लोकसभा चुनाव का कोलाहल, किस पार्टी में कौन शामिल हो रहा है , किस पार्टी ने किसको
टिकट दिया, कौन सा नेता अवसरवादी और कौन सा नेता मौकापरस्त है, किसने तीन दशक तक एक
पार्टी में रहने के बाद महज लोकसभा टिकट नहीं मिलने पर पार्टी छोड़ दी या बदल ली, किस
पार्टी का कौन नेता तानाशाह बन गया है, किस पार्टी की प्रासंगिकता खत्म होती जा रही
है आदि आदि विषयों पर लगातार चर्चा हो रही है । विशेषज्ञ अपनी अपनी राय से समाज और
देश को आप्लावित कर रहे हैं । यह ठीक भी है क्योंकि चुनाव किसी भी लोकतंत्र में एक
उत्सव की तरह आता है जो उसमें शामिल लोगों को आनंद देता है । लोकतंत्र के इस उत्सव
के आनंद के अतिरेक में हमसे कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां छूटती जा रही हैं । समाज के
रहनुमाओं की नजर इन मुद्दों की ओर नहीं जा रही है । दो ऐसी घटनाएं घटी जिसपर देशव्यापी
बहस होनी चाहिए थी और समाज को उसकी वजह जानने के लिए प्रयत्न करना चाहिए था । राजधानी
दिल्ली में गाड़ी पार्क करने को लेकर हुए झगड़े में हत्या हुई । दिल्ली के बवाना इलाके
में गाड़ी लगाने को लेकर विवाद इतना बढ़ा कि एक शख्स ने दो सगे भाइयों की गोली मारकर
हत्या कर दी । गुस्सा इतना था कि आरोपी ने मृतक शख्स पर गोलियों की बौछार कर दी । पोस्टमार्टम
के दौरान मरनेवाले के शरीर से बारह गोलियों के निशान पाए गए । इसी तरह से दिल्ली के
ही एक अन्य इलाके में भी पार्किंग के ही विवाद में एक नाबालिग की हत्या कर दी गई थी
। यहां भी गुस्सा इतना था कि बदला लेने के लिए उस परिवार के नाबालिग को निशाना बनाया
गया और उसकी पीट-पीटकर हत्या की गई । इन दो घटनाओं को मीडिया ने भी उतनी गंभीरता से
नहीं लिया । पार्किंग इतना अहम मसला नहीं है कि उसको लेकर हुए विवाद में कत्ल करने
तक बात बढ़ जाए, पर ऐसा हुआ । यह कोई मामूली बात नहीं है जिसे नजरअंदाज किया जा सकता
है । यह हमारे समाज के असहिष्णुता की ओर बढ़ने का संकेत है । समाज में बढ़ रही इस घातक
प्रवृति पर हमारे रहनुमाओं से लेकर आम लोगों को गंभीरता से विचार करना होगा क्योंकि
ये ऐसी घटनाएं है जो समाज के किसी भी वर्ग के किसी भी शख्स के साथ घटित हो सकती है
।
अब अगर हम समाज में बढ़ रहे इस तरह के इनटॉलरेंस की पड़ताल करें तो एक वजह जो साफ
नजर आती है वह है लोगों के अंदर बढ़ती निराशा और उसके बाद पैदा होनेवाली कुंठा । उदारीकरण
और वैश्वीकरण के इस मजबूत होते दौर में हमारे देश के हर इंसान की उम्मीदें सातवें आसमान
पर पहुंच गई हैं, खासकर युवा पीढ़ी में एक खास किस्म की जल्दबाजी है । हासिल करने की
जल्दबाजी । उम्मीदों के पूरा नहीं होने या अपेक्षा के भरभराकर ढह जाने की वजह से निराशा
का घटाटोप दिलोदिमाग पर छाने लगता है । हासिल करने की इस जल्दबाजी में व्यवधान निराशा
को जन्म देती है जो किसी भी शख्स को कुंठित बना देती है । वक्त के साथ ये कुंठा बढ़ती
जाती है और यहीं से असहिष्णुता की शुरुआत होती है। निराशा और कुंठा की वजह से हमारे
अंदर की संवेदनाएं भी धीऱे धीरे खत्म होने लगी है । किसी भी शख्स के अंदर संवेदना का
मर जाना बहुत ही खतरनाक होता है कि क्योंकि संवेदनहीन व्यक्ति किसी भी हद तक जा सकता
है । समाज के बदलते स्वरूप की वजह से संयुक्त परिवार का चलन कम होते जा रहा है । इसका
दुष्परिणाम यह हुआ है कि व्यक्ति अकेला होता चला गया । संयुक्त परिवार में होता यह
था कि लोग अपनी समस्याओं पर परिवार के बड़े बुजुर्गों से सलाह मशविरा करते थे या फिर
परिवार के हमउम्र के साथ अपना सुख दुख बांटते थे । अब ये हो नहीं पा रहा है जिसकी वजह
से हम कह सकते हैं कि साइकोलॉजिकल कैपिटल का क्षरण होता जा रहा है । इसी मनोवैज्ञानिक
ताकत के कम होने की वजह से लोगों के अंदर आक्रामकता बढ़ रही है जो उन्हें हिंसा के
रास्ते पर लेकर जा रही है ।
एक और वजह है वह है समाज
में नव-धनाढ्य लोगों की बढती तादाद । इन नव धनाढ्य लोगों के मनोविज्ञान की अगर सूक्षमता
से परखें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं इनके अंदर पैसे के बल पर कुछ भी कर लेने और उसके
बाद बच निकलने की मानसिकता मजबूती पा रही है । नए नए पैसेवाले होने और कहलाने का नतीजा
एक नशे की माफिक घर करता जाता है और यह नशा खुद उनके लिए तो खतरनाक होता ही है समाज
को भी खतरे में डाल देता है । इसके गंभीर परिणाम होते हैं । समाज में बढ़ते असहिष्णुता
और कम होती मनोवैज्ञानिक बल पर हमें गंभीरता से सोचना होगा और हिंसक घटनाओं को रोकने
के लिए जरूरी कदम उठाने होंगे अन्यथा पूरे देश में अराजकता का एक ऐसा माहौल होगा कि
उसपर काबू पाने के लिए फिर सरकारों को एसे कदम उठाने होंगे जो लोकतंत्र के हित में
नहीं हो सकते हैं ।