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Tuesday, November 5, 2013

सूना हुआ हिंदी का जीवंत कोना

उनतीस अक्टूबर तड़के मॉर्निंग वॉक के लिए जाने को तैयार होकर मोबाइल उठाया तो देखा कि उसमें कई साहित्यक मित्रों के मिस्ड कॉल और मैसेज थे । राजेन्द्र यादव नहीं रहे का एसएमएस पढ़ते ही लगा कि दुनिया थम सी गई । मॉर्निंग वॉक से लौटकर चाय पीते हुए हर दिन तकरीबन साढे सात से आठ बजे के बीच यादव जी से बात होती थी । अस्सलाम आलेकुम के बाद या तो किसी मुद्दे पर बहस होती थी या फिर चंद सेंकेड में फोन रख दिया जाता था । ज्यादातर मैं ही उनको फोन करता था और अगर मैं ना कर पाऊं तो वो नाश्ते के बाद सवा आठ साढे आठ बजे फोन कर लेते थे । फोन उठाते ही उधर से आवाजा आती- क्या कर डाला । मैं कहता फिलहाल तो कुछ नहीं तो कहते कर डालो कुछ तो करो यार । साहित्य जगत बहुत ठंडा पड़ा है । कभी नई-नई किताबों पर बात होती या फिर नए विमर्शों पर । मुझे ठीट ठीक याद नहीं कि यह सिलसिला कब से शुरू हुआ । लेकिन मेरा अनुमान है कि पिछले दस सालों से तो ये बातचीच हो ही रही थी । उनके निधन के पहले वाली शाम यानि अट्ठाइस अक्टूबर को उनसे लंबी बात हुई थी । उन्होंने मुझे इस बात के लिए हड़काया था कि हंस का मेरा स्तंभ उन्हें देर से मिलता है । उनकी शिकायत थी कि मेरी वजह से पत्रिका में काम करनेवालों को देर होती है । उन्होंने मुझसे वादा लिया था कि पांच से दस तारीख के बीच मैं अपना स्तंभ उनको भेज दिया करूंगा । यह पूरा प्रसंग बताने का मतलब सिर्फ इतना था कि यादव जी हमारे जैसे अदने से लेखक का भी ना केवल उत्साहवर्धन करते थे बल्कि लगातार कुछ लिखने के लिए उकसाते रहते थे । अभी पिछले ही हफ्ते अचानक एक दिन उनका फोन आया अरे यार काफ्का ने अपने पिता को एक खत लिखा था । मैंने कहा कि हां बहुत लंबा और बहुत मशहूर खत है वो । तो उन्होंने कहा कि ये मुझे फौरन चाहिए । मैंने कहा कि दफ्तर के लिए निकल गया हूं कल सुबह आपके गेट पर छोड़ दूंगा । हमारे बीच किताबों, लेखों का आदान प्रदान उनकी सोसाइटी आकाशदर्शन के गेट मौजूद गार्ड के माध्यम से ही होता था । मुझे कुछ दोना होता था तो मैं गेट पर लिफाफा छोड़ देता था और उनको कुछ देना होता था तो मेरे नाम का लिफाफा वो अपने गेट पर रखवा देते थे । अभी उनका आखिरी लिफाफे में हंस का नवंबर अंक मिला था । लिफाफे के ऊपर इतने बड़े साइज में मेरा नाम लिखा था कि मैंने मिलते ही उनको फोन किया कि इतने बड़े साइज में क्यों लिखा तो उन्होंने कहा कि छोटा तुम्हें दिखता नहीं तो हंस का अंक गुम हो जाता । 
राजेन्द्र यादव से पहली मुलाकात हंस के उनके दफ्तर में 1991 में हुई थी, तब मैं दिल्ली आया ही आया था। उसके पहले उनसे लंबे लंबे पत्र व्यवहार हुए थे । पहली मुलाकात में ही वो इस तरह से मिले जैसे सालों से जानते हों । फिर कई मुलाकातें हुईं । जिस संबंध की नींव दरियागंज के हंस के दफ्तर में पड़ी थी वो बाइस सालों के बाद उनके निधन से खत्म हुआ लेकिन स्मृति में अब भी ताजा रहा करेगा । राजेन्द्र यादव के व्यक्तित्व का अगर मूल्यांकन करें तो उसके चार पड़ाव आपको साफ तौर पर दिखाए देंगे । नई कहानी के दौर के पहले कहानी मनोरंजन के तौर पर (मुझे ठीक से याद नहीं पर शायद नामवर जी ने कहीं ऐसा लिखा है ) पढ़ी जाती थी लेकिन इस दौर के कहानीकारों ने उसे मनोरंजन से मुक्त कर यथार्थ की जमीन पर ला पटका था । और इस काम के अगुवा बने थे मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव । इन तीनों ने उस दौर में अपनी काहनियों के माध्यम से कहानी की स्थापित मान्यताओं को छिन्न भिन्न कर दिया था । उसके बाद राजेन्द्र यादव का योगदान है हंस । अस्सी के दशक में जब संस्थागत पूंजीवाली हिंदी की पत्रिकाएं एक एक कर दम तोड़ रही थी तो उस वक्त राजेन्द्र यादव ने हंस को पुनर्प्रकाशित करने का जोखिम उठाया । जोखिम इस वजह से कि उसके पीछे कोई संगठित पूंजी नहीं था, थी सिर्फ इच्छाशक्ति और मित्रों का साथ । नामवर जी हमेशा कहते हैं कि राजेन्द्र का नाम सिर्फ हंस की वजह से ही सुनहले अक्षरों में लिखा जाएगा । लगातार अट्ठाइस साल तक बगैर किसी बाधा के व्यक्तिगत प्रयासों से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किसी चमत्कार से कम नहीं है । राजेन्द्र यादव ने इस चमत्कार को कर दिखाया था । हंस का एक बड़ा योगदान यह भी है कि उसने हिंदी में नए कहानीकारों की कई पीढ़ियां तैयार कर दी जिसमें उदय प्रकाश, अखिलेश, शिवमूर्ति, सृंजय, संजय खाती जैसे नामचीन कथाकार हैं । इसी हंस के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य के हाशिए पर पड़े दलित और स्त्री को विमर्श के जरिए साहित्य के केंद्र में स्थापित कर दिया। यह राजेन्द्र जी का हिंदी साहित्य को बड़ा योगदान है । उन्होंने कई लेखिकाओं को हंस में छापकर उन्हें ना केवल पहचान दिलवाई बल्कि प्रसिद्धि भी । मैत्रेयी पुष्पा तो खुलेआम कहती हैं कि हंस उनके लिए विश्वविद्यालय है । हलांकि यादव जी के इस स्त्री विमर्श के भी कई छोर थे और उनपर स्त्री विमर्श की आड़ में देह विमर्श के भी आरोप लगते रहते थे । लेकिन इस तरह के आरोपों से उनको ऊर्जा मिलती थी । विवादों में बने रहने की उनकी आदत की वजह से नामवर जी उन्हें विवादाचार्य कहा करते थे । नामवर जी के साथ उनकी नोंकझोंक बेहद आनंददायक हुआ करती थी, सार्वजनिक मंच पर भी और व्यक्तिगत रसरंजन के कार्यक्रमों में भी ।

इसके अलावा यादव जी ने हंस के संपादकीय के माध्यम से सांप्रदायिकता के खिलाफ भी एक मुहिम छेड़ी थी । उनके एक संपादकीय में हनुमान पर टिप्पणी से इतना विवाद उठा कि उनके खिलाफ कई केस हुए । हंस की प्रतियां जलाई गईं । हंस के दफ्तर के बाहर हिंदू कट्टरवादियों ने तोड़ फोड़ की । लेकिन यादव जी इससे डिगे नहीं । उस दौर में उन्हें सुरक्षा मिली थी । उनकी जिंदादिली की एक मिसाल- उनका विरोध चल रहा था, उनके घर के बाहर सुरक्षा गार्ड तैनात थे । सुबह सुबह उनका फोन आया- अरे यार कभी तुम एके 47 के साथ सोए हो । साली रात भर सोने ही नहीं देती । रातभर तंग करती रहती है । हटवाओ किसी तरह से । उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अपनी सुरक्षा वापस कर दी । यादव जी की भारतीय लोकतंत्र में अगाध श्रद्दा थी । विचारों में वो खुद को प्रगतिशील मानते थे लेकिन हंस को उन्होंने एक लोकतांत्रिक मंच बनाया जहां निशंक भी छपते थे और घोर वामपंथी भी । यादव जी के जाने से हिंदी साहित्य का एक जीवंत कोना बेहद सूना हो गया है । निकट भविष्य में उसी भारपाई संभव नहीं दिखाई देती ।   

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