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पुस्तक मेले में एक नई विधा को लेकर भी खूब हो हल्ला
मचा । यह विधा है लप्रेक यानि लघु प्रेम कथा । इस विधा की पहली किताब प्रकाशित हुई
और उसके प्रकाशक ने उसके प्रचार प्रसार में कोई कसर नहीं छोड़ी । पर विधा के रूप में
लप्रेक को पाठक कैसे लेते हैं यह अभी भविष्य के गर्भ में है । अस्सी के दशक में मशहूर
कथाकार बलराम की अगुवाई में लघुकथा भी जोर पकड़ रही थी लेकिन समय के साथ उसका क्या
हश्र हुआ यह सबके सामने हैं । लप्रेक को लेकर भी इस तरह की आशंकाएं लोगों के मन में
है । यह सही है इंटरनेट पीढी के नए पाठकों को अब उतना धैर्य नहीं रहा कि वो लंबी कहानियां
पढ़े लेकिन वो कहानी के नाम पर जुमले पढ़ेगें इसमें शक है । इंटरनेट युग के जिस पाठक
के मन में कहानी पढ़ने की लालसा होगी वो छोटी पर मुकम्मल कहानी पढ़ेगा । अगर लप्रेक
पढ़ना होता तो वो लघुकथा भी पढ़ सकता था । लेकिन लप्रेक को लेकर ना तो निराश होने की
जरूरत है और ना ही नकारात्मक सोच के साथ उसको देखना चाहिए । एक नई विधा के तौर पर उसको
शुरू किया गया है और अब वो पाठकों की अदालत में है देखना यह होगा कि पाठक उसे कैसे
स्वीकार करता है । पिछले साल इस विधा को वाणी प्रकाशन शुरू करने जा रहे थे लेकिन बदलते
समय के साथ लप्रेक की पहली किताब छपी राजकमल प्रकाशन से ।
इस बार पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन ने एक बेहद नई
पहल की है । इस बार का पुस्तक मेला 14 फरवरी यानि वेलेंटाइन डे से शुरू हुआ । वेलेंटाइन
डे पर लाल गुलाब देने की वर्षों पुरानी परंपरा से मुठभेड़ करते हुए -हे बसंत -नाम से
एक ऑन लाइन रोमांस फेस्टिवल शुरू किया गया । इसका टैग लाइन है वैलेंटाइन डे पर गुलाब
नहीं किताब । इस ऑनलाइन रोमांस फेस्टिवल में गीतकार इरशाद कामिल की नज्मों की किताब
तो रिलीज हुई ही उन्होंने उसको गाकर भी सुनाया । इसके अलावा किस्सागोई के युवा सरताज
निलेश मिसरा ने अपनी कहानियों को सुनाकर पाठकों को मुग्ध कर दिया । नीलेश ने किस्सागोई
का एक नया अंदाज विकसित किया है । प्रगति मैदान के लाल चौक में खुले में हुए इस ऑनलाइन
रोमांस फेस्टिवल खासा सफल रहा । नीलेश और इरशाद को सुनने के लिए ओपन एयर थिएटर लगभग
तीन चार घंटे तक श्रोताओं से खचाखच भरा रहा । कहानी और शायरी सुनने के लिए श्रोताओं
का डटे रहना आश्वस्तिकारक था । इसके अलावा गुलाब नहीं किताब के नारे का भी स्वागत किया
जाना चाहिए । अगर हिंदी समाज में उपहार में किताब देने की परंपरा शुरू हो गई तो यहां
घट रही पुस्तक संस्कृति को एक जीवनदान मिलेगा । पाठकों को किताबों को ओर लाने में सफलता
मिल सकेगी । अगर इस योजना को जनता ने स्वीकार कर लिया तो किताबों के जो संस्करण घटते-घटते
तीन सौ तक आ गए हैं उसको बढ़ाने में भी मदद मिलेगी । लेकिन यह काम एक दो महीनों का
नहीं है इस आंदोलन को महीनों नहीं सालों तक लगातार चलाते रहने की आवश्यकता है । अगर
ऐसा हो सकता है तो हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को एक बेहतर समाज दे सकेंगे जहां पुस्तकों
का एक अहम स्थान होगा । इस बार पुस्तक मेले में कई युवा लेखकों की किताबों के अलावा
कुछ आत्मकथाएं भी प्रकाशित हो रही हैं जिसका हिंदी के पाठकों को इंतजार था । वाणी प्रकाशन
ने पूर्व सेनाध्यक्ष और अब केंद्र में मंत्री जनरल वी के सिंह की आत्मकथा – साहस और संकल्प एक आत्मकथा प्रकाशित हुई । अच्छी बात
यह है कि जनरल सिंह ने अंग्रेजी के अपनी आत्मकथा को अपडेट किया है । वाणी ने ही पूर्व
पत्रकार और अब कॉलेज शिक्षक वर्तिका नंदा की कविताओं का संग्रह- रानियां सब जानती हैं
-को गाजे बाजे के साथ जारी किया । इसी तरह से प्रभात प्रकाशन से पूर्व राष्ट्रपति ए
पी जे अब्दुल कलाम मेरी जीवन यात्रा प्रकाशित हुई । इस बार भी पुस्तक मेले में प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी को केंद्र में रखकर कई किताबें प्रकाशित हुई । उनके और अमित शाह के भाषणों
की किताब – मैं मोदी बोल रहा हूं
और मैं अमित शाह बोल रहा हूं भी प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित हुआ । प्रभात प्रकाशन ने
कई साहित्येतर किताबों का प्रकाशन भी किया जिनमें डॉ रश्मि की किताब एक सौ एक प्रेरक
प्रसंग का भी लोकार्पण हुआ । इसके अलावा गरिमा संजय की पुस्तक आतंक के साए में भी विमोचित
हुआ । लंबे सम्य से प्रतीक्षित साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अलका सरावगी
का नया उपन्यास भी प्रकाशित हुआ है ।
पिछले शनिवार से आज यानि रविवार तक दिल्ली में हुए इस
विश्व पुस्तक मेला में सम्मानित अतिथि देश सिंगापुर है और थीम पू्र्वोत्तर भारत के उभरते स्वर तो फोकस देश दक्षिण कोरिया है । पिछले
दो तीन सालों में विश्व पुस्तक मेले ने एक नया शक्ल अख्तियार किया है। अब इस विष्व
पुस्तक मेले को सही में वैश्विक शक्ल ले चुकी है । इस बार भी कई देशों के प्रकाशक इस
पुस्तक मेले में हि्ससा ले रहे हैं । अंग्रेजी के प्रकाशकों के बरक्श अब हिंदी के भी
बड़े प्रकाशकों ने भी योजनाबद्ध तरीके से पुस्तक मेले में योजना बनाकर पुस्तकों का
प्रकाशन शुरू कर दिया है । विश्व पुस्तक मेले में हिंदी के प्रकाशको के स्टॉल को देखकर
संतोष होने लगा है । वहां उनके स्टॉल की साज सज्जा और व्यवस्था देखकर वर्ल्ड क्लास
होने का एहसास होता है लेकिन यह अहसास उस वक्त थोड़ा चटकता है जब प्रसिद्ध होने की
होड़ में लेखक साहित्य मर्यादा को भूलने लगते हैं ।
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