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Sunday, December 28, 2014

ऑनलाइन बुक स्टोर के खतरे और चुनौतियां

दो हजार चौदह को किताबों की दुनिया या कहें कि प्रकाशन के कारोबार के लिहाज से भी अहम वर्ष के तौर पर देखा जाएगा । किताबों की दुनिया में दो ऐसी घटनाएं घटी जिसने भारत में कम होती जा रही किताबों की दुकानों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है । पहले मशहूर लेखक चेतन भगत के उपन्यास हाफ गर्ल फ्रेंड के लिए उसके प्रकाशक ने ऑनलाइन बेवसाइट फ्लिपकार्ट से समझौता किया । उस करार के मुताबित प्रकाशक ने फ्लिपकार्ट को यह अधिकार दिया था कि पहले कुछ दिनों तक चेतन भगत की किताब सिर्फ फ्लिपकार्ट के ऑनलाइन बुकस्टोर पर ही मौजूद रहेगी । बदले में फ्लिपकार्ट ने भी प्रकाशक को एकमुश्त साढे सात लाख प्रतियों का ऑर्डर दिया । चेतन भगत के उपन्यास की प्रबुकिंग ही जमकर हुई । इस एक्सक्लूसिव करार की वजह से भारत में चेतन के लाखों प्रशंसकों ने फ्लिपकार्ट के ऑनलाइन स्टोर से जाकर किताब खरीदी । जबतक उनका उपन्यास किताबों की दुकान तक पहुंचता तब तक उसके पाठक उसको खरीद चुके थे । चेतन भगत के ज्यादातर पाठक इंटरनेट की दुनिया से जुड़े हैं, लिहाजा उनके लिए फ्लिपकार्ट से खरीद करना सुविधाजनक भी रहा था । उस वक्त भारत के प्रकाॆशन जगत के लिए यह बिल्कुल नई घटना थी, लिहाजा देश के किताब विक्रेता खामोश रहे । अब इसी तरह का करार भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की नई किताब द ड्रामेटिक डिकेड, द इंदिरा गांधी इयर्स भी सामने आया है । राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब के प्रकाशक ने एक बार फिर एक दूसरी बड़ी ऑनलाइन कंपनी अमेजन से करार किया। इस करार के मुताबिक किताब के जारी होने के इक्कसी दिन तक यह सिर्फ अमेजन पर उपलब्ध होगी । मतलब यह कि इक्कीस दिनों तक अगर कोई पाठक प्रणब मुखर्जी की यह किताब एक्सक्लूसिव तौर पर इसी बेवसाइट से खरीद सकता था । उसके बाद यह देशभर के पुस्तक विक्रेताओं के पास पहुंचेगा । इसका नतीजा यह हुआ कि प्री बुकिंग के दौर में ही महामहिम की इस किताब लोकप्रियता के लिहाज से चेतन भगत और सचिन तेंदुलकर की किताब के बाद तीसरे पायदान पर पहुंच गई । प्री बुकिंग के आंकड़ों को देखकर तो यही लग रहा था कि इससे पुस्तक विक्रेताओं को खासा नुकसान हुआ होगा । यहां भी एक अलग तरह का तंत्र है । बेवसाइट ने प्रणब मुखर्जी की इस किताब की प्री बुकिंग शुरू की । जैसे जैसे किताब रिलीज होने की तारीख पास आने लगी तो ऑनलाइन स्टोर ने इसके मूल्य में भी कमी करनी शुरू की । किताब पर छपे मूल्य पांच सौ पचानवे की बजाय प्रीबुकिंग में इसका मूल्य चार सौ छियालीस रुपए रखा गया था । रिलीज वाले दिन इस किताब का मूल्य घटाकर तीन सौ निन्यानवे कर दिया गया । यह बिक्री का अपना गणित भी है और मुनाफा का अर्थशास्त्र भी है । इस खेल का एक और पक्ष भी है वो यह कि अमेजन पर एक ग्राहक प्रणब मुखर्जी की सिर्फ एक ही किताब खरीद सकता था । अगर किसी को दो या उससे अधिक किताबें चाहिए तो उसे उतने ही ग्राहक प्रोफाइल या अकाउंट बनाने होंगे । यह बाजार में थोक बिक्री के आसन्न खतरे के मद्देनजर किया गया है । इसी तरह से मार्केटिंग के दांव चेतन की किताब की बिक्री के वक्त भी किया गया था । चेतन की किताब ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए । प्रकाशन जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि प्रणब मुखर्जी की किताब भी खूब बिक रही है । एक तो प्रणब मुखर्जी का लेखन, दूसरे किताब के केंद्र में इंदिरा गांधी । इन दोनों को मजबूती प्रदान करने के लिए जबरदस्त मार्केटिंग के तौर तरीके ।
अंग्रजी में किताब बिक्री के इस नए चलन से एक सवाल भी उठा है । क्या दुकान पर जाकर पुस्तक खरीदनेवाले किताब प्रेमियों को अब कुछ खास किताबों के लिए इंतजार करना होगा या फिर उन्हें भी किताबों की दुकान से मुंह मोड़कर ऑनलाइन स्टोर की ओर जाना पड़ेगा । भारत में कम हो रही किताबों की दुकान के लिए बिक्री का यह नया अर्थशास्त्र एक गंभीर चुनौती है । वक्त बदला है । वक्त के साथ प्रकाशन जगत के कायदे कानून भी बदल रहे हैं । लेकिन बदलाव की इस बयार में ऑनलाइन स्टोर्स की एक्सक्लूसिविटी पुस्तकों की दुकान में पूंजी लगानेवालों को हतोत्साहित करनेवाली है । इसको रोकने के लिए दिल्ली के मशहूर खान मार्किट में मौजूद एक बुक स्टोर और दिल्ली और अन्य महानगरों में बुक स्टोर की श्रंखला के मालिकों ने कड़ा रुख अख्तियार किया है । इन दोनों ने तो चेतन भगत और प्रणब मुखर्जी की किताबों के प्रकाशक की अन्य किताबें उनको वापस भेजने का फैसला लिया है । उनका कहना है कि ये पाठकों के साथ धोखधड़ी है । उनका एक तर्क यह भी है कि इस तरह से किताबों का कारोबार नहीं चलता है । अगर किसी भी प्रकाशक को ऑनलाइन बुक स्टोर पर जाना है तो फिर सारी किताबें वहीं बेचनी होंगी । ये नहीं हो सकता है कि चर्चित शख्सियतों और लेखकों की किताबें ऑनलाइन बेची जाएं और कम चर्चित और गंभीर किताबें दुकानों के माध्यम से बेची जाएं ।  कुछ अन्य बुक स्टोर्स ने प्रकाशक को पत्र लिखकर विरोध जताया है और भविष्य में ऐसा नहीं करने की चेतावनी दी है । चेतन भगत और प्रणब मुखर्जी की किताबों की मार्केटिंग के बरक्श अगर हम हिंदी प्रकाशन की दुनिया को देखें तो हमारे हिंदी के प्रकाशक मित्र अभी इस स्तर पर बाजार का का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं । बाजार के इस खेल को समझने और लागू करने की दिशा में अगर सोच भी रहे हों तो मैदान में उतरने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं । हिंदी के प्रकाशकों का अभी इन ऑनलाइन बुक स्टोर से राफ्ता कायम नहीं हो सका है । हिंदी की कुछ गिनी चुनी किताबें ही इन बेवसाइ्टस के ऑनलाइन बुक स्टोर पर मौजूद हैं । उसमें भी कई बार लिंक क्लिक करने पर एरर ही आ जाता है । जिससे पाठकों को कोफ्त होती है । हिंदी के प्रकाशकों को बाजार के इस खेल में शामिल होना पड़ेगा । इसका एक फायदा यह होगा कि हिंदी में लिखनेवाले लेखकों की पहुंच ज्यादा होगी और हिंदी के किताबों के संस्करणों की जो संख्या लगातार कम होता जा रही है उसमें बढ़ोतरी होगी । बाजार के अपने खतरे भी हैं लेकिन पाठकों तक पहुंचने के लिए इन खतरों का उठा लेना चाहिए । 

जिस तरह से हमारे देश में पुस्तक विक्रेताओं का आभाव है उसकी कमी को पूरा करने के लिए भी कदम उठाने होंगे । विशाल हिंदी पाठक वर्ग को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है कि ऑनलाइन स्टोर के साथ साथ हिंदी के प्रकाशक इस तरह की कोई योजना बनाएं जिससे वो पाठकों तक पहुंच सकें । छोटे शहरों में तो फिर भी किताबें मिल जाती हैं लेकिन बड़े शहरों और मेट्रो में किताबों की अनुपल्बधता पाठकों को खिन्न करती हैं । अभी हाल ही में साहित्य अकादमी ने दिल्ली मेट्रो के साथ स्टेशनों पर किताब की दुकान खोलने के लिए करार किया है । लेकिन दो मेट्रो स्टेशनों पर किताब की दुकान से काम नहीं चलनेवाला है । साहित्य अकादमी को इस दिशा में और पहल करनी होगी और भारत सरकार को इसमें सहयोग करना होगा । साहित्य अकादमी के माध्यम से अगर किताबों की दुकानें शुरू करने का प्रयोग सफल होता है तो भारत सरकार को अकादमी को इस मद में बजट देना होगा । इसके लिए आवश्यक है कि भारत सरकार एक नई पुस्तक नीति बनाए । पुस्तकों को लेकर सरकार का रुख नरम है । अभी जिस तरह से पुस्तकों के कारोबार को जीएसटी के दायरे से बाहर कर दिया गया है वह संकेत उत्साहजनक है । सरकार को राष्ट्रीय पुस्तक नीति बनाने से पहले इसपर राष्ट्रव्यापी बहस करवाने की जरूरत है । इस व्यवसाय से जुड़े और इसको जाननेवाले सारे पक्षों की बातों को सुनकर, समझकर नीति बनाने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन प्राथमिकता किताबों की उपलब्धता को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए । हमारे देश में हर तरह की नीति बनती है लेकिन किताबों को लेकर एक समग्र नीति के आभाव में आजादी के इतने सालों बाद भी पुस्तक संस्कृति का विकास नहीं हो पाया है । सरकार के अलावा गैर सरकारी संस्थाओं को भी पुस्तकों की संस्कृति विकसित करने की दिशा में कोशिश करनी होगी । सबकी सामूहिक कोशिशों से ही किताबों को लेकर नई पीढ़ी में ललक पैदा करनी होगी । अगर यह हो सकता है तो फिर ऑनलाइऩ स्टोर पर एक्सक्लूसिव किताबें बेचने की मार्केंटिंग के तरीकों पर रोक भी लग सकती है और मुनाफे का समावेशी वितरण हो सकेगा । दूसरा फायदा हिंदी के लेखकों को भी होगा और उनकी आय में बढ़ोतरी होगी । अबतक बाजार से भागनेवाले लेखकों को बाजार के तौर तरीके अपनाने ही होंगे । अगर ऐसा हो पाता है तो यह पुस्तक प्रकाशन कारोबार के लिए अच्छे दिन लेकर आएगा । 

2 comments:

Unknown said...

a very good article.

Unknown said...

a nice article.
raj kishore