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Monday, May 19, 2014

राजनीति, महिला और विद्रूपता

राजेन्द्र यादव को अपने जीवन काल में इस बात का अफसोस था कि राजनीतिक हत्या पर हिंदी में कोई उपन्यास नहीं लिखा गया । वो हमेशा कहते थे कि हिंदी के उपन्यास लेखक राजनीति की बजबजाती दुनिया पर तो लिख लेते हैं लेकिन राजनेताओं के हत्या के इर्दगिर्द रचना करने का साहस उनमें नहीं है । उन्होंने एक बार कहा था कि वेद प्रकाश शर्मा इकलौते हिंदी के लेखक हैं जिन्होंने वर्दी वाला गुंडा नामक उपन्यास लिखा जो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या पर आधारित है । लेखक ने प्लॉट अवश्य वहां से उठाया है लेकिन उसमें कल्पना के आधार पर काफी घटनाओं और स्थितियों का समावेश किया है । राजेन्द्र यादव की इस बात से असहमति का कोई आधार नहीं है साथ ही इस बात से भी अलग राय नहीं हो सकती है कि राजनीति को केंद्र में रखकर कई उपन्यास लिखे गए । श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी से लेकर विभूति नारायण राय के तबादला तक भारतीय समाज में राजनीति के खेल पर से पर्दा हटाने की कोशिश की गई है । प्रेमचंद के जमाने में गांव के लोग अपनी सारी बदमाशियों के बावजूद कुछ मूल्यों पर डटे रहते थे लेकिन वही गांव जब श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास राग दरबारी में चित्रित होता है तो उसका स्वरूप बदल चुका होता है ।  राजनीति की गंदगी गांव के जिंदगी में इस तरह से रच बस गई कि पंचायतों और ग्रामसभाओं के चुनाव में उस तरह के तमाम हथकंडे और दंद-फंद अपनाए जाने लगे जो प्रदेश और देश की राजनीति में अपनाए जाते थे । उससे आगे बढ़ते हुए विभूति नारायण राय के उपन्यास तबादला में तो वो राजनीति और घिनौने रूप में उपस्थित होती है । यह उपन्यास मूलत उत्तर प्रदेश के सर्वजनिक निर्माण विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानी है जिसमें तबादला तंत्र को प्रभावित करनेवाले राजनेताओं अफसरों और दलालों की साठगांठ का वर्णन है । सरकारी तंत्र के विद्रूप के अलावा इस उपन्यास में स्त्री शोषण का भी एक आयाम है । यही आयाम अब रजनी गुप्त के नए उपन्यास ये आम रास्ता नहीं है के केंद्र में है । रजनी गुप्त के इस उपन्यास में शीर्षक के नीचे कोष्ठक में लिखा है राजनीति के चक्रव्यूह में स्त्री । इससे पाठकों को इस बात का अंदाज हो जाता है कि उपन्यास की कहानी क्या कहती है ।

इस उपन्यास की केंद्रीय पात्र मृदु है जो पिछड़े वर्ग से आती है और अपने पति और दो बच्चों के साथ खुशी-खुशी पारिवारिक जीवन बिता रही होती है । उसकी जिंदगी में बेहद अहम मोड़ तब आता है जब वो एक दिन एक व्यूटी कांटेस्ट में चुन ली जाती है । घरेलू महिला होने के बावजूद मृदु के जीने का सलीका अन्य महिलाओं से अलहदा है । वो बिंदास है, वो खूबसूरत है, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती है और समाज के लिए कुछ करना भी चाहती है । इस उपन्यास में लेखिका ने साफ तौर पर इस बात को उकेरा है कि राजनीति के दलदल में महिलाओं के लिए खुद को बचा लेना लगभग असंभव सा है । इस उपन्यास से यह ध्वनित होता है महिलाओं को अगर राजनीति में ऊपर चढ़ना है तो उन्हें अपने शरीर को पायदान की तरह इस्तेमाल करना होगा । यह बात पात्रों के बीच होनेवाली बातचीत और स्थितियों से कई बार स्पष्ट होती है । एक अंग्रेजी पत्रिका में हिंदी की मशहूर लेखिका रमणिका गुप्ता, जो कि खुद लंबे समय तक राजनीति में रही हैं, ने माना था कि किस तरह से राजनेता महिलाओं के साथ व्यवहार करते हैं । किस तरह से खूबसूरत महिलाओं को अपने आपको बचाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है जो ज्यादातर नाकाम रहती है । अपने इस उपन्यास में रजनी गुप्त ने राजनीति की इस विद्रूपता को उजागर तो किया ही है लेकिन इसके साथ एक महात्वाकांक्षी पति के नापाक इरादों को भी उघाड़ कर रख दिया है । मृदु का पति अपनी तरक्की के लिए अपनी खूबसूरत पत्नी का इस्तेमाल करना चाहता है । वो अच्छी पोस्टिंग के लिए उसे मंत्री और आला अधिकारियों के पास भेजता है लेकिन मृदु अपने दृढ स्वभाव और दबंगई की वजह से बच कर निकल आती है । अपने पति की इस नीच हरकत से वो प्रतिक्रयावादी हो जाती है और पति की नाराजगी मोल लेकर राजनीति की ओर कदम बढ़ा देती है । वहां उसे एक नेता मिलता है जिसके साथ लांग ड्राइव पर जाना और उसकी नजदीकी उसे अच्छी लगती है । लेकिन नियति का चक्र कुछ ऐसा चलता है कि वो सबकुछ छोड़छाड़ कर पीड़ित लड़कियों के आश्रम में पहुंच जाती है । डेढ सौ पन्ने के इस छोटे से उपन्यास में कई कथाएं एक साथ चलती हैं । राजनीति के अलावा यह उपन्यास उसके दोनों बेटों के मनोभावों और पिता के बहकावे में आकर मां के साथ बदतमीजियों की दास्तान भी कहता है । मां के लिए अपने संतान की तड़प स्वाभाविक है लेकिन पिता अपनी चालों से इसको और बढ़ाता रहता है । इस उपन्यास में कई ऐसे विषय हैं जिसको पाठक हाल की घटनाओं से जोड़कर देख सकते हैं । लेकिन एक लेखक के लिए यही तो सफलता है कि वो किस तरह से अपने आसपास घट रही घटनाओं को अपनी रचना का विषय बनाकर समाज को झकझोरता है । रजनी गुप्च के इस उपन्यास में राजनीति के अलावा किशोर मन के मनोविज्ञान का भी चतित्रण है । किशोर मन का यह मनोविज्ञान रजनी के पिछले उपन्यास कुल जमा बीस का विषय भी रहा है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि रजनी गुप्त का यह नया उपन्यास इस विषय को स्पर्श करने का एक सार्थक प्रयास है । 

1 comment:

syedparwez said...

पुरूष हमेशा से ही महिलाओं को दबाने की कोशिश करता रहा है। ज्यादातर पुरूषों का अपने ‘मेल इग्गो’ से महिलाओं को कमतर आंकते हैं। शादी-शुदा पुरूष अपनी पत्नी को अपनी लाइफ पार्टनर न मानकर जागीर मानने लग जाते हैं। रही बात राजनीति की तो कुछ महिलाओं ने पुरूष सत्ता समाज को तोड़ा भी है। लेकिन वह महिलाएँ पहले से ही सम्पन्न हैं। समाज में उनकी एक पहचान थी, उस पहचान के बल पर वह राजनीति में आईं। गौरतलब है इनको राजनीति में लाने का उद्देश्य राजनेताओं का अपनी पार्टी की सीट पक्का करना ही रहा है, ऐसा जरूरी लगता है।
इस पर भी प्रकाश डालने की जरुरत है क्या इनका यहाँ पर शोषण तो नहीं हो रहा है, अगर, पुस्तक में इन संदर्भों को छुआ है तो अच्छा है।,महिला के जीवन में संघर्ष उनके जीवन का हिस्सा बन गया है. ज्यादातर व्यक्ति महिला की मदद उससे लाभ प्राप्ति के लिए ही करते हैं.बाकी किताब जमीनी धरातल हो छुती है।