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Sunday, May 25, 2014

जनवाद की शवसाधना

लोकसभा चुनावों में दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत और वामपंथी दलों की ऐतिहासिक हार के बाद हिंदी साहित्य जगत का एक खेमा सदमे में था । कुछ लेखक खीज मिटाने के चक्कर में इन दिनों फेसबुक जैसे सोशल साइट्स पर अपनी और अपनी विचारधारा की डफली बजाते घूम रहे हैं । उनकी टिप्पणियों में थोड़ा क्षोभ ज्यादा खिसियाहट दिखाई दे रही है । इस बीच खबर आई कि ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति को कथित हिंदू संगठनों की धमकी के बाद सुरक्षा प्रदान कर दी गई है । इस खबर के सामने आने के बाद जनवाद की शवसाधना कर रही जनवादी लेखक संघ को इसमें संभावना नजर आई और आनन फानन में इस मृतप्राय लेखक संगठन ने एक बयान जारी कर विरोध जता दिया । खबरों के मुताबिक अपने बयान में जनवादी लेखक संघ ने कहा है कि आम चुनावों के परिणाम के आते ही अनंतमूर्ति को डराने धमकाने की जो हरकतें सामने आई हैं वो निंदनीय है । उनके मुताबिक ये हरकतें असहमति के अधिकार के प्रति इन राजनीतिक शक्तियों की असिष्णुता का परिचायक है । असहमति का अधिकार लोकतंत्र के सबसे बुनियादी उसूलों में से एक है । इस अधिकार पर हमला लोकतंत्र की बनियाद पर हमला है । यू आर अनंतमूर्ति जैसे कद्दावर लेखक को किसी भी प्रकार की धमकी या उनको डराने धमाकाने की कोशिशों की ना सिर्फ निंदा की जानी चाहिए बल्कि ऐसी कोशिशों के लिए जिम्मेदार लोगों और संगठनों को सलाखों के पीछे होना चाहिए । इस पूरे विवाद के पीछे अनंतमूर्ति का एक बयान है जो उन्होंने चुनाव के पहले दिया था जिसमें कथित तौर पर उन्होंने कहा था कि अगर मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो वो देश छोड़ देंगे । हलांकि बाद में उन्होंने सफाई दी थी ।
यू आर अनंतमूर्ति एक बड़े लेखक हैं और उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था है लिहाजा मोदी की जीत के बाद उन्होंने स्वीकार किया- मेरा मानना है कि मोदी युवाओॆं के बीच खासे लोकप्रिय थे और देश के युवा चीन, अमेरिका की तरह मजबूत राष्ट्र चाहते थे । अनंतमूर्ति के मुताबिक यही राष्ट्रीय भावना मोदी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में सहायक रही । अनंतमूर्ति का बुनियादी विरोध मजबूत राष्ट्रवाद से है । उनका मानना है कि राष्ट्रवाद की आड़ में झूठ को फैलाया जा सकता है और यही उनके विरोध की वजह भी है । यू आर अनंतमूर्ति को इसका हक भी है क्योंकि वो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिक हैं और यहां का संविधान उन्हें अपने विचार रखने और उसके पक्ष में खड़ा होने की इजाजत देता है । लेकिन उन लोगों का क्या जिनकी आस्था भारतीय संविधान से ज्यादा लाल किताब में है, एक विचारधारा में है । इस तरह के लोग एक अवसर की तलाश में रहते हैं जिसका फायदा उठाकर वो दुनिया में अपने होने की दुंदुभि बजा सकें । हिंदी के इन बयानवीर लेखक संगठनों को बजाए बायान जारी करने के लेखकों के हितों में कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए । देशभर की अकादमियों में फैली अव्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए । लेखकों-प्रकाशकों के बीच बढ़ती खटास को कम करने से लेकर रायल्टी और करारनामे के मसले पर कदम बढ़ाने चाहिए । यह इनका मूल काम होना चाहिए लेकिन सिर्फ अभिवयक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े होने और कागजी विरोध जताने की आदत का त्याग करना होगा । हमारे देश का लोकतंत्र इतना मजबूत है कि कोई भी शख्स हमसे हमारे बुनियादी और संवैधानिक अधिकार नहीं छीन सकता है । इसके लिए बुक्का फाड़ने की जरूरत नहीं है ।  
 

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