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Monday, June 23, 2014

सियासत की आग पर भाषा की हांडी

केंद्रीय गृह मंत्रालय के हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने का विरोध शुरू हो गया है । गृह मंत्रालय ने सोशल मीडिया पर हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने की पहल और कोशिश शुरू की है । गृह मंत्रालय ने अपने आदेश में कहा है कि सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों के ट्विटर, फेसबुक और अन्य जगहों पर बनाए गए आधिकारिक खातों में राजभाषा हिंदी को नजरअंदाज करके केवल अंग्रेजी का ही प्रयोग किया जा रहा है । गृह मंत्रालय के मुताबिक सभी विभागों को इन आधिकारिक खातों में हिंदी अथवा अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में प्रयोग किया जाना चाहिए जिसमें हिंदी को पहले रखा जाने का आदेश है । इस आदेश के खबर बनते ही लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद तमिलनाडू में सियासी जमीन की तलाश में जुटे डीएमके के नेता करुणानिधि को इसमें संभावना नजर आई । उन्होंने फौरन गृह मंत्रालय के हिंदी को बढ़ावा देने के निर्देश के फैसले का विरोध करते हुए बयान जारी कर दिया। करुणानिधि ने कहा कि हिंदी को प्राथमिकता दिए जाने को गैर-हिंदी भाषी लोगों के साथ भेदभाव करने और उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक मानने के प्रयास की दिशा में पहला कदम समझा जाएगा । डीएमके नेता करुणानिधि का यह बयान ना केवल हास्यास्पद है बल्कि पूरे तरीके से राजनीति से प्रेरित है । दोनों बेटों के बीच जारी कलह, टेलीकॉम घोटाले में बेटी और पत्नी के आरोपी होने और सबसे बड़ी बात लोकसभा चुनाव में पूरे राज्य से सूपड़ा साफ होने के बाद करुणानिधि के पास कोई मुद्दा बचा नहीं है और वो हाशिए पर चले गए हैं । इस स्थिति में वो एक बार फिर से हिंदी विरोध का राग अलापकर तमिलनाडू के लोगों की भावनाएं भड़काकर अपनी राजनीति चमकाने की फिराक में हैं । हिंदी का एक कहावत है, शायद करुणानिधि को पता ना हो, काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती । साठ के दशक में हिंदी की हांडी को राजनीति के चूल्हे पर चढ़ाकर करुणानिधि और उनकी पार्टी ने लंबे समय तक तमिलनाडू पर राज किया । साठ के दशक का वह वक्त कुछ और था और पांच दशक बाद का वक्त अब कुछ और है । देश की, देशवासियों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं । अब वो भाषा के नाम पर मरने मारने के लिए उतारू होनेवाले नहीं हैं । इसके अलावा भाषा के नाम पर राजनीति चमकाने की नेताओं की चाल भी जनता की समझ में आ चुकी है, लिहाजा हिंदी विरोध की हांडी से इस बार सत्ता निकलने वाली नहीं है । करुणानिधि का सवाल है कि संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल सभी भाषाओं में से हिंदी को ही प्राथमिकता देने का एलान क्यों किया गया है । उन्होंने संचार के लिए हिंदी में रुचि दिखाने के केंद्र के फैसले को भटकावपूर्ण कदम करार दिया है । करुणानिधि स्वयं अच्छे लेखक रहे हैं लेकिन उनका यह तर्क कि संचार के माध्यम के लिए भाषा विशेष को तवज्जो देना भटकाव है, गले नहीं उतरता है । हिंदी को तमाम विरोध और संघर्षों के बाद राजभाषा का दर्जा हासिल हुआ था । अब अगर राजभाषा में सरकारी कामकाज के प्रचार प्रसार को बढ़ावा देने पर अमल शुरू करने की पहल हो रही है तो यह भटकाव कैसे है । करुणानिधि के बयान के बाद जयललिता ने भी विरोध जताने की रस्म अदायगी कर दी है ।
दरअसल अगर हम इतिहास पर एक नजर डालें तो डीएमके की बुनियाद ही भारत विरोध रहा है । मद्रास प्रेसिडेंसी में तमाम दलों ने साथ आकर डीएमके की स्थापना की थी । उसके अगुवा रहे सी एम अन्नादुरैई ने जोर शोर से अलग तमिल देश की मांग उठाई थी और कहा था कि तमिल राज्य के बनने के बाद ही तमिल अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल कर सकते हैं । डीएमके के अलगाववावदी रुख की वजह से इस पार्टी के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी गई थी । इसकी वजह संविधान का अनुच्छेद उन्नीस था जो किसी भी तरह के अलगाववादी दल को चुनाव लड़ने से रोकता था । 1962 में चीन के आक्रमण के दौरान डीएमके के नेताओं ने जेल से ही चीनी हमले का विरोध किया था । उसके बाद नेहरू के रुख में बदलाव आया और उन्होंने आर्टिकल उन्नीस में संशोधन करवा दिया ताकि डीएमके चुनाव लड़ सके । यह ठीक है कि बाद के वर्षों में डीएमके का अलगाववादी रुख उस तरह से मुखर नहीं हुआ । लेकिन जनवरी उन्नीस सौ पैंसठ में एक बार फिर से हिंदी के विरोध में तमिलनाडू में जबरदस्त हिंसा शुरू हो गई थी । तमिलनाडू के लोगों को लगता था कि हिंदी को बढ़ावा देने से तमिलों का हक छिन जाएगा । जबकि ऐसा था नहीं । उस वक्त की सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने बगैर प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को बताए तमिलनाडू जाकर भाषाई हिंसक आंदोलन को बातचीत से सुलझाया था । इंदिरा गांधी की पहल का दाद दी गई थी । हलांकि लालबहादुर शास्त्री को इंदिरा गांधी का यह कदम अच्छा नहीं लगा था । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जिसपर कभी बाद में चर्चा होगी । इस पूरे प्रसंग को बतलाने का मतलब यह है कि हिंदी को बढ़ावा देने से अन्य भाषाओं पर कोई खतरा नहीं है, यह बात अन्य भाषा के लोगों को समझानी होगी । अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों से संवाद कायम करना होगा नहीं तो करुणानिधि जैसे लोग भाषा की भावना भड़का कर राजनीति की रोटी सेंकने में कामयाब होते रहेंगे । 
महात्मा गांधी ने यह बात आजादी के पहले ही साफ कर दी थी कि हिंदी के प्रचार प्रसार से किसीभी अन्य प्रांतीय भाषा को कोई खतरा नहीं उत्पन्न होगा । 20 अप्रैल 1935 को हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन में इंदौर में गांधी जी ने कहा था मैं हमेशा यह मानता रहा हूं कि किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को मिटाना नहीं चाहते । हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिंदी सीखें । ऐसा कहने से हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता । हिंदी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं । वह राष्ट्रीय होने के लायक है । वही भाषा राष्ट्रीय बन सकती है जिसे अधिक-संख्यक लोग जानते बोलते हों और जो सीखने में सुगम हो । ऐसी भाषा हिंदी ही है । हिंदी के प्रति गांधी का प्रेम सर्वविदित है लेकिन वो हिंदी के साथ साथ सभी भारतीय भाषाओं की प्रगति के भी सबसे बड़े पैरोकार थे । नौ जुलाई उन्नीस सौ अड़तीस के हरिजन सेवक में गांधी जी ने लिखा- शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालत में बदलना चाहिए और इन्य प्रान्तीय भाषाओॆ को उसका वाजिब स्थान मिलना चाहिए । इसके अलावा संविधान सभा में पुरुषोत्तमदास टंडन ने कहा था कि –‘ मैं नहीं चाहता कि हिंदी को अनिच्छुक लोगों पर लादा जाए , यदि आप यह समझते हैं कि जिन लोगों का आप प्रतिनिधित्व करते हैं, वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे, तो मैं माननीय सदस्यों से कहूंगा कि वो इस विधान के पक्ष में मत ना दें । हिंदी के लोगों की अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हमेशा से सोच रही है । कुछ निहित स्वार्थ के लोगों ने हिंदी को अन्य भारतीय भाषा के दुश्मन के तौर पर पेश कर प्रचारित कर दिया । यहां एक और उदाहरण देना सही होगा । सरकारी भाषा आयोग की एक बैठक में भाषा के सवाल पर सदस्यों के बीच तीखी बहस हो रही थी । उस बहस में हस्तक्षेप करते हुए बालकृष्ण शर्मा नवीन ने कहा था कि यदि हिंदी देश की एकता में रोड़ा बनती है तो मैं इसे गहरे सागर में डुबो दूंगा । हिंदी के नुमाइंदों की इस तरह की प्रतिक्रियाएं यह साफ करती हैं कि वो हिंदी को सर्वग्राह्य बनाना चाहते थे । हिंदी को अन्य भारतीय भाषा पर थोपना नहीं चाहते थे, अब भी नहीं चाहते हैं । यह बात गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी साफ कर दी । राजनाथ सिंह ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएं अहम हैं और उनका मंत्रालय सभी भारतीय भाषाओं के विकास और प्रचार के लिए प्रतिबद्ध है । यह प्रतिबद्धता जरूरी भी है क्योंकि अन्य भाषाओं के सहयोग को लेकर ही हिंदी को बढ़ाया जा सकता है  । अन्य भारतीय भाषा के लोगों को भी समझना होगा कि उनकी भाषा के फैलाव के लिए भी हिंदी का होना आवश्यक है । एक छोटे से उदाहरण से इसको समझा जा सकता है । अगर किसी अन्य भारतीय भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करवाना हो तो पहले उसके हिंदी अनुवाद की जरूरत पड़ती है । क्योंकि हिंदी को छोड़कर ऐसे अनुवादक कम हैं जो भारतीय भाषाओं में ही अुनवाद कर सकें । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सहोदर भाषा के तौर पर काम करना होगा ताकि दोनों एक दूसरे के साथ चलकर अपनी अपनी मंजिल पा सकें । करुणानिधि जैसे लोगों राजनीति को पहचानकर तमिल भाषियों को ही उनके मंसूबों को असफल करना होगा ।

सबका साथ तभी हिंदी का विकास

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था कि सरकार का धर्म है कि वह काल की गति को पहचाने और युगधर्म की पुकार का बढ़कर आदर करे । दिनकर ने यह बात साठ के दशक में संसद में भाषा संबंधी बहस के दौरान कही थी । अपने उसी भाषण में दिनकर ने एक और अहम बात कही थी जो आज के संदर्भ में भी एकदम सटीक है । दिनकर ने कहा था कि हिंदी को देश में उसी तरह से लाया जाना चाहिए जिस तरह से अहिन्दी भाषी भारत के लोग उसको लाना चाहें । यही एक वाक्य हमारे देश में हिंदी के प्रसार की नीति का आधार है भी और भविष्य में भी होना चाहिए । गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग के सत्ताइस मई के एक आदेश के बाद हिंदी को लेकर कुछ अहिन्दी भाषी राज्यों के नेताओं ने खासा हंगामा मचाया । राजभाषा विभाग ने अपने सर्कुलर में कहा था कि सरकारी विभागों के आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट में हिंदी अथवा अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जाना चाहिए । अगर अंग्रेजी और हिंदी में लिखा जा रहा है तो हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए । इस सर्कुलर में यह बात साफ तौर पर कही गई है कि अंग्रेजी पर हिंदी को प्राथमिकता मिलनी चाहिए । यह कहीं नहीं कहा गया कि हिंदी का ही प्रयोग होना चाहिए । सवाल यही है कि इससे हिंदी थोपने जैसी बात कैसे सामने आ गई । दरअसल हमारे देश के नेताओं के साथ दिक्कत यही है कि वो किसी भी मसले की ऐतिहासिकता की पृष्ठभूमि में कोई बात नहीं कहते हैं । वो वोट बैंक पक्का करने के लिहाज से बयानबाजी करते हैं । लोकसभा चुनाव के दौरान चेन्नई के हिंदी भाषी बहुल इलाके में हिंदी में पोस्टर लगवाने वाले डीएमके नेता करुणानिधि को अब हिंदी विरोध में सियासी संभावना नजर आ रही है । साठ के दशक में जब दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ हिंसक आंदोलन हुए थे तब भी और उसके पहले भी सबों की राय यही बनी थी कि हिंदी का विकास और प्रसार अन्य भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने से ही होगा, थोपने से नहीं । महात्मा गांधी हिंदी के प्रबल समर्थक थे और वो इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना भी चाहते थे लेकिन गांधी जी ने भी कहा भी था कि हिंदी का उद्देश्य यह नहीं है कि वो प्रांतीय भाषाओं की जगह ले ले । वह अतिरिक्त भाषा होगी और अंतरप्रांतीय संपर्क के काम आएगी ।
हमारा देश फ्रांस या इंगलैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है । विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं लिहाजा यहां एक भाषा का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता है । इतना अवश्य है कि राजकाज की एक भाषा होनी चाहिए । आजादी के पहले और उसके बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश हुई लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं के विरोध के चलते वह संभव नहीं हो पाया । हिंदी राजभाषा तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा । जनता की भाषा और शासन की भाषा अलग रही । ना तो हिंदी को उसका हक मिला और ना ही अन्य भारतीय भाषाओं को समुचित प्रतिनिधित्व । हिंदी के खिलाफ भारतीय भाषाओं को खड़ा करने में अंग्रेजी प्रेमियों ने नेपथ्य से बड़ी भूमिका अदा की थी । यह अकारण नहीं था कि बांग्ला भाषा के तमाम लोगों ने आजादी पूर्व हिंदी भाषा का समर्थन किया था । चाहे वो केशवचंद्र सेन की स्वामी दयानंद को सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखने की सलाह हो या बिहार में भूदेव मुखर्जी की अगुवाई में कोर्ट की भाषा हिंदी करने का आंदोलन हो । जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हुई तो बंगला के लोग अपनी साहित्यक विरासत की तुलना हिंदी से करते हुए उसे हेय समझने लगे थे । जहां के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी के विकास के लिए अनथक प्रयास किया वहीं के तमिल भाषी अपने महाकाव्यों की दुहाई देकर हिंदी को नीचा दिखाने लगे । अंग्रेजी के पैरोकारों ने ऐसा माहौल बनाया कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषा के लोग दुश्मन की तरह से समझने और उसी मुताबिक बर्ताव करने लगे । आज अंग्रेजी उन्हीं अन्य भारतीय भाषाओं के विकास में सबसे बड़ी बाधा है । इस बात को समझने की जरूरत है।
आज हिंदी बगैर किसी सरकारी बैसाखी के खुद लंबा सफर तय कर चुकी है और विंध्य को लांघते हुए भारत के सुदूर दक्षिणी छोर तक पहुंच चुकी है और पूर्वोत्तर में भी यह धीरे धीरे लोकप्रिय हो रही है । सरकार अगर सचमुच हिंदी के विकास को लेकर संजीदा है तो उसको सभी भारतीय भाषाओं के बीच के संवाद को तेज करना होगा । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच के अनुवाद को बढ़ाना होगा । सर्कुलर जारी करने से ज्यादा जरूरी है सभी भाषाओं के मन में यह विश्वास पैदा करना कि हिंदी के विकास से उनका भी विकास होगा । सरकार को साहित्य अकादमी की चूलें कसने के तरीके ढूंढने होंगे । साहित्य अकादमी के गठन के वक्त उद्देश्य था कि वो भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय का काम करेगी । लेकिन कालांतर में साहित्य अकादमी ने साहित्य में अपना रास्ता तलाश लिया और भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया । एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अनुवाद का काम भी अकादमी सीरियसली नहीं कर पा रही है । साहित्य अकादमी के आयोजनों की अकादमी बनने से भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय बुरी तरह फेल रही । नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषाओं की हिंदी को लेकर शंकाए दूर नहीं हो पाईं । अब वक्त आ गया है कि सरकार काल की गति को पहचाने और युगधर्म के मुताबिक आगे बढ़कर सभी भाषाओं के मन में हिंदी के प्रति द्वेष को दूर करने का उद्यम करे ।

Monday, June 9, 2014

विधा के सन्नाटे को तोड़ती किताब

हिंदी में पाठकों की कमी का रोना दशकों से रोया जा रहा है । पाठकों की कमी पर छाती तो कूटी जा रही है लेकिन कभी इसकी वजह ढूंढने की कोशिश नहीं की गई । हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य रहा कि पिछले कई दशकों से रचनात्मकता पर आरोपित वैचारिक आग्रह हावी रहा । इन आग्रहों के पीछे एक खास राजनैतिक उद्देश्य होता था । उन राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, जीवन की सचाई के नाम पर लिखी गई रचनाओं को उसी वैचारिक आग्रह के आलोचकों ने आगे बढ़ाया और उससे इतर लेखन करनेवालों को कलावादी, जनविरोधी आदि आदि कह कर खारिज करते रहे । आलोचक के लिए सबसे जरूरी शर्त होती है कि वो किसी भी रचना का बारीकी से अध्ययन करे और फिर उनकी विशेषताओं को रेखांकित करे । लेकिन हिंदी साहित्य के एक लंबे कालखंड में ऐसा नहीं हुआ । वैचारिक आग्रह की वजह से लेखक के नाम और उसकी ज्ञात वैचारिक प्रतिबद्धता की कसौटी पर उनकी रचनाओं को कसा गया और सतही तौर पर ऐसी बातें कही गई जो लेखकों को अच्छी लगे चाहे उसका पाठकों के लिए कोई अर्थ निकले या ना निकले । रचनाश्रयी आलोचना की जगह विचारधारा की आलोचना ने ली । हर तरह की रचना की आलोचना के लिए एक ही तरह के औजार का इस्तेमाल किया गया । इससे आतंकित लेखकों ने स्वीकार्यता के लिए खास किस्म की रचना लिखनी शुरू कर दी जो एक खास विचार और धारा को बढ़ावा देने लगी । शिल्पगत नवीनता, वस्तु की नवीनता आदि के आधार पर यथार्थ की नई जमीन को तोड़ने की कोशिश की गई खास कर गद्य में, नतीजा यह हुआ कि हिंदी गद्य लेखन में एकरूपता और एकरसता आते चली गई । इस एकरसता और एकरूपता ने सृजनात्मक साहित्य का बड़ा नुकसान किया, पाठक तो विमुख हुए ही लेखकों की रचना शक्ति में कमी आते चली गई । लेखकों के लिए जरूरी होता है पाठकों का प्यार । इस प्यार में ऐसी ऊर्जा, ऐसी ताकत होती है जो किसी भी लेखक को महानता की ऊंचाई पर पहुंचा देती है । आलोचकों का प्यार हासिल करने के चक्कर में हिंदी के कथा लेखकों से पाठकों के प्यार का सिरा छूटता चला गया । दशकों बाद जब इस बात का एहसास हुआ तो सिवा छाती कूटने के और कुछ बचा ही नहीं । एक आलोचक ने लिखा भी है समय से घिसकर हर विचारधारा सृजनात्मकता में अपने खाने स्वयं बना लेता है और उसका जरूरत से ज्यादा कसाव-बढ़ाव रचनात्मकता की शक्ति वो वैसे ही नष्ट कर देता है जैसचे जरूरत से ज्यादा खाद पानी पौधे को जला-सड़ा देता है । हाल के दिनों में हलांकि कई युवा लेखकों ने अपनी रचनात्मकता को वैचारिक लेखन से मुक्त कर प्रतीकात्मकता, य़थार्थवादी कथात्मकता, अति यान्त्रिकता आदि से मुक्त किया है । लेकिन विचारधारा ने सृजनात्मक लेखन को जितना नुकसान पहुंचाया है उसकी भारपाई इतनी जल्दी संभव नहीं है । उसमें वक्त लगेगा । विचाराक्रांत लेखन का एक और दुश्परिणाम हुआ, वह यह कि इसने हिंदी साहित्य की कई विधाओं को नेपथ्य में धकेल दिया । जैसे हिंदी में पिछले कई वर्षों में अगर हम देखें तो संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी लेखन आदि बहुत ही कम लिखे गए । काशीनाथ सिंह और कांति कुमार जैन ने अपने लेखन से इस सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश की थी । इसके अलावा भी छिटपुट लेखन इस क्षेत्र में होता रहा । संस्मरण लेखन को लेकर तो यहां तक प्रचारित किया गया कि जो लेखक चुक जाते हैं वो संस्मरण लेखन की ओर प्रवृत्त होते हैं । इस तरह के दुश्प्रचार का भी दुश्परिणाम निकला कि संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज और यात्रा वृत्तांत जैसी विधा साहित्य के हाशिए पर चली गई । वर्ना कोई वजह नहीं थी हिंदी में संस्मऱण और रेखाचित्र लेखन की समृद्द परंपरा होने के बावजूद अब उसके वजूद पर ही सवाल खड़े होने लगे हैं । महादेवी वर्मा ने अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी जैसे बेहतरूीन संस्मरणात्मक किताबें लिखी तो शिवपूजन सहाय की किताब वे दिन वे लोग अब भी अपने व्यंग्यात्मक और मुहावरेदार भाषा के लिए याद किया जाता है । इसके अलावा उपेन्द्रनाथ अश्क और राहुल सांकृत्यायन ने भी इस विधा को अपनी लेखनी से समृद्ध किया । रामधारी सिंह दिनकर और हरिवंश राय बच्चन ने भी उल्लेखनीय संस्मरणात्मक लेखन किया ।  एक जमाना था जब अन्य भाषाओं के लेखकों के संस्मरण हिंदी में अनूदित हुआ करते थे । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना मेरा बचपन का हिंदी में अनुवाद किया था । इसी तरह से रिपोर्ताज हिंदी की अपेक्षाकृत नई विधा थी । रूसी साहित्यकारों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के आसपास इस विधा का जमकर उपयोग किया था जिसे बाद में हिंदी के साहित्यकारों ने भी अपनाया । बंगाल के अकाल पर रांगेय राघव के लिखे रिपोर्ताज आज भी अपनी मार्मिकता के लिए हिंदी साहित्य में मील का पत्थर है । उनके ये रिपोर्ताज बाद में तूफानों के बीच नाम से पुस्तककार प्रकाशित हुआ था । बाद में फणीश्वरनाथ रेणु से लेकर धर्मवीर भारती तक ने कई अच्छे रिपोर्ताज लिखे । इस विधा के साथ भी यही हुआ कि वो धीरे-धीरे नेपथ्य में चला गया । संचार क्रांति के दौर में पत्र-लेखन भी लगभग खत्म ही हो गया है ।
इस बीच सामयिक प्रकाशन ने दो ऐसी किताबें छापी हैं जिनसे कुछ उम्मीद जगती है । इसमें से एक है मशहूर कथाकार राजेन्द्र राव की उस रहगुजर की तलाश में और कांति कुमार जैन की महागुरू मुक्तिबोध । राजेन्द्र राव की किताब इस मायने में थोड़ी अलहदा है कि इसमें संस्मरण भी हैं और रिपोर्ताज भी और साक्षात्कार आदारित लेख भी , जबकि कांति कुमार जैन की किताब में मुक्तिबोध से जुड़े संस्मरण हैं । समीक्ष्य पुस्तक उस रहगुजर की तलाश में राजेन्द्र राव के रिपोर्ताज बेहद शानदार हैं । हाटे बाजार नाम के अपवने रिपोर्ताज में राजेन्द्र राव ने कोलकाता और उसके आसपास के वेश्या जीवन पर बहुत ही संवेदनशील और मर्यादित ढंग से लिखा है । हाटे बाजार की भाषा और उसमें प्रयोग किए गए जुमले इस लेख में बहुधा चमक उठते हैं । देह के बाजार में वेश्या और ग्राहकों के बीच की बातचीत की भाषा इतनी मर्यादित है कि वो अपनी बात भी कह जाते हैं लेकिन कहीं भी अश्लीलता नहीं आती है । इसके अलावा अपनी इस रिपोर्टातज में राजेन्द्र राव ने समाज में देहज की कुरीति पर भी चोट की है । एक जगह वह बताते हैं कि मनु देहबाजार में इस वजह से आई कि कुछ पैसे इकट्ठा हो जाएं तो उसी बड़ी बहन का ब्याह हो सके । मनु बेहद सहजता से कहती है कि जब उसका ब्याह होनेवाला होगा तो उसकी छोटी बहन यहां बैठेगी और उसी सहजता से कह देती है कि उसकी छोटी बहन का ब्याह नहीं होगा क्योंकि उसकी कोई छोटी बहन नहीं है जो देह के बाजार में बैठकर उसके लिए पैसा जमा कर सके । इसके अलावा किस तरह के बीचशहर के एक मैदान में महिलाएं और लड़कियां अपने देह का सौदा करने को मजबूर हैं । किस तरह से ग्यारह साल की लड़कियां अपनी मजबूरियों के चलते इसस बाजार में अपनी देह का सौदा कर रही हैं । पैसे के लिए मजबूरी में पुरषों का हवस मिटाने के लिए चंद पलों की नारकीय यातना सरेआम भुगतती हैं । अब एक जगह लेखक की भाषा देखिए- दो भयानक पंजे हमारे ओर बढ़ रहे थे । वे हाथों के नाग थे, जिनकी डसन का मार्फिया लेने लोग मैदान में सौदा करते हैं । इसके अलावा बांग्ला शब्दों का प्रयोग एक अलग तरह की प्रभावोत्पादकता उत्तपन करती है । इनके रिपोर्चाज के अलग अलग शेड्स इस किताब में संग्रहीत हैं । बांधो तो नाव इस ठांव बंधु में राजेन्द्र राव ने मशहूर कथाकार शिवमूर्ति के गांव की यात्रा और वहां के अपने प्रवास के बारे में विस्तार से लिखा है । इस पूरी रिपोर्ताज में राजेन्द्र राव, शिवमूर्ति के पारिवारिक जीवन से लेकर उनके लेखन तक पर टिप्पणी करते चलते हैं लेकिन इसमें आधुनिक ग्राम्य जीवन का एक खाका भी खींचते हैं किस तरह से कच्चे मकानों की जगह ईंट गारे ने ले ली है । किस तरह गांव में भी शादी ब्याह में डीजे की धुनें गूजने लगी हैं आदि आदि । इस रिपोर्ताज में भी इन सबके अलावा लेखन ने जिस प्रतीकात्मक भाषा में बातें कही हैं वो रेखांकित करने योग्य है । शिवमूर्ति के घर से जब वो रात में बाहर निकलते हैं तो खेतों में टहलने का वर्णन देखिए- पार निकलकर खेतों की मेड़ पर चलते हुए धनिए की फसल के बीच पहुंचकर मदमाती गंध का जादू देखा जो दिलो दिमाग पर हावी हो गया । निखालिस वासना की गन्ध की तरह ....अंधेरे में हीमसल कर देखा, बड़ी तीखी गन्ध उठी । वर्जित दिनों में उठने और छा जानेवाली । इन पंक्तियों के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है । कल्पनाशीलता के छोरों को सिर्फ पढ़कर महसूस किया जा सकता है । उस रहगुजर की तलाश भी इंदौर की यात्रा का वर्णन है जिस यात्रा में पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज और अपूर्व जोशी भी उनके साथ थे । एक शहर और उसके मिजाज का बेहतरीन वर्णन लेकिन यहां भी आधुनिकता के बोझ तले परंपरा के दबते चले जाने की कहानी भी ।

पंडित सोहनलाल द्विवेदी से मार्मिक साक्षात्कार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव से बिंदास अंदाज में बातचीत इस किताब की पठनीयता को बढ़ा देती है । कामता नाथ और कृष्ण बिहारी पर लिखे संस्मरणों में लेखक का शहर कानपुर बार बार आता है । एक ओर जहां कामता नाथ पर लिखे संस्मरणों में छोटे शहर के लेखकों के बीच चलनेवाली राजनीति के संकेत हैं तो कृष्ण बिहारी के बहाने वो एक बेहद प्रतिभाशाली लेखक से पाठकों को रूबरू करवाते हैं । कृष्ण बिहारी को मैं उनकी रचनाओं से जानता था लेकिन राजेन्द्र राव के संस्मरण पढ़ने के बाद अब उनकी रचनाओं को पढ़ने समझवने की एक अलग दृष्टि और पृष्ठभूमि मिल गई है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि राजेन्द्र राव की यह किताब लंबे समय बाद हिंदी साहित्य में इस विधा में मौजूद सन्नाटे को तोड़ती है । इस किताब का एक और लाभ जो मुझे दिखाई देता है वो यह कि यह पाठकों में कथेतर साहित्य को लेकर एक उत्सुकता भी जगाएगी । बस अंत में एक बात कहना चाहता हूं कि रिपोर्ताज और संस्मरणों के अंत में उसके लिखे जाने का वर्ष होता तो बेहतर होता । वर्षोल्लेख नहीं होना कोई दोष नहीं है बल्कि होना पाठकों की सहूलियत को बढ़ाता । तकरीबन डेढ सौ पन्नों की किताब का मूल्य तीन सौ होना भी अखरता है ।  

Saturday, June 7, 2014

हिंदी को मिले हक

आजादी के तकरीबन दो दशक पहले उन्नीस सौ अट्ठाइस के आसपास चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने लिखा था- जनता की भाषा एक और शासन की भाषा दूसरी होने से जनता संसद तथा विधानसभाओं के सदस्यों पर समुचित नियंत्रण नहीं रख सकेगी, इसलिए उचित यही है कि हम अपनी सुविधा के लोभ में आकर अंग्रेजी के लिए दुराग्रह नहीं करें । यदि अंग्रेजी शासन की भाषा बनी रही तो इससे देश का स्वराज्य अधूरा रहेगा । चक्रवर्ती राजगोपालालाचारी के इस कथन पर भारतीयों ने ध्यान नहीं दिया और कालांतर में अंग्रेजी के चाहनेवालों ने एक ऐसा माहौल पैदा किया जिसमें अन्य भारतीय भाषाएं हिंदी को अपना दुश्मन समझने लगीं । नतीजा यह हुआ कि हिंदी राजभाषा तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा कायम रहा । जनता की भाषा और शासन की भाषा अलग रही । ना तो हिंदी को उसका हक मिला और ना ही अन्य भारतीय भाषाओं को समुचित प्रतिनिधित्व । केंद्र में नई सरकार के गठन के बाद एक बार फिर से यह उम्मीद जगी है कि हिंदी को उसका हक मिलेगा । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरफ से इस बात संकेत मिलने लगे हैं कि हिंदी को सरकार में अहमियत मिलनेवाली हैं । संसद सत्र के पहले दिन प्रधानमंत्री ने हिंदी में शपथ ली । विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत कई सांसदों ने संस्कृत और हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में शपथ ली । कई लोगों ने सांसदों और मंत्रियों के इस कदम की आलोचना की । उनकी नजर में संस्कृत में शपथ लेना पुरातनपंथी सोच का परिचायक है । विदेश मंत्री समेत कई मंत्रियों और सांसदों का संसद में संस्कृत में शपथ लेना एक प्रतीक है और इसको उसी तरह से देखा समझा जाना चाहिए । संस्कृत में शपथ लेने को कई बुद्धिजीवी हिंदुत्व से भी जोड़कर देखने की फिराक में हैं । यह सही है कि इस वक्त देश में संस्कृत एक विषय और पूजा पाठ में मंत्रोच्चार की भाषा के तौर पर प्रचारित है, लेकिन अब भी कई लोग संस्कृत में गंभीर काम कर रहे हैं । संसद में संस्कृत में शपथ लेने से हाशिए पर गई इस भाषा को जीवनी शक्ति तो नहीं मिलेगी परंतु इस भाषा में काम करनेवालों का उत्साह अवश्य बढ़ेगा । यह प्रतीक अपने भाषा से प्रेम का और अंग्रेजी के वर्चस्व पर प्रहार का भी है । इसी वर्चस्व पर प्रहार के चलते हमारे देश में अंग्रेजी के लोगों ने हिंदी के बरक्स अन्य भारतीय भाषाओं को खड़ा कर दिया था । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय की राह में अहं और जर का इतना बड़ा अवरोध खड़ा कर दिया गया कि उसको पार पाना मुश्किल हो गया । यह अनायास नहीं है कि बांग्ला भाषा के तमाम लोगों ने आजादी पूर्व हिंदी भाषा का समर्थन किया था । चाहे वो केशवचंद्र सेन की स्वामी दयानंद को सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखने की सलाह हो या बिहार में भूदेव मुखर्जी की अगुवाई में कोर्ट की भाषा हिंदी करने का आंदोलन हो । पर बात में हिंदी के बरक्श दूसरी अन्य भारतीय भाषाओं को खड़ा करने की साजिश हुई तो बंगला भाषा के लोग अपनी साहित्यक विरासत की तुलना हिंदी से करने लगे और हिंदी ने तो वह दौर भी देखा जिसमें बंगला के लोग हिंदी को हेय समझने लगे थे । जिस प्रांत के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी के विकास के लिए अनथक प्रयास किया वहीं के तमिल भाषी लोग अपने महाकाव्यों की दुहाई देकर हिंदी को नीचा दिखाने लगे । यह गंभीर शोध का विषय है कि क्यों और कैसे यह माहौल बना कि हिंदी दो अन्य भारतीय भाषा के लोग दुश्मन की तरह से समझने और उसी मुताबिक बर्ताव करने लगे ।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि आजादी के बाद प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी का माहौल बना था । किन्तु जब हिंदी विरोधियों ने यह देखा कि हिन्दीतर भाषाएं अब हिंदी के विरुद्ध भड़काई नहीं जा सकतीं, तब उन्होंने अंग्रेजी का गुणगान प्रारंभ कर दिया । अब वे यह तर्क देने लगे हैं कि अंग्रेजी को अगर हमने छोड़ दिया तो शिक्षा और शासन के क्षेत्रों में हमारी प्रगति का अवरोध हो जाएगा । इस तरह का माहौल बनते देख अंग्रेजी के खैरख्वाहों ने एक सुनियोजित साजिश के तहत यह प्रचारित किया गया कि हिंदी का वर्चस्व अगर कायम हो गया या अगर हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया गया तो अन्य भारतीय भाषाएं खत्म हो जाएंगी । इस अफवाह को इतने जोर शोर से फैलाया गया कि अहिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी को लेकर एक दुर्भावना का भाव उत्पन्न हुआ जो कालांतर में हिंसक आंदोलन में तब्दील हो गया । अंग्रेजी के पैरोकारों की साजिश सफल रही हिंदी पूरे देश में एक संपर्क भाषा या कह सकते हैं कि राष्ट्रभाषा के तौर पर मान्यता नहीं पा सकी । युवकों के बीच में भी इस बात को फैलाया गया कि अगर वो अंग्रेजी में दक्षता प्राप्त नहीं करते हैं तो उनके लिए रोजगार के अवसर कम हो जाएंगे । 5 जुलाई 1928 को यंग इंडिया में लिखी गई गांधी की नसीहत को भुला दिया । गांधी जी ने लिखा था हजारो नवयुवक अपना कीमती समय इस विदेशी भाषा (अंग्रेजी) को सीखने में ही नष्ट करते हैं जबकि उनके दैनिक जीवन में उनकी कोई उपयोगिता नहीं है । अंग्रेजी सीखने में ,मय लगाते हुए वो अपनी मातृभाषा की उपेक्षा करते हैं. वे इस अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं कि उंचे दर्जे के विचार अंग्रेजी में ही प्रकट किए जा सकते हैं । अंग्रेजी के लादे जाने से राष्ट्र की शक्ति सूख गई है । विद्यार्थी आज जनता से दूर जा पड़े हैं, शिक्षा पाना बड़े खर्चे का काम हो गया है । गांधी जी ने तब चेताया था कि अगर यही हाल रहा तो बहुत संभव है कि राष्ट्र की आत्मा का नाश हो जाए। आज ऐसा माहौल बना दिया गया है कि अंग्रेजी में दक्ष युवाओं के लिए रोजगार के ज्यादा अवसर हैं ।
शिक्षा का अधिकार तो दे दिया गया लेकिन देश में मुकम्मल शिक्षा नीति के अभाव में भाषा नीति पर बात नहीं हो पाई । हिंदी के विकास के लिए बनाई गई संस्थाएं मजा मारने का अड्डा बनती चली गई । जिनपर हिंदी के विकास और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने का दायित्व था वो छोटी छोटी चीजों में उलझे रहे । इसी वर्ष साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में अकादमी पुरस्कार से नवाजे गए लेखकों से मुलाकात का मौका मिला । उनसे बातचीत के क्रम में यह बात उभर कर आई कि अबतक उनरे मन में हिंदी को लेकर एक खास किस्म की ऐसी भावना है जो सहोदर भाषा के लेखकों के मन में नहीं होनी चाहिए । इस तरह की भावना का विकास एक दिन में नहीं हुआ है । अफसोस की बात यह है कि साहित्य अकादमी या राज्य की भाषा अकादमियां भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय बनाने के काम में बुरी तरह से फ्लॉप रहीं । साहित्य अकादमी में साठ साल के बाद हिंदी भाषा का अध्यक्ष हुआ है । उनसे कई उम्मीदें हैं लेकिन साहित्य अकादमी की गतिविधियों से ऐसा कोई संकेत फिलहाल मिलता नहीं दिख रहा है । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय की कोई कोशिश दिख नहीं रही है । हिंदी के विकास के लिए बनाए गए महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय अब जाकर आकार ले पाया है । इस विश्वविद्यालय के साथ यह दिक्कत हुई कि शुरुआत से ही इसकी दिशा भटक गई । विश्वविद्यालय पत्रिका निकालने और किताब छापने के काम में उलझ गई । दस साल तक तो इसकी इमारत तक ढंग से नहीं बन पाई । इन सारे संस्थानों को हिंदी के विकास के लिए एक कार्ययोजना बनानी चाहिए और उसपर अमल करना चाहिए । साथ ही यह कोशिश भी होनी चाहिए कि अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों में हिंदी को लेकर जो आशंकाएं वो दूर हों । परस्पर सहयोग और समन्वय का माहौल बने । ये संस्थाएं एक भाषा की कृति का अनुवाद दूसरी भाषा में करवाकर परस्पर विश्वास का एक माहौल बना सकती हैं । साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट ये काम कर रही हैं लेकिन इसे और व्यापक बनाना होगा । दूसरी एक बात और कि हिंदी के लोगों को भी अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों से परहेज को छोड़ना होगा । अपनी भाषा में दूसरी भाषा के शब्दों के प्रयोग को सहजता से होने देना होगा ।

अब एक बार फिर से हिंदी के पक्ष में माहौल बनता दिख रहा है । खबरों के मुताबिक देश के प्रधानमंत्री ने यह तय किया है कि वो विदेशी मेहमानों से हिंदी में ही बात करेंगे । यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में अपना भाषण देकर अटल बिहारी वाजपेयी की विरासत को आगे बढ़ाते हैं या नहीं । अगर वो ऐसा करते हैं तो एक बार फिर से हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में मान्यता दिलवाने की मुहिम जोर पकड़ेगी तब विदेश मंत्रालय के लिए यह तर्क देना आसान नहीं होगा कि सालाना बयासी करोड़ के खर्च की वजह से संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को मान्यता दिलवाने का काम नहीं हो पा रहा है ।

Wednesday, June 4, 2014

नई स्वास्थ्य नीति की अपेक्षा

नई सरकार के गठन और मंत्रियों की योग्यता से लेकर अनुच्छेद तीन सौ सत्तर और समान नागरिक संहिता पर बहस के शिगूफे से मचे शोरगुल के बीच अन्य मंत्रियों की तरफ से मिल रहे अहम संकेत नेपथ्य में चले गए । विवादों के इस कोलाहल में स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन की केंद्रीय स्वास्थ्य नीति बनाने के संकेत सूत्र को मीडिया में तवज्जो नहीं मिल पाई । डॉ हर्षवर्धन ने केंद्रीय मंत्री का कामकाज संभालने के बाद तंबाखू मुक्त भारत की बात करके सबको चौंका दिया था। उन्होंने इस बात के संकेत भी दिए कि सिगरेट और अन्य तंबाखू उत्पाद पर उत्पाद शुल्क बढ़ाया जाएगा । इसके अलावा केंद्रय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने इस बात कि ओर भी इशारा किया कि स्वास्थ्य बीमा के दायरे को बढाया जाएगा । स्वास्थ्य मंत्री की बातों से निकले इन सूत्रों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि नई सरकार देश में एक नई स्वास्थ्य नीति पेश कर सकती है । भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणा पत्र में कहा भी था कि भारत में अब समग्र स्वास्थ्य नीति की जरूरत है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी जटिल चुनौतियों का सामना किया जा सके । जनसांख्यिकीय बदलाव और स्वास्थ्य क्षेत्र में हुए बदलाव को देखते हुए इसकी सख्त जरूरत है । भारतीय जनता पार्टी नई स्वास्थ्य नीति की पहल करेगी । हमारे देश में पिछली बार दो हजार दो में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के वक्त राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनी थी । बारह वर्ष के बाद देश के हालात बहुत बदल गए हैं , लेकिन सरकारी अस्पतालों की हालत में बहुत सुधार नहीं हो पाया है । इतना अवश्य हुआ कि देश में फाइव स्टार अस्पतालों की बहुतायत हो गई है । इन निजी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधा अवश्य बेहतर हुई है लेकिन स्वास्थ्य सेवा के कॉरपोरेटाइजेशन की वजह से खर्च भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है । ये निजी अस्पताल आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चुके हैं । ये तो शहरों का हाल है गांवों में स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवा का हाल और भी बुरा है । सरकारी डिस्पेंसरियों में डाक्टर पहुंचते ही नहीं हैं । वहां मौजूद कर्मचारी ही छोटी मोटी दवाइयां देकर मरीजों को रुखसत कर देते हैं । जिला अस्पतालों में डाक्टर पहुंचते तो हैं लेकिन मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा होती है कि अस्पताल उनके लिए छोटा पड़ जाता है । इसके अलावा जिला अस्पतालों में पर्याप्त चिकित्सा उपकरणों और संसाधनों की कमी भी स्वास्थ्य सेवा में बड़ी बाधा है । देश की राजधानी दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानि एम्स की इमरजेंसी में स्ट्रेचर पर मरीज कई दिनों तक अपना इलाज करवाते हैं । किस्मत वाले मरीजों को ही एम्स में दाखिला मिल पाता है । देश में स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली की इस पृष्ठभूमि में एक नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति की दरकार भी है जिसमें मौजूदा हालात के मद्देनजर अस्पतालों और चिकित्सा शिक्षा की नई नीति बनाई जाए ।
अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में जब दो हजार दो में सरकार बनी थी तो देश में हेल्थ सेक्टर में पर्याप्त निवेश नहीं हो रहा था । स्वास्थ्य शिक्षा का फैलाव देशभर में नहीं था । जब राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई गई थी तब इस बात पर जोर दिया गया था कि सरकारी स्वास्थ्य सेवा का लाभ समाज के सबसे निचले पायदान के व्यक्ति तक पहुंच सके । साथ ही दो हजार दो की स्वास्थ्य नीति में ग्रामीण इलाके में मौजूद स्वास्थ्य सेवा और उसके नेटवर्क को मजबूत करने को प्राथमिकता दिया जाना तय किया गया था । इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए स्वास्थ्य सेवा पर खर्च बढाए जाने की बात भी की गई थी । चूंकि स्वास्थ्य सेवा राज्य सरकारों के तहत आता है इस वजह से केंद्र की तरफ से अलग अलग समय पर योजनाएं बनाकर राज्य सरकारों को धन मुहैया करवाने की योजना बनी थी । आजादी के बाद से लेकर नब्बे के दशक तक के अंत तक मेडिकल और डेंटल कॉलेजों की स्थापना देश के भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से बेहद असंतुलित तरीके से हुई थी । दो हजार दो की स्वास्थ्य नीति में इस असामनता तो खत्म करने पर भी जोर दिया गया था । इस फैसले का परिणाम भी मिला और यूपीए की सरकार के दौरान हर राज्य में एम्स जैसे संस्थान बनाने पर काम शुरू हुआ, लेकिन देरी होने की वजह से इसका अपेक्षित लाभ अबतक नहीं मिल पाया है ।

नई स्वास्थ्य नीति बनाते समय सरकार को कई महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना होगा । वैश्वीकरण और बाजारवाद के भारत में पांव पसारने के बाद दवाइयों की कीमत में भी इजाफा हुआ है लेकिन अब भी विश्व के अन्य देशों की तुलना में ये काफी सस्ती हैं । बाजारीकरण के इस दौर में और मल्टी नेशनल कंपनियों के भारत आने के बाद इस बात का अंदेशा है कि जैनेरिक दवाइयों की कीमत में बढ़ोतरी हो सकती है । नई नीति में सरकार को इस बात पर पर्याप्त ध्यान देना होगा नहीं तो इलाज महंगा होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा । नई स्वास्थ्य नीति में सरकारी अस्पतालों के आधुनिकीकरण से लेकर दवा वितरण को तर्कसंगत बनाने की आवश्यकता है । स्वास्थ्य मंत्री को पल्स पोलियो अभियान सफलतापूर्वक चलाने का अनुभव है लिहाजा नई स्वास्थ्य नीति में टीकाकरण अभियान को पूरे देश में चलाने की नीति को अमली जामा पहनाना होगा । नीतियों को बनाना और उसको लागू करने से ज्याद बड़ी चुनौती है इस सेवा को घुन की तरह खा रहा भ्रष्टाचार । पूरे देश ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का हश्र उत्तर प्रदेश में देखा है जहां मंत्री से लेकर संतरी तक ने इस कार्यक्रम से करोडों रुपए बनाए । भले ही आज वो जेल में हों, उनको सजा भी हो जाए लेकिन गांव के गरीबों के हक पर तो डाका डल गया । 

सोशल साइट्स का विजयपथ

अपनी फसल को किसान बेहद मेहनत से तैयार करता है और जब फसल लहलहाने लगती है और तैयार हो जाती है तो इलाके का दबंग जमींदार अपने कारकुनों के साथ पहुंच कर फसल कटवा लेता है । यह दृश्य कई फिल्मों में कई बार फिल्माया गया है । अस्सी के दशक में बिहार में बहुधा ऐसे वाकए सुनने को मिलते थे । इस बार लोकसभा के चुनाव में भी इससे ही मिलता जुलता वाकया देखने को मिला । यूपीए सरकार के खिलाफ अन्ना आंदोलन से जो जमीन तैयार हुई थी उसपर मोदी ने सियासी फसल काटी । दो हजार ग्यारह की बात है यूपीए सरकार के एक के बाद एक लाखों करोड़ के घोटाले उजागर हो रहे थे । देश में महंगाई अपने चरम पर थी । पेट्रोल के दाम लगातार बढ़ रहे थे । रुपए का लगातार अवमूल्यन हो रहा था । शेयर बाजार में सुस्ती छाई थी । पूरे देश की जनता एक तरह से यूपीए सरकार से उबी हुई लग रही थी । सरकार लाचार लग रही थी । प्रधानमंत्री हर बार महंगाई से निबटने के लिए एक नई तारीख दे रहे थे । सोनिया गांधी के अस्वस्थ होने की वजह से कांग्रेस की हालत बगैर कप्तान के टीम जैसी हो गई थी क्योंकि उपकप्तान अपनी धुन में मस्त था । वह आदर्शवाद और व्यावहारिकता में फर्क नहीं कर रहा था । महंगाई के खिलाफ देशभर में बीजेपी के प्रदर्शन की योजना टांय-टांय फिस्स हो चुकी थी । विपक्ष भी सुस्ता रहा था । ऐसे ही माहौल में अरविंद केजरीवाल ने जब अन्ना हजारे की अगुवाई में दो हजार ग्यारह में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया था तो उसे अपार जनसमर्थन मिला था । दिल्ली का रामलीला मैदान हो या जंतर मंतर दोनों जगह लाखों की भीड़ उमड़ी थी । अरविंद केजरीवाल की टीम ने दिल्ली में अन्ना हजारे के दोनों अनशन के दौरान सोशल मीडिया और नेटवर्किंग साइट्स के अलावा यूट्यूब का भी जमकर उपयोग किया था। अपनी बात को जनता तक पहुंचाने से लेकर जनता को मोबलाइज करने तक में । राजनीति पर बारीक नजर रखनेवालों ने उस आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया, नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट की पहुंच और ताकत का अंदाज लगा लिया था । अनशन के पहले जब अन्ना हजारे को दिल्ली के मयूर विहार इलाके से गिरफ्तार किया गया था तो उनकी गिरफ्तारी के फौरन बाद टीम अन्ना ने उनका प्रीरिकॉर्डेड मैसेज यूट्यूब पर अपलोड कर दिया था । अन्ना के उस मैसेज का जोरदार असर हुआ और उनके तिहाड़ जेल पहुंचने से पहले हजारों की भीड़ वहां पहुंच चुकी थी । एक असर यह भी हुआ था कि तिहाड़ जेल के बाहर पहुंची हजारों की भीड़ कभी भी हिंसक नहीं हुई । अन्ना के आंदोलन के दौरान अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए बनाया गया इंडिया अगेंस्ट करप्शन का ट्विटर हैंडल के एक लाख से ज्यादा फॉलोवर थे । बाद में जब टीम अन्ना में दरार हो गई तो यह ट्विटर हैंडल उनके पास से निकल गया । लेकिन तबतक अरविंद केजरीवाल का अपना ट्विटर हैंडल खासा लोकप्रिय हो चुका था । इस पूरी कहानी को बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि देश में सियासत की फसल लहलहा रही थी, जरूरत थी तो उसको काटकर सत्ता का स्वाद चखने की । दिल्ली से दूर पश्चिम के एक राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी बारीकी से देश के हालात पर नजर रखे हुए थे । हम यहां नरेन्द्र मोदी की तुलना गांव के उस दबंग से तो नहीं कर सकते हैं जो खड़ी फसल को काट लेता है लेकिन केजरीवाल और अन्ना आंदोलन से जो सियासी जमीन तैयार हुई थी उसपर बहुमत की बुलंद इमारत उन्होंने खड़ी कर ली और देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद तक जा पहुंचे ।
अन्ना आंदोलन से यूपीए सरकार के खिलाफ जो एक माहौल बना, नरेन्द्र मोदी ने उसमें अपने लिए संभावना तलाशी और योजनाबद्ध तरीके से अपनी पूरी टीम को सक्रिय कर दिया । सोशल मीडिया पर, नेटवर्किंग साइट्स पर, इंटरनेट पर और यूट्यूब पर मोदी के पक्ष में पूरी की पूरी टीम सक्रिय हो गई । देश के अलग अलग हिस्सों से ट्विटर पर मोदी के पक्ष में हवा बनाई जाने लगी । फेसबुक पर मोदी के पेज के लाइक्स की संख्या लाखों में पहुंचने लगी जो चुनाव तक एक करोड़ को पार कर गई । मोदी के एक मजबूत और निर्णायक नेता की छवि गढ़ने में ट्विटर और फेसबुक की अहम भूमिका रही । मोदी के पक्ष में आक्रामकता के साथ मुहिम और उनके विरोधियों पर टूट पड़ने को ट्विटर सेना मुस्तैदी के साथ डटी रहती थी । यह काम चौबीसों घंटे चलता था । मोदी के पक्ष में लिखी बात ट्विटर पर लगातार रीट्वीट होती रहती थी और जैसे ही कोई मोदी के खिलाफ कोई ट्वीट होता था तो लिखने वाले पर चौतरफा हमले शुरू हो जाते थे । बहुधा मर्यादा की सीमा भी लांघी जाती थी । इस चुनाव के दौरान ट्विटर, फेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स का विश्लेषण करनेवालों का कहना है कि चुनाव के नतीजों के बाद इन साइट्स पर मोदी के पक्ष में सक्रियता काफी कम हो गई है । इससे इस बात के संकेत मिलते हैं कि फतह के बाद सेना बैरक में चली गई है ।  

अन्ना आंदोलन से बने माहौल. सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटरनेट के बेहतरीन इस्तेमाल के अलावा मोदी ने अत्याधुनिक तकनीक का भी जमकर इस्तेमाल किया । तमिल, तेलुगू, बांग्ला से लेकर अन्य कई भाषाओं में मोदी की आवाज में डब किए गए उनके भाषण उनकी खुद की बेवसाइट के अलावा यूट्यूब पर फौरन अपलोड की जाती थी । इन भाषणों के लिंक फेसबुक से लेकर ट्विटर पर दनानन फैलते थे और हजारों की संख्या में हिट्स मिलते थे । इस चुनाव में थ्री डी तकनीक का इस्तेमाल कर मोदी ने अपने विरोधियों को तो मात दी ही जनता को भी कम नहीं चौंकाया । एक जगह बैठकर देश के कोने कोने में बैठे लोगों से चाय पर चर्चा करके भी मोदी देश के बहुसंख्यक मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने में कामयाब रहे । सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के पहले हमारे परंपरावादी राजनैतिक टिप्पणीकारों का यह मानना था कि जनतंत्र में जन के पास जाकर ही उनको संतुष्ट किया जा सकता है । तर्क यह भी दिया जाता था कि जो लोग जनता तक पहुंच पाते हैं वो आभासी माध्यमों के मार्फत जनता से संवाद स्थापित भले ही स्थापित कर लें लेकिन वोट लेने में कामयाब नहीं हो पाएंगे । मोदी के पक्ष में आए चुनावी नतीजों ने इन सारे मिथकों को चकनाचूर कर दिया । प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद भी मोदी को संवाद के इस आधुनिक टूल की अहमियत पता है लिहाजा वो हर वक्त ट्विटर पर सक्रिय रहते हैं और सरकारी विभागों को भी उन्होंने सक्रिय रहने का संदेश दे दिया है । शपथ लेने के चंद मिनट बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की बेवसाइट का बदल जाना और उसपर देशवासियों के नाम मोदी का संदेश अपलोड होना इस बात की तस्दीक भी करता है । 

Tuesday, June 3, 2014

खामोशी का खामियाजा

आदरणीया सोनिया जी, लोकसभा चुनाव में आपकी पार्टी कांग्रेस की करारी हार के बाद आप आत्ममंथन के मूड में होंगी । आपकी अगुवाई में कांग्रेस पार्टी की ये अब-तक की सबसे बड़ी हार है । पार्टी के इतने कम सांसद चुनकर लोकसभा में पहुंचे हैं कि इस बात पर बहस हो रही है कि कांग्रेस संसदीय दल के नेता को नेता विपक्ष का दर्जा मिलेगा या नहीं । संविधान और सदन की कार्यवाही के विशेषज्ञ इस बात पर अलग अलग राय रखते हैं । खैर ये अलहदा विषय है । हम कांग्रेस की ऐतिहासिक हार की बात कर रहे थे । जिस दिन लोकसभा चुनाव के नतीजे आए थे तो आप अपने सुपुत्र राहुल गांधी के साथ मीडिया के सामने आईं थीं और आपने पार्टी अध्यक्ष होने के नाते हार की जिम्मेदारी स्वीकार की थी । हार की जिम्मेदारी आपके सुपुत्र राहुल गांधी ने भी अपने सर पर लिया था । सोनिया जी, इस तरह जिम्मेदारी लेने से क्या पार्टी की हालात बेहतर हो पाएगी । सोचिएगा ।  कांग्रेस की इतनी बुरी गत को इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव या फिर नरसिंह राव की सरकार के कार्यकाल के बाद हुए चुनाव में भी नहीं हुई थी । इतना अवश्य है कि जब सीताराम केसरी पार्टी के अध्यक्ष बने थे तो लगने लगा था कि कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गई है । हर दिन पार्टी का कोई ना कोई बड़ा नेता कांग्रेस छोड़कर जा रहा था । उसके पहले नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह ने कांग्रेस तोड़कर नई पार्टी कांग्रेस (तिवारी ) बना ली थी । आपने मई उन्नीस सौ पचानवे में तिवारी और अर्जुन सिंह के धड़ेवाली कांग्रेस की कमान संभालने से मना कर दिया था । कोलकाता अधिवेशन के दौरान सत्तानवे में आपने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ली थी । उन्नीस सौ अठानवे के लोकसभा चुनाव के दौरान आपने कांग्रेस के लिए प्रचार किया और पार्टी को कठिन दौर से निकालने का बीड़ा उठाया । आपने सक्रिय राजनीति में भागीदारी को लेकर अपने विचार बदले और राजनीति में सक्रिय हो गई । जब आपने कांग्रेस की कमान संभाली तो सीताराम केसरी और संयुक्त मोर्चे के सरकार के वक्त कांग्रेस की इतनी किरकिरी हो चुकी थी कि उसको ठीक करने में आपको कई साल लगे थे । पार्टी की अगुवाई स्वीकारने के बाद एआईसीसी की बैठक में आपने पहला भाषण दिया लगा कि पार्टी को आप पटरी पर ला सकती हैं । आपको याद होगा कि अप्रैल उन्नीस सौ अठानवे में अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन के अपने भाषण में आपने कहा था कि पार्टी में चापलूसों और चमचों की कोई जगह नहीं होगी और हम सिर्फ और सिर्फ वही कहें जो हम महसूस करते हैं । आपके नेतृत्व में कांग्रेस ने कई ऐसे कदम उठाए जिसने पार्टी के प्रति लोगों को नजरिए को बदलने में मदद की । उन्नीस सौ अठानवे में पार्टी के एक दिन के अधिवेशन में आपने पार्टी पदों के लिए तैंतीस फीसदी पद महिलाओं के लिए आरक्षित करने का एलान किया । इसके अलावा कम से कम बीस फीसदी पद पिछड़ी जाति,अनुसूचित जाति और जनजाति के नेताओं को देने का भी फैसला किया था । आपके नेतृत्व संभालने के सिर्फ नौ महीने में ही कांग्रेस को मध्य प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल हुई थी । एक वक्त तो ऐसा था कि देश के पंद्रह सूबों में कांग्रेस की सरकार थी । शरद पवार ने आपके विदेशी मूल के मुद्दे पर आपको घेरने की कोशिश की थी लेकिन आपकी राजनीति ऐसी रही कि वही पवार दो हाजर चार में आपके नेतृत्व को स्वीकार करते नजर आए । शिमला में जुलाई दो हजार तीन में आपने जो रणनीति बनाई वो सफल रही । पार्टी में आपके प्रति समर्पित वरिष्ठ नेताओं ने तब दूसरे दल के सहयोगियों को साथ रखने में बेहद अहम भूमिका अदा की थी । आपके नेतृत्व में दो हजार चार में कांग्रेस को भारतीय जनता पार्टी से ज्यादा सीटें मिली थी और अपने सहयोगियों के साथ सरकार बनाई थी । आपने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर भारतीय राजनीति में बहुत उंची जगह हासिल कर ली थी । विरोधियों ने तब इस बात का जोरदार प्रचार किया था कि उस वक्त के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने आपको सरकार बनाने से रोका था । बाद में जब कलाम की किताब बाजार में आई तो ये सारे आरोप भी निराधार साबित हो गए । आपने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर मनोनीत करके दूसरी बड़ी मिसाल पेश की थी । इन सबका नतीजा ये रहा कि देश की जनता ने दो हजार नौ के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लौहपुरुष को भी पराजय का स्वाद चखना पड़ा था। यह आपके नेतृत्व का वो शिखर था जहां से कांग्रेस के पतन का रास्ता निकला । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में पार्टी की जीत का सेहरा आपके पुत्र राहुल गांधी के सर पर बांधा गया और आप खामोशी से उसको देखती रहीं । जनता और आपकी पार्टी के नेता के बीच यह संदेश गया कि राहुल गांधी को दिए जाने वाले श्रेय को आपकी मौन स्वीकृति है । जिस जीत का सेहरा आपको मनमोहन सिंह के अलावा पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं के सर बांधना चाहिए था उसे आपने चापलूसों को राहुल के सर बांधने की छूट दे दी । उन्नीस सौ अठानवे में अपने पहले भाषण में पार्टी को चापलूसों से मुक्त करने की नसीहत आप खुद भूल गईं और राहुल के बारे में लोग वही बोलने लगे जो वो दिल से सोचते नहीं थे । आपकी चुप्पी में इतना शोर था कि पार्टी में सच बोलने की हिम्मत किसी नेता में नहीं हुई । 
दो हजार नौ में जब यूपीए दो सरकार में आई तो आपने धीरे धीरे राहुल गांधी को आगे बढ़ाना शुरू किया और पार्टी के फैसलों में उनको अहमियत मिलने लगी । राहुल गांधी ने अपनी एक टीम बनाई जो हाईटेक थी, लैपटॉप और आईपैड से लैस, जिनके हाथों में देश के हर चुनाव क्षेत्र के आंकड़े थे, मतदाताओं का जातिगत विवरण था, जो पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन से चुनावी रणनीति बनाते थे । राहुल गांधी के अलग दफ्तर होने की वजह से कांग्रेस पार्टी में एक अलग सत्ता केंद्र उभरने लगा । राहुल गांधी ने दो हजार तीन में शिमला बैठक में हुए पार्टी के फैसले को पलटते हुए गठबंधन की राजनीति की बजाए कांग्रेस के एकला चलो रे की नीति पर जोर दिया । यूपीए के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद राहुल गांधी ने दो हजार दस में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने का फैसला लिया । पार्टी ने लालू यादव जैसे अपने विश्वसनीय सहयोगी को दरकिनार कर दिया । राहुल की टीम ने बिहार विधानसभा चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया । युवाओं को नेतृत्व देने के नाम पर कांग्रेस के पुराने और आपके वफादार जमीनी नेताओं को दरकिनार कर दिया गया । टिकट बंटवारे से लेकर चुनावी रणनीति तक में राहुल गांधी का दफ्तर यानी आरजी ऑफिस हावी रहा और यहां तक हुआ कि आरजी ऑफिस के फैसलों में कांग्रेस प्रेसिंडेट ऑफिस को शामिल नहीं किया गया । अहमद पटेल और मोतीलाल वोरा जैसे आपके साथ काम करनेवाले पुराने पीढ़ी के नेताओं की पूछ घटी तो अन्य बड़े नेताओं ने अपने आपको किनारे कर लिया । राहुल गांधी के सहयोगियों का तर्क, विश्वास और दावा था कि इससे पार्टी अपने बूते पर बिहार में खड़ी हो पाएगी । लेकिन चुनाव नतीजों ने इन तर्कों, दावों और विश्वास की हवा निकाल दी । कांग्रेस को पिछले चुनाव से भी कम सीटें मिलीं । लालू यादव जैसा विश्वस्त और मजबूत सहयोगी खोया सो अलग । लेकिन आप खामोश रहीं । बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार से भी टीम राहुल ने सबक नहीं लिया और अब वो टीम सोनिया से सीधे सीधे होड़ लेने लगे । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव तक तो राहुल गांधी की टीम में झोलाछाप एनजीओ टाइप लोगों का बोलबाला हो गया था । बची खुची कसर दिग्विजय सिंह और बेनी वर्मा जैसे नेताओं ने पूरी कर दी । राहुल गांधी के ताबड़तोड़ दौरों और बाबालोग की लैपटॉपी रणनीति ऐसी फेल हुई कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे भी पार्टी के पिछले प्रदर्शन से खराब रहे । सोनिया जी आपने टीम राहुल को इस बात के लिए नहीं रोका कि वो आपके विश्वस्त सहयोगियों को दरकिनार ना करें । टीम राहुल को इस बात का मलाल रहता था कि सरकार में उनकी उतनी क्यों नहीं सुनी जाती है जितनी आपकी टीम के लोगों की सुनी जाती है। हनक की इस ललक में उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया । कांग्रेस अध्यक्ष दफ्तर और राहुल गांधी के दफ्तर के बीच की इस रस्साकशी में प्रधानमंत्री बेबस महसूस करने लगे । नतीजा यह हुआ कि मनमोहन सरकार तटस्थ हो गई । असर कामकाज पर पड़ा। आप खामोश देखती रहीं ।  
इस बीच देश में एक से एक बड़े घोटाले हो रहे थे । मीडिया सरकार पर इन घोटालों को लेकर हमलावर हो रही थी लेकिन सरकार के मंत्री हाथ पर हाथ धर कर बैठे थे । कांग्रेस के बड़े नेता पार्टी और सरकार के बचाव में सामने नहीं आ रहे थे । जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने उफान पर था तब राहुल गांधी खामोश थे । जब पूरा देश उनकी ओर अपेक्षा भरी निगाहों से देख रहा था तब भी वो खामोश थे । संसद के विशेष सत्र में उन्होंने बाषण अवश्य दिया लेकिन उस अमूर्त वक्तव्य से जनता को कुछ ग्रहण नहीं हो सका । इस बीच आपने अपने स्वास्थ्य के मद्देनजर राहुल गांधी के हाथ में पार्टी की कमान सौंप दी। वो पार्टी के उपाध्यक्ष बने लेकिन वरिष्ठ नेताओं, सरकार और अपनी टीम के बीच सामंजस्य नहीं बना पाए । देश की राजनीति को बदलने का संकल्प लेकर देश में निकले राहुल गांधी ने कांग्रेस को भी बदलने की ठानी । राहुल गांधी की अनुभवहीनता और वरिष्ठ नेताओं की तटस्थता का फायदा नरेन्द्र मोदी ने उठाया । दो हजार चार में जब भारतीय जनता पार्टी ने शाइनिंग इंडिया का नारा दिया तो कांग्रेस ने आम आदमी का साथ के साथ नया नारा गढ़ा । इस बार के चुनाव में कांग्रेस मोदी के नारे का जवाब देती नजर आई । मोदी के मैं के जवाब में कांग्रेस ने हम पर दांव लगाया लेकिन तबतक वो मोदी के ट्रैप में फंस चुकी थी । सोनिया जी राहुल गांधी के प्रति आपका प्रेम भारतीय परंपरा के अनुरूप है लेकिन पुत्र मोह को लेकर और भी मिथकीय मुहावरे प्रचलित हैं । ध्यान रखिएगा