाने के बाद अन्ना के आसपास के उन सभी लोगों को किनारे लगाना शुरू किया जो अन्ना के भी करीब थे और अरविंद केजरीवाल से बराबरी पर बात कर सकते थे । अन्ना आंदोलन में अरविंद के साथ हर मौके पर कंधे से कंधा मिलाकर चलनेवाली किरण बेदी हों या फिर अन्ना आंदोलन के दौरान पर्दे के पीछे से सोशल मीडिया संभालने वाले शिवेन्द्र सिंह हों सभी एक एक कर हाशिए पर धकेल दिए गए । ठीक उसी तरह से जिस तरह से इंदिरा गांधी ने अपने राजनैतिक प्रतिद्वदियों को किनारे लगा दिया । उनकी टोपी भी मैं अन्ना हूं से मैं आम आदमी हूं । बहुत संभव है कि चंद दिनों बाद उसपर लिखा हो- मैं केजरीवाल हूं ।  
अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति की शुरुआत से ही बड़े लोगों के खिलाफ शक पैदा कर आगे बढ़ने की रणनीति अपनाई । खुलासा दर खुलासा किया । बड़े उद्योगपति से लेकर राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष के दामाद तक पर सनसनीखेज आरोप लगाए । एक से एक संगीन इल्जाम ।  उन आरोपों को अंजाम तक पहुंचाने की मंशा नहीं थी । तर्क ये कि जाचं का काम तो एजेंसियों का है । लेकिन क्या अपने आरोपों पर अरविंद ने कभी भी पलटकर सरकार से ये पूछने कि कोशिश की कि क्या हुआ । वो सिर्फ सनसनी के लिए थे लिहाजा वो सनसनी पैदा कर खत्म होते चले गए । तात्कालिक फायदा यह हुआ कि अरविंद केजरीवाल देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ योद्धा के तौर पर स्थापित होते चले  गए । लोगों के मन में एक उम्मीद जगी कि ये शख्स अलग है । कुछ कर दिखाना चाहता है । लेकिन तौकीर रजा से समर्थन मांग कर अरविंद केजरीवाल देश के बाकी अन्य दलों के साथ उसी कतार में खड़े हो गए जो वोट की खातिर कुछ भी कर सकता है । कहीं भी जा सकता है । उसे चाहिए बस वोट जो सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी की बुनियाद मजबूत कर सके । दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले इस तरह की रणनीतिक चूक केजरीवाल पर कितना भारी पड़ेगा इसके लिए हमें आठ दिसंबर तक इंतजार करना पड़ेगा जिस दिल्ली चुनावों के नतीजे आएंगे । तब तक के लिए एक सपने के टूटने और छले जाने की टीस दिल में रह रहकर हूक बनकर उठती रहेगी ।

Friday, November 8, 2013

अपने अपने पटेल

पहले नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में ये बयान दिया कि सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते को देश की तस्वीर कुछ अलग होती । अब लालकृष्ण आडवाणी ने एक किताब के हवाले से अपने ब्लॉग में लिखा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल को सांप्रदायिक कहा था । आडवाणी ने एक किताब के हवाले से लिखा है हैदराबाद का निजाम पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था । इस बाबत उसने अपने एक प्रतिनिधि को पाकिस्तान भी भेजा था, साथ में काफी धन भी । पटेल ने इन बातों का जिक्र कैबिनेट की बैठक में किया और मंत्रिमंडल के सामने सुझाव रखा कि हैदराबाद के शासन को भारत के अधीन करने के लिए वहां सेना भेजी जानी चाहिए । पटेल के इस प्रस्ताव पर नेहरू ने उनसे कहा कि आप पूरी तरह से सांप्रदायिक हैं और मैं आपकी सिफारिश कभी नहीं मानूंगा । दरअसल हम अगर मोदी के बयान और आडवाणी के ब्लॉग को देखें तो एक महीन रेखा उभर कर सामने आती है । वो रेखा यह है कि नेहरू के बरक्श पटेल को खड़ा करने की कोशिश । सरदार पटेल आजाद भारत के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे । भारत को एक करने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई । लेकिन नेहरू को नीचा दिखाकर पटेल को ऊंचा दिखाने की जो राजनीति चल रही है दरअसल वो तथ्यों से परे है । इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की कोशिश है । अब अगर हम बिना संदर्भ जाने किसी भी पत्र के कुछ चुनिंदा हिस्सों को पेश कर उसके आधार पर राय बनाते हैं तो हम तार्किक दोष के शिकार हो जाते हैं । आडवाणी भी उसी फैलेसी के शिकार हो गए लगते हैं । आडवाणी जिस किताब के प्रसंग का हवाला दे रहे हैं उसमें ये प्रसंग 1949 का है । उसी साल नेहरू पर एक किताब में पटेल ने उनको देश की जनता के आदर्श, जननेता और जननायक जैसे विशेषणों से नवाजा था । पटेल ने लिखा कि उनसे बेहतर नेहरू को कोई समझ नहीं सकता । उनके मुताबिक वो ही जानते हैं कि आजादी के बाद के दो सालों में नेहरू ने देश को कठिन परिस्थितियों से ऊबारने के लिए कितनी मेहनत की और .ह नेहरू की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि भारत हर क्षेत्र में एक देश के तौर पर अपनी पहचान बनाने लगा था । पटेल के मुताबिक इन दबाबों का असर नेहरू की उम्र पर दिखाई देने लगा है । पटेल ने लिखा कि उम्र में बड़े होने की वजह से वो हमेशा नेहरू को अहम मसलों पर राय देते हैं । कई बार उनकी राय से वो असहमत भी होते हैं लेकिन ध्यानपूर्वक सुनते हैं और अपने तर्कों से सामनेवाले को राजी करने की कोशिश करते हैं । मतलब यह है कि पटेल यह कहना चाहते हैं कि नेहरू बेहद लोकतांत्रिक थे और विचारों में मतभेद को डिस्कोर्स में जगह देते थे । अगर हम उस वक्त के नेहरू के मंत्रिमंडल को देखें तो पता चल जाएगा कि किस तरह से नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में सभी विचारों को प्रतिनिधित्व दिया था ।  
पटेल और नेहरू में तमाम मुद्दों पर मतभेद थे, कई मसले पर दोनों की राह एकदम जुदा थी । लेकिन दोनों इस बात से इत्तफाक रखते थे कि उनकी जोड़ी  इस देश के बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक है । गांधी जी की हत्या के बाद पटेल बेहद क्षुब्ध थे और उनके मन के कोने अंतरे में यह बात घर करने लगी थी कि देश के गृहमंत्री होने के नाते गांधी को नहीं बचा पाने की जिम्मेदारी उनकी भी बनती है । इस मनस्थिति में पटेल गृहमंत्री का पद छोड़ने के बारे में विचार भी करने लगे थे । पटेल की मनोदशा को भांपते हुए जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी की हत्या के चार दिन बाद चार फरवरी 1948 को उनको पत्र लिखा । पत्र में नेहरू ने लिखा कि -पिछले 25 सालों के दौरान हम दोनों ने कई झंझावातों को साथ झेला है । उन मुश्किल भरे दौर में आपकी सूझबूझ ने मेरे मन में आपकी इज्जत बढ़ाई है और कोई भी और कुछ भी इसको कम नहीं करा सकता । गांधी जी की मौत के बाद हमें एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्धता और आपसी विश्वास को उसी स्तर पर मजबूत बनाए रखना होगा । मेरा अब भी आपमें गहरा विश्वास है । नेहरू के उत्तर में पटेल ने जो लिखा वो सारी शंकाओं को दूर करने के लिए काफी है । पटेल ने लिखा- हम दोनों लंबे समय से साथी हैं । हमारे बीच तमाम मतभेदों के बावजूद देशहित सर्वोपरि रहा है । बापू की इच्छा भी हम दोनों के लिए मायने रखती है लिहाजा इन बातों के आलोक में मैं अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करूंगा । दोनों के बीच के इस पत्र व्यवहार के बाद इनके संबंधों की कोई भी व्याख्या बेमानी होगी ।  
दरअसल अगर हम पूरे मसले को समग्रता में देखें तो कांग्रेस की अपने नायकों की उपेक्षा ने बीजेपी को उन्हें भुनाने का अवसर दे दिया है । नेहरू-गांधी परिवार के महिमामंडन में कांग्रेस ने अपने नायकों को दरकिनार कर दिया चाहे वो सरदार पटेल हों, डॉ राजेन्द्र प्रसाद हों या फिर मौलाना आजाद या रफी अहमद किदवई ही क्यों ना हों । यह इसी देश में संभव है कि संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के दो बार राष्ट्रपति रह चुके डॉ राजेन्द्र प्रसाद को संसद भवन परिसर में उचित स्थान ना मिले । आजादी मिलने के बाद ज्यादातर वक्त तक देश पर कांग्रेस का शासन रहा लेकिन इस दौरान कांग्रेस ने पटेल की विरासत को आगे बढ़ाने का काम तो नहीं ही किया उसको भुलाने का काम जरूर किया । कांग्रेस की इसी अनदेखी ने पटेल और नेहरू के बीच मतभेदों की खबरों को एक खास वर्ग के लोगों ने इस तरह से प्रचारित कर दिया कि देश की तमाम ऐतिहासिक समस्याओं के लिए नेहरू जिम्मेदार हैं । जैसे कि कश्मीर और भारत बंटवारे के मुद्दे पर । यह धारणा बना दी गई कि अगर पटेल होते तो कश्मीर समस्या इस तरह से देश के सामने नहीं होती । जबकि सचाई यह है कि कश्मीर को पटेल देश के लिए सरदर्द मानते थे और उससे छुटकारा पाना चाहते थे । उसी तरह यह भी भ्रम भी फैलाया गया कि भारत पाकिस्तान विभाजन के लिए नेहरू-गांधी जिम्मेदार हैं । पटेल होते तो विभाजन नहीं  होता । जबकि तथ्य इससे उलट है । तथ्य यह है कि पटेल तो विभाजन के लिए नेहरू और मौलाना आजाद से पहले तैयार हो गए थे और उन्होंने ही नेहरू और कांग्रेस कार्यसमिति के अन्यसदस्यों को इसके लिए राजी किया  । बाद में पटेल और नेहरू के दबाव में गांधी जी भी विभाजन के लिए तैयार हुए । हलांकि यह भी तथ्य है कि मुस्लिम लीग के व्यवहार से निराश होने के बाद ही पटेल ने विभाजन के लिए हामी भरी थी । खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा भी था कि अगर अगर पटेल ने थोड़ा सा और दबाव डाला होता तो पाकिस्तान बनता ही नहीं । लेकिन इन बातों के आधार पर पटेल को विभाजन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है । निर्णयों को हमेशा काल और परिस्थियों की कसौटी पर कसा जाना चाहिए । होता यह है कि हम निर्णयों को उस वक्त के हालात के आलोक में नहीं देखते हैं बल्कि वर्तमान परिस्थितियों में उसका विश्लेषण करने लग जाते हैं । इस वजह से इतिहास की सूरत बिगड़ने लग जाती । कुछ लोग या संस्था सायास ऐसा करते हैं और कुछ अज्ञानतावश ऐसा करते हैं । दोनों ही परिस्थियां खतरनाक हैं । इतिहास और ऐतिहासिक तथ्यों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही मूल्यांकन होना चाहिए । राजनीति लाभ लोभ के लिए इतिहास के साथ खिलवाड़ दरअसल देश के महापुरुषों का अपमान भी है, इतिहास तो छल है ही ।

Tuesday, November 5, 2013

सूना हुआ हिंदी का जीवंत कोना

उनतीस अक्टूबर तड़के मॉर्निंग वॉक के लिए जाने को तैयार होकर मोबाइल उठाया तो देखा कि उसमें कई साहित्यक मित्रों के मिस्ड कॉल और मैसेज थे । राजेन्द्र यादव नहीं रहे का एसएमएस पढ़ते ही लगा कि दुनिया थम सी गई । मॉर्निंग वॉक से लौटकर चाय पीते हुए हर दिन तकरीबन साढे सात से आठ बजे के बीच यादव जी से बात होती थी । अस्सलाम आलेकुम के बाद या तो किसी मुद्दे पर बहस होती थी या फिर चंद सेंकेड में फोन रख दिया जाता था । ज्यादातर मैं ही उनको फोन करता था और अगर मैं ना कर पाऊं तो वो नाश्ते के बाद सवा आठ साढे आठ बजे फोन कर लेते थे । फोन उठाते ही उधर से आवाजा आती- क्या कर डाला । मैं कहता फिलहाल तो कुछ नहीं तो कहते कर डालो कुछ तो करो यार । साहित्य जगत बहुत ठंडा पड़ा है । कभी नई-नई किताबों पर बात होती या फिर नए विमर्शों पर । मुझे ठीट ठीक याद नहीं कि यह सिलसिला कब से शुरू हुआ । लेकिन मेरा अनुमान है कि पिछले दस सालों से तो ये बातचीच हो ही रही थी । उनके निधन के पहले वाली शाम यानि अट्ठाइस अक्टूबर को उनसे लंबी बात हुई थी । उन्होंने मुझे इस बात के लिए हड़काया था कि हंस का मेरा स्तंभ उन्हें देर से मिलता है । उनकी शिकायत थी कि मेरी वजह से पत्रिका में काम करनेवालों को देर होती है । उन्होंने मुझसे वादा लिया था कि पांच से दस तारीख के बीच मैं अपना स्तंभ उनको भेज दिया करूंगा । यह पूरा प्रसंग बताने का मतलब सिर्फ इतना था कि यादव जी हमारे जैसे अदने से लेखक का भी ना केवल उत्साहवर्धन करते थे बल्कि लगातार कुछ लिखने के लिए उकसाते रहते थे । अभी पिछले ही हफ्ते अचानक एक दिन उनका फोन आया अरे यार काफ्का ने अपने पिता को एक खत लिखा था । मैंने कहा कि हां बहुत लंबा और बहुत मशहूर खत है वो । तो उन्होंने कहा कि ये मुझे फौरन चाहिए । मैंने कहा कि दफ्तर के लिए निकल गया हूं कल सुबह आपके गेट पर छोड़ दूंगा । हमारे बीच किताबों, लेखों का आदान प्रदान उनकी सोसाइटी आकाशदर्शन के गेट मौजूद गार्ड के माध्यम से ही होता था । मुझे कुछ दोना होता था तो मैं गेट पर लिफाफा छोड़ देता था और उनको कुछ देना होता था तो मेरे नाम का लिफाफा वो अपने गेट पर रखवा देते थे । अभी उनका आखिरी लिफाफे में हंस का नवंबर अंक मिला था । लिफाफे के ऊपर इतने बड़े साइज में मेरा नाम लिखा था कि मैंने मिलते ही उनको फोन किया कि इतने बड़े साइज में क्यों लिखा तो उन्होंने कहा कि छोटा तुम्हें दिखता नहीं तो हंस का अंक गुम हो जाता । 
राजेन्द्र यादव से पहली मुलाकात हंस के उनके दफ्तर में 1991 में हुई थी, तब मैं दिल्ली आया ही आया था। उसके पहले उनसे लंबे लंबे पत्र व्यवहार हुए थे । पहली मुलाकात में ही वो इस तरह से मिले जैसे सालों से जानते हों । फिर कई मुलाकातें हुईं । जिस संबंध की नींव दरियागंज के हंस के दफ्तर में पड़ी थी वो बाइस सालों के बाद उनके निधन से खत्म हुआ लेकिन स्मृति में अब भी ताजा रहा करेगा । राजेन्द्र यादव के व्यक्तित्व का अगर मूल्यांकन करें तो उसके चार पड़ाव आपको साफ तौर पर दिखाए देंगे । नई कहानी के दौर के पहले कहानी मनोरंजन के तौर पर (मुझे ठीक से याद नहीं पर शायद नामवर जी ने कहीं ऐसा लिखा है ) पढ़ी जाती थी लेकिन इस दौर के कहानीकारों ने उसे मनोरंजन से मुक्त कर यथार्थ की जमीन पर ला पटका था । और इस काम के अगुवा बने थे मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव । इन तीनों ने उस दौर में अपनी काहनियों के माध्यम से कहानी की स्थापित मान्यताओं को छिन्न भिन्न कर दिया था । उसके बाद राजेन्द्र यादव का योगदान है हंस । अस्सी के दशक में जब संस्थागत पूंजीवाली हिंदी की पत्रिकाएं एक एक कर दम तोड़ रही थी तो उस वक्त राजेन्द्र यादव ने हंस को पुनर्प्रकाशित करने का जोखिम उठाया । जोखिम इस वजह से कि उसके पीछे कोई संगठित पूंजी नहीं था, थी सिर्फ इच्छाशक्ति और मित्रों का साथ । नामवर जी हमेशा कहते हैं कि राजेन्द्र का नाम सिर्फ हंस की वजह से ही सुनहले अक्षरों में लिखा जाएगा । लगातार अट्ठाइस साल तक बगैर किसी बाधा के व्यक्तिगत प्रयासों से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किसी चमत्कार से कम नहीं है । राजेन्द्र यादव ने इस चमत्कार को कर दिखाया था । हंस का एक बड़ा योगदान यह भी है कि उसने हिंदी में नए कहानीकारों की कई पीढ़ियां तैयार कर दी जिसमें उदय प्रकाश, अखिलेश, शिवमूर्ति, सृंजय, संजय खाती जैसे नामचीन कथाकार हैं । इसी हंस के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य के हाशिए पर पड़े दलित और स्त्री को विमर्श के जरिए साहित्य के केंद्र में स्थापित कर दिया। यह राजेन्द्र जी का हिंदी साहित्य को बड़ा योगदान है । उन्होंने कई लेखिकाओं को हंस में छापकर उन्हें ना केवल पहचान दिलवाई बल्कि प्रसिद्धि भी । मैत्रेयी पुष्पा तो खुलेआम कहती हैं कि हंस उनके लिए विश्वविद्यालय है । हलांकि यादव जी के इस स्त्री विमर्श के भी कई छोर थे और उनपर स्त्री विमर्श की आड़ में देह विमर्श के भी आरोप लगते रहते थे । लेकिन इस तरह के आरोपों से उनको ऊर्जा मिलती थी । विवादों में बने रहने की उनकी आदत की वजह से नामवर जी उन्हें विवादाचार्य कहा करते थे । नामवर जी के साथ उनकी नोंकझोंक बेहद आनंददायक हुआ करती थी, सार्वजनिक मंच पर भी और व्यक्तिगत रसरंजन के कार्यक्रमों में भी ।

इसके अलावा यादव जी ने हंस के संपादकीय के माध्यम से सांप्रदायिकता के खिलाफ भी एक मुहिम छेड़ी थी । उनके एक संपादकीय में हनुमान पर टिप्पणी से इतना विवाद उठा कि उनके खिलाफ कई केस हुए । हंस की प्रतियां जलाई गईं । हंस के दफ्तर के बाहर हिंदू कट्टरवादियों ने तोड़ फोड़ की । लेकिन यादव जी इससे डिगे नहीं । उस दौर में उन्हें सुरक्षा मिली थी । उनकी जिंदादिली की एक मिसाल- उनका विरोध चल रहा था, उनके घर के बाहर सुरक्षा गार्ड तैनात थे । सुबह सुबह उनका फोन आया- अरे यार कभी तुम एके 47 के साथ सोए हो । साली रात भर सोने ही नहीं देती । रातभर तंग करती रहती है । हटवाओ किसी तरह से । उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अपनी सुरक्षा वापस कर दी । यादव जी की भारतीय लोकतंत्र में अगाध श्रद्दा थी । विचारों में वो खुद को प्रगतिशील मानते थे लेकिन हंस को उन्होंने एक लोकतांत्रिक मंच बनाया जहां निशंक भी छपते थे और घोर वामपंथी भी । यादव जी के जाने से हिंदी साहित्य का एक जीवंत कोना बेहद सूना हो गया है । निकट भविष्य में उसी भारपाई संभव नहीं दिखाई देती ।   

Sunday, November 3, 2013

हम न मरैं मरिहै संसारा

एक साहित्यकार थे राजेन्द्र यादव । बेहद जीवंत और जिंदादिल । 28 सितंबर की देर रात वो है से थे हो गए । जिनकी जिंदादिली से हिंदी साहित्य गुलजार रहा करता था, जिनके ठहाकों की गूंज हिंदी जगत में लगभग छह सात दशक तक गूंजती रही थी, जिनकी प्रेरणा से सैकड़ों लेखक तैयार हुए, जिनके विचारों ने लंबे समय तक हिंदी जगत को झकझोरा, जिनकी लेखनी ने सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग लड़ी, जिन्होंने अट्ठाइस साल तक बगैर किसी संस्थागत पूंजी के हंस पत्रिका का निर्बाध संपादन किया, जिन्होंने हंस के मंच का उपयोग सामाजिक आंदोलन को उभारने में किया, जिन्होंने अपने विचारों से दलित साहित्य को हिंदी साहुत्य के केंद्र में ला दिया, जिन्होंने हंस के माध्यम से हिंदी में स्त्री विमर्श को एक नई धार दी , जिन्होंने साठ के दशक में हिंदी कहानी को मनोरंजन के चौखटे बाहर निकाल कर हिंदी साहित्य को चौंकाया, जिनमें चौरासी साल की उम्र के बावजूद किशोरों जैसी चपलता और उम्र के इस पड़ाव पर किसी भी जवान से ज्यादा रोमांटिक। यह सूची बहुत लंबी हो सकती है । लेकिन अब ये सारी बातें इतिहास हो गईं । हिंदी साहित्य के सबसे लोकतांत्रिक लेखक राजेन्द्र यादव के विधन के बाद उनके ठहाके को अब सिर्फ याद किया जा सकता है, उनके पुराने संपादकीयों को पढ़कर अब सिर्फ उनका मूल्यांकन किया जा सकता है । उनका किशोरोचित स्वभाव और रोमांटिक व्यक्तित्व अब कहानियों में याद किए जाएंगे । लेकिन यादव जी बहुत दृढता से कहते थे कि- अतीत मेरे लिए कभी पलायन, प्रस्थान की शरणस्थली नहीं रहा । वे दिन कितने सुंदर थे...काश वही अतीत हमारा भविष्य भी होता की आकांक्षा व्यक्ति को स्मृति-जीवी निठल्ला बनाती है । लेकिन साहित्य में तो अतीत को ही कसौटी पर कस कर लेखक का मूल्यांकन करने की परंपरा रही है । सो यादव जी के साथ भी यह होना तया है । उनेक निधन के बाद हिंदी जहत को उनके योगदान से लेकर उनकी रचनात्मकता को कसौटी पर कसा जाना शेष लेकिन तय है । राजेन्द्र यादव की रचनात्मकता के अलावा उनके व्यक्तित्व का भी मूल्यांकन भी हमारे युग के आलोचकों के लिए बड़ी चुनौती है । दरअसल उनके व्यक्तित्व के बिना उनकी रचनात्मकता का मूल्यांकन अधूरा सा लगेगा । उनकी पत्नी और मशहूर कथाकार मन्नू भंडारी ने अक्तूबर 1964 में औरों के बहाने में लिखा था- मैं आजतक यह नहीं समझ पाई कि इस व्यक्ति को पति-रूप में पाना मेरे जीवन में सबसे बड़ा सौभाग्य है अथवा सबसे बड़ा दुर्भाग्य । कई लगता है, मेरी छुपी हुई प्रतिभा को कितने यत्न से उन्होंने तराशा है । प्रशंसा और प्रेरणा दे-देकर, कुछ कर डालने के लिए कितना उत्साहित किया है और इतनी ही तीव्रता के साथ इस बात का बोध भी होता है कि इस व्यक्ति ने मेरी सारी प्रतिभा का हनन कर डाला ‘  दरअसल यादव जी की रचनात्मकता और व्यक्तित्व के अनेक छोर हैं, इतने कि एक पकड़ो तो दूसरे के छूटने का खतरा पैदा हो जाता है । लेकिन मुख्यतया यादव जी के लेखकीय और संपादकीय जीवन में को हम चार खांचे में बांटकर देख सकते हैं । पहला एक कहानीकार के तौर पर जब उन्होंने मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ मिलकर हिंदी कहानी की चौहद्दी को तहस नहस कर दिया । दूसरे साहित्यक पत्रिरा हंस के संपादक के रूप में हिंदी के नए लेखकों की कई पीढ़ी तैयार करने की भूमिका । तीसरा -अपने विचारों से कट्टरपंथियों पर लगातार हमले करते रहना और उनके खिलाफ वैचारिक जंग छेड़ना और चौथा साहित्य में हाशिए पर पड़े दलित और स्त्री लेखन को साहित्य के केंद्र में ला देना ।
साठ के दशक में राजेन्द्र यादव की कहानियों में दिखाई देने वाला अंतर्विरोध कहानी के स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त कर रहा था, समाज के पवित्र समझे जानेवाले रिश्तों पर हमले कर रहा था । लेकिन उस दौर में भी आलोचक राजेन्द्र यादव की कहानियों के अंतर्विरोध के आदार पर उसे अपने औजारों से खारिज नहीं कर पा रहे थे । एक आलोचक ने लिखा भी था- राजेन्द्र यादव का लेखन बहुत उलझा हुआ होता है । नामवर जी ने भी अपने एक लेख में कहा था कि प्राय: वो चक्करदार शिल्प गढ़ने के चक्कर में रहते हैं और उनकी भाषा की पेचीदगी भी इसी का परिणाम है । इन तमाम अंतर्विरोधों और कमजोरियों के बावजूद राजेन्द्र यादव की कहानियों ने उस वक्त की कहानी को एक नई राह दिखाई थी जिसकी हिंदी कहानी की विकासयात्रा में एक अहमियत है, अपना स्थान है । दरअसल मैं इसमें एक बात जोड़ना चाहता हूं राजेन्द्र यादव की कहानियों में जो पेचीदगी दिखाई देती है वो उनके व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है । याद कीजिए टी एस इलियट ने कहा था कि- लेखन अपने व्यक्तित्व से पलायन का दूसरा नाम है- शायद विरोध का भी । लेकिन बाद के दिनों में राजेन्द्र यादव और उनके नई कहानी के साथी एक सीमित दुनिया की वास्तविकता में उलझ कर रह गए जिससे कि ना सिर्फ नई कहानी आंदोलन का विकास अवरुद्ध हो गया बल्कि आंदोलनों के अगुवा के लिए भी रचनात्मक लेखन असंभव होता चला गया । राजेन्द्र यादव भी इसके शिकार हुए ।
जब राजेन्द्र यादव ने देखा कि कहानियों में उनका हाथ तंग होता जा रहा है तो उन्होंने साहित्यक पत्रिका निकालने का जोखिम उठाया । यह वो दौर था जब एक एक करके हिंदी की पत्रिकाएं बंद हो रही थी तब हंस के प्रकाशन का जुआ (राजेन्द्र यादव के ही शब्द ) यादव जी ने खेला । पिछले अट्ठाइस साल से राजेन्द्र यादव ये जुआ जीते जा रहे थे लेकिन काल से वो जीत नहीं पाए । नामवर सिंह तो कहते हैं कि राजेन्द्र यादव का नाम हिंदी साहित्य जगत में इस वजह से सुनहले अक्षर में लिखा जाएगा कि उसने अट्ठाइस वर्षों तक हंस का संपादन किया । नामवर जी के कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वो सिर्फ हंस संपादन के लिए याद किए जाएंगे । नामवर जी का अभिप्राय यादव जी के इस अहम योगदान को भी रेखांकित करना है । हंस में अपने संपादीकय के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने साप्रदायिकता की राजनीति पर जमकर प्रहार किया । उन संपदकीयों की वजह से देश के कई हिस्सों में उनपर केस भी हुए । हंस की प्रतिया जलाईं गईं और उनके दफ्तर के सामने प्रदर्शन भी हुए । एक व्कत तो ऐसा भी आ गया था कि लगने लगा था कि वो गिरफ्तार हो जाएंगे । लेकिन तमाम दबावों के बावजूद राजेन्द्र यादव के रुख में जरा भी बदलाव नहीं आया और वो इस मोर्चे पर अंत तक डटे रहे हलांकि कुछ दिनों पहले उन्हें वामपंथी कट्टरतावाद का भी शिकार होना पड़ा और हंस के सालाना जलसे में वरवरा राव के वादाखिलाफी से वो आहत थे ।

राजेन्द्र यादव ने दलित विमर्श के माध्यम से जिस तरह से समकालीन हिंदी साहित्य में हस्तक्षेप किया उसका मूल्यांकन होना भी शेष है । यादव जी के स्त्री विमर्श पर भी देह विमर्श का आरोप लगा । मुझे लगता है कि यादव जी का स्त्री विमर्श जर्मन ग्रीयर और सिमोन द बुआ के स्त्री विमर्श के बीच का रूप था जहां वो परिवार के विघटन और यौन स्वच्छंदता के अलावा आपसी समझदारी की बात भी करते चलते हैं । जर्मन ग्रीयर की तरह यादव जी मानते थे कि स्त्रियां अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण में लगें और संबंधों को बाधा नहीं बनने दें लेकिन उनके लेखन से यह साफ नहीं होता है कि वो परिवार के विघटन की शर्त पर ये करने की सलाह देते हैं । हलांकि राजेन्द्र यादव खुद कहा करते थे कि वो किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं कर सकते हैं । किया भी नहीं । सिर्फ मत्रता की डोर को वो टूटने नहीं देते थे । राजेन्द्र यादव ने कई नए तरह के प्रयोग किए । उन्होंने खुद ही लिखा था अचानक ख्याल आया कि अगर कानून रूप से अग्रिम जमानत ली जा सकती है तो अग्रिम श्रद्धांजलि क्यों नहीं लिखी जा सकती । आज जिंदा बने रहना भी तो अपराध ही है । मरने के बाद लोग दिवंगत के बारे में क्या-क्या लिखते और बोलते हैं वह बेचारा ना उसका प्रतिवाद कर सकता है और न उसमें कुछ घटा बढ़ा सकता है । दरअसल मेरे ये संस्मरण उसी लाचार आदमी के प्रतिवाद हैं ।‘  इसी प्रतिवाद में उन्होंने खुद और अपने साथियों के जीवित रहते ही उनपर श्रद्धांजलि लेख लिख डाले थे । उसी में एक जगह यादव जी ने लिखा है मझे सबसे ईमानदार आत्मकथा गालिब की ये पंक्तियां लगती हैं जहां वह कहता है कुछ अपनों की प्रिय तस्वीरें और कुछ सुंदरियों के पत्र- यही तो मरने के बाद मेरी अपनी कहानी है । राजेन्द्र जी यही आपकी भी कहानी है । अलविदा दोस्त ।