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Wednesday, April 30, 2014

फासीवाद का डर और सियासत की फसल

नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आते ही देश में फासीवाद आ जाएगा । नरेन्द्र मोदी हिटलर की तरह है । नरेन्द्र मोदी के आने से देश में सांप्रदायिक ताकतें मजबूत होंगी । नरेन्द्र मोदी उस विचारधारा के पोषक हैं जो देश को बांटती है । यह चुनाव मुद्दों की लड़ाई नहीं है विचारधारा की लड़ाई है । लोकसभा चुनाव के दौरान इस तरह के आरोप नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी पर लगातार लग रहे हैं । नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हवा के रुख को भांपते हुए आलोचकों और विरोधियों के हमले और तीखे हो रहे हैं । सबसे संगीन इल्जाम जो लग रहा है वह है कि मोदी के आते ही देश में फासीवाद आ जाएगा और तानाशाही प्रवृत्ति का बोलबाला हो जाएगा । मोदी के विरोधी उत्साह में भले ही मोदी की तुलना हिटलर से कर दें लेकिन वो तथ्यात्मक और सैद्धांतिक दोनों रूप में वह गलत है । आज के भारत की तुलना हिटलर के उत्थान के समय के जर्मनी से नहीं की जा सकती है । उस वक्त जर्मन साम्राज्य के पतन के सिर्फ पंद्रह साल हुए थे और जर्मनी एक नवजात राष्ट्र के तौर पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था । उस वक्त जर्मनी के लोग देश की खराब आर्थिक हालात की वजह से बुरी तरह से परेशान थे और वहां की लड़खड़ाती सरकार उसे संभालने में नाकाम हो रही थी । आज जब पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर संकट है ऐसे में भी भारत लगभग पांच फीसदी के ग्रोथ रेट के साथ मजबूती से अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले हुए है । जनता की वर्तमान सरकार से नाराजगी है लेकिन यह साफ है कि कोई भी अगर उसके नागरिक अधिकारों के हनन की कोशिश करेगा तो उसे वह बर्दाश्त नहीं करेगी । इसके अलावा एक राष्ट्र के तौर पर भारत की जो संरचना है वो भी जर्मनी से अलहदा है । अलग अलग राज्यों में अलग अलग दलों की चुनी हुई सरकारें हैं । कुछ मसले ऐसे हैं जिनमें केंद्र का दखल नहीं हो सकता है । भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि वहां अगर हिटलर भी आ जाए तो उसे उखाड़ कर नहीं फेंक सकता है । इस देश ने इंदिरा गांधी को भी देखा था जिन्होंने उन्नीस सौ पचहत्तर में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में इमरजेंसी का काला अध्याय जोड़ा । तमाम ताकत और जोर लगा देने के बावजूद जनविरोध के आगे इंदिरा को झुकना पड़ा और दो साल में ही इमरजेंसी खत्म करनी पड़ी थी । उन्नीस सौ पचहत्तर और अब की स्थितियां और भी बदल चुकी हैं । अब मीडिया पहले से ज्यादा ताकतवर है और जनता अपने अधिकारों को लेकर पहले से ज्यादा जागरूक । दरअसल हमारे देश में फासीवाद एक ऐसा जुमला है जिसका डर सदियों से दिखाकर राजनीति की रोटियां सेंकी जा रही है । फासीवाद का जुमला सबसे ज्यादा इस देश में कार्ल मार्क्स के अनुयायी उछालते रहे हैं । यहां यह याद दिलाने की जरूरत है कि कार्ल मार्क्स हमेशा से चुनाव, चुनाव करने की स्वतंत्रता और चुनी हुई संस्थाओं का विरोध करते थे । उनका मानना था कि जबतक आर्थिक समानता नहीं हो तो चुनाव बेमानी हैं ।
अब अगर दूसरे आरोप हिंदू सांप्रदायिकता की बात करें जिसके प्रचंड होने की आशंका जताई जा रही है तो इस शब्द की अवधारणा ही गलत है । हिंदू धर्म का आधार ही सर्वधर्मसम्भाव और सहिष्णुता है । अस्सी के दशक के अंत में और नब्बे के दशक की शुरुआत में इसी तरह से हिंदू राष्ट्रवाद की बात फैलाई गई थी । उस वक्त यह प्रचारित किया गया था कि हिंदू राष्ट्रवाद का मतलब है देश की एकता और अखंडता को कायम रखना और हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना । अब जरा इसपर गहराई से विचार करिए । हिंदी राष्ट्रवाद के ये दोनों उद्देश्य एक दूसरे के खिलाफ हैं । हिंदू राष्ट्र की कल्पना करते हुए देश की एकता और अखंडता कायम नहीं रखी जा सकती है । अगर हिंदू राष्ट्र थोपने की बात होती तो देश में हिंसा का ऐसा दौर चलता कि देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाती । दरअसल हिंदू राष्ट्रवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन और प्रचार करके समाज में भ्रम फैलाने की गहरी साजिश की गई थी जिसमें तर्कों के लिए कोई जगह नहीं बची थी । दोनों तरफ से उन्माद फैलाने का काम किया गया था । पहले हिंदू राष्ट्रवादियों का भय पैदा किया गया था और बाद में उसके खिलाफ धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर राजनीतिक फायदा उठाया गया था । धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिकता के खिलाफ प्रचार का एक ऐसा वितान खड़ा किया गया था जिससे जनता भयाक्रांत होकर किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान कर सके । हुआ भी यही था । हिंदू राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिकता के खिलाफ बोलने वालों को हिंदू सांप्रदायिक करार दे दिया जा रहा था । अब एक बार फिर से उसी तरह का भय का माहौल पैदा कर सियासी फसल काटने की तैयारी की जा रही है । यहां एक और उदाहरण प्रासंगिक होगा । इन दिनों धर्मनिरपेक्षता की वकालत करनेवालों को लालकृष्ण आडवाणी बहुत अच्छे लगने लगे हैं । तथाकथित धर्मनिरपेक्ष विचारकों को लगता है कि लालकृष्ण आडवाणी अपेक्षाकृत कम कट्टर हैं । हमें अपने इन विचारकों की बदलती राय पर तरस आता है । यह वही जमात है जो बाबरी विध्वंस के बाद आडवाणी को देश का सामाजिक ताना-बाना धव्स्त करने का जिम्मेदार मान रही थी । ये वही लोग है जो उस वक्त आडवाणी को कट्टर और अचल बिहारी वाजपेयी को उदार छवि के मानते थे । उनके तर्कों का आधार तब भी गलत थे और अब भी गलत हैं ।

दरअसल हमारे देश में नेहरू के बाद सही मायने में धर्मनिरपेक्षता को जोरदार तरीके से बढ़ावा देने वाला कोई नेता हुआ ही नहीं । नेहरू का मानना था कि राष्ट्रवाद की भावना को धर्म नहीं बल्कि संस्कृति मजबूत कर सकती है । उनकी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में अशोक, अकबर,  कबीर और गुरू नानक को नायक के तौर पर याद किया गया है । गांधी को भी । क्योंकि गांधी ने भी धर्म को राष्ट्र से अलग किया था । उन्होंने कहा था कि अगर हिंदू सोचते हैं कि यह सिर्फ उनका देश है तो वो सपनों की दुनिया में हैं । भारत को जिन हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई ने अपना देश चुना है वो सभी भाई हैं । नेहरू के बाद इंदिरा गांधी की धर्मनिरपेक्षता अलग किस्म की थी और उसके बाद राजीव गांधी की धर्मनिरपेक्षता को तो सारे देश ने देखा था जब उन्होंने अयोध्या में शिला पूजन किया था । राजीव गांधी के बाद देश की बागडोर संभालने वाले नरसिम्हाराव पढ़े लिखे समझदार प्रधानमंत्री माने जाते हैं लेकिन बाद के दिनों में जिस तरह से धर्म को लेकर उनकी पसंद और नापसंद का खुलासा हुआ उससे तो यही लगता है कि उनकी आत्मा एक धर्मविशेष की तरफ झुकी हुई थी । सामाजिक न्याय के मसीहाओं की धर्मनिरपेक्षता को देश ने नब्बे के दशक में देखा । किस तरह से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर समाज को बांटने का खतरनाक खेल खेला गया । बाद के दिनों में समुदाय के नाम पर राजनीति का रंग और गाढ़ा हुआ और अब हालात यह है कि देश की दो प्रमुख दलों के अध्यक्ष धर्मगुरुओं के आशीर्वाद के आंकांक्षी हो रहे हैं । अंत में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि इस महान देश में कोई भी तानाशाह पैदा नहीं हो सकता है । तानाशाही को देश की जनता क्षण भर भी बर्दाश्त नहीं करेगी और एक क्या हजार मोदी भी इस देश में फासीवाद नहीं थोप सकते हैं । आग्रह सिर्फ इतना है कि देश में भय की राजनीति बंद होनी चाहिए और भयाक्रांत कर वोट लेने की कोशिशों को जनता भी नाकाम करे । 

Monday, April 28, 2014

परिधि से केंद्र में लाने की चुनौती

आदरणीय प्रकाश करात जी,
लोकसभा की आधी से ज्यादा सीटों पर चुनाव संपन्न हो चुके हैं । लोकतंत्र का यह महापर्व अब अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ चला है । यह चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक लग रहा है कि इस बार विचारधारा पर व्यक्ति हावी हो गया है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करनेवाले फासीवाद के आगमन की आशंका जता रहे हैं । इस चुनावी कोलाहल के बीच वामपंथी दलों का हाशिए पर चला जाना हमारे लोकतंत्र का एक ऐतिहासिक मोड़ है । उन्नीस सौ सड़सठ में आलोचना पत्रिका के एक अंक में हिंदी के मूर्धन्य आलोचक रामविलास शर्मा का एक साक्षात्कार छपा था । अपने उस साक्षात्कार में रामविलास शर्मा ने कहा था कि अगर देश में कभी फासीवाद आया तो उसकी जिम्मेदारी वामपंथी दलों की होगी । मुझे नहीं मालूम कि आपने हिंदी के इस महान लेखक का नाम आपने सुना है या उनके लेखन से आप परिचित हैं या नहीं लेकिन आपको याद दिला दें कि कमोबेश देश में इस वक्त भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं । तब भी विपक्षी दल बिखरे हुए थे और इस वक्त भी । अगर देश में फासीवाद आया, जिसकी आशंका आपकी जमात के लोग जता रहे हैं, तो सही में इसकी जिम्मेदारी वामपंथी दलों की ही होगी । हाल के वर्षों में जिस तरह से वामपंथी दल शिथिल पड़ गए वो हमारे लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है । लोकसभा चुनाव की गहमागहमी और नेताओं की जुबानी जंग और मीडिया में कयासों के शोरगुल में वामपंथी दलों की भूमिका पर चर्चा ही नहीं हो पा रही है । वामपंथी दल भी चुनाव के दौरान अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में नाकाम हो रहे हैं । पूरे देश में राजनीति पंडित इस चुनाव में राजनीतिक दलों की आसन्न जीत और हार का कयास लगा रहे हैं । कुछ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में लहर बता रहे हैं तो कईयों का मानना है कि दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी मोदी के कथित विजय रथ को रोक सकती है । सबके अपने अपने तर्क और कारण हैं । जीत हार के इन तर्कों, कारणों और दावों प्रतिदावों के बीच एक बात जो खामोश मजबूती के साथ दिखाई दे रही है वो है इन चुनावों में वामपंथी दलों का अप्रसांगिक होना । कुछ राजनीति विश्लेषकों का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस और भाजपा भले ही जीत के दावों में उलझी हो लेकिन इस लोकसभा चुनाव में वामदलों की हार में किसी को संदेह नहीं है । इस लोकसभा चुनाव में वामपंथी समूह की सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम, जिसके आप महासचिव हैं, निष्क्रिय दिखाई दे रही है । क्यों नहीं वामपंथी समूह गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों के बीच की धुरी बन पा रहे हैं । ज्यादा पुरानी बात नहीं है , नब्बे के दशक में क़मरेड हरकिशन सिंह सुरजीत ने अपने राजनैतिक कौशल से कई बार गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस दलों को एकजुट किया था और सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी । उसके बाद भी दो हजार चार में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के गठन में वामदलों की बेहद अहम भूमिका थी । अब सिर्फ इतने दिनों में क्या हो गया कि तमिलनाडू में एआईएडीएमके के साथ गठबंधन के एलान के चंद दिनों बाद जयललिता उससे बाहर निकल आती हैं । गुजरात में प्रोग्रेसिव फ्रंट आकार भी नहीं ले पाता है । सांप्रदायिकता के नाम पर दिल्ली में गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों को एकजुट करने का उनका प्रयास परवान नहीं चढ पाता है । क्या साख का संकट है या फिर नेतृत्व का । आपको इस बात पर मंथन करना चाहिए कि उन्नसी सौ बावन में जब देश के पहले आमचुनाव का नतीजा आया था तो प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उभरने वाली पार्टी महज साठ साल में अप्रासंगिक होती क्यों दिख रही है । क्या वजह है कि पश्चिम बंगाल और केरल जैसे मजबूत गढ़ के अलावा बिहार और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में मजबूत प्रदर्शन करनेवाली पार्टी अब वहां काफी कमजोर दिखाई देती है । बिहार के बेगूसराय को पूरब का लेनिनग्राद कहा जाता था लेकिन वहां भी पार्टी को नीतीश कुमार के सहारे की जरूरत है ।
मान्यवर क्या आपको नहीं लगता कि वामदलों का समूह अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं । उन्नीस सौ सैंतालीस में जब देश आजाद हुआ था तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार करते हुए उसको बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण करा दिया था । भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है । जब पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा था और नवजात गणतंत्र अपने पांव पर खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहा था तो आपकी विचारधारा ने गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत कर देश की जनता को एक गलत संदेश दिया था । उस वक्त रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इस विद्रोह को खत्म करने में भारत की मदद की थी । महात्मा गांधी को भी 1947 में कहना पड़ा था - कम्यूनिस्ट समझते हैं उनका सबसे बड़ा कर्तव्य, सबसे बड़ी सेवा (देश में ) मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना है । वे यह नहीं सोचते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएंगी । अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है ....कुछ लोग ये ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते हैं । हमारे कम्युनिस्ट इसी हालत में जान पड़ते हैं ....ये लोग अब एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिसे अंग्रेज लगा गए थे । गांधी के इस कथन को वामदलों के समूह ने कई कई बार साबित किया । आप इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि सीपीआई के विभाजन के बाद वो रूस के इशारों पर चलती रही और अलग होकर बनी पार्टी सीपीएम की आस्था चेयरमैन माओ में थी । राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं । नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई । नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया ।
वामदलों के भारतीय जनमानस को नहीं समझने का एक और उदाहरण है इमरजेंसी का समर्थन । इंदिरा गांधी ने जब देश में नागरिक अधिकारों को मुअत्तल कर आपातकाल लगाने का फैसला हुआ था तो चेयरमैन एस ए डांगे ने इंदिरा गांधी के इस तानाशाही फैसले का समर्थन किया था । उसका ही अनुसरण करते हुए दिल्ली की एक सभा में प्रगतिशील लेखक संघ ने भी भीष्म साहनी की अगुवाई में इमरजेंसी के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया था । ऐसे फैसले तभी होते हैं जब आप जनता का मूड नहीं भांप पाते हैं या फिर अपने निर्णयों के लिए रूस या चीन की ओर ताकते हैं । पार्टी कैडर की नाराजगी को भी डांगे ने रूस के इशारे पर नजरअंदाज किया और आंख मूंदकर इंदिरा गांधी के सभी फैसलों का समर्थन करने लगे । इससे पार्टी और चेयरमैन डांगे दोनों का नुकसान हुआ था । इमरजेंसी के फैसले के समर्थन के बाद लाख कोशिशों के बावजूद एस ए डांगे मुख्यधारा में नहीं लौट पाए और सीपीआई भी मजबूती से खड़ी नहीं हो पाई । यूपीए वन के दौर में जिस तरह से आपने न्यूक्लियर डील पर सरकार से समर्थन वापस लिया और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के खिलाफ कार्रवाई की वो भी गलत आकलन के आधार पर फैसले का सर्वोत्तम उदाहरण है । उस वक्त भी आपके नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए थे । अपनी किताब कीपिंग द फेथ-मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटिरियन में सोमनाथ चटर्जी ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग पर लिखकर आपको कठघरे में खड़ा किया है । उन्होंने आपके तानाशाही मिजाज पर भी तंज कसते हुए लिखा है कि उनको पार्टी से निकालने का फैसला पोलित ब्यूरो के पांच सदस्यों ने ही ले लिया जबकि सत्रह लोग इसके सदस्य थे । उन्होंने आप पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की राय की अनदेखी का आरोप भी लगाया है । करात साहब जिस तरह से आपने केरल के आपकी पार्टी के मजबूत नेता पिनयारी विजयन का समर्थन किया, विजयन की छवि पूरे देश में जगजाहिर है, उससे भी पार्टी की नैतिक आभा कम हुई है ।  करात साहब मुझे लगता है कि वामदलों के समूह में आपकी पार्टी सबसे बड़ी है इस नाते आपकी जिम्मेदारी है कि आप देश की राजनीति को व्यक्ति केंद्रित होने से रोकें ।
करात साहब आप इस तथ्य की ओर भी गंभीरता से विचार करें कि दिल्ली में गैर सरकारी संगठन के माध्यम से काम करनेवाला एक शख्स किस तरह से पूरे देश की राजनीति को हिला रहा है । अरविंद केजरीवाल नाम के इस शख्स की राजनीति से हो सकता है आपका मतभेद हो लेकिन उसने एक साथ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को चुनौती दी । आज हालत यह है कि वामपंथी दलों से जुड़े लोग आम आदमी पार्टी में अपना ठौर ढूंढ रहे हैं । अरविंद केजरीवाल ने अपनी नैतिक आभा और जनता के मुद्दों से जुड़कर खुद को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बना लिया । करात साहब आपकी पार्टी और आपके लाल समूह का तो आधार ही लोक है लेकिन अगर आप गंभीरता से विचार करेंगे तो पाएंगे कि आपलोग जन और लोक से दूर होते चले गए । जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को उठाना और उन समस्याओं पर जनांदोलन करना आपलोगों ने छोड़ दिया । बाजारवाद और नवउदारवाद के इस दौर का सबसे ज्यादा असर देश के श्रमिकों पर पड़ा है । पूंजी के आगमन और पूंजीवाद के जोर ने श्रमिकों के हितों के रखवाले संगठनों को कमजोर कर दिया । ये आपके दलों के अनुषांगिक संगठन थे । बाजार के खुलने के बाद जिस तरह से भारत में अथाह पूंजी का आगमन हुआ उसने देश के कई हिस्सों के इंडस्ट्रियल एरिया को तबाह कर दिया । लेकिन आपलोग कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए । एसईजेड जैसे क्षेत्रों का चलन शुरू हुआ जहां श्रमिकों के अधिकारों की बातें बेमानी होने लगी । लेकिन आपलोग खामोश रहे या विरोध की रस्म अदायगी की । करात साहब किसी भी संगठन या पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने की जिम्मेदारी उसके नेता पर होती है उसका एहसास आपको होगा । जरूरत इस बात की है कि आप गंभीरता से मंथन करें और वामदलों को एक बार फिर से देश की राजनीति की परिधि से उठाकर केंद्र में स्थापित करें ।
 

स्वीकार्यता बढ़ाने का उपक्रम

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के वडोदरा के अलावा बनारस से चुनाव लड़ने के एलान से लेकर नामांकन भरने तक आलोचकों ने काफी हो हल्ला किया । उनका एतराज नरेन्द्र मोदी के दो जगहों से चुनाव लड़ने को लेकर था । समर्थकों के अलग तर्क थे, विरोधियों के अलग । दो तरह का माहौल बनाया गया- समर्थकों की दलील थी कि उत्तर प्रदेश, देश का सबसे बड़ा राज्य है और बनारस से चुनाव लड़ने का एक प्रतीकात्मक महत्व है । मोदी के रणनीतिकारों का मानना था कि उनके बनारस से चुनाव लड़ने का असर पूर्वांचल और बिहार की कई सीटों पर पड़ेगा । इस वजह से ही बनारस के मौजूदा सांसद मुरली मनोहर जोशी की सीट भी बदली गई । उनके खफा होने की खबरें भी आईं लेकिन उनकूी नाराजगी को दरकिनार कर दिया गया । विरोधियों का तर्क था कि नरेन्द्र मोदी बनारस से अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं लिहाजा गुजरात की एक सीट से भी चुनाव लड़ना चाहते हैं । उन्होंने इस मसले पर भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी को इस तरह से घेरने की कोशिश की कि लगा जैसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ये पहला मौका हो जब कोई बड़ा नेता दो लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा हो । कांग्रेस के बनारस से उम्मीदवार और उनकी पार्टी के आला नेताओं ने इस तरह का माहौल बनाया कि अगर नरेन्द्र मोदी वड़ोदरा और बनारस दोनों जगह से चुनाव जीत जाते हैं तो वो बनारस छोड़ कर भाग जाएंगे । अति उत्साह में मोदी के विरोधियों ने चुनाव में होनेवाले सरकारी और गैरसरकारी खर्चे को भी अपनी आलोचना का आधार बनाया । यहां तक कहा कि जनता के पैसे पर चुनावी रणनीति को अंजाम दिया जा रहा है । एक विशेषज्ञ ने तो आमचुनाव में दो सीटों पर चुनाव लड़ने की तुलना उम्मीदवार द्वारा खरीदी गई इंश्योरेंस पॉलिसी से कर दी जिसके प्रीमियम का भुगतान जनता करती है । इसको देखकर लगता है कि टीकाकारों को इतिहास बोध नहीं है या फिर ये जानबूझकर इतिहास को ओझल करना चाहते हैं । आजाद भारत के इतिहास में दो जगहों से चुनाव लड़ने की परंपरा की शुरुआत की प्रामाणिक जानकारी नहीं है लेकिन चर्चा में इंदिरा गांधी का चुनाव ही आता है जब उन्होंने उन्नीस सौ अस्सी में रायबरेली के अलावा आंध्र प्रदेश के मेडक से भी लोकसभा का चुनाव लड़ा था । अब उस वक्त देश का राजनैतिक माहौल क्या था और कांग्रेस किन परिस्थियों से जूझ रही थी उसको याद करने से इंदिरा गांधी के दो लोकसभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने की वजह साफ हो जाती है । इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी को रायबरेली से करारी हार का सामना करना पड़ा था । उस हार से इंदिरा गांधी को बड़ा झटका लगा था । रायबरेली से नेहरू परिवार का पुराना रिश्ता था इस वजह से झटका सदमे की तरह था । उन्नीस सौ इक्कीस में मुंशीगंज में किसानों के आंदोलन के दौरान मोतीलाल नेहरू ने अपने युवा पुत्र जवाहरलाल नेहरू को रायबरेली भेजा था । जवाहरलाल के वहां पहुंचने के ठीक पहले ब्रिटिश सिपाहियों ने प्रदर्शनकारी किसानों पर गोलियां चलाई थी जिसमें कई किसानों की मौत हो गई थी । जानकारों का मानना है कि जवाहरलाल नेहरू ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण मुंशीगंज चौराहे पर दिया था । अपने पिता की वजह से इंदिरा गांधी को भी इस क्षेत्र से काफी लगाव था लिहाजा जब वो सतहत्तर में हारी तो उन्हें सदमा लगा । अस्सी के लोकसभा चुनाव में जब वो रायबरेली और मेडक दोनों जगहों से जीतीं तो उन्होंने रायबरेली की सीट छोड दी थी । सतहत्तर में इंदिरा गांधी के दो लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की वजह उनकी रायबरेली से जीत में संदेह का होना था और वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी ।
इसी तरह से जब उन्नीस सौ निन्यानवे में सोनिया गांधी ने भी चुनावी मैदान में कदम रखा था तो उन्होंने भी उत्तर प्रदेश के अमेठी और कर्नाटक के बेल्लारी से लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था । सोनिया गांधी को दोनों जगह से जीत हासिल हुई थी । बेल्लारी में तो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की कद्दावर नेता सुषमा स्वराज को भारी मतों से पराजित किया था । उस वक्त की स्थितियां भी यही थी कि ना तो सोनिया गांधी और ना ही पार्टी नेताओं का अंतर्विरोध झेल रही कांग्रेस सोनिया गांधी के चुनाव जीतने को लेकर आश्वस्त थे । लेकिन सोनिया के दो क्षेत्रों से चुनाव लड़ने के दो फायदे भी थे । अगर उत्तर और दक्षिण भारत दोनों जगह से सोनिया गांधी चुनाव जीत जाती तो एक अखिल भारतीय छवि और स्वीकार्यता के साथ राजनीति में उनका पदार्पण होता । हुआ भी वही लेकिन सोनिया ने अपने पति की सीट अमेठी को ही चुना और बेल्लारी से इस्तीफा दे दिया । दो हजार चार में जब पूरे भारत में इंडिया शाइनिंग का जोर चल रहा था तब भी सोनिया गांधी ने अमेठी और रायबरेली से चुनाव लड़ा था और दोनों सीटें जीती थी । बाद में अमेठी सीट छोड़ दूी थी जहां से राहुल गांधी पहली बार सांसद बने । इस बार भी कमोबेश वही स्थितियां थी फर्क सिर्फ इतना था कि चिंता लोकसभा पहुंचने की थी अखिल भारतीय स्वीकार्यता तो सोनिया गांधी को हासिल हो ही चुकी थी ।
दो हजार चार के ही लोकसभा चुनाव में लालू यादव छपरा और मधेपुरा दो लोकसभा सीट से चुनाव लड़े थे । दो हजार चार में लालू यादव का आकर्षण और लोकप्रियता दोनों ही कम हो चुका था । बिहार के राजनैतिक क्षितिज पर नीतीश का उदय हो चुका था । लिहाजा लालू यादव अपनी जीत को लेकर आशंकित थे । ये अलहदा है कि लालू यादव दोनों सीट से जीत गए थे और मधेपुरा की सीट खाली कर दिया था । लालू यादव तो बाद में भी छपरा और दानापुर से चुनाव लड़ चुके हैं । छपरा में उन्हें जीत हासिल हुई थी लेकिन दानापुर सीट से वो हार गए थे । दानापुर से एक समय उनके सहयोगी रहे रंजन यादव ने उन्हें पटखनी दी थी । इसी तरह समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह भी दो लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ चुके हैं । उन्नीस सौ निन्यानवे में संभल और कन्नौज दोनों सीट से चुनाव लड़कर विजयी हुए थे । बाद में उन्होंने संभल सीट से अपने सुपुत्र अखिलेश यादव को चुनाव लड़वाया था । पिता की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अखिलेश यादव ने भी दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में कन्नौज के अलावा फिरोजाबाद से चुनाव लड़ा था । अखिलेश ने भी दोनों जगह जीत हासिल की और उपचुनाव में फिरोजाबाद से अपनी पत्नी डिंपल को चुनाव लड़वाया लेकिन यहां दांव उल्टा पड़ गया था और कांग्रेस के राज बब्बर ने डिंपल को हरा दिया था । नीतीश भी दो सीटों से चुनाव लड़ चुके हैं । इस बार भी मुलायम सिंह यादव मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं । आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का उद्देश्य नरेन्द्र मोदी के प्रभाव को कम करना बताया गया । इन क्षेत्रीय दलों के नेता अपने प्रभाव वाले राज्य से बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा पाते हैं जबकि इंदिरा और सोनिया ने उत्तरी राज्यों के अलावा दक्षिणी राज्यों से चुनाव लड़ा था । बुनियादी फर्क यह है कि राष्ट्रीय दल के नेता लोकसभा की सीट पक्की करने के अलावा अखिल भारतीय स्वीकार्यता के लिए दो जगहों से चुनाव लड़ते हैं जबकि क्षेत्रीय दलों के नेता सिर्फ सीट पक्की करने के लिए दांव लगाते हैं । यही बात मोदी पर भी लागू होती है ।

दो जगहों से चुनाव लड़ने वालों की इतनी लंबी सूची बताने का मकसद सिर्फ इतना था कि ना तो कानूनन और ना ही नैतिक रूप से यह गलत है । जनप्रतिनिधि कानून उन्नीस सौ इक्यावन की धारा तैंतीस के मुताबिक कोई भी भारतीय नागरिक को दो से ज्यादा क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ सकता है चाहे वो लोकसभा का चुनाव हो, विधानसभा का हो या फिर विधान परिषद का । यही नियम उपचुनावों के दौरान भी लागू होता है । इसी कानून की धारा सत्तर में यह प्रावधान है कि अगर कोई उम्मीदवार दो सीटों से जीतता है और तय समय के अंदर एक सीट से इस्तीफा नहीं देता है तो दोनों ही सीट खाली मानी जाएगी । इस पृष्ठभूमि में और इस कानून के प्रभावी होने से किसी भी उम्मीदवार के दो सीटों से खड़े होने पर कोई पाबंदी नहीं है और ना ही गलत है । नैतिकता पर सवाल उठाने का हक तो सब को है ही । 

Sunday, April 27, 2014

हिंदी में नायको का सम्मान नहीं

जादुई यथार्थवाद के जनक गाब्रिएल गार्सिया मार्केज को श्रद्धांजलि देने मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में जो भीड़ उमड़ी वह सचमुच जादुई लग रही थी । आधुनिक युग में लेखकों को श्रद्धांजलि देने के लिए लोग घंटों कतार में खड़े रहें तो सचमुच आश्चर्य होता है । गाब्रिएल गार्सिया मार्केज के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए कोलंबिया के राष्ट्रपति भी मैक्सिको पहुंचे थे । मार्केज का अंतिम संस्कार बगोटा कैथेड्रल में बेहद निजी रिश्तेदारों की मौजूदगी में हुआ । इस अंतिम संस्कार में कोलंबिया के राष्ट्रपति जुआन मैन्युल सैंटोस भी शामिल हुए थे । जब बगोटा कैथेड्रल में मार्केज का अंतिम संस्कार हो रहा था उसी वक्त प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार कोलंबिया के उनके पैतृक शहर में भी किया गया जिसमें भी काफी लोग इकट्ठा हुए । यह तब हुआ जब 1981 में मार्केज ने सेना की पूछताछ की आशंका के बाद कोलंबिया छोड़ दिया था । बगोटा कैथेड्रेल में अंतिम संस्कार के बाद उनका अस्थि कलश मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में रखा गया था । वहां भारी संख्या में उनके प्रशंसक हाथों में पीला गुलाब लिए अपने प्रिय लेखक को अंतिम विदाई देने पहुंचे थे । पीले फूल मार्केज को बेहद पसंद थे । इस अंतिम विदाई में कोलंबिया के राष्ट्रपति के साथ साथ मैक्सिको के राष्ट्रपति भी शामिल हुए । दो राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी और लैटिन अमेरिकी देशों में उसी वक्त अलग अलग शहरों में अपने प्रिय लेखकों को श्रद्धांजलि यह उस समाज की सोच और अपने प्रिय लेखक के प्रति प्यार और सम्मान को दर्शाता है ।

इसके पहले मार्केज के घर पर उनके अंतिम दर्शन करने के लिए काफी लोग जमा हुए थे । उन तस्वीरों के बाद जब मैं मैक्सिको सिटी के पैलेस ऑफ फाइन आर्ट्स में मार्केज को अंतिम विदाई की तस्वीरें देख रहा था तो बहुत शिद्दत से पिछले साल ही राजेन्द्र यादव के निधन पर उनके घर का मंजर याद आ रहा था । देर रात राजेन्द्र यादव की मौत हुई थी और जब तड़के उनके घर पहुंचा था तो वहां चंद लोग मौजूद थे । सुबह से सभी टेलीविजन चैनलों पर यादव जी के निधन का समाचार चलने लगा था लेकिन लोगों की बात तो दूर साथी साहित्यकार भी वहां नहीं पहुंचे थे । यादव जी दिल्ली के मयूर विहार इलाके में रहते थे, उसी मयूर विहार में दर्जनों साहित्यकार रहते हैं जिनमें से कई तो उनके घर पहुंचे भी नहीं, सीधे अंतिम संस्कार के मौके पर पहुंचे । यह भारतीय आधुनिक समाज का सच है । राजेन्द्र यादव जी हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थे और उनके प्रशंसक हर उम्र के लोग थे । ऐसा नहीं है कि यादव जी के अंतिम संस्कार में इस तरह की उदासीनता देखने को मिली थी । भारत के महान लेखक प्रेमचंद का जब निधन हुआ था तो उनकी शवयात्रा में भी चंद लोग ही शामिल हुए थे । उनकी शवयात्रा देखकर किसी ने पूछा था कि किसका निधन हुआ है तो बताया गया कि कोई मास्टर साहब थे । इससे इतर आचार्य रामचंद्र शुक्ल और निराला जी को अंतिम विदाई देने के लिए पूरा शहर जरूर उमड़ा था । सवाल यही है कि हिंदी समाज अपने लेखकों को नायक क्यों नहीं बना पाता है । क्यों नहीं हमारे देश में सड़कों और इमारतों के नाम लेखकों का नाम पर रखे जाते हैं । जब जवाब ढूढने निकलते हैं तो मुझे लगता है कि इसके लिए हिंदी समाज की तटस्थता और सरकारी उदासीनता जिम्मेदार है । बहुत हद तक जिम्मेदार हमारा शासक वर्ग भी है जो साहित्य से दूर होता जा रहा है । हमें अपने साहित्यकारों का मान करना सीखना होगा ।   

Friday, April 25, 2014

क्या भूलूं क्या याद करूं ?

हमारे देश में क्रिकेट और राजनीति दोनों खासी लोक्रपिय है । दोनों में कई कायदे कानून एक जैसे हैं । दोनों टीम गेम है । दोनों में कप्तान की रणनीतियों पर जय-पराजय निर्भर करता है । दोनों में जीत नायकों को जनता सर माथे पर बिठा लेती है और हार के खलनायक को हाशिए पर फेंक देती है । राजनीति और क्रिकेट के नायक जब अपने क्षेत्र से विदा लेते हैं तो उस वक्त दोनों में काफी असामनता देखी जाती है । क्रिकेट के नायक सचिन तेंदुलकर ने जब क्रिकेट को अलविदा कहने का एलान किया था तो उसी वक्त से उनकी विदाई समारोह को ऐतिहासिक और यादगार बनाने की कवायद शुरू हो गई थी । उनके आखिरी टेस्ट मैच की जगह बदलकर मुंबई कर दी गई थी । दुनियाभर के तमाम महान क्रिकेटरों को उनके आखिरी मैच का गवाह बनने के लिए आमंत्रित किया गया । लेकिन राजनीति में विदाई हमेशा खामोशी के साथ होती है । मनमोहन सिंह ने इस साल जनवरी में दिल्ली में एलान किया था कि लोकसभा चुनाव के बाद वो रिटायर हो जाएंगे और आगामी लोकसभा चुनाव के बाद वो देश की बागडोर नए प्रधानमंत्री के हाथ में सौंप देंगे । अपनी आखिरी प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने साफ किया था कि प्रधानमंत्री के तौर पर यह उनकी आखिरी पारी है ।उनका यह बयान एक दो दिन ही सुर्खियों में रहा । एलान वाले दिन न्यूज चैनलों पर प्रधानमंत्री के तौर उनके कामकाज पर बहस हुई थी । अगले दिन के अखबारों में संपादकीय लिखे गए थे । उसके बाद मनमोहन सिंह को लेकर जनमानस में एक अजीब तरह की उपेक्षापूर्ण खामोशी दिखाई देती है । लोकसभा चुनाव के वक्त वो नेपथ्य में हैं । दस साल तक लगातार देश का प्रधानमंत्री रहने के बाद भी उनकी खुद की पार्टी चुनाव में उनका इस्तेमाल नहीं कर रही हैं । इस तरह की खबरें आ रही है कि कोई भी कांग्रेसी उम्मीदवार मनमोहन सिंह का कार्यक्रम अपने क्षेत्र में करवाने को लेकर उत्साहित नहीं है । क्या इतिहास मनमोहन सिंह को इसी तरह से याद करेगा जिस तरह से वर्तमान उनको याद कर रहा है । मनमोहन सिंह को खुद इस बात का अंदाजा है तभी उन्होंने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि इतिहास उनके प्रति दयालु होगा और समकालीन मीडिया की तरह उपेक्षित नहीं करेगा ।

दो हजार चार में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद अस्वीकार किया था और मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री मनोनीत किया था तब लोगों को इस अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री से बहुत उम्मीदें थी । जानकारों का मानना है कि अपने पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने काफी काम किए । नरेगा जैसा गैमचेंजर कार्यक्रम लागू किया गया इसके अलावा दो हजार आठ के विश्वव्यापी मंदी को मनमोहन सिंह के कुशल नेतृत्व में देश ने बेहतर तरीके से झेल लिया और उसका नकारात्मक असर काफी कम दिखा । अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इतने बुरे दौर में भी अगर भारत का ग्रोथ रेट पांच फीसदी के आसपास है तो यह किसी उपलब्धि से कम नहीं है । मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में तो ग्रोथरेट तकरीबन आठ फीसदी के आसपास रहा था । दो हजार नौ के चुनाव में जब कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली तो पार्टी के नेताओं में इसका श्रेय राहुल गांधी को देने की होड़ लग गई । उस आपाधापी में मनमोहन सिंह का योगदान याद नहीं किया जा सका । यहां यह याद दिला दें कि राजीव गांधी के बाद पहली बार ऐसा हुआ था जब कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव के पहले मनमोहन सिंह को अपना प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था । यहां यह रेखांकिकत करना आवश्यक है कि पिछले पांच साल में मनमोहन सरकार के बेहतर कामकाज, अच्छी नीतियां और फिर चुनाव के वक्त जनता के मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी ने पार्टी को सालों बाद दो सौ का आंकड़ा पार करवाया । प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब से यह तो साफ हो ही गया है कि मनमोहन सिंह प्रचार पिपासु नहीं थे, लिहाजा वो इसका श्रेय नहीं ले पाए । मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार की खबरें नहीं आई लेकिन दूसरे कार्यकाल में तो लगा कि भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड टूट जाएंगे । मंत्री और सांसद घोटालों के आरोप में जेल गए । पवन बंसल और दयानिधि मारन जैसे कांग्रेस और यूपीए के सहयोगी दलों के मंत्रियों का इस्तीफा हुआ । कोयला घोटाले की कालिख प्रधानमंत्री कार्यालय तक जा पहुंची । मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी पर किसी को कोई शक नहीं है लेकिन मजबूत प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों पर पैनी नजर रखता है और अपने अधीन मंत्रियों की कारगुजारियों को काबू में ।लेकिन ऐसा हो नहीं सका । दो हजार नौ से दो हजार चौदह के बीच मनमोहन सिंह एक कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री के तौर पर उभरे । दो हजार चार से लेकर दो हजार नौ तक जिस शख्स की चमक दमक ने कांग्रेस को दोबारा सत्ता दिलवाई वो अगले पांच साल में निस्तेज हो गया । इसकी कई वजहें हो सकती हैं लेकिन नेतृत्व क्षमता की असली परख तो असाधारण परिस्थियों में परफॉर्म करने से ही होती है । इस कसौटी पर देखें तो मनमोहन सिंह औसत रहे । बाबजूद अपनी तमाम कमियों और कमजोरियों के दस साल तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मुखिया बने रहना मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि है । तभी तो कहा जाता है कि मनमोहन सिंह इज अ अंडररेडेट पॉलिटिशियन एंड ओवररेटेड इकॉनामिस्ट । 

Sunday, April 20, 2014

ध्रुवीकरण का बैतलवा फिर डार पर

लोकसभा के पांचवें चरण का चुनाव खत्म हो चुका है । तकरीबन आधी लोकसभा सीटों के उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में बंद हो चुकी है । लेकिन अब भी चुनाव के कई चरण बाकी हैं लिहाजा सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार में अपनी ताकत झोंकी हुई है । एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप और सियासी हमले तेज हो गए हैं ।  दोनों राजनीतिक दल, कांग्रेस और बीजेपी अपनी-अपनी उपलब्धियों का गुणगान करने में लगे हैं लेकिन सियासी हमलों में उपलब्धियों का बखान पृष्ठभूमि में चला गया है । चुनावी रण में पार्टियां अपनी बुनियादी मुद्दों से भटकती नजर आ रही हैं और एक बार फिर से मतदाताओं के ध्रुवीकरण करने में जुटे हैं । भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने जब अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत की थी तो उनका मुख्य मुद्दा विकास था । विकास के अलावा वो अपनी सभाओं में भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ जंग का एलान करते थे । मोदी के राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर उदय के साथ उनकी छवि निर्माण में लगी टीम ने गुजरात के विकास मॉडल और उसमें नरेन्द्र मोदी की भूमिका को योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाया । नतीजा यह हुआ कि देशभर के मतदाताओं के बीच मोदी की विकास पुरुष की छवि पेश हुई । एक ऐसा शख्स जो मजबूती से निर्णय ले सकता है और विकास की राह में आनेवाली सारी बाधाएं दूर करने की क्षमता रखता है । इसी तरह से अगर हम कांग्रेस की बात करें तो राहुल गांधी हों या सोनिया गांधी दोनों ने अपनी सभाओं में सबसे ज्यादा ढिढोरा जनता को पिछले दस साल में दिए गए अधिकारों का पीटा । चाहे वो मनरेगा हो, सूचना का अधिकार हो ,शिक्षा का अधिकार हो, भोजन की गारंटी हो या फिर भूमि सुधार कानून हो । उधर तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने वामदलों के कुशासन और बंगाल की खस्ता हालत को फिर से चुनावी मुद्दा बनाया । उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगों के बावजूद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने खुलकर ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं की । उत्तर प्रदेश में विपक्षी दलों ने बदहाल कानून व्यवस्था को चुनावी मुद्दा बनाया । लेकिन जैसे जैसे चुनावी प्रक्रिया आगे बढ़ने लगी तो सभी दलों ने गियर बदला और विकास, भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे को पृष्ठभूमि में डालते हुए इस तरह के बयान देने शुरू कर दिए जिससे दो समुदायों के बीच ध्रुवीकरण तेज हो सके । कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू के उस प्रसिद्ध कथन को भुला दिया जिसमें हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री ने कहा था- हम चाहे किसी भी धर्म के हों सभी भारत माता की संतान हैं और हमारे अधिकार समान हैं । हम किसी भी तरह की सांप्रदायिकता और संकीर्ण सोच को बढ़ावा नहीं दे सकते हैं । कोई भी देश तबतक महान नहीं हो सकता जबतक कि वहां की जनता अपने कार्य और सोच में संकीर्ण हो ।अब जरा सोचिए जवाहरलाल नेहरू की राजनीति की विरासत संभालने वाले किस तरह से उसी संकीर्ण सोच को बढ़ावा दे रहे हैं । दरअसल कांग्रेस के रणनीतिकारों को जब लगा कि पार्टी लोकसभा चुनाव में कमजोर पड़ रही तो उन्होंने एक बार फिर से सेक्युलर और कम्युनल कार्ड खेलने की रणनीति बनाई । गुजरात दंगों को लेकर देश का मुसलमान नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को लेकर सशंकित रहता है । कांग्रेस शुरू से इस कोशिश में थी कि लोकसभा चुनाव के पहले मुसलमानों को मोदी का भय दिखाकर अपने पक्ष में किया जाए । लेकिन मोदी लगातार विकास, महंगाई और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर कांग्रेस की इस रणनीति की हवा निकाल रहे थे । जब भारतीय जनता पार्टी ने हिंदू वोटरों को लुभाने के लिए रामदेव और श्रीश्री रविशंकर का सहारा लिया तो कांग्रेस ने इसके काट के लिए दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी को अपने पाले में किया । अभी हाल ही में राजनाथ सिंह कल्बे जव्वाद और फिरंगी महली के दर पर दस्तक दे आए । बेवजह का विवाद भी खड़ा कर आए ।

सोनिया गांधी के सिपहसालारों ने दिल्ली के ख्यात अहमद बुखारी से उनकी मुलाकात करवाई । इस मुलाकात के बाद सोनिया ने उनसे अपील की सेक्युलर वोटों का बंटवारा नहीं हो । पहले से लिखी गई स्क्रिप्ट के मुताबिक सोनिया की अपील पर बुखारी ने फौरन अमल किया और मुसलमानों से कांग्रेस को वोट देने की गुजारिश कर डाली । ये अलग बात है कि बुखारी की मुसलमानों के बीच इतनी भी साख नहीं है कि उनके कहने से सैकड़ों वोट भी पड़ सके लेकिन जामा मस्जिद और उसके शाही इमाम के प्रतीकात्मक महत्व को वो भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । पुरानी दिल्ली इलाके में एक जुमला खूब चलता है कि जामा मस्जिद की सीढियों के नीचे बुखारी की कोई नहीं सुनता । उनके भाई ने भी बुखारी की बात नहीं मानने की अपील कर दी थी । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले बुखारी मुलायम सिंह यादव के साथ थे । जब मुलायम सिंह यादव ने उनके रिश्तेदार को मंत्री बनाने से मना कर दिया बुखारी बिदक गए । मुसलमान वोटों की ठेकेदारी का बुखारी का लंबा इतिहास रहा है । हर चुनाव के पहले वो राजनीति सौदेबाजी के बाद इस या उस पक्ष में वोट देने की अपील करते हैं ।
लोकसभा चुनावों पर गहरी नजर रखनेवाले राजनीति विश्लेषकों का कहना है कि जब कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ध्रुवीकरण की राजनीति की ओर बढ़ता दिखा तो फिर नीचे के नेता और कार्यकर्ता बेकाबू होने लगे । उत्तरप्रदेश के सहारनपुर से कांग्रेस प्रत्याशी ने भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की बोटी बोटी काटने जैसा घोर आपत्तिजनक बयान दिया तो वसुंधरा राजे भी मुख्यमंत्री पद की मर्यादा भूल गई । उन्होंने भी कह डाला कि चुनाव के नतीजे आने दीजिए तब पता चलेगा कि किनकी बोटियां कटेंगी । इन बयानबाजियों और चुनाव नजदीक आता देख बीजेपी के रणनीतिकारों को लगा कि कहीं वो पिछड़ वना जाएं तो खुद मोदी ने भी मांस के निर्यात और पिंक रिवोल्यूशन की बातें करके ध्रुवीकरण को हवा दी । मोदी के विश्वस्त सिपहसालार और उत्तर प्रदेश में चुनाव के प्रभारी अमित शाह तो एक और कदम आगे चले गए । उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली और बिजनौर में अपमान का बदला लेने वाला बयान दे डाला । अमित शाह ने कहा कि आदमी भूखा और प्यासा तो रह सकता है, लेकिन अगर अपमानित हो जाता है तो चैन से नहीं रह सकता है । अमित शाह ने कहा कि अपमान का बदला तो लेना पड़ेगा । गौरतलब है कि यह मुजफ्फरनगर का वही इलाका है जहां कुछ महीनों पहले सांप्रदायिक दंगों में पचास से ज्यादा मुसलमान मारे गए थे । अमित शाह के इस बयान को अगर उन दंगों से जोड़कर देखें तो ध्रुवीकरण का लक्ष्य नजर आता है ।
मौका भांपते ही समाजवादी पार्टी इसमें कूद पड़ी और उत्तर प्रदेश के ताकतवर मंत्री आजम खान ने तो सारी हदें पार कर दी । सारी राजनीतिक मर्यादा का उल्लंघन करते हुए उन्होंने अमित शाह को गुंडा नंबर एक और कातिल तक कह डाला । बाद में ये बयान दे दिया कि करगिल में मुसलमानों ने विजय दिलवाई । यह भारतीय राजनीति का इतना निचला स्तर है कि इसकी जितनी भर्त्सना  की जाए वो कम है । फौज का जवान वर्दी पहनने के बाद ना तो हिंदू होता है और ना मुसलमान वो सिर्फ हिन्दुस्तनी होता है । चुानवी फायदे के लिए इस तरह से फौज पर टिप्पणी नेताओं की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है । दरअसल नेताओं की ध्रुवीकरण की इन कोशि्शों को चुनाव आयोग की कमजोरी से बल मिलता है । चुानव आयोग इस तरह की बयानबाजियों के मसले में नोटिस जारी करने की मामूली सी कार्रवाई करता है, चंद दिनों तक रैली करने पर पाबंदी लगाता है लेकिन सख्त कार्रवाई नहीं कर इनके हौसले को हवा देता है । इस तरह की बयानबाजियों और संप्रदाय के आधार पर वोटरों को बांटने की कोशिशों पर चुनाव आयोग को बेहद सख्त कदम उठाने होंगे । कानूनी दांव पेंच से बच निकलने के नेताओं की कोशिशों पर भी रोक लगाना होगा । भारत विविध धर्मों और संप्रदायों का देश है और वोट और सत्ता के लिए इसके सामाजिक तानेबाने को छिन्न भिन्न करने की इजाजत किसी भी कीमत पर नहीं दी जा सकती है ।

कायम रहेगा जादुई यथार्थवाद

अपने एक इंटरव्यू में गाब्रिएल गार्सिया मार्केज से जब पूछा गया था कि अगर किसी लेखक को सफलता या प्रसिद्धि जल्द मिल जातेी है तो ये उसके लेखन के लिए अच्छा है या बुरा तो मार्केज ने कहा था कि लेखक के लिए प्रसिद्धि किसी किसी भी वय में बुरा होता है । मैं तो चाहता हूं कि मेरी किताबें मेरी मृत्यु के बाद प्रसिद्ध हों खासकर उन देशों में जहां किताबें भी माल की तरह से खरीदी बेची जाती हैं । मार्केज की ये ख्वाहिश तो पूरी नहीं हो पाई क्योंकि वो अपने जीवन काल में ही इतने मशहूर हो गए । उनकी किताब वन हंड्रेड इयर ऑफ सालिड्यूड दुनिया के अलग अलग देशों की भाषाओं में अनूदित होकर तकरीबन 5 करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं और लगातार उसकी मांग बनी हुई है। मार्केज की इस किताब को कालजयी उपन्यास का दर्जा हासिल है । इसके अलावा भी स्पेऩिश में लिखने वाले इस महान लेखक की अन्य किताबें भी खासी लोकप्रिय रही हैं। मार्केज ने अपनी जिंदगी की शुरुआत पत्रकार के तौर पर की थी और जिंदगी के आखिरी क्षणों तक अपने पत्रकार होने पर गर्व करते रहे । मार्केज का मानना था कि पत्रकार को बहुत सोच विचार कर अखबार के हितों को ध्यान में रखकर लिखना होता है वहीं उपन्यासकार को तो अपनी पसंद और विचार और अपनी विचारधारा को व्यक्त करने की पूरी आजादी होती है । और अपनी इसी आजादी का उन्होंने अपनी रचनाओं में जमकर आनंद उठाया था चाहे वो वन हंड्रेड इयर ऑफ सालिट्यूड हो या फिर उनका पहला उपन्यास लीफ स्टॉर्म ।

गाब्रियल गार्सिया मार्केज का जन्म एक लातिन अमरीकी देश कोलंबिया में हुआ था । उनका बचपन सामान्य तरीके से नहीं गुजरा । अपने माता पिता से अलग वो अपने नाना-नानी के साथ रहना पड़ा था । बाद के दिनों में मार्केज ने माना था कि उनके लेखन पर उनके नाना-नानी की छाप गहरी रही है । कहानियों और उपन्यासों के कहने के स्टाइल पर उनकी नानी की किस्सागोई का और नाना के विचारधारा की छाप होने की बात भी मार्केज ने स्वीकारी है । मार्केज नेमाना था कि उनकी रचनाओं में जादुई यथार्थवाद दिखाई देता है वह उनकी नानी की कहानियों का आवश्यक तत्व हुआ करता था । मार्केज की नानी की कहानियों में अंधविश्वास, भूत-प्रेत आदि का समावेश हुआ करता था । उनकी नानी जब कहानी सुनाया करती थी तो उनता अंदाज इस तरह का होता था कि सुनने वाले को घटनाएं और परिस्थियां एकदम से यथार्थवादी लगा करती थी. हो चाहे वो बिल्कुल ही काल्पनिक । मार्केज ने अपनी नानी की इस कला में अपनी बौद्धिकता का पुट देकर उसे मैजिकल रियलिज्म के नाम से प्रतिपादित किया । बाद में वो विश्व में एक कला के तौर पर स्थापित हो गई । मार्केज का पहला उपन्यास लीफ स्टॉर्म उन्नीस सौ उनचास में छपा । इस उपन्यास के साथ भी एक दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है । इसको प्रकाशक मिलने में तकरीबन सात साल लगे थे । लेकिन बाद में मार्केज ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और फिर एकर के बाद एक उपन्यासों और कहानियों ने उनको विश्व लेखक के तौर पर स्थापित कर दिया । उनकी रचनाओं का अलग अलग भाषाओं में अनुवाद होने लगा और 1982 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार मिला । उनकी रचनाओं पर फिल्में बनीं । लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा पर बनी फिल्म ने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले थे । मार्केज के निधन से साहित्य का एकर ऐसा सितारा चला गया जिसकी चमक से साहित्य का दुनिया जगमगाया करता था । 

Sunday, April 13, 2014

शख्सियत से निकलते संदेश

भारतीय जनता पार्टी ने पहले चरण के चुनाव के साथ अपना घोषणा पत्र जारी किया । इस मौके पर पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने एक बेहद अहम हात कही जो पर्याप्त रूप से रेखांकित नहीं हो पाई । राजनाथ सिंह ने कहा कि जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आएगी तो अपने आपको इस चुनावी घोषाणा पत्र तक सीमित नहीं रखेगी, बल्कि इससे इतर जाकर भी विकास के लिए जरूरी सभी कदम उठाए जाएंगे । अब पार्टी अध्यक्ष के इस बयान के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है । राजनाथ सिंह के इस बयान से यह ध्वनित होता है कि भारतीय जनता पार्टी का यह घोषणा पत्र उसका अंतिम नीतिगत दस्तावेज नहीं है, होना भी नहीं चाहिए । किसी भी पार्टी को यह हक है कि वो समय और जनता की आकांक्षा और जरूरतों के हिसाब से अपनी नीतियों में बदलाव और संशोधन करे । लोकसभा चुनाव के पहले चरण में जब वोटिंग शुरू हो चुकी थी उस दिन पार्टी ने अपना घोषणा-पत्र जारी किया । इससे भी इस बात के संकेत मिलते हैं कि भारतीय जनता पार्टी सिर्फ घोषणा पत्र की औपचारिकता मात्र निभा रही थी । पहले तो यह खबर आई थी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व का एक तबका चुनावी घोषणा पत्र की रस्म अदायगी के खिलाफ है । उनके तर्क यह थे कि घोषणा पत्र से कुछ हासिल नहीं होता है, जनता उसे पढ़ती नहीं है लिहाजा उसकी आवश्कता नहीं है । इस हां-ना में काफी देर हो गई । जब कांग्रेस ने चुनावी घोषणा-पत्र में हो रही देरी को चुनावी मुद्दा बनाकर भारतीय जनता पार्टी को घेरने की कोशिश शुरू की तो फिर घोषणा पत्र जारी करने के काम में तेजी आई और पहले चरण के मतदान शुरू होने के कई घंटे बाद इसको जारी किया जा सका ।
माना यह जा रहा था कि इस बार भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की छाप दिखाई देगी । आर्थिक नीति से लेकर विदेश नीति तक नरेन्द्र मोदी की सोच परिलक्षित होगी लेकिन इस चुनावी दस्तावेज में ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई दिया । मोदीफेस्टो की अपेक्षा कर रहे लोगों को निराशा हाथ लगी । जब चुनावी घोषणा पत्र जारी होने में देरी होने लगी तभी से इस तरह की आशंका के संकेत मिलने शुरू हो गए थे कि नरेन्द्र मोदी इस चुनावी दस्तावेज को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं । फिर ये खबर आई कि प्रस्तावित चुनावी घोषणा पत्र के कई बिन्दुओं पर नरेन्द्र मोदी को एतराज है । घोषणा पत्र ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी और मोदी इस दस्तावेज पर एकमत नहीं हो पा रहे थे और उसमें बदलाव किया जा रहा है । घोषणा पत्र के जारी होने में हो रही देरी के बारे में जब भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से सवाल पूछा गया तो उनका स्पष्ट जवाब था कि नरेन्द्र मोदी खुद ही भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र हैं । भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भले ही व्यंग्य या फिर हल्के फुल्के अंदाज में ये बात कही हो लेकिन हकीकत यही है । इस बार के लोकसभा चुनाव में मोदी भारतीय जनता पार्टी के चलते फिरते घोषणा पत्र ही हैं । उनकी विकास पुरुष की छवि और गुजरात मॉडल को इतना ज्यादा प्रचारित किया गया था कि किसी और दस्तावेज की जरूरत थी भी नहीं । मोदी और उनके रणनीतिकारों ने यही रणनीति भी बनाई थी । जिस तरह से अबकी बार, मोदी सरकार के नारे को मजबूती से आगे बढ़ाया गया उससे तो यही लगता है कि नीतियों ने ज्यादा इस बार पार्टी व्यक्ति के आधार पर वोट मांग रही हैं । अबकी बार मोदी सरकार पर ही व्यक्ति केंद्रित प्रचार नहीं रुकता है । भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी खुद भी कहते हैं कि इस बार का वोट उनके लिए है । उन्होंने देश की जनता को भरोसा दिया है कि उनका एक एक वोट मोदी के लिए है । मोदी कहते हैं आपका दिया हर वोट मेरे लिए है वो सीधे मुझ तक पहुंचेगा । ऐसे में नीतियों की बात करना बेमानी है । मोदी के रणनीतिकारों का मानना है कि नीतियों और सिद्धांतों पर ज्यादा जोर देने से चुनाव में मोदी से ध्यान हट या बंट सकता है । इस वजह से हर कार्यक्रम, प्रचार सामग्री और भाषणों के केंद्र में सिर्फ और सिर्फ मोदीको रखा गया है । सबका साथ सबका विकास का नारा घोषणा पत्र के पन्नों पर ही रह गया । सात अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र दिल्ली में समारोहपूर्वक जारी होता है लेकिन चंद घंटे बाद घोषणा पत्र में उल्लिखित वादों और इरादों की चर्चा नेपथ्य में चली जाती है । ऐसा प्रयासपूर्वक किया गया ताकि मतदाताओं का ध्यान मोदी, उनके व्यक्तित्व और गुजरात में किए गए उनके कामों से नहीं हट सके । जब भी व्यक्ति विशेष राजनीति के केंद्र में आता है और विचारधारा और संगठन पृष्ठभूमि में चले जाते हैं तो इस तरह के वाकए देखने को मिलते हैं । यहां सिर्फ एक ही उदाहरण काफी होगा । उन्नीस सौ इकहत्तर में पाकिस्तान को हराकर बांग्लादेश का निर्माण करवाने के बाद इंदिरा गांधी अपने लोकप्रियता के शिखर पर थी । उसके बाद की सारी नीतियां और गतिविधियां इंदिरा गांधी के इर्द गिर्द घूम रही थी तभी तो उन्नीस सौ चौहत्तर में कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कहा था- इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा । अब भी कुछ कुछ ऐसा ही हो रहा है । जिस तरह से इंदिरा गांधी सत्तर के दशक में कांग्रेस पार्टी के हर फैसले की धुरी बन गई थी उसी तरह से इस वक्त भारतीय जनता पार्टी में हर फैसला नरेन्द्र मोदी को केंद्र और ध्यान में रखकर लिया जा रहा है । कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मजबूत सरकार के लिए यह आवश्यक है । उनके तर्कों का सम्मान करते हुए सिर्फ इतना निवेदन करना है कि राजनीति में संगठन की अपनी एक अहमियत होती है और लोकतंत्र में सामूहिक राय का महत्व होता है उसको नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए ।

अब अगर भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र पर एक नजर डालें तो यह बात और साफ हो जाती है कि ये रस्म अदायगी का दस्तावेज है । इस दस्तावेज में कोई भी क्रांतिकारी बदलाव की रूपरेखा या उसका रोडमैप दिखाई नहीं देता है । नए शहर, हर राज्य में एम्स जैसा अस्पताल, गरीबों को पक्का मकान, भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए टास्क फोर्स आदि जैसे घिसे पिटे वादे इसमें शामिल किए गए हैं । विदेशों में जमा काला धन को वापस लाने के लिए टास्क फोर्स और पार्टी की प्रतिबद्धता को तो घोषणा पत्र में स्थान मिला है लेकिन देश में काला धन को रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए इसके बारे में बीजेपी का घोषणा पत्र खामोश है । इससे यह लगता है कि इस दस्तावेज को बनाते समय काला धन की मूल समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया । काला धन के लिए जिम्मेदार टैक्स नीति के रिफॉर्म पर भी घोषणा पत्र में कोई चर्चा नहीं है । सालों से भारतीय जनता पार्टी के घोषाणा पत्र का अनिवार्य हिस्सा रहे राम जन्मभूमि निर्माण, अनुच्छेद सीन सौ सत्तर को खत्म करना और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे इस बार भी हैं । एक बदलाव सिर्फ इतना है कि दो हजार नौ के चुनावी घोषणा पत्र में रामजन्म भूमि को जनता की आकांक्षा बताते हुए उसके निर्माण पर जोर दिया गया था और इस बार उसको कानून और संविधान के दायरे में बनाने के प्रयास की बात की गई है । फेडरल सिस्टम और राष्ट्रीय कृषि बाजार जैसे एक दो बेहतर बातें इसमें हैं लेकिन उसका वादा करते वक्त यह नहीं बताया जा सका है कि उसको लागू कैसे किया जाएगा । बेहतर तो यह होता कि इस घोषणा पत्र में नरेन्द्र मोदी की नीतियों और सोच विस्तार से परिलक्षित होती और वक्त रहते इसको देश के सामने रख दिया जाता । उसके बाद घोषणा पत्र जारी करते वक्त नरेन्द्र मोदी अपने विजन को विस्तार से सामने रखते और सवाल जवाब से पत्रकारों और देश को संतुष्ट कर अपने आलोचकों का मुंह बंद करते । गुजरात मॉडल को चाहे जितना प्रचारित किया जाए लेकिन पूरे देश को समग्रता में यह जानने का हक तो है कि नरेन्द्र मोदी की सोच और नीतियां क्या होंगी । घोषणा पत्र इसके लिए एक बेहतर मौका था । 

Monday, April 7, 2014

चुनाव से पहले हारा वाम

देश में लोकतंत्र का महापर्व आम चुनाव शुरू हो चुका है । लोकसभा चुनाव के पहले नेताओं की जुबानी जंग और मीडिया में कयासों के कोलाहल के बीच एक अहम बात दब गई है । पूरे देश में राजनीति पंडित इस चुनाव में राजनीतिक दलों के आसन्न जीत और हार का कयास लगा रहे हैं । कुछ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में लहर बता रहे हैं तो कईयों का मानना है कि दक्षिण में भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी मोदी के विजय रथ को रोक सकती है । सबके अपने अपने तर्क और कारण हैं । जीत हार के इन तर्कों, कारणों और दावों प्रतिदावों के बीच एक बात जो खामोश मजबूती के साथ दिखाई दे रही है वो है इन चुनावों में वामपंथी दलों का अप्रसांगिक होना । कुछ राजनीति विश्लेषकों का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस और भाजपा भले ही जीत के दावों में उलझी हो लेकिन इस लोकसभा चुनाव में वामदलों की हार में किसी को संदेह नहीं है । क्यों इस लोकसभा चुनाव में वामपंथी समूह की सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम निष्क्रिय दिखाई दे रही है । क्यों नहीं वामपंथी समूह गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों के बीच की धुरी बन पा रहे हैं । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब नब्बे के दशक में हरकिशन सिंह सुरजीत ने अपने राजनैतिक कौशल से कई बार गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस दलों को एकजुट कर सरकार बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी । उसके बाद भी दो हजार चार में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के गठन में वामदलों की बेहद अहम भूमिका थी । अब सिर्फ इतने दिनों में क्या हो गया कि तमिलनाडू में एआईएडीएमके के साथ गठबंधन के एलान के चंद दिनों बाद जयललिता उससे बाहर निकल आती हैं । गुजरात में प्रोग्रेसिव फ्रंट आकार भी नहीं ले पाता है । सांप्रदायिकता के नाम पर दिल्ली में गैर कांग्रसी और गैर भाजपा दलों को एकजुट करने का उनका प्रयास परवान नहीं चढ पाता है । क्या साख का संकट है या फिर नेतृत्व का । इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि उन्नसी सौ बावन के पहले आम चुनाव में देश भर में प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उभरने वाली पार्टी महज साठ साल में अप्रासंगिक होती दिख रही है । क्या वजह है कि पश्चिम बंगाल और केरल जैसे मजबूत गढ़ के अलावा बिहार और महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में मजबूत प्रदर्शन करनेवाली पार्टी अब वहां काफी कमजोर दिखाई देती है ।
दरअसल वामदल अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार हैं । राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार एंथोनी पैरेल ने ठीक ही कहा था- भारतीय मार्क्सवादी भारत को मार्क्स के सिद्धांतों के आधार पर बदलने की कोशिश करते हैं और वो हमेशा मार्क्सवाद को भारत की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिशों का विरोध करते रहे हैं । साफ है कि भारतीय मार्क्सवादी इस देश को रूस और चीन की व्यवस्था के अनुरूप चलाना चाहते हैं । नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित और व्याख्यायित करने की कोशिश ही नहीं की गई । नुकसान यह हुआ कि मार्क्सवाद को भारतूीय दृष्टि देने का काम नहीं हो पाया । इसकी एतिहासिक वजहें हैं । उन्नीस सौ सैंतालीस में जब देश आजाद हुआ तो सीपीआई ने इसको आजादी मानने से इंकार कर दिया और आजादी को बुर्जुआ के बीच का सत्ता हस्तांतरण माना । भारतीय जनमानस को नहीं समझने की शुरुआत यहीं से होती है । जब पूरा देश स्वतंत्रता के जश्न में डूबा हुआ था और लोगों की आकांक्षा सातवें आसमान पर थी तो सीपीआई ने उन्नीस सौ अडतालीस में नवजात भारतीय गणतंत्र के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया था । रूसी तानाशाह स्टालिन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए इसको खत्म करने में भारत की मदद की थी । लेकिन इसके कुछ ही दिनों बाद सीपीआई में विभाजन हो गया और सीपीएम का गठन हुआ । सीपीआई रूस के इशारों पर चलती थी तो सीपीएम की आस्था चेयरमैन माओ में थी । भारतीय जनमानस को नहीं समझने का एक और उदाहरण है इमरजेंसी का समर्थन । जब देश में नागरिक अधिकारों को मुअत्तल कर आपातकाल लगाने का फैसला हुआ था तो एस ए डांगे ने इंदिरा गांधी के इस निर्णय का समर्थन किया था । ऐसे फैसले तभी होते हैं जब आप जनता के मूड को नहीं भांप पाते हैं या फिर अपने निर्णयों के लिए रूस या चीन की ओर ताकते हैं । पार्टी कैडर की नाराजगी को भी डांगे ने रूस के इशारे पर नजरअंदाज किया और आंख मूंदकर इंदिरा गांधी के सभी फैसलों का समर्थन करने लगे । पार्टी में नाराजगी इतनी बढ़ी कि डांगे को दल से निकाल बाहर किया गया। लेकिन तबतक तो पार्टी का नुकसान हो चुका था ।  उसके बाद लाख कोशिशों के बावजूद एस ए डांगे मुख्यधारा में नहीं लौट पाए और सीपीआई भी उसके बाद मजबूती से खड़ी नहीं हो पाई । यूपीए वन के दौर में जिस तरह से वामपंथी दलों ने न्यूक्लियर डील पर सरकार से समर्थन वापस लिया और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के खिलाफ कार्रवाई की वो भी गलत आकलन और उसके आधार पर फैसले का उदाहरण है । उस वक्त भी नेतृत्व पर सवाल खड़े हुए थे । अपनी किताब कीपिंग द फेथ-मेमॉयर ऑफ अ पार्लियामेंटिरियन में सोमनाथ चटर्जी ने विस्तार से इस पूरे प्रसंग पर लिखकर प्रकाश करात को कठघरे में खड़ा किया है । उन्होंने वर्तमान माहासचिव प्रकाश करात के तानाशाही मिजाज पर भी तंज कसते हुए लिखा है कि उनको पार्टी से निकालने का फैसला पोलित ब्यूरो के पांच सदस्यों ने ले लिया जबकि सत्रह लोग इसके सदस्य थे ।
किसी भी पार्टी के लिए उसका नेता बेहद अहम होता है । नेतृत्व का विजन और जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता और सहयोगी नेताओं के बीच सम्मान पार्टी को मजबूती प्रदान करती है । इस वक्त वामदलों के नेतृत्व में इन सभी गुणों का अभाव दिखाई देता है । नेतृत्व में वो तेज, वो चुंबकीय आकर्षण नहीं दिखाई देता है जो कभी ए के गोपालन, ई एमएस नंबूदरीपाद, ज्योति बसु में दिखाई देता था । जिस तरह से हरकिशन सिंह सुरजीत का सभी दलों के नेता सम्मान करते थे वैसा सम्मान भी वर्तमान नेतृत्व हासिल नहीं कर पाए हैं । राजनीति शास्त्र में कहा जाता है कि कोई भी विचार कभी भी नहीं मरता है उसी प्रासंगिकता भले ही कम या खत्म होती है । तो क्या यह मान लिया जाए कि भारत में वाम दलों की प्रासंगिकता खत्म हो गई है या फिर पार्टी के अंदर से कोई नेता उभरेगा जो मार्क्सवाद को भारतीय नजरिए से व्य़ाख्यायित करते हुए नीतियों में बदलाव कर पार्टी को प्रासंगिक बनाएगा ।

Sunday, April 6, 2014

निरपेक्ष प्रगतिशीलता की दरकार

अभी हाल ही में साहित्य अकादमी ने विश्व कविता समारोह आयोजित किया था जिसमें भारतीय भाषाओं के कवियों के साथ साथ विश्व की कई अन्य भाषाओं के कवियों ने अपनी कविताएं पढ़ी । उसके पहले पटना में बिहार सरकार ने हिंदी के कवियों को आमंत्रित किया था । देशभर के दर्जनभर से ज्यादा कवि पटना में कविता पाठ के लिए जुटे । सरकार ने उन कवियों की हवाई यात्रा से लेकर बेहतरीन होटल में रहने का प्रबंध भी किया था । साथ ही कवियों को पाठ के लिए पंद्रह हजार रुपए मानदेय भी दिए थे । इन दो आयोजनों को देखकर देश में कवि और कविता की एक खूबसूरत तस्वीर बनती है । लेकिन अगर हम अन्य भाषाओं को छोड़कर हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य को देखें तो हालात उत्साहजनक नहीं हैं । आज हिंदी में एक अनुमान के मुताबिक 500 कवि कविताएं लिख रहे हैं । छप भी रहे हैं । उसमें बुरी कविताओं की बहुतायत है । बुरी कविता ने अच्छी कविताओं को ढंक लिया है । उसमें एक बड़ा योगदान साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों की समझ का भी है । उन्होंने बुरी कविताओं को छाप-छाप कर अच्छी कविताओं को ओझल कर दिया है । आज हालात ये हो गए हैं कि हिंदी के प्रकाशक कविता संग्रह छापने से कन्नी काटने लगे हैं । मैं दर्जनों अच्छे कवियों को जानता हूं जिन्हें अपना संग्रह छपवाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है । तो इसकी वजह क्या है । क्या कविता पाठकों से दूर हो गई । क्या विचारधारा विशेष के तहत लिखी गई कविताओं और विचारधारा के बाहर की कविताओं के नोटिस नहीं लेने की वजह से ऐसा हुआ । मुझे लगता है कि कविताओं में क्रांति, यथार्थ, सामाजिक विषमताओं, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श आदि आदि  का इतना ओवरडोज हो गया कि वो आम पाठकों से दूर होती चल गई । मुझे लगता है कि कविता का रस तत्व यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । मेरे सारे तर्क बेहद कमजोर हो सकते हैं लेकिन मैं विनम्रतापूर्वक यह सवाल उठा रहा हूं कि इस बात पर गंभीरता पूर्वक विचार हो कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि मेकरा मानना है कि जन और लोक की बात करनेवाले लेखक ही बहुत हद तक इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेखक संघों ने जिस तरह से कवियों को अपने पाले में खींचा और उसको बढाया उससे भी कविता को नुकसान हुआ । पार्टी लाइन पर कविताएं लिखी जाने लगी । लेखक संघों के प्रभाव में कई कवि लागातर स्तालिन और ज्दानेव की संकीर्णतावादी राजनीतिक लाइन पर चलते रहे । यह मानते हुए कि पार्टी लाइन न कभी जन विरोधी हो सकती है और ना ही सत्साहित्य विरोधी । मुक्तिबोध ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव को एक पत्र लिखा था कलात्मक कृतियों को महत्व देना ही होगा और गैरकलात्मक प्रगतिशील लेखन की आलोचना करनी ही होगी फिर उसका लेखक चाहे कितना ख्यात और प्रसिद्ध क्यों न हो । मुक्तिबोध के मुताबिक छिछली, जार्गनग्रस्त, रूठ और अवसरवादी आलोचना ही सबसे ज्यादा प्रगतिशील आंदोलन की पिछले दशकों में हुई क्षति के लिए उत्तरदायी है । ऐसा नहीं है कि हमारे सभी कवि ऐसा ही लिखते रहे । केदार, नागार्जुन और मुक्तिबोध गहरे राजनीतिक सरोकार वाले कवि रहे हैं । केदार ने आंदोलनात्मक राजनीतिक कविताएं लिखी लेकिन लोकजीवन, प्रेम और प्रकृति की विलक्षण कविताएं भी लिखी । केदारनाथ सिंह और रघुवीर सहाय ने भी । दोनों लोकप्रिय भी हुए । लेकिन जो खुद को नक्सलबाड़ी की संतानें कहा करते थे वो उस दौर के साथ ही ओझल हो गए । वजह पर विमर्श होना चाहिए । आज हिंदी कविता को निरपेक्ष प्रगतिशीलता की दरकार है ।


Saturday, April 5, 2014

लोकतंत्र या राजतंत्र ?

उन्नीस सौ सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में हरियाणा की राजनीति की धुरी तीन लाल हुआ करते थे । चौधरी देवीलाल ने स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई थी और कई बार जेल भी गए थे । कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने, अविभाजित पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने । बाद में उन्नीस सौ इकहत्तर में कांग्रेस से मोहभंग के बाद पार्टी छोड़ दी । जब इमरजेंसी का एलान हुआ तो देवीलाल को भी जेल जाना पड़ा था। इमरजेंसी के पहले कांग्रेस में संजय गांधी की तूती बोलती थी तो हरियाणा में एक और लाल का उदय हुआ । वंसीलाल ने संजय गांधी के ड्रीम प्रोजक्ट मारुति कार कारखाने के लिए जमीन मुहैया करवाकर दिल्ली दरबार में अपने नंबर बढ़ा लिए थे और गांधी परिवार के करीब पहुंच गए थे, जिसका लाभ उन्हें बाद की राजनीति में भी हुआ । इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जब सूबे में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया तो चौधरी देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री बने । उसके बाद तो चौधरी देवी लाल ने राष्ट्रीय राजनीति में भी अपनी दखल बनाई और दो बार देश के उपप्रधानमंत्री बने । देवीलाल पूरे देश में किसान नेता के तौर पर उभरे ।  हरियाणा के तीसरे लाल भजनलाल थे जिन्हें देश ने पहली बार व्यापक पैमाने पर दलबदल करवाकर सरकार बनाई थी। हरियाणा के ये तीन लाल जब तक जीवित रहे तो प्रासंगिक बने रहे । इनकी मौत के बाद इनकी राजनीति की विरासत इनके परिवार के सदस्यों के हाथ में ही रही है, कमोबेश इनके बनाए दल पर भीपरिवार ही कब्जा रहा है । इस बार के लोकसभा चुनाव में तो देवीलाल परिवार की चौथी पीढ़ी भी राजनीति में प्रवेश कर रही है । हिसार लोकसभा सीट से इंडियन नेशनल लोकदल के टिकट पर दुश्यंत चौटाला चुनाव लड़ रहे हैं । दुष्यंत के पिता अजय चौटाला और उनके दादा और चौधरी देवीलाल के पुत्र ओम प्रकाश चौटाला हरियाणा के भर्ती घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद से जेल में बंद हैं । लिहाजा दुश्यंत के कंधों पर परिवार की विरासत और उसकी राजनीति संभालने की जिम्मेदारी है । वहीं भजनलाल की परंपरागत सीट हिसार से उनका बेटा कुलदीप विश्नोई भी चुनाव मैदान में हैं । यहां दो लाल के उत्तराधिकारी आमने सामने हैं ।  हिसार लोकसभा सीट हरियाणा के दो लालों की परिवार की विरासत की लडाई का कुरुक्षेत्र बनने जा रहा है । मुकाबला दिलचस्प है लेकिन ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला के जेल में बंद होने की वजह से इंडियन नेशनल लोकदल का प्रचार ढीला चल रहा है । स्थानीय नेताओं के बूते पर दुश्यंत चौटाला मैदान में हैं । वहीं कुलदीप विश्नोई की पार्टी का गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के साथ है । तीसरे लाल- बंसीलाल की राजनीति की विरासत उनकी बहू किरण चौधरी और पोती श्रुति चौधरी के जिम्मे है । किरण हरियाणा सरकार में मंत्री हैं और श्रुति भिवानी लोकसभा सीट से दूसरी बार सांसद बनने के लिए चुनाव मैदान में है ।
इस पूरे प्रसंग के उल्लेख का उद्देश्य यह है कि हमारे देश में की राजनीति में वंशवाद की जड़े काफी गहरी हो गई हैं । राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस पर वंशवाद के आरोप लगते ही रहे हैं । जवाहरलाल नेहरू पर यह आरोप लगता है कि उन्होंने अपने जीवित रहते ही इंदिरा गांधी की राजनीति को मजबूत कर दिया था और उन्हें अपना वारिस घोषित तो नहीं किया लेकिन इलस तरह की पेशबंदी की यह तय हो गा था कि कांग्रेस को नेहरू के बाद इंदिरा ही संभालेंगी । नेहरू के जीवित रहते ही इंदिरा गांधी ना केवल कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य बनीं बल्कि वो कांग्रेस की अध्यक्ष भी बन गई थी । हलांकि इस बारे में राजनीतिशास्त्र के जानकारों के मतों में भिन्नता है । कई लोगों का मानना है कि इंदिरा गांधी कांग्रेस में एक स्वाभाविक नेता के तौर पर उभरी थी । उनका तर्क है कि जवाहरलाल की मौत के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने और उस वक्त इंदिरा ने मंत्री बनने से भी इंकार कर दिया था । बाद में शास्त्री जी के दबाव में इंदिरा गांधी मंत्री बनी थी । इसी तरह से जब लालबहादुर शास्त्री की मौत हुई तो सिंडिकेट ने मोरार जी देसाई को रोकने के लिए इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवा दिया । इंदिरा गांधी को आगे बढ़ाने में नेहरू की भूमिका पर भले ही विशेषज्ञों में मतभेद हो लेकिन बाद में इंदिरा गांधी ने जिस तरह से पहले अपने बेटे संजय और उनकी मौत के बाद राजीव गांधी को आगे किया वो वंशवाद का सर्वोत्तम नमूना है । फिर तो राजीव के बाद सोनिया और राहुल की ताजपोशी इतिहास है। शीर्ष नेतृत्व अगर परिवारवाद को बढ़ावा देता है तो वो नीचे तक जाता है । कांग्रेस में कमोबेश हर बड़ा नेता चाहता है कि उसके बेटा या बेटी राजनीति में आकर सांसद या लिधायक बने । हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के पुत्र सांसद हैं, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के पुत्र विधायक हैं । यह फेहरिश्त बहुत लंबी है । ऐसा नहीं है कि वंशवाद का ये रोग सिर्फ कांग्रेस में ही है । भारतीय जनता पार्टी भी इससे अछूती नहीं है लेकिन कमोबेश भाजपा में यह परंपरा अपेक्षाकृत कम है ।
राष्ट्रीय दलों के अलावा अगर हम क्षेत्रीय दलों की बात करें तो वहां तो वंशवाद के आगे समर्पित कार्यकर्ताओं को हमेशा से दरकिनार किया जाता है । क्षेत्रीय दलों के मुखिया दल को अपनी संपत्ति समझते हैं जिसपर स्वाभाविक रूप से उनके उत्तराधिकारी का हक होता है । लालू यादव की आरजेडी पर उनकी बेटी मीसा भारती और बेटे तेजस्वी का ही कब्जा होगा भले ही रामकृपाल जैसे समर्पित कार्यकर्ता को पार्टी क्यों ना छोड़नी पड़े । इसी तरह रामविलास पासवान की पार्टी को उनके अभिनेता से नेता बने बेटे चिराग पासवान ही संभाल सकते हैं, उसके पहले भाई रामचंद्र और पारस  । अकाली दल में भी चाहे कितने भी दिग्गज हों लेकिन उत्तराधिकार प्रकाश सिंह बादल के बेटे सुखबीर बादल को ही मिलता है । यह कहानी सिर्फ एक दल की नहीं है । अगर आप कश्मीर से शुरू करें तो वहां फारूक अबदुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव, तमिलनाडू में करुणानिधि के बेटे स्टालिन से लेकर पूरा कुनबा ही उनकी पार्टी की राजनीति के केंद्र में है । यही हाल ओडिशा में है बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक को ही सूबे की सत्ता के साथ साथ पार्टी की कमान भी मिलती है । तो क्या हमारा समाज अब भी लोकतंत्र की आड़ में राजतंत्र के रास्ते पर चल रहा है जहां राजा का बेटा ही राजा होता है । जनता का भी भरोसा लोकतंत्र के इन नए राजकुमारों की हासिल होता है । तो क्या हम ये मान लें कि आजादी के साठ दशक बाद भी हमारा लोकतंत्र राजशाही से मुक्त नहीं हो पाया है । राजा बदल गए हैं लेकिन राजनीति नहीं बदली है । जनता के नाम पर चंद परिवार के लोग ही देश पर राज कर रहे हैं । राजनीति शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे अन्य वजहों में एक वजह इन नेताओं का अपने साथियों पर भरोसा नहीं होना है । राजनीति से लेकर अपनी संपत्ति के प्रबंधन के लिए वो सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार के लोगों पर भरोसा करते हैं जिसका नतीजायह होता है कि वंशवाद और परिवारवाद को बढ़ावा मिलता है । हमारे देश में लोकतंत्र की जड़े बहुत गहरी हो चुकी हैं लेकिन जनता की भागीदारी को सत्ता में और मजबूत करने के लिए वंशवाद की विषबेल को रोकना होगा ।

Friday, April 4, 2014

जाति के आगे लहर बेमानी ?

लोकसभा चुनाव के पहले चरण के चुनाव में अब चंद दिन बचे हैं और सियासत अपने चरम पर है । टेलीविजन चैनलों पर चुनाव पूर्व सर्वे ने बीजेपी के हौसले बुलंद कर दिए हैं । अगर इन चुनाव पूर्व सर्वे के नतीजों को माना जाए तो लगता है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अपने गठन के बाद का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने जा रही है। राजनीति में एक जुमला बार बार दोहराया जाता है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है । इस बात में सचाई भी है क्योंकि लोकसभा की पांच सौ तैंतालीस सीटों में से अकेले उत्तर प्रदेश से अस्सी लोकसभा सदस्य चुने जाते हैं । यूपी के चुनाव पूर्व सर्वे में भाजपा को तो अब पचास सीटें तक मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है । सबसे ज्यादा लोग नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर देखना भी चाहते हैं । यह सही है कि मोदी की कट्टर हिंदूवादी और विकास पुरुष की छवि का फायदा बीजेपी को मिलता दिख रहा है । पार्टी को इस बात का भी फायदा मिलेगा कि उन्नीस नौ निन्यानवे के बाद पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरी ताकत से भाजपा को जिताने के लिए जुटा है । उत्तर प्रदेश के प्रभारी अमित शाह के साथ संघ के एक वरिष्ठ स्वयंसेवक को सहप्रभारी बनाया गया है । नरेन्द्र मोदी की उत्तर प्रदेश की रैलियों में उमड़ रही भीड़ इस बात की गवाही दे रहे हैं कि जमीनी स्तर पर काम हो रहा है । लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सिर्फ मोदी या उनकी विकास पुरुष की छवि उत्तर प्रदेश की राजनीति को बीजेपी के पक्ष में कर सकते हैं । इस बात की पड़ताल के लिए हमें उत्तर प्रदेश की सामाजिक और आर्थिक संरचना की विवेचना करनी पड़ेगी । उत्तर प्रदेश और बिहार में चुनाव के वक्त जाति एक अहम भूमिका निभाती है । जातियों के विश्लेषण से यह बात उभर कर आती है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में सिर्फ इकसठ फीसदी वोटरों तक अपनी पहुंच बना पाई है और उसमें से ही अपने लिए वोट जुटाने का उपक्रम करती है । उत्तर प्रदेश में मुसलमानों और दलित वोटरों का संयुक्त प्रतिशत उनचालीस है । अतीत के चुनावी नतीजे बताते हैं कि दलित वोटर मजबूती के साथ बीएसपी और मायावती के साथ हैं, और मुसलमान वोटर किसी भी कीमत पर भाजपा को वोट नहीं देंगे । अब अगर बाकी बचे इकसठ फीसदी वोटरों का विश्लेषण करें तो दस फीसदी यादव वोटर भी बीजेपी को वोट देंगे इसमें संदेह है । यादव वोटरों का मुलायम से छिटकना जरा मुश्किल है, समाजवादी पार्टी की रैलियों में भी खासी भीड़ इकट्ठा हो रही है  । बचते हैं इक्यावन फीसदी वोटर जिनके सहारे बीजेपी को पचास सीटें हासिल करने की चुनौती है । बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अब भी ब्राह्मणों और क्षत्रियों से भरा पड़ा है और उनमें जबरदस्त मनमुटाव और गुटबाजी भी है । कल्याण सिंह के बाद बीजेपी में कोई मजबूत जनाधार वाला पिछड़ा नेता नहीं उभर पाया । जिसकी वजह से अन्य पिछड़ी जाति का रुझान सपा और बीएसपी की ओर होता चला गया । दो हजार बारह के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ पंद्रह फीसदी वोट मिल सके थे । कालांतर में यह बात भी सामने आई कि भाजपा ने सपा और बीएसपी की तुलना में फिछड़ी जाति के कम लोगों को टिकट दिए थे । हलांकि इस चुनाव में नरेन्द्र मोदी के पिछड़ी जाति से होने का जमकर प्रचार किया जा रहा है और अपना दल के साथ गंठबंधन कर पिछड़ी जातियों को लुभाने की कोशिश भी की गई है । टिकट बंटवारे में भी इसका ख्याल रखा गया है और तकरीबन बत्तीस फीसदी उम्मीदवार पिछड़ी जाति से हैं ।
भाजपा के पक्ष में दो बातें जाती हैं । पहली अखिलेश सरकार से प्रदेश की जनता का बुरी तरह से मोहभंग हो चुका है । मुजफ्फरनगर समेत पूरे सूबे में दर्जनों दंगों की वजह से मुसलमानों में खासी नाराजगी है तो कानून व्यवस्था कायम रखने में नाकाम रहने से आम जनता खफा है । विधानसभा चुनाव के वक्त अखिलेश यादव ने डीपी यादव को पार्टी में शामिल करने पर जिस तरह का रुख अपनाया था उससे जनता आशान्वित हुई थी लेकिन अब अखिलेश ने अपराधी राजनेताओं के सामने घुटने देक दिए हैं । अतीक अहमद से लेकर तमाम बाहुबलियों को टिकट बांटने से तो यही संदेश जा रहा है । दूसरी बात जो बीजेपी के पक्ष में है वो है केंद्र की कांग्रेस सरकार से भारी नाराजगी । इस नाराजगी का असर उत्तर प्रदेश पर भी पड़ेगा । बढ़ती मंहगाई और भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी जनता कांग्रेस को सबक सिखाने को आतुर दिख रही है । बीएसपी के वोट बैंक में सेंध लगाना मुश्किल तो है पर असंभव नहीं है । उन्नीस सौ इक्यानवे के आम चुनाव में बीजेपी ने सारे सामाजिक समीकरणों को ध्वस्त करते हुए 32.8 फीसदी वोट हासिल किए थे । उस वक्त धार्मिक ध्रुवीकरण की वजह से अगड़ी जातियों के अलावा गैर यादव फिछड़ी जातियां और गैर जाटव दलितों ने बीजेपी को वोट दिए थे । उन्नीस सौ अट्ठानवे में तो भाजपा ने अपना प्रदर्शन बेहतर करते हुए 33.4 फीसदी वोट हासिल किए थे । बीजेपी को गैर यादव पिछड़ी जातियों के छब्बीस फीसदी वोट को मजबूत करना होगा और अपना दल से गठबंधन इसी रणनीति की एक कड़ी है। इसी छब्बीस फीसदी वोट और अगड़ी जातियों के 23 फीसदी वोट को जोड़कर बीजेपी उत्तर प्रदेश में सफलता का परचम लहरा सकती है ।
भारतीय जनता पार्टी को वोटरों को बूथ तक लाने की अपनी रणनीति बनाते वक्त एक और बात का खास ध्यान रखना होगा । इस बार उत्तर प्रदेश में युवा मतदातओं की संख्या काफी है । तकरीबन पचपन फीसदी वोटर चालीस साल के नीचे के हैं । पिछले एक दशक के वोटिंग पैटर्न को देखकर यह लगता है कि युवा मतदाताओं को सबसे ज्यादा अपनी चिंता रहती है । जाति से ज्यादा चिंता रोजगार की होती है । मोदी अपनी रैलियों में बार बार अगर उत्तर प्रदेश में रोजगार के अवसर पैदा करने की बात करते हैं तो वो अनायास नहीं है । उसके पीछे इन युवा मतदाताओं में से बेरोजागर वोटरों को लुभाने की मंशा है । सरकारी नौकरी के अलावा प्राइवेट कंपनियों में अवसर बढ़ाने की बात मोदी लगातार अपनी रैलियों में कर रहे हैं । अखिलेश सरकार भी हर दिन अलग अलग विभागों में नौकरियों का ऐलान कर रही है । कांग्रेस तो अपने युवा नेता के चेहरे के आधार पर ही वोट मांग रही है । इस लिहाज से उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग अलग भी है और उपर जितने भी जातिगत समीकरण बीजेपी के सामने चुनौती बनकर खड़े हैं उनकी काट भी युवा वोटरों को नौकरी का भरोसा हो सकता है ।