दरअसल अगर हम देखें तो
लाला लाजपत राय की बातें आगे चलकर सही साबित हुईं । संविधान के पहले संशोधन, जिसमें
अभिव्यक्ति की आजादी के दुरुपयोग की बात जोड़ी गई, के वक्त उसको लेकर जोरदार बहस हुई
थी । तमाम बुद्धिजीवियों के विरोध के बावजूद उस वक्त वो संशोधन पास हो गया था । अब
हालात यह हो गई है कि संविधान के पहले संशोधन और 295 ए मिलकर अभिव्यक्ति की आजादी की
राह में एक बड़ी बाधा बन गई है । इन दोनों को मिलाकर किसी भी किताब या रचना पर पाबंदी
लगाने का चलन ही चल पड़ा है । हमारे यहां लोगों की भावनाएं इस कदर आहत होने लगीं कि
हम रिपब्लिग ऑफ हर्ट सेंटिमेंट की तरफ कदम बढ़ाते दिखने लगे । अब सुप्रीम कोर्ट ने
जिस तरह से देश के महापुरुषों को लेकर टिप्पणी करने को गलत ठहराया है उससे और बड़ी
समस्या खड़ी होनेवाली है । एक पूरा वर्ग अब इस फैसले की आड़ में मिथकीय चरित्रों या
देवी देवताओं पर टिप्पणी, उनके चरित्रों के काल्पनिक विश्लेषण की लेखकीय आजादी पर हमलावर
हो सकता है । संविधान सभा की बहस के दौरान बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि उदारतावादी
गणतंत्र बनाने के सपने के अपने खतरे हैं । उन्होंने उस वक्त कहा था कि अगर हम इस तरह
का गणतंत्र चाहते हैं तो सामाजिक पूर्वग्रहों के उपर हमें संवैधानिक मूल्यों को तरजीह
देनी होगी । सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले के बाद एक बार फिर से सवाल खड़ा हो गया
है कि क्या संविधान की व्याख्या करते वक्त सामाजिक मानदंडों का ध्यान रखना जरूरी है
।
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Sunday, May 17, 2015
दूरगामी असर का फैसला
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1 comment:
ज्ञानवर्धक नई जानकारी, खासकर मदर इंडिया किताब के संबंध में.
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