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Friday, April 25, 2014

क्या भूलूं क्या याद करूं ?

हमारे देश में क्रिकेट और राजनीति दोनों खासी लोक्रपिय है । दोनों में कई कायदे कानून एक जैसे हैं । दोनों टीम गेम है । दोनों में कप्तान की रणनीतियों पर जय-पराजय निर्भर करता है । दोनों में जीत नायकों को जनता सर माथे पर बिठा लेती है और हार के खलनायक को हाशिए पर फेंक देती है । राजनीति और क्रिकेट के नायक जब अपने क्षेत्र से विदा लेते हैं तो उस वक्त दोनों में काफी असामनता देखी जाती है । क्रिकेट के नायक सचिन तेंदुलकर ने जब क्रिकेट को अलविदा कहने का एलान किया था तो उसी वक्त से उनकी विदाई समारोह को ऐतिहासिक और यादगार बनाने की कवायद शुरू हो गई थी । उनके आखिरी टेस्ट मैच की जगह बदलकर मुंबई कर दी गई थी । दुनियाभर के तमाम महान क्रिकेटरों को उनके आखिरी मैच का गवाह बनने के लिए आमंत्रित किया गया । लेकिन राजनीति में विदाई हमेशा खामोशी के साथ होती है । मनमोहन सिंह ने इस साल जनवरी में दिल्ली में एलान किया था कि लोकसभा चुनाव के बाद वो रिटायर हो जाएंगे और आगामी लोकसभा चुनाव के बाद वो देश की बागडोर नए प्रधानमंत्री के हाथ में सौंप देंगे । अपनी आखिरी प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने साफ किया था कि प्रधानमंत्री के तौर पर यह उनकी आखिरी पारी है ।उनका यह बयान एक दो दिन ही सुर्खियों में रहा । एलान वाले दिन न्यूज चैनलों पर प्रधानमंत्री के तौर उनके कामकाज पर बहस हुई थी । अगले दिन के अखबारों में संपादकीय लिखे गए थे । उसके बाद मनमोहन सिंह को लेकर जनमानस में एक अजीब तरह की उपेक्षापूर्ण खामोशी दिखाई देती है । लोकसभा चुनाव के वक्त वो नेपथ्य में हैं । दस साल तक लगातार देश का प्रधानमंत्री रहने के बाद भी उनकी खुद की पार्टी चुनाव में उनका इस्तेमाल नहीं कर रही हैं । इस तरह की खबरें आ रही है कि कोई भी कांग्रेसी उम्मीदवार मनमोहन सिंह का कार्यक्रम अपने क्षेत्र में करवाने को लेकर उत्साहित नहीं है । क्या इतिहास मनमोहन सिंह को इसी तरह से याद करेगा जिस तरह से वर्तमान उनको याद कर रहा है । मनमोहन सिंह को खुद इस बात का अंदाजा है तभी उन्होंने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि इतिहास उनके प्रति दयालु होगा और समकालीन मीडिया की तरह उपेक्षित नहीं करेगा ।

दो हजार चार में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद अस्वीकार किया था और मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री मनोनीत किया था तब लोगों को इस अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री से बहुत उम्मीदें थी । जानकारों का मानना है कि अपने पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने काफी काम किए । नरेगा जैसा गैमचेंजर कार्यक्रम लागू किया गया इसके अलावा दो हजार आठ के विश्वव्यापी मंदी को मनमोहन सिंह के कुशल नेतृत्व में देश ने बेहतर तरीके से झेल लिया और उसका नकारात्मक असर काफी कम दिखा । अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इतने बुरे दौर में भी अगर भारत का ग्रोथ रेट पांच फीसदी के आसपास है तो यह किसी उपलब्धि से कम नहीं है । मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में तो ग्रोथरेट तकरीबन आठ फीसदी के आसपास रहा था । दो हजार नौ के चुनाव में जब कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली तो पार्टी के नेताओं में इसका श्रेय राहुल गांधी को देने की होड़ लग गई । उस आपाधापी में मनमोहन सिंह का योगदान याद नहीं किया जा सका । यहां यह याद दिला दें कि राजीव गांधी के बाद पहली बार ऐसा हुआ था जब कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव के पहले मनमोहन सिंह को अपना प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था । यहां यह रेखांकिकत करना आवश्यक है कि पिछले पांच साल में मनमोहन सरकार के बेहतर कामकाज, अच्छी नीतियां और फिर चुनाव के वक्त जनता के मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी ने पार्टी को सालों बाद दो सौ का आंकड़ा पार करवाया । प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब से यह तो साफ हो ही गया है कि मनमोहन सिंह प्रचार पिपासु नहीं थे, लिहाजा वो इसका श्रेय नहीं ले पाए । मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार की खबरें नहीं आई लेकिन दूसरे कार्यकाल में तो लगा कि भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड टूट जाएंगे । मंत्री और सांसद घोटालों के आरोप में जेल गए । पवन बंसल और दयानिधि मारन जैसे कांग्रेस और यूपीए के सहयोगी दलों के मंत्रियों का इस्तीफा हुआ । कोयला घोटाले की कालिख प्रधानमंत्री कार्यालय तक जा पहुंची । मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी पर किसी को कोई शक नहीं है लेकिन मजबूत प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों पर पैनी नजर रखता है और अपने अधीन मंत्रियों की कारगुजारियों को काबू में ।लेकिन ऐसा हो नहीं सका । दो हजार नौ से दो हजार चौदह के बीच मनमोहन सिंह एक कमजोर और लाचार प्रधानमंत्री के तौर पर उभरे । दो हजार चार से लेकर दो हजार नौ तक जिस शख्स की चमक दमक ने कांग्रेस को दोबारा सत्ता दिलवाई वो अगले पांच साल में निस्तेज हो गया । इसकी कई वजहें हो सकती हैं लेकिन नेतृत्व क्षमता की असली परख तो असाधारण परिस्थियों में परफॉर्म करने से ही होती है । इस कसौटी पर देखें तो मनमोहन सिंह औसत रहे । बाबजूद अपनी तमाम कमियों और कमजोरियों के दस साल तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मुखिया बने रहना मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि है । तभी तो कहा जाता है कि मनमोहन सिंह इज अ अंडररेडेट पॉलिटिशियन एंड ओवररेटेड इकॉनामिस्ट । 

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