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Sunday, April 6, 2014

निरपेक्ष प्रगतिशीलता की दरकार

अभी हाल ही में साहित्य अकादमी ने विश्व कविता समारोह आयोजित किया था जिसमें भारतीय भाषाओं के कवियों के साथ साथ विश्व की कई अन्य भाषाओं के कवियों ने अपनी कविताएं पढ़ी । उसके पहले पटना में बिहार सरकार ने हिंदी के कवियों को आमंत्रित किया था । देशभर के दर्जनभर से ज्यादा कवि पटना में कविता पाठ के लिए जुटे । सरकार ने उन कवियों की हवाई यात्रा से लेकर बेहतरीन होटल में रहने का प्रबंध भी किया था । साथ ही कवियों को पाठ के लिए पंद्रह हजार रुपए मानदेय भी दिए थे । इन दो आयोजनों को देखकर देश में कवि और कविता की एक खूबसूरत तस्वीर बनती है । लेकिन अगर हम अन्य भाषाओं को छोड़कर हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य को देखें तो हालात उत्साहजनक नहीं हैं । आज हिंदी में एक अनुमान के मुताबिक 500 कवि कविताएं लिख रहे हैं । छप भी रहे हैं । उसमें बुरी कविताओं की बहुतायत है । बुरी कविता ने अच्छी कविताओं को ढंक लिया है । उसमें एक बड़ा योगदान साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों की समझ का भी है । उन्होंने बुरी कविताओं को छाप-छाप कर अच्छी कविताओं को ओझल कर दिया है । आज हालात ये हो गए हैं कि हिंदी के प्रकाशक कविता संग्रह छापने से कन्नी काटने लगे हैं । मैं दर्जनों अच्छे कवियों को जानता हूं जिन्हें अपना संग्रह छपवाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है । तो इसकी वजह क्या है । क्या कविता पाठकों से दूर हो गई । क्या विचारधारा विशेष के तहत लिखी गई कविताओं और विचारधारा के बाहर की कविताओं के नोटिस नहीं लेने की वजह से ऐसा हुआ । मुझे लगता है कि कविताओं में क्रांति, यथार्थ, सामाजिक विषमताओं, स्त्री विमर्श, दलित विमर्श आदि आदि  का इतना ओवरडोज हो गया कि वो आम पाठकों से दूर होती चल गई । मुझे लगता है कि कविता का रस तत्व यथार्थ की बंजर जमीन पर सूख गया । मेरे सारे तर्क बेहद कमजोर हो सकते हैं लेकिन मैं विनम्रतापूर्वक यह सवाल उठा रहा हूं कि इस बात पर गंभीरता पूर्वक विचार हो कि कविता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है । मैं यहां जानबूझकर लोकप्रियता शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि मेकरा मानना है कि जन और लोक की बात करनेवाले लेखक ही बहुत हद तक इसके लिए जिम्मेदार हैं । लेखक संघों ने जिस तरह से कवियों को अपने पाले में खींचा और उसको बढाया उससे भी कविता को नुकसान हुआ । पार्टी लाइन पर कविताएं लिखी जाने लगी । लेखक संघों के प्रभाव में कई कवि लागातर स्तालिन और ज्दानेव की संकीर्णतावादी राजनीतिक लाइन पर चलते रहे । यह मानते हुए कि पार्टी लाइन न कभी जन विरोधी हो सकती है और ना ही सत्साहित्य विरोधी । मुक्तिबोध ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव को एक पत्र लिखा था कलात्मक कृतियों को महत्व देना ही होगा और गैरकलात्मक प्रगतिशील लेखन की आलोचना करनी ही होगी फिर उसका लेखक चाहे कितना ख्यात और प्रसिद्ध क्यों न हो । मुक्तिबोध के मुताबिक छिछली, जार्गनग्रस्त, रूठ और अवसरवादी आलोचना ही सबसे ज्यादा प्रगतिशील आंदोलन की पिछले दशकों में हुई क्षति के लिए उत्तरदायी है । ऐसा नहीं है कि हमारे सभी कवि ऐसा ही लिखते रहे । केदार, नागार्जुन और मुक्तिबोध गहरे राजनीतिक सरोकार वाले कवि रहे हैं । केदार ने आंदोलनात्मक राजनीतिक कविताएं लिखी लेकिन लोकजीवन, प्रेम और प्रकृति की विलक्षण कविताएं भी लिखी । केदारनाथ सिंह और रघुवीर सहाय ने भी । दोनों लोकप्रिय भी हुए । लेकिन जो खुद को नक्सलबाड़ी की संतानें कहा करते थे वो उस दौर के साथ ही ओझल हो गए । वजह पर विमर्श होना चाहिए । आज हिंदी कविता को निरपेक्ष प्रगतिशीलता की दरकार है ।


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