Translate

Sunday, May 24, 2015

क्रांतिवीर मार्क्सवादियों की हकीकत ?

कार्ल मार्क्स । मार्क्सवाद । ये दो शब्द हैं ऐसे हैं जो भारत में बुद्धिजीवियों के एक बड़े तबके को बहुत लुभाते हैं । इन दो शब्दों के रोमांटिसिज्म में वो इसके आंकलन में वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाते हैं । तमाम धाराओं को इन दो शब्दों की धारा में बहाने का दुराग्रह करते चलते हैं । आलोचना से लेकर रचना तक की कसौटी का मूल आधार यही दो शब्द रहते हैं । अभी हाल ही में कार्ल मार्क्स की एक सौ सत्तानवीं जयंती बीती है । इस मौके पर एक बार फिर से उनकी महानता का गुणगान करते हुए लेख छपे । भाषण दिए गए । सोशल मीडिया पर इस विचारधारा के अनुयायियों ने जमकर अपनी ऊर्जा का प्रदर्शन किया । मार्क्सवाद एक अवधारणा के तौर पर, एक आदर्शवादी सिद्धांत के तौर पर बहुत अच्छा कहा या माना जा सकता है लेकिन शुरुआत से लेकर अबतक मार्क्सवाद की जो व्यावहारिकता सामने आई है उसपर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया । मार्क्सवाद की जो अवधारणा है उसमें धर्म को अफीम कहा गया है । यह लाइन इसके अनुयायियों को बहुत भाती है । वो लगातार इसका प्रचार करते हैं और इस लाइन के आधार पर धर्म को भला बुरा कहते चलते हैं । धर्म को अफीम मानने वाले यह भूल जाते हैं कि धर्म लोगों को एक मर्यादा में रहना भी सिखाता है । मार्क्सवाद की जो अवधारणा है वो पूंजीवाद का निषेध करता है लेकिन परोक्षरूप से पूरी तौर पर भौतिकतावाद की वकालत करता है । वहां परिवार या सामाजिक बंधन या मान्यता नाम की चीजें अमान्य हैं । सोवियत रूस में जब उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हुई तो यह मान्यता प्रचारित की गई कि शादी विवाह आदि का कोई अर्थ नहीं है । जब जिसका मन करे वो किसी से भी संबंध बनाए । यह भौतिकतावाद की ही एक मिसाल है । लगभग बीस सालों तक सोवियत रूस में यह बात चलती रही । आपको यह याद दिला दें कि उन्नीस सौ सत्रह से लेकर उन्नीस सौ तीस तक सोवियत रूस में एक ग्लास पानी मुहावरा काफी प्रचलित था । यह उस बात के लिए कहा जाता था कि जब प्यास लगे तो पानी पी लो और जब शरीर की मांग हो तो उसको किसी के भी साथ पूरा कर लो । करीब बीस साल तक रूस में ये चलता रहा और फिर धीरे धीरे इस अवधारणा को बगैर किसी शोर शराबे के दफन कर दिया गया ।
मार्क्स के दो बड़े भारी अनुयायी हुए । एक तो चीन के माआत्सेतुंग और दूसरे क्यूबा के सर्वेसर्वा फिडेल कास्ट्रो । फिडेल हलांकि पहले मार्क्सवादी नहीं थे लेकिन बाद में सोवियत रूस से लेकर तमाम वामपंथी देशों ने सहयोग आदि देकर उनको अपने पाले में ले लिया । कालांतर में वो और उनका देश दोनों कम्युनिस्ट बन गया और वो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ क्यूबा के 1961 से लेकर 2011 तक महासचिव रहे । इन दोनों के बारे में वामपंथी बहुत उच्च विचार रखते हैं । एक समय में तो हमारे देश में चेयरमैन माओ के समर्थन में नारे लगानेवाले भी खुलेआम मिल जाया करते थे । फिडेल कास्ट्रो में भी वामपंथी लगभग मूर्तिपूजा की हद तक आस्था रखते हैं । सवाल यही है कि किसी के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन क्या भक्तिभाव के साथ किया जा सकता है । क्या किसी को आलोचना से ऊपर मानकर उसका मूल्यांकन किया जा सकता है । नहीं । भारत में हमारे वामपंथी बौद्धिकों ने माओ से लेकर कास्ट्रो तक का मूल्यांकन भक्ति भाव के साथ किया, लिहाजा उन्हें उनके व्यक्तित्व में कोई खामी, उनके कार्यों में कोई कमी, उनके चरित्र में कोई खोट आदि दिखाई ही नहीं दिया । इस तरह की हर बात को षडयंत्रपूर्वक दबा दिया गया । धर्म को अफीम मानने वाले लोगों की अपने वैचारिक गुरुओं में इस तरह की आस्था उनको बौद्धिक रूप से लगातार बेईमान बनाती रही । भारत में इस तरह की बौद्धिक बेईमानी का खेल दशकों तक चलता रहा । कम्युनिस्टों को या वामपंथ में आस्था रखनेवाले साहित्यकारों, लेखकों को साहित्य में बहुत ऊपर का दर्जा दिया गया जबकि वामपंथ की परिधि से बाहर लेखन करनेवालों को, भारतीय परंपरा और धर्म, पौराणिक कथाओं और मिथकों पर लिखनेवालों को लगातार हाशिए पर रखा गया । ये सब एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया, साहित्य में इस तरह की राजनीति करनेवालों की पहचान करना आवश्यक है । खैर हम वापस मार्क्सवाद के दो पुरोधा की ओर लौटते हैं । माओ और फिडेल कास्ट्रो ।
अभी हाल ही में मैनें इन दोनों पर कई किताबें और किताबों के अंश पढ़े । जैसे माओ पर लिखी जंग चांग की किताब- द अननोन स्टोरी ऑफ माओ और फिडेल पर लिखी ब्रायन लैटल की किताब- कास्ट्रोज सीक्रेट, द सीआईए एंड क्यूबाज इंटेलिजेंस मशीन । इन दो किताबों के अलावा उन्नीस सौ अठानवे में वेंडी गिंबेल की एक किताब आई थी हवाना ड्रीम्स, उसमें भी कास्ट्रो पर लिखा गया है । अभी हाल ही में एक किताब आई है - द डबल लाइफ ऑफ फिडेल कास्ट्रो । इस किताब के लेखक हैं सत्रह सालों तक उनके अंगरक्षक रहे जुआन रियेनाल्डो सांचेज । इन किताबों के लेखक अलग अलग विचारधारा और पृष्ठभूमि के हैं । इन सारी किताबों या उनके अंशों को पढ़ने का बाद एक साझा सूत्र जो इन दोनों मार्क्स के अनुयायियों को जोड़ती है वह यह है कि दोनों लगभग तानाशाह थे । दोनों अपने विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे । दोनों को अपने विरोधियों को निबटाने के लिए हिंसा का सहारा लेने में कोई गुरेज नहीं था । दोनों की सेक्सुअल लाइफ बेहद रहस्यमयी थी । दोनों अपने लिए बेशुमार दौलत इकट्ठा करना चाहते थे ।
अब एक प्रसंग माओ के बारे में देखिए । जब अक्तूबर उन्नीस सौ इकतालीस में वांग मिंग ने माओ को लेख लिखकर चुनौती दी तो माओ भन्ना गए । उन्होंने उनके लेखों को छपने से रोक दिया । मिंग ने अपने विचारों को पोस्टर के तौर पर प्रचारित किया । यह बात माओ के गले नहीं उतर रही थी वो रात में बाहर निकलकर उन पोस्टरों को पढ़नेवालों की संख्या को देखने निकलते थे । पोस्टरों की बढ़ी लोकप्रियता से घबराकर उन्होंने मिंग को निबटाने की योजना बनाई । एक दिन अचानक मिंग बीमार पड़ते हैं और अस्पताल में भर्ती होते हैं । माओ ने अपने पॉयजनिंग यूनिट के डॉक्टर जिन म्याओ को वांग मिंग के इलाज के लिए नियुक्त किया । उन्होंने मिंग के लिए कई ऑपरेशन सुझाए लेकिन वो खतरनाक होने की वजह से नहीं हो पाए । जब मिंग को अस्पताल से छुट्टी दी जानी थी तब डॉ जिन ने उनको गोली खिलाई जिसके बाद वो बीमार पड़ गए । बाद में जांच में पता चला कि ये मरकरी पॉयजनिंग का केस था । परिदृश्य पर रूस के एक डॉक्टर के आने के बाद यह बात खुली । इसी तरह से माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के दौर में सिनेमा पर प्रतिबंध लगा दिया। उन्नीस सौ पचास में वहां उनतालीस फीचर फिल्में बनी तो दो साल बाद इसकी संख्या घटकर सिर्फ दो रह गई । सांस्कृति स्वतंत्रता की वकालत करनेवाले इन माओ के समर्थकों ने इतिहासबोध को खूंटी पर टांग दिया है, लगता है ।    

इसी तरह से अगर हम देखें तो फिडेल कास्ट्रो के चेहरे से भी क्रांतिकारी नायक का नकाब लगातार उतरता चला जाता है । फिडेल कास्ट्रो ने शादी शुदा होते हुए एक शादी शुदा महिला से ना केवल संबंध बनाए बल्कि उनके एक बच्चे के पिता भी बने । नटालिया नाम की इस महिला और कास्ट्रो के बीच के प्रेम पत्रों के सार्वजनिक होने के बाद इस विवाहेत्तर संबंध का खुलासा हुआ । अब से चंद महीने पहले नटालिया की मौत हुई और उन्हें इस बात का मलाल था कि जिस शख्स ने 1953 में आक्रमण की रणनीति उनके घर पर रहकर बनाई वही शख्स जब दो साल बाद क्यूबा की सत्ता पर काबिज होते है तो उसको भूल जाता है । भूल तो वो अपनी बेटी को भी जाता है । यह मार्क्सवाद की एक गिलास पानी की अवधारणा का निकृष्टतम रूप है । अब उससे भी एक खतरनाक बात सामने आई है । सत्रह साल तक क्यूबा के राष्ट्रपति फिडेल कास्ट्रो के अंगरक्षक रहे जुआन रियेनाल्डो सांचेज की ताजा किताब- द डबल लाइफ ऑफ फिडेल कास्ट्रो -  से यह खुलासा किया है कि किस तरह से कास्ट्रो ने एक ड्रग्स कारोबारी को पचहत्तर हजार डॉलर के एवज में क्यूबा में ऐश करने की अनुमति दी । इस किताब में इस बात के पर्याप्त सबूत दिए गए हैं कि किस तरह से फिडेल कास्ट्रो अपने सीक्रेट रूम में बैठकर कोकीन कारोबारी के बारे में सौदेबाजी कर रहे थे । इस किताब के लेखक ने इस बात का भी खुलासा किया है कि कास्ट्रो के हवाना में बीस आलीशान कोठियां हैं, वो एक कैरेबियन द्वीप के भी मालिक हैं । इस तरह के खुलासों से साफ है कि मार्क्सवाद की आड़ में उनके रहनुमा रहस्यमयी सेक्सुअल लाइफ से लेकर तमाम तरह के भौतिकवादी प्रवृत्तियों को अपनाते हैं और विचारधारा की आड़ में व्यवस्था बदलने का सपना दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं । 

2 comments:

Umashankar Verma Kolkata said...

Very informative

Unknown said...

काफी ज्ञानवर्धक और आँखें खोल देने वाली जानकारी।
आपका जबाब नहीं सरजी।