हमारे देश, खास हिंदी भाषी राज्यों से और हिंदी प्रेमियों की तरफ से यह बात लगातार
उठाई जाती रही है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकारी
स्तर पर प्रयास किए जाएं । यह एक बड़ी विडंबना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र
की अधिसंख्यक जनता द्वारा बोली जानेवाली भाषा राष्ट्रों के संगठन में मान्यता प्राप्त
नहीं है, जबकि अरबी जैसी कई अन्य भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता प्राप्त
है । आजादी के बाद से ही उठ रही इस मांग को लेकर सरकारें समय समय पर बयान देती रही
हैं । सरकार के उन बयानों से जो भावर्थ निकलता रहा है वह यह है कि संयुक्त राष्ट्र
में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए भारत सरकार गंभीरता से प्रयासरत
है । अटल बिहारी वाजपेयी ने जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में अपना संबोधन दिया था
तब से इस मांग ने और जोर पकड़ा था । एनडीए की सरकार के दौरान हुए विश्व हिंदी सम्मेलन
में इस तरह का प्रसातव भी पारित किया गया था । लेकिन हाल ही में विदेश मंत्रालय ने
सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में बताया है कि सरकार ने संयुक्त राष्ट्र
संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं भेजा है
। विदेश मंत्रालय की दलील है कि अगर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा का आधिकारिक
दर्जा मिल जाता है तो एक अनुमान के मुताबिक सरकार को हर साल तकरीबन बयासी करोड रुपए
या उससे अधिक खर्च करने होंगे । विदेश मंत्रालय का मानना है कि अगर भारत इस तरह का
प्रस्ताव करता है तो संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक उसको वित्तीय सहायता देनी
होगी । यह वित्तीय सहायता अनुवाद और हिंदी में दस्तावेजों को छपवाने में आने वाले खर्च
के मद्देनजर देना होगा । उन्नीस सौ तिहत्तर में संयुक्त राष्ट्र में पारित एक प्रस्ताव
के मुताबिक किसी भाषा को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रस्तावक राष्ट्र को
उस भाषा के अनुवाद करवाने , उसे छपवाने आदि पर आनेवाले खर्च का वहन करना होगा । भारत
सरकार के विदेश मंत्रालय का यह तर्क गले नहीं ऊतर रहा है । देश की राजभाषा को अंतराष्ट्रीय
स्तर पर पहचान और मान्यता दिलवाने के लिए बयासी करोड़ सालाना खर्च का तर्क बेमानी है
। सिर्फ बयासी करोड़ या मान लिया जाए कि सौ करोड़ सालाना के खर्च से बचने के लिए हिंदी
को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के तौर पर प्रस्तावित नहीं करना देश के करोड़ों
हिंदी भाषियों के लिए झटके की तरह है । हिंदी प्रेमियों के अलावा किसी देश की भाषा
को अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता उस देश के गौरव के साथ जुड़ा होता है । भारत जैसे
विशाल देश के लिए हिंदी के गौरव के लिए सौ करोड़ सालाना खर्च करना बहुत मामूली काम
है । हर साल हिंदी दिवस के मौके पर सरकार के विभिन्न विभाग और सार्वजनिक उपक्रम की
कंपनियां करोड़ों फूंक देती हैं और उससे कुछ हासिल नहीं होता है । हिंदी दिवस के अवसर
पर होनेवाली रस्म अदायगी में ही अगर कटौती कर दी जाए तो सौ करोड़ से ज्यादा की बचत
संभव है ।
केंद्र में सरकार के बदलने और शपथ ग्रहण के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
समेत ज्यादातर मंत्रियों ने हिंदी में शपथ ली, यहां तक उत्तर पूर्व से आनेवाले गृह
राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने भी शपथ ग्रहण के दौरान हिंदी भाषा को अपनाकर एक मिसाल पेश
किया है। मोदी मंत्रिमंडल के शपथग्रहण समारोह और मोदी के हिंदी भाषा के प्रति रुझान
को देखते हुए इस बात की उम्मीद जगी है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता प्राप्त
भाषा के तौर पर मान्यता दिलवाने के लिए केंद्र सरकार बयासी करोड़ रुपए सालाना खर्च
करने को तैयार हो जाएगी । विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी हिंदी के प्रति अनुराग सार्वजनिक
तौर पर ज्ञात है । सुषमा स्वराज ज्यादातर वक्त संसद में भी हिंदी में ही बोलती रही
हैं और उनकी हिंदी है भी बेहतरीन । प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की संयुक्त कोशिश
से अगर यह संभव होता है तो हिंदी भाषा के अलावा हिंदी प्रेमियों के लिए भी यह गौरव
का क्षण होगा । नरेन्द्र मोदी प्रतीकों को लेकर खासे सजग रहते हैं और माना जाता है
कि प्रतीकों की राजनीति में उनको महारथ हासिल है । प्रतीकों के माध्यम से जनता को संदेश
देने का उनका अपना एक खास अंदाज है । अब अगर
भारत के प्रधानमंत्री प्रतीकात्मक तौर पर भी अगर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक
भाषा बनवाने के लिए बयासी करोड़ का फंड आगामी आम बजट में रखवाने का उपक्रम करते हैं
तो हिंदी को सालों बाद उसका देय हासिल हो पाएगा । हिंदी के फैलाव के लिए की जा रही
कोशिशों को बल भी मिलेगा ।
दो हजार बारह में जोहानिसबर्ग में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में पहली बार इस आशय
का प्रसातव पास किया गया कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने
के लिए समयबद्ध योजना पर काम किया जाएगा । जोहानिसबर्ग विश्व हिंदी सम्मेलन को आयोजित
हुए लगभग डेढ़ साल बीत गए हैं । अब विदेश मंत्रालय का खर्चे की बिनाह पर इससे इंकार
विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान पारित प्रस्ताव का अपमान भी है । जोहानिसबर्ग में विश्व
हिंदी सम्मेलन के दौरान जब प्रस्ताव पारित हो रहा था तब उस वक्त की विदेश राज्यमंत्री
परनीत कौर वहां मौजूद थीं । बावजूद उसके विदेश मंत्रालय का ये रवैया समझ से परे है
। दरअसल विदेश मंत्रालय में हिंदी को लेकर एक खास किस्म की उदासीनता का वातावरण है
। वहां अंग्रेजी का बोलबाला है । अब सुषमा स्वराज के कैबिनेट मंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष
जनरल वी के सिंह के विदेश राज्यमंत्री बनने के बाद यह आस जगी है कि अंग्रेजी का बोलबाला
खत्म तो नहीं होगा लेकिन हिंदी को भी तवज्जो मिलेगी । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने
देश के आजाद होने के फौरन बाद हरिजन में लिखे एक लेख में कहा था- मेरा आशय यह है कि
जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पने वाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़
फेंका उसी तरह हमें सांसकृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को हटा देना चाहिए । इस आवश्यक
परिवर्तन में जितनी देरी हो जाएगी, उतनी ही राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती चली जाएगी
। आजादी के सड़सठ साल बाद भी महात्मा गांधी
के उस कथन पर अमल नहीं हो सका । मंत्रालयों से अभी तक हम अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म
नहीं कर पाए हैं नतीजा है कि हिंदी को अब तक उसका देय नहीं मिल पाया है । तकरीबन हर
मंत्रालय में हिंदी को दोयम दर्जा हासिल है । कहने को वो राजभाषा अवश्य है लेकिन अगर
हम अंग्रेजी के बरक्श उसको खड़ा करके देखते हैं तो बहुत ही निराशाजनक तस्वीर हमारे
सामने उभरती है । एक ऐसी तस्वीर जिसको देखकर हिंदी प्रेमियों का सर शर्म से झुक जाना
चाहिए ।
दरअसल आजादी के बाद माहौल
कुछ ऐसा बना कि हिंदी को अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषा के दुश्मन की तरह पेश कर दिया
गया । अंग्रेजी के लोगों ने सुनियोजित तरीके से यह बात फैलाई कि अगर हिंदी का वर्चस्व
बढ़ा तो अन्य भारतीय भाषा खत्म हो जाएगी । नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषा के लोगों
ने हिंदी का विरोध शुरू कर दिया, उनको हिंदी में अपना दुश्मन नजर आने लगा । जब हिंदी
को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हुई तो देश के कई राज्यों में हिंसक विरोध हुए । हिंदी
के इस विरोध ने अन्य भाषाओं को अंग्रेजी के करीब पहुंचा दिया । जो हिंदी देश की संपर्क
भाषा हो सकती थी उसको अंग्रेजी ने अन्य भारतीय भाषाओं की सम्मिलित ताकत से पछाड़ दिया
। अन्य भारतीय भाषओं को हिंदी को गले लगाकर सहोदर भ्राता की तरह से प्रेम करना होगा
। इस दिशा में साहित्य अकादमी की एक भूमिका हो सकती है लेकिन अकादमी में जिस तरह से
काम काज हो रहा है उससे बहुत उम्मीद तो नहीं जगती है । साहित्य अकादमी में हर भारतीय
भाषा के प्रतिनिधि होते हैं उनके साथ मिल बैठकर ये माहौल बनाया जा सकता है । इसके लिए
अकादमी के आकाओं को पहल करनी होगी । अगर ऐसा होता है तो हिंदी के साथ साथ अन्य भारतीय
भाषाओं को भी ताकत मिलेगी । इसके अलावा अगर सरकारी स्तर पर मोदी सरकार हिंदी को संयुक्त
राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने के गंभीर प्रयास करती है तो हिंदी को विश्व भाषा का
दर्जा हासिल होगा । हिंदी अब बाजार की भाषा बन चुकी है । बाजार ने उसको अपना लिया है
आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश की सरकार हिंदी को तहेदिल से अपनाए और उसके विकास
और संवर्धन के लिए होनेवाले खर्च को उसकी राह का रोड़ा नहीं बनने दे । अगर मोदी की
अगुवाई वाली सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने में कामयाब हो
जाती है तो जिस तरह से लोग अब भी अचल बिहारी वाजयेपी को याद करते हैं उसी तरह से मोदी
भी इतिहास में दर्ज हो जाएंगे ।