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Saturday, August 29, 2015

विवादों के बवंडर में ‘युवा’ लेखक

इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में युवा लेखन और लेखक को लेकर घमासान मचा हुआ है । दरअसल पूरा प्रसंग ये है कि दिल्ली की हिंदी अकादमी ने युवा कहानी और युवा कविता पर दो दिनों का आयोजन किया । हिंदी की वरिष्ठ और चर्चित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने के बाद अकादमी का ये पहला बड़ा आयोजन था । कविता पर जो आयोजन हुआ था उसका नाम -कविता के नए रूपाकार, युवा कवियों के साथ एक शाम । कहानी पर हुए आयोजन को नाम दिया गया था हमारे समय की हिंदी कहानियां, स्वरूप और संभावनाएं । सरकारी कार्यक्रम के लिहाज से देखें तो आयोजन बेहतर था । पूरे आयोजन पर मैत्रेयी पुष्पा की छाप दिख रही थी, उनकी पसंद और नापसंद दोनों की । कविता पर हुए आयोजन पर जिन कवियों को बुलाया गया था उसको लेकर सोशल मीडिया पर खूब हो हल्ला मचा । कवियों की उम्र को लेकर भी छींटाकशी की गई । विरोधस्वरूप दिल्ली के दर्जनभर से ज्यादा युवा कवियों ने एक अलग आयोजन किया और अपनी कविताएं पढ़ीं । यह सब तो साहित्य में हमेशा से चलता रहा है । सरकारी आयोजनों में जो उसके कर्ताधर्ता होते हैं उनकी ही चलती है लेकिन इस बार हिंदी अकादमी का चयन अपेक्षाकृत कम विवादित रहा । हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा ने सोशल मीडिया पर अपने अनेकानेक पोस्ट में इस बात को रखा कि अकादमी का यह पहला आयोजन है और उसको उसी कसौटी पर कसा जाना चाहिए । लेकिन युवा को लेकर सोशल मीडिया पर विरोध जारी रहा ।युवा शब्द पर हुए इस विवाद की भी वजह है जिसका जिक्र इस लेख में आगे आएगा । फेसबुक आदि पर मचे हो-हल्ला के बीच आयोजन के दौरान हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा ने मंच से एलान किया कि अगले आयोजन से युवा शब्द हटा दिया जाएगा । इसको हिंदी के युवा लेखक और कवि अपनी जीत के तौर पेश कर रहे हैं । उन युवा लेखकों को ये सोचना होगा कि साहित्य में जीत या हार नहीं होती है। बहुत दिनों बाद हिंदी अकादमी को एक सक्रिय उपाध्यक्ष मिला है । हमें उम्मीद करनी चाहिए कि वो वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के लिए काम करेंगी । उनको थोड़ा मौका भी दिया जाना चाहिए । हलांकि उनको जो टीम मिली है उससे बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है, चंद लोगों को छोड़कर उनमें से ज्यादातर के साहित्यक अवदान को हिंदी साहित्य के सामने आना शेष है । हैरानी की बात है कि कहानी पर हुए आयोजन की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडे को सौंपने को लेकर हुई । कहानी पर हुए आयोजन का अध्यक्ष पांडे जी को किस आधार पर बनाया गया । कम से कम मेरे जैसा पाठक अब तक मैनेजर पांडे के कहानी पर किए गए काम से अनभिज्ञ है । कार्यक्रम में मैनेजर पांडेय ने मेकी आशंका को सही साबित किया । उन्होंने इस आयोजन में ना तो कहानी के स्वरूप और ना ही संभावना पर गंभीरता से कोई अवधारणा प्रस्तुत की । एक अनाम सी पक्षिका के विशेषांक लेकर पहुंचे और उसके ही आधार पर कहानी के वर्तमान पर भाषण दे दिया । मैनेजर पांडे को बुलाने की वजह समझ से परे है । मैत्रेयी पुष्पा को मैं करीब डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से जानता हूं, वो जो ठान लेती हैं उसपर चलती हैं । तमाम विरोध और झंझावातों के बावजूद । इस वजह से ही शायद उन्होंने मैनेजर पांडे को नहीं बदला होगा । अगर चयन में थोड़ी बहुत खामी रह जाए या फिर अपने अपने लोगों को बुलाया जाए तो किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले सोशल मीडिया पर सक्रिय लेखकों को धैर्य रखना चाहिए । सावधान तो उपाध्यक्ष को भी रहना चाहिए, उन्हें अब काफी लोग तारीफ करनेवाले मिलेंगे । आनेवाले दिनों में उनपर संचयन, पत्रिकाओं के विशेषांक आदि भी निकलेगे । अगर इस तरह के लोगों को बढ़ावा मिलता है तो जाहिर तौर पर वो घिरेंगी लेकिन हमें ये मानकर नहीं चलना चाहिए कि ऐसा ही होगा । खैर ये एक अवांतर प्रंसग है, जिसपर भविष्य में चर्चा होगी ।
बात हो रही थी हिंदी में युवा लेखकों पर । साहित्य में युवा कहने की कोई सीमा नहीं है । पचास पार या पचास को छूते लेखक को हिंदी साहित्य समाज में युवा माना जाता है । साहित्य अकादमी जो युवा सम्मान देती है उसके मुताबिक लेखक की उम्र पैंतीस साल से अधिक नहीं होनी चाहिए । लेकिन इस वक्त हिंदी में एक साथ इतनी पीढ़ी सक्रिय है कि सब गड्डमड् हो गया है । जिसके जो मन हो रहा है वो लिख रहा है । इस तरह के अराजक माहौल में चालीस पचास साल पार के लेखक लेखिका भी युवा हुए जा रहे हैं । इस संदर्भ में एक बेहद दिलचस्प प्रसंग याद आता है । सन दो हजार की बात होगी । हंस पत्रिका के दफ्तर में उसके संपादक राजेन्द्र यादव से मिलने गया था । हंस का ताजा अंक आया था जो यादव जी ने मेरी तरफ बढ़ाया । मैंने पन्ने पलटने के बाद उनसे पूछा कि बुढा़ती लेखिकाओं की आप जवानी के दिनों की तस्वीर क्यों छापते हैं । उन्होंने हल्के फुल्के अंदाज में गंभीर बात कह दी । उन्होंने कहा कि हिंदी के कई पाठक लेखिकाओं की तस्वीर देखकर हंस खरीद लेते हैं । अब जब युवा लेखक की उम्र को लेकर जब एक बार फिर से विवाद हो रहा है तो राजेन्द्र यादव की बात जेहन में कौंधी । कहीं ऐसा तो नहीं कि युवा कहकर युवाओं से जुड़ने की जुगत में उदारता के साथ लेखक खुद को या आयोजक लेखक को या आलोचक लेखक को युवा घोषित कर देता है । हलांकि यह बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन कौड़ी है अच्छी ।
कुछ दिनों पहले मैत्रेयी पुष्पा जी ने भी स्त्री विमर्श को लेकर एक लंबा लेख लिखा था । उस लेख में मैत्रेयी जी ने लिखा था इक्कीसवीं सदी में जबसे युवा लेखनका फतवा चला है, लेखन की दुनिया में खासी तेजी आई है। लेखिकाओं की भरी-पूरी जमात हमें आश्वस्त करती है। किताबें और किताबें। लोकार्पण और लोकार्पण। इनाम, खिताब, पुरस्कार जैसा बहुत कुछ। प्रकाशक, संपादक भी अपने-अपने स्टाल लेकर हाजिर। अपने-अपने जलसों की आवृत्तियां। कैसा उत्सवमय समां है। कौन कहता है कि यह दरिंदगी और दहशत भरा समय और समाज है? साहित्य जगत तो यहां आनंदलोक के साथ है। नाच-गाने और डीजे। शानदार पार्टियां और आपसी रिश्तों के जश्न। ऐसा लगता है जैसे कितनी ही कालजयी रचनाएं आई हैं। मगर इस समय की कलमकार के अपने रूप क्या हैं? युवा के सिवा कुछ भी नहीं, यह युवा लेखिका का फतवा किस दोस्त या दुश्मन ने चलाया कि इस समय की रचनाकार अपनी उम्र का असली सन तक अपने बायोडाटा में दर्ज नहीं करतीं, क्योंकि उम्र जगजाहिर करना युवा लेखन के दायरे से खारिज होना है। वे लेखन के हल्केपन की परवाह नहीं करतीं, जवानी को संजोए रखने की चिंता में हैं। इसी तर्ज पर कि रचना में कमी-बेसी से डर नहीं लगता साब, वयस्क कहे जाने से डर लगता है। परवाह नहीं उम्र पैंतालीस से पचास पर पहुंच जाए, युवा कहलाने का अनिर्वचनीय सुख मिलता रहे । लगता है मैत्रेयी जी जब हिंदी अकादमी के आयोजनों के लिए लेखकों का चयन कर रही थीं तो उन्होंने अपनी ही कही इस बात को भुला दिया । युवा के नाम पर चालीस पार की लेखिकाओं और लेखकों को युवा घोषित करते हुए कार्यक्रम में जगह दे दी । क्या वो अपना कहा ही भूल गईं कि जो लेखिका अपने बायोडाटा में अपनी उम्र दर्ज नहीं करती क्योंकि उम्र जाहिर करना युवा लेखन के दायरे से खारिज होना है । क्या वो भी आमंत्रित लेखक लेखिकाओं को वयस्क कहने से डर गईं । दरअसल सरकारी आयोजनों में एक कमेटी प्रतिभागियों का चुनाव करती हैं । संभव है उपाध्यक्ष ने चुनाव करते समय कमेटी के सदस्यों को छूट दी होगी । उस छूट का ही नतीजा है कि कुछ ऐसे लेखकों का चयन हो गया जिनपर और जिनके लेखन पर विवाद उठ खड़ा हो गया । यह भी संभव है कि युवाओं को जोड़ने का अनिर्वचनीय सुख हिंदी अकादमी भी लेना चाहती हो । हिंदी में युवा कहलाने का जो फैशन है उसपर गाहे बगाहे विवाद होता रहा है । मेरा मानना है कि साहित्यक विवाद होने चाहिए । इससे साहित्य की सेहत अच्छी बनी रहती है लेकिन जब विवाद के बीच व्यक्तिगत हमले होने लगते हैं, किसी के चरित्र से लेकर व्यक्तित्व पर सवाल खड़े होने लगते हैं तब साहित्य बीमार पड़ने लगता है । साहित्य में विवादों की एक लंबी परंपरा रही है लेकिन जिस तरह से उसको सोशल मीडिया ने मंच और हवा दोनों दी वो चिंता की बात है । लेखन पर सवाल खड़े होने चाहिए तर्कों और तथ्यों के साथ, फिर चाहे वो कितना भी बड़ा लेखक क्यों ना हो । युवाओं के लेखन को खास तौर पर कसौटी पर कसना चाहिए । 


 

Thursday, August 27, 2015

साहित्यक स्पांरशिप के विरोधी

आज अगर समकालीन हिंदी साहित्य के परिदृश्य में एक अजीब तरह का ठंडापन और वैचारिक सन्नाटा जैसा नजर आता है तो हंस पत्रिका के संपादक और कथाकार राजेन्द्र यादव की कमी शिद्दत से महसूस की जाती है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राजेन्द्र यादव हिंदी के संभवत आखिरी सार्वजनिक बुद्धिजीवी थी । साहित्य के अलावा सामाजिक और राजनैतिक विषयों पर उनकी स्पष्ट राय होती थी जो वो प्रकट भी करते थे । इस बात की परवाह किए बगैर कि उसका अंजाम क्या होगा । अपनी टिप्पणियों की वजह से उनको कई रातें पुलिस सुरक्षा में गुजारनी पड़ी थी । दूसरी बात जिसकी कमी आज महसूस होती है वो है एक सक्रिय साहित्यक संपादक की । राजेन्द्र जी के वक्त हंस पत्रिका में एक धार और उसका तेवर साफ तौर पर दिखता है जो उनके निधन के बाद निस्तेज हो गया है । इसकी भी वजह थी । राजेन्द्र यादव लगातार लेखकों के संपर्क में रहते थे, नए और पुराने । ना सिर्फ संपर्क में रहते थे बल्कि उनको उकसाते भी रहते थे । उकसाते थे लेखन के लिए, उकसाते थे साहित्य सवालों से मुठभेड़ करने के लिए । बहुधा इसके लिए उनके विरोधी और प्रसंसक दोनों उनको विवादाचार्य कहा करते थे । इन विशेषणों से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता था । कहना ना होगा कि यह उनके लगातार संवाद का नतीजा था कि हंस पत्रिका को वो इतने लंबे समय तक निकालने और पाठकों का पहला पयार बनाने में सफल रहे । राजेन्द्र जी के अलावा ये गुण रवीन्द्र कालिया में भी है । वो भी लेखकों से लगातार संवाद बनाए रखते थे और उसका नतीजा उनके संपादन में निकले ज्ञानोदय के अंकों में दिखता भी था । खासकर साहित्य के संपादकों के लिए यह जरूरी है कि वो अपने लेखकों के संपर्क में रहें और किस लेखक से क्या लिखवाना है इस बारे में उनका विजन साफ रहे । राजेन्द्र यादव के निधन के बाद इसका अभाव साफ तौर पर लक्षित किया जा सकता है ।
राजेन्द्र यादव एक और बात कहा करते थे साहित्य स्पांटेनियटि ( स्वत:स्फूर्त ) का गेम है स्पांसरशिप का नहीं । राजेन्द्र जी के हंस संपादक रहते वहां भी स्पांटेनियटि और स्पांसरशिप का गेम दिखता था, लेकिन उसका अनुपात दाल में नमक की तरह होता था । इन दिनों तो स्पांटेनियटि पर पूरी तरह से स्पांसरशिप साहित्य जगत पर हावी हो गई है, नमक में दाल की तरह । लेखकों पर मोटे मोटे अंक प्रकाशित हो रहे हैं जो लगभग अभिनंदन ग्रंथ की तरह हैं, भक्तिभाव से सराबोर । आप हमें पुरस्कार दो हम आपको सम्मानित करेंगे । आप सेमिनार में हमें बुलाओ, हम गोष्ठियों में आपको आमंत्रित करेंगे, आदि आदि । सभी जानते हैं कि ये खेल तल रहा है लेकिन कोई भी लेखक इनसब पर कुछ लिखता नहीं है ।  राजेन्द्र यादव होते तो कम से कम अपने संपादकीय में इसका विरोध अवश्य करते । इन दिनों वरिष्ठ साहित्यकारों ने जिस तरह से साहित्यक और सामाजिक मु्दों पर खामोशी अख्तियार कर ली है वो पूरे साहित्य जगत के लिए ना तो अच्छा संकेत दे रही है और ना ही इससे अच्छा संकेत निकल रहा है । यादव जी के संपादकत्व के दौर की पत्रिका हंस को याद करते हुए इस वक्त के हंस को देखते हुए दुख होता है । यादव जी हमेशा आलोचनानुमा बोझिल लेखों के खिलाफ थे । वो अपने खिलंदड़े अंदाज में कहा करते थे कि यार ! बहुत ज्ञान पेल दिया है, इतना बरदाश्त नहीं हो रहा है । यादव जी की एक और खासियत यह थी कि वो खुद तो नए से नए किताबों के बारे में जानने को उत्सुक रहते ही थे, हिंदी के पाठकों तक उस जानकारी को पहुंचाने के लिए सजग और प्रयत्नशील रहा करते थे । किसी नई किताब की चर्चा करने पर एकदम बच्चे की चरह जिद पर उतारू हो जाते थे कि आज ही भेजो, आज ही मंगवाता हूं आदि आदि । आज अगर यादव जी जीवित होते तो छियासी साल के होते । उनकी स्मृति को नमन ।

फिर निकला आरक्षण का जिन्न

यह महज संयोग था या फिर सोची समझी रणनीति यह कहना मुश्किल है । ओबीसी आरक्षण के लिए बनी मंडल कमेटी के बीपी मंडल के जन्मदिवस पर गुजरात में पटेलों ने आरक्षण की मांग को लेकर अहमदाबाद में एक बड़ी रैली की । पटेल गुजरात का संपन्न और दबंग सुमदाय माना जाता है । उनकी मांग है कि उनको ओबीसी में शामिल कर आरक्षण दिया जाए या फिर आरक्षण को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए । इस आंदोलन ने एक बार फिर से उन्नीस सौ नवासी की याद ताजा कर दी है । ये वो दौर था जब देवीलाल की रैली को डिफ्यूज करने के लिए वीपी सिंह ने आनन फानन में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का एलान कर दिया था । ओबीसी को सरकारी नौकरियों से लेकर प्रमोशन और छात्रों को स्कूल कालेजों में आरक्षण दे दिया गया था । उस वक्त भी उत्तर भारत के कई राज्यों में आरक्षण की आग ने कई सरकारो के चेहरे को तो बदल ही दिया पूरे देश की राजनीति का भूगोल भी बदल दिया । दरअसल हमारे संविधान में पिछडो़ं और दबे कुचलों को मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन एक तय समय सीमा तक । बजाए पिछड़ों को आरक्षण देकर मुख्यधारा में लाने के आरक्षण की आड़ में नेता मुख्यधारा में आने लगे । संविधान सभा की बहस में महावीर त्यागी, डॉ पीएस देशमुख आदि ने इसका विरोध किया था, लेकिन तब इस बात पर सहमति बनी कि दस साल के लिए पिछड़ों को आरक्षण की व्यवस्था हो । उस वक्त सरदार पटेल ने भी आरक्षण का विरोध करते हुए कहा था कि सहूलियत देकर अनुसूचित जाति और जनजाति को समाज की मुख्यधरा में लाना मुश्किल है, इसके लिए देश में जागृति लानी होगी । उन्होंने गुलामी का उदाहरण देते हुए अने तर्क रखे थि गुलाम-प्रथा से छुटकारा किसी तरह के आरक्षण से नहीं मिला था बल्कि सामाज में जागृति लाकर उस अमानवीय प्रथा को खत्म किया गया था । सरदार पेल का मानना था कि लोकतंत्र के मजबूत होते जाने से ही जाति का नासूर खत्म हो जाएगा । कई सदस्यों ने विरोध के बावजूद आरक्षण के पक्ष में संविधान सभा में सहमति बनी थी । संविधान बनानेवालों ने उस वक्त ये नहीं सोचा था कि आरक्षण आजाद भारत में दलितों और पिछड़ों को बराबरी का हक दिलाने की बजाए राजनीति का एक ऐसा औजार बन जाएगा जिससे पार पाना मुश्किल होगा । संविधानसभा से उस वक्त ये गलती हो गई कि वो पिछड़ा मानने का आधार जाति को मान लिया, आर्थिक आधार पर विचार नहीं किया गया ।
गुजरात में जिस तरह से बाइस साल के एक लड़के हार्दिक पटेल ने आरक्षण को लेकर इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है उससे यह तो साफ है कि आरक्षण के विरोध में सालों से कुछ पक रहा था । दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय में कहा भी है कि विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका विस्फोट अचानक होता है, घाव भी फूटने के पहले बहुत समय तक पकता रहता है । पटेलों के आंदोलन से एक और बात निकल कर आ रही है कि गुजरात जैसे विकसित राज्य में भी आरक्षण को लेकर एक समुदाय में क्षोभ है । दिल्ली युनिवर्सिटी में आम छात्रों का नामांकन अगर नब्बे फीसदी अंक पर होता है तो आरक्षण पाने वालों का साठ से सत्तर फीसदी तक में हो जाता है । अमूमन ऐसा होता है कि दोनों छात्रों के सामाजिक और पारिवारिक स्तर में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं होता है ।गुजरात की जनसंख्या में करीब बाइस फीसदी हिस्सेदारी पटेलों की है और उनका दावा है कि पूरे देश में पाटीदारों की संख्या करीब 27 करोड़ है । दरअसल आरक्षण को लेकर एक बड़े समुदाय के मन में कहीं ना कहीं कसक है । सिर्फ चंद महीनों में हार्दिक पटेल ने गुजरात में इतना बड़ा जनांदोलन खड़ा कर दिया इससे इस बात के संकेत तो मिलते ही हैं कि विरोध की आग लंबे समय से सुलग रही थी । यह सही है कि भीड़ के आधार पर सरकार ना तो कानून बनाती है और ना ही कानून में संशोधन करती है लेकिन अगर इतना बड़ा जमसमर्थन मिलता है तो सरकार को सोचने के लिए एक जमीन तो मुहैया करवाता ही है ।  हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि उन्नीस सौ चौहत्तर में गुजरात के छात्र आंदोलन ने देश की राजनीति बदल दी थी । जनवरी 1974 में चिमन भाई पटेल सरकार के खिलाफ छात्रों के आंदोलन और फिर जेपी के उस आंदोलन के समर्थन में गुजरात जाने के बाद चिमन भाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा था । वह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था । गुजरात आंदोलन से ही प्रेरित होकर फिर बिहार में भी छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत की थी । जिसके बाद इंदिरा गांधी ने देशपर इमरजेंसी थोप दी थी । उस आंदोलन की तुलना हार्दिक पटेल के आंदोलन से करना इस वक्त बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस तरह से हार्दिक ने नीतीश कुमार का नाम लिया है उससे इस बात के संकेत तो मिलते हैं कि ये आंदोलन आगे बढ़ेगा । हार्दिक पटेल ने साफ कर दिया है कि वो राजनीति नहीं करेंगे लेकिन आरक्षण नहीं मिलने की सूरत में 2017 में सूबे में कमल को खिलने से रोकने का एलान हुआ । हमारे देश के राजनीतिक विश्लेषक जल्दबाजी में तुलना करने लग जाते हैं । कई विद्वान हार्दिक को गुजरात का अरविंद केजरीवाल बता रहे हैं । दोनों में बुनियादी फर्क है अरविंद सार्वजनिक तौर पर बहुत विनम्र नजर आते हैं जबकि हार्दिक के अहमदाबाद के भाषण में दंभ नजर आता था । राजनीतिक विश्लेषकों को थोड़ा धैर्य रखना चाहिए । ये वही लोग हैं जो अन्ना को छोटे गांधी कहा करते थे । तुलना में जल्दबाजी और तात्कालिकता बहुधा अतार्किक होकर हास्यास्पद हो जाती है ।  
 

Monday, August 24, 2015

भाषाई अकादमी का दुरुपयोग ?

बिहार में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है, औपचारिक एलान बाकी है लेकिन सियासी शतरंज की बिसात बिछ चुकी है । सभी राजनीतिक दल अपने अपने मोहरे चल रहे हैं । शह और मात का खेल जारी है । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बिहार दौरों ने चुनावी फिंजा को संगीन बना दिया है । इस बार का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार और बारतीय जनता पार्टी दोनों के लिए बेहद अहम है, लालू के लिए तो अस्तित्व को बचाने की लड़ाई ही है । लेकिन इन सबसे इतर भी एक वजह है जिसके कारण ये चुनाव चर्चित हो रहा है । विधानसभा की इस सियासी बाजी में इस बार साहित्यक और सांस्कृतिक संस्थाओं को भी मोहरा बनाया जा रहा है । जिन संस्थाओं पर भाषा और संस्कृति के विकास की जिम्मेदारी है वो अपने मंच का इस्तेमाल राजनीति चमकाने के लिए करने की इजाजत दे रहे हैं । ताजा मामला है दिल्ली का । दिल्ली की मैथिली भोजपुरी अकादमी ने दिल्ली में एक आयोजन किया । इस कार्यक्रम का उद्देश्य भाषा से जुड़े साहित्यकारों कलाकारों और अहम शख्सियतों का सम्मान करना था ।  इस कार्यक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी बुलाया गया था । यहां तक तो सब कुछ ठीक था । कोई भी अकादमी किसी भी राजनेता को साहित्यकारों को सम्मानित करने के लिए या सम्मान समारोह का गवाह बनने के लिए बुला सकती है । लेकिन क्या किसी भी राजनीतिक दल के नेता या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को इस मंच का इस्तेमाल अपनी राजनीति चमकाने के लिए करने की इजाजत दी जा सकती है । दिल्ली की मैथिली भोजपुरी अकादमी के उद्देश्यों में राजनीतिक कार्यक्रमों के बारे में कुछ लिखा लिखा नहीं है । ये राजनीतिक कार्यक्रम था भी नहीं । ये कार्यक्रम तो उस सरोगेट विज्ञापन की तरह था जो हमारे यहां टेलीविजन पर चलते या अखबारों में छपते हैं । शराब के विज्ञापन पर रोक है तो फिर शराब के नाम से ही पानी की बोतल बना लो और फिर उसके विज्ञापन से जनता को बताओ कि अमुक नाम से शराब भी है । इसी तरह से दिल्ली की मैथिली भोजपुरी अकादमी ने भी एक सरोगेट साहित्यक कार्यक्रम आयोजित किया था । इस कार्यक्रम में मंच पर जेडीयू और आम आदमी पार्टी के नेता और मंत्री बैठे थे । हाथ में हाथ डालकर उपर उठाकर नेताओं ने फोटो भी खिंचवाए और साथ होने का संदेश भी जनता को दिया । दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों ने  मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच से पूरी तरह से राजनैतिक भाषण दिया । नीतीश और केजरीवाल दोनों ने मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर जोरदार हमला बोला । बिहार विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयानों को खारिज किया बल्कि अपने तर्कों को सामने रखने के लिए लंबा वक्त भी लिया । नीतीश कुमार को मालूम था कि कार्यक्रम दिल्ली में है और केजरीवाल की मंच पर मौजूदगी सुर्खियां बनेंगी लिहाजा उन्होंने उस अवसर का बेहतरीन इस्तेमाल किया । दिल्ली के मुख्यमंत्री और मैथिली भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल ने भी इस मंच से भारतीय जनता पार्टी, नरेन्द्र मोदी, दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग आदि की आलोचना की । साहित्यक सम्मान नेपथ्य में चला गया । सारी चर्चा मोदी बनाम नीतीश-केजरीवाल पर आकर टिक गई । नीतीश और केजरीवाल की दोस्ती पर भी चर्चा शुरू हो गई । इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए दिल्ली की अन्य भाषाई अकादमियों के कर्मचारियों को भी काम पर लगाया गया था । जाहिर है कि दिल्ली सरकार इस कार्यक्रम को बेहतर करना चाहती थी । कार्यक्रम में राजनेताओं को भी न्योता दिया गया था । उन राजनेताओं को भी जिनका मैछिली भोजपुरी से कोई लेना देना नहीं था । आयोजकों की मंशा साफ थी । इस कार्यक्रम को राजनीतिक रखना और दिल्ली और बिहार के मुख्यमंत्रियों को अपननी बात रखने का मंच देना । उसमें मैथिली पंजाबी अकादमी सफल रही ।  
दिल्ली में जब शीला दीक्षित की सरकार ने मैथिली भोजपुरी अकादमी का गठन किया था तब उसका लक्ष्य था मैथिली और भोजपुरी भाषओं व साहित्य-संस्कृति का उन्नयन व पल्लवन । इसके अलावा इस अकादेमी की कार्य और उद्देश्यों की एक बड़ी लंबी फेहरिश्त बेवसाइट पर मौजूद है लेकिन उसमें ये कहीं नहीं लिखा गया है कि इसके मंच से राजनीति होगी । नई बनी कमेटी ने इन दोनों भाषाओं के उन्नयन और पल्लवन के लिए क्या काम ये तो अभी ज्ञात नहीं हो सका है क्योंकि सरकार की बेवसाइट इपडेट नहीं है । हां इतना अवश्य हुआ कि केजरीवाल- नीतीश को एक साथ मंच पर लाकर अकादमी ने अपने अध्यक्ष का काम कर दिया । मैथिली भोजपुरी अकादमी के मंच के इस दुरुपयोग पर मुझे हरिशंकर परसाईं का एक लेख हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं - का स्मरण हो आया है। अपने उस लेख में परसाईं जी ने कई चुटीले वाक्य लिखे हैं जो आज भी वर्षों बाद मौजूं हैं मेरे नाम, काम,, धाम सब बदल गए हैं । मैं राजनीति में शिफ्ट हो गया हूं । उसी लेख में हरिशंकर परसाईं ने आगे लिखा है पार्टी का नाम जनमंगल कांग्रेस होगा । नाम में जन या जनता, या लोक रखने का आधुनिक राजनीति में फैशन चल पड़ा है । इसलिए हमने भी जन शब्द रख लिया । जनता से प्रार्थना है कि वो इसे गंभीरता से ना लें, इसे वर्तमान राजनीति का एक मजाक समझें । ...जनता कच्चा माल है । इससे पक्का माल विधायक मंत्री आदि बनते हैं । पक्का माल बनाने के लिए कच्चे माल को मिटाना ही पड़ता है । हम जनता को विश्वास दिलाते हैं उसे मिटाकर हम ऊंची क्वालिटी की सरकार बनाएंगे । हमारा न्यूनतम कार्यक्रम सरकार में रहना है । ‘  तो क्या ये मान लिया जा कि दिल्ली की मैथिलि भोजपुरी अकादमी राजनीति में शिफ्ट हो गई है  । क्या वो पक्का माल बनाने के काम में लग गई है । क्या वो साहित्य संस्कृति के विकास के कामों को मिटाकर ऊंची क्वालिटी की सरकार बनाने में लग गई है । क्या उनका न्यूनतम कार्यक्रम सरकार बनवाना हो गया है । अगर इन सारे प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो ये बेहद चिंता की बात है ।  कम से कम मैथिली और भोजपुरी भाषा-भाषियों के लिए । पहले भी इन अकादमियों का राजनीति के लिए इस्तेमाल होता रहा है लकिन इस तरह से खुले आम, अकादमी के मंच से राजनीतिक भाषण पहली बार हुआ है । दरअसल दिल्ली में नई सरकार के गठन के बाद इन भाषाई अकादमियों में उपाध्यक्षों की नियुक्तियां हुईं । सरकार ने अपने मनमाफिक लेखकों और पत्रकारों को इन पदों पर बैठाया । यह सरकार का विशेषाधिकार है कि वो अपने मनमुताबिक लोगों का चयन करे लेकिन इन पद पर बैठे लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वो भाषा और साहित्य के विकास के लिए कोई ठोस रूपरेखा बनाएंम और उसको क्रियान्वित करें ।

अब अगर हम दिल्ली के अलावा पूरे देश की भाषाई अकादमियों पर विचार करें तो लगभग सारी अकादमियां सरकारी कार्यक्रमों को ही बढ़ावा देती हैं । इन अकादमियों पर होनेवाला खर्च करदाताओं के खून पसीने की कमाई से अर्जित किए गए पैसों की बर्बादी है । इनका उद्देश्य देखने में बहुत अच्छा लगता है , आदर्शवाद की तमाम बातें भी होती हैं लेकिन जब कार्यक्रमों को करने का वक्त आता है तो फिर राजनीतिक आकाओं की ओर देखा जाने लगता है । कभी मंत्री तो कभी मुख्यमंत्री की इच्छा पर कार्यक्रम तय किए जाते हैं, बहुधा इस बात का ख्याल रखा जाता है कि जिस पार्टी की सरकार हो उस पार्टी के विरोधियों को ना बुलाया जाए । इस चक्कर में कई बार कार्यक्रमों में भारी भरकम खर्च होने के बावजूद उससे भाषा और साहित्य को कुछ हासिल नहीं होता है । इन अकादमियों का गठन भाषा और साहित्य को बढ़ाना देने के लिए किया गया था लेकिन काला्ंतर में हुआ यह कि भाषा और साहित्य की बजाए ये अपने अपने सूबे के मुख्यमंत्रियों की छवि के विकास के लिए काम करने लगीं । नतीजा क्या हुआ कि ये अकादमियां राज्य सरकार के सूचना विभाग का एक्सटेंशन बन गईं और इसके सचिव वगैरह उस विभाग के अफसरों की तरह काम करने लगे । इन अकादमियों को चलाने के लिए कभी कभार अच्छे लेखकों का भी चयन हो जाता है लेकिन उन अच्छे लेखकों के सामने सरकारी बाबुओं से निपटने की बड़ी चुनौती होती है । सुविधाएं भी कम होती हैं । उपाध्यक्षों के लिए मात्र चार हजार रुपए महीने के मानदेय का प्रावधान है जो कि मेरी समझ से इस पद पर बैठनेवाले का अपमान है । या तो इसको अवैतनिक कर देना चाहिए या फिर सम्मानजनक राशि का प्रावधान किया जाना चाहिए । वर्ना वही होगा कि अकादमी के कार्यक्रमों को राजनीतक मंच बनाकर उसके कर्ताधर्ता अपना रसूख बढ़ाने में लग जाएंगे, और यह एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत है जो न इन अकादमियों को खत्म कर दे सकती हैं । 

Sunday, August 23, 2015

स्तरीयता बनाए रखने की चुनौती

हिंदी के यशस्वी कथाकार और लंब समय तक हंस पत्रिका के संपादक रहे राजेन्द्र यादव बहुधा कहा करते थे कि हमारे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग प्रतिभाओं की कब्रगाह है । हमारी उनसे इस बात को लेकर काफी बहस हुआ करती थी लेकिन वो अपनी इस राय से कभी भी डिगे नहीं । हम भले ही कभी कभार डगमगाते रहे । अभी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका पुस्तक वार्ता के करीब दर्जन भर अंक मिले । एक साथ इतने अंक मिलने की भी एक अलग कहानी है जिसपर कभी बाद में बात करूंगा । पुस्तक वार्ता का सबसे ताजा अंक 56 है जो जनवरी- फरवरी 2015 का अंक है । पुस्तक वार्ता की शुरुआत महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के पहले कुलपति अशोक वाजपेयी के कार्यकाल में हुई थी । इसके संस्थापक संपादक राकेश श्रीमाल थे । उनके संपादन में बहुत अच्छी निकलती रही । उनके बाद समीक्षक भारत भारद्वाज के संपादन में पत्रिका ने अपनी उस पहचान को और मजबूती दी । यह संयोग है कि मैंने इस पत्रिका में शुरुआत से ही स्तंभ लिखा और लगभग पंद्रह सालों तक उसमें लिखता रहा । मेरे स्तंभ का स्वरूप बदलता रहा लेकिन पत्रिका का स्वरूप बरकरार रहा । एक बार फिर इस पत्रिका के संपादक राकेश श्रीमाल बने जिनके संपादन में पत्रिका के दो संयुक्तांक निकले । उसके बाद इस पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी पत्रकार विमल झा को सौंपी गई । विमल झा के अंदर का पत्रकार इस पत्रिका पर हावी होता दिखा । विमल झा के संपादन में निकले पहले अंक के बाद उसके ले आउट से लेकर कवर पेज तक में आमूल तूल परिवर्तन हुआ । कंटेंट तक में भी । गर संपादक का यह होता है कि वो अपनी मर्जी के हिसाब से पत्र-पत्रिकाओं के कंटेंट से लेकर हर चीज में बदलवा करे क्यों पाठकों और आलोचकों की कसौटी पर उसको ही कसा जाता है ।  विमल झा ने पत्रिका के कवर को चमकीला बना दिया लेकिन स्तर बरकरार नहीं रख सके, ना ही इसकी आवर्तिता । विश्वविद्यालय के धन से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका अगर समय पर नहीं निकले तो आश्चर्य होता है ।

पुस्तक वार्ता की जब परिकल्पना हुई थी तो यह तय किया गया था कि इसको हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए जरूरी द्वैमासिक बनाया जाए जिसमें नए प्रकाशनों की जानकारी हो । लेकिन पंद्रह साल बाद लगता है पत्रिका अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है । अंक पचपन के संपादकीय में मीडिया के हालात पर चिंता जताई गई है । मेरे मन में बार बार सवाल उठ रहा है कि साहित्यक पत्रिका के संपदीक में मीडिया की चर्चा क्यों । चलइे अगर एक मिनट तक इसको मान भी लें तो क्या पूरे अंक में उस चिंता को विस्तार दिया गया है । इसी तरह से अंक 56 के संपादकीय में सोशल मीडियापर फोकस है । अंत में संपादक कहता है कि पौने तीन लाइन में निराला के जन्मदिन की सूचना देता है और कहता है कि इस वजह से अंक का प्रारंभ निराला के स्मरण से किया जा रहा है । पत्रिका में जो एक सूत्र दिखना चाहिए जिसमें उसके लेख पिरोए हों उसका अभाव साफ खटकता है । अब तो पुस्तक वार्ता में कई कई साल पुरानी किताबों की समीक्षा प्रकाशित होती है । पुस्तक वार्ता में लेखकों के नामों के साथ विशेषण भी उदारता से छपने लगे हैं । लगभग सभी लेखक वरिष्ठ नहीं तो आलोचक तो हैं ही । पुस्तक वार्ता भी अन्य विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की पत्रिका की तरह बनती जा रही है । पुस्तक वार्ता के संपादक के सामने बड़ी चुनौती इसकी विरासत है । विरासत से मुठभेड़ करते हुए पुस्तक वार्ता अपनी पहचान को बरकारर रख पाती है या फिर अन्य पत्रिकाओं की भीड़ में गुम हो जाती है । पांच अंकों को देखते के बाद भीड़ में गुम हो जाने का खतरा ज्यादा है । 

Tuesday, August 18, 2015

गजेन्द्र तो बहाना है...

पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान के चेयरमैन के तौर पर महाभारत सीरियल में युधिष्ठिर के तौर पर काम कर अपनी पहचान बना चुके गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति पर विवाद जारी है । संस्थान में काम-काज और पढ़ाई लिखाई ठप है । गजेन्द्र के विरोधी ये तर्क दे रहे हैं कि चौहान में इस प्रतिष्ठित संस्थान की रहनुमाई करने के लिए अपेक्षित कद और काम नहीं है । यह बात सही है कि गजेन्द्र ने टीवी सीरियल्स के अलावा सी ग्रेड फिल्मों में काम किया है । उनकी उच्च बौद्धिकता को लेकर भी संदेह है । गजेन्द्र चौहान को फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान का चेयरमैन बनाने के पीछे सरकार की मंशा के बारे में आगे विस्तार से बात होगी। गजेन्द्र के विरोधियों का एक तर्क है कि जिस संस्थान के चेयरमैन पद को श्याम बेनेगल, अदूर गोपाल कृष्णन, महेश भट्ट, यू आर अनंतमूर्ति जैसे मूर्धन्य लोगों ने सुशोभित किया है उस पद पर गजेन्द्र कैसे बैठ सकते हैं । ये सही है कि गजेन्द्र चौहान के पास उन लोगों जितना अनुभव और उनके जैसा आभामंडल नहीं है । लेकिन यहां पर यह भी सवाल उठता है कि श्याम बेनेगल, अदूर गोपाल कृष्णनस महेश भट्ट और यू आर अनंतमूर्ति जैसे दिग्गजों ने फिल्म संस्थान के लिए क्या किया । इतने बड़े दिग्गजों के सालों तक इस संस्था के चेयरमैन रहते हुए भी इसका विकास आईआईटी या आईआईएम ती तर्ज पर क्यों नहीं हो सका । उन्नीस सौ साठ में स्थापित हुए इस फिल्म संस्थान के पचपन साल हो गए लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि ये कोलंबिया यूनिवर्सिटी के फिल्म स्कूल के आसपास भी पहुंच पाया । क्या विश्व सिनेमा जगत में इस संस्थान ने अपना स्थान बना पाया । विश्व सिने जगत की बात ही छोड़िए क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि इस संस्थान ने दक्षिण एशियाई देशें में अपना स्थान बनाया । क्या सिंगापुर के संस्थान की भी हम बराबरी कर पाए हैं ।  पिछले पचपन साल में क्या हम पचपन छात्रों का नाम गिना सकते हैं जिन्होंने इस संस्थान से पढ़ाई की और सिनेमा को अपनी विधा में प्रभावित किया । क्या हम निर्देशन, सिनेमेटोग्राफी, साउंड, म्यूजिक, वीडियो एडिटिंग आदि विधा से चार-चार लोगों को नाम ले सकते हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर लोगों को चौंकाया । साउंड में तो ले देकर रसूलपुकुट्टी को याद कर सकते हैं । अगर इन सवालों का उत्तर सकारात्मक होता तो हम कह सकते थे कि श्याम बेनेगल, अदूर गोपालकृष्णन, महेश भट्ट और यू आर अनंतमूर्ति की प्रतिभा का लाभ इस संस्थान को मिला । लेकिन अफसोस कि इन सवालों का जवाब नकारात्मक है लिहाजा इन बौद्धिकों से ये सवाल तो किए जाने चाहिए कि आपने इस संस्था के लिए क्या किया । दरअसल हकीकत यह है कि इन बड़े नामों के पास इस संस्था के लिए वक्त ही नहीं था । श्याम बेनेगल के दौर में फिल्म इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर और चेयरमैन की मुलाकात साल में एक बार हो जाए तो संस्थान में चर्चा का विषय होती थी । एक डायरेक्टर के तौर पर श्याम बेनेगल की प्रतिभा और प्रतिष्ठा पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है, इसी तरह से अदूर गोपालकृष्णन के भी निर्देशक, स्क्रिप्ट राइटर और प्रोड्यूसर के तौर पर कोई सवाल नहीं उठ सकता । महेश भट्ट और यू आर अनंतमूर्ति पर भी नहीं। दरअसल अगर हम इन तमाम बड़े लोगों के कार्यकाल का अगर आंकलन करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इनमें से ज्यादातर के पास संस्थान के लिए वक्त ही नहीं था । बड़े नाम होने की वजह से इनकी नियुक्ति होती थी और कभी कभार किसी सभा- संगोष्ठी में इनके दर्शन हो जाया करते थे । भला हो गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति पर उठे विवाद का कि इस संस्थान के क्रियाकलाप पर बहस शुरू हो गई । उनके काम काज का हिसाब पूछा जाने लगा । इस संस्थान को इन बड़े लोगों से फायदा हुआ हो या नहींइनके नाम से साथ ये चस्पां अवश्य हो गया कि ये इस संस्थान के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं । यह जानकार हैरानी होती है कि इस संस्थान में कई छात्र दो हजार आठ से छात्रावासों में रह रहे हैं । यह नए छात्रों के साथ बेईमानी तो है ही उनके अधिकारों पर डाका भी है । यह संस्थान भारत सरकार के अनुदान पर चलती है यानि कि इसमें हमारा आपका सभी करदाताओं का पैसा लगता है । हमारी गाढ़ी कमाई का इतना अपव्यय इतने सालों से हो रहा था और ये तमाम बड़े नाम यहां गद्दीनशीं थे, खामोश थे । यह जानकर तो और हैरानी होती है कि करोड़ों के बजट के बावजूद इस संस्थान के उपकरणों का आधुनिकीकरण नहीं किया गया । यह तो वैसी ही बात हुई कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कुछ सालों पहले तक लैटर प्रेस और उसकी तकनीक पढ़ाई जाती है। हमारे देश के विश्वविद्यालयों के कई विभाग प्रतिभा के कब्रगाह बने हुए हैं । उसी तरह से एफटीआईआई में भी पुरानी तकनीक और पुराने तरीके से स्क्रिप्ट राइटिंग सिखाई जा रही है । कुछ ऐसे प्रतिभाशाली लोग स्क्रिप्ट राइटिंग सिखा रहे हैं जिनकी स्क्रिप्ट की वजह से एक मशहूर निर्देशक को झटका लग चुका है ।

दरअसल गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति पर सरकार और वामपंथी विचारधारा के लोगों की टकराव की वजह एकदम से अलहदा है । इसके राजनीतिक कारण हैं । आजाद भारत के इतिहास में पहली बार, मैं जो देकर कह रहा हूं, पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई है । इस सरकार का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं जिनके विचार अटल बिहारी वाजपेयी से मेल खा सकते हैं लेकिन मिजाज नहीं । अटल बिहारी वाजपेयी इस मामले में थोड़े साफ्ट थे लेकिन नरेन्द्र मोदी विचारधारा को लेकर सजग ही नहीं हैं बल्कि उसको स्थापित करने के लिए मजबूती के साथ प्रयत्नशील भी हैं । इस बार सरकार ने तय किया है कि सभी संस्थानों पर अपने लोग बिठाए जाएं । अब इन्हीं अपने लोगों को बिठाने की प्रक्रिया में गजेन्द्र चौहान जैसे लोगों की नियुक्तियां हो रही हैं । अभी आनेवाले दिनों में इस तरह की और नियुक्तियां होंगी । विश्वविद्यालय के कुलपतियों से लेकर भाषा, कला और संस्कृति संगठनों तक में । यह सच है कि बैद्धिक जगत में वामपंथी विचारधारा की तुलना में दक्षिणपंथी विचारधारा में विद्वानों की संख्या कम है । लेकिन जो हैं उसके आधार पर ही सबकुछ अपने माफिक करने की कोशिश हो रही है और आगे भी होती रही है । हम देखें तो दक्षिणपंथी विद्वानों की संख्या इस वजह से कम नजर आती है कि आजादी के पैंसठ साल बाद तक उनको अवसर से वंचित किया जाता रहा । जो भी राष्ट्रवादी बातें करता , या राष्ट्रवादी विषयों पर शोध करता या जो भी वामपंथ से अलग हटकर भारत और भारतीयता की बात करता उसको आगे बढ़ने से रोक दिया जाता रहा है । ना तो विश्वविद्यालयों में उनकी नियुक्ति हो पाती थी और ना ही किसी शोध संस्थान में उनको शोध करने दिया जाता था । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां वामपंथ से इतर सोच रखनेवाले छात्रों और शोधार्थियों को बेवजह तंग किया गया हो और उनको समान अवसर से वंचित रखा गया हो । इस तरह की बौद्धिक अस्पृश्यता ने वामपंथ से इतर विचार रखनेवालों को हतोत्साहित किया । गजेन्द्र के मसले पर जारी संघर्ष का वृहत्तर अर्थ है । वामपंथी विचारधारा वाले लोगों को यह लगने लगा है कि ये सरकार आनेवाले दिनों में उनके सांस्कृतिक साम्राज्य को खत्म कर देगी लिहाजा वो भी आक्रामक हो गई है । गजेन्द्र तो एक बहाना मात्र है जिसकी आड़ में वामपंथी अपने खत्म होते साम्राज्य को बचाने की जुगत में हैं । दूसरी वजह यह है कि उनको यह भी लगने लगा है कि अगर उनकी विचारधारा के लोग सत्तानशीं नहीं रहे तो उनके कारनामे खुलेंगे । जैसे भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में सत्ता परिवर्तन के बाद यह बात सामने आने लगी है कि किस तरह से करदाताओं के पैसों की लूट चल रही थी और एक एक प्रोजेक्ट चार दशक से अधिक वक्त से तैंतालीस साल से एक ही व्यक्ति कर रहा था । इस तरह के खुलासों से बचने केलिए गजेन्द्र जैसी नियुक्तिों पर विवाद खडे होते रहेंगे । नियुक्तियों की आड़ में खेले जा रहे इस खेल में छात्रों को मोहरा बनाया जा रहा है, लेकिन हाल के अनुभवों को देखते हुए यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि सरकार इस मसले पर अपना कदम पीछे खींचनेवाली नहीं है । यह राजनीतिक लड़ाई है और उसी के औजारों से लड़ी भी जा रही है । राजनीति के इस खेल में यथास्थितिवाद को चुनौती देने से विरोध का बवंडर को उठेगा । यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार उस बवंडर को किस तरह से शांत कर अपनी विचारधारा को स्थापित करती है ।  

Thursday, August 13, 2015

भीष्म साहनी का समग्र मूल्यांकन हो

आज पूरा देश हिंदी के महान कथाकार और तमस जैसी कालजयी कृति के रचनाकार भीष्म साहनी की जन्म शतवार्षिकी मना रहा है । दिल्ली में संस्तृति मंत्रालय और साहित्य अकादमी के सहयोग से तीन दिनों का समारोह भी शुरू हो चुका है जो दस अगस्त तक चलेगा । भीष्म साहनी निश्चित हिंदी के उन कथाकारों में से हैं जिनको विश्व की किसी भी भाषा के रचनाकार के साथ खड़ा किया जा सकता है । भारत पाकिस्तान के विभाजन पर लिखी उनकी कृति तमस ही उनको विश्व लेखक की श्रेणी में खड़ा करने के लिए काफी है । तमस में जिस तरह से सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत और उसके पीछे की मंशा का चित्रण है वह उस उपन्यास को आज भीमौजूं बनाता है । इस उपन्यास में सांप्रदायिक उन्माद का जीवंत वर्णन है । तमस में यह दिखाया गया है कि किस तरह से अंग्रेज हुक्मरानों के इशारे पर नगरपालिका कमेटी के मुराद अली नत्थू से सूअर मरवाकर मस्जिद की सीढियों पर रखवा देते हैं और उसके बाद दंगा शुकू हो जाता है । सैदपुर गांव में सिखों और मुसलमानों के बीच का संघर्ष सामाजिक ताने को छिन्न भिन्न कर देता है । अंग्रेजों को जब लगा कि उनकी हुकूमत हिन्दुस्तान में नहीं चलनेवाली है तब उन्होंने दोनों समुदायों का लड़ाने का काम किया और उनका वह विष बीज आजतक फल फूल रहा है । भीष्म साहनी के पहले यशपाल ने अपने उपन्यास झूठा सच में सांप्रदायिकता की समस्या को व्यापक स्तर पर उठाया था । तमस भीष्म साहनी का तीसरा उपन्यास था, उसके पहले वो झरोखे और कड़ियां दो उपन्यास लिख चुके थे । उसके बाद उन्होंने मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू, नीलिमा और नीलोफर जैसे उपन्यास लिखे । भीष्म साहनी की आत्मकथा आज के अतीत भी प्रकाशित है ।  

यह तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों का दुर्भाग्य है कि वो नोबेल पुरस्कार का गणित नहीं समझ रहे हैं या फिर उनके पास नोबेल पुरस्कार के गणित के हिसाब से काम करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, अन्यथा भीष्म साहनी, अज्ञेय जैसे हमारे लेखकों को ये पुरस्कार मिल सकता था । साहित्य अकादमी तो जो काम करना चाहिए वो वह नहीं कर रही है । भारतीय भाषाओं के लेखकों को विश्व पटल पर ले जाने का काम करने में साहित्य अकादमी बुरी तरह से विफल रही है । खैर ये अवांतर प्रसंग है जिसपर फिर कभी चर्चा होगी । हमारे देश में एक और ऐसी परंपरा है जो लेखकों के दिवंगत होने के बाद उनके मूल्यांकन में उदारता बरतता है । लेखन और लेखकीय हितों के लिए किए गए उनके कामों का मूल्यांकन करते वक्त हिंदी समाज मूर्तिपूजा की हद तक आस्था से सराबोर हो जाता है । ऐसा लगता है कि दिवंग साहित्यकार लगभग ईश्वर सरीखा था और उसने कोई गलती कभी की ही नहीं । सब अच्छा अच्छा । अब जैसे भीष्म साहनी पर लिखते या बोलते हुए तकरीबन सभी लोग उनकी कमजोरियों को उघाड़ने से झिझकते हैं । भीष्म साहनी प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे । भीष्म साहनी के संगठन में रहते हुए प्रगतिशील लेखक संघ ने इंदिरा गांधी द्वारा देश में इमरजेंसी थोपे जाने का समर्थन किया था । क्या भीष्म साहनी का मूल्यांकन करते वक्त इस तथ्य की अनदेखी की जा सकती है । अगर उस वक्त वो अपनी पार्टी के फैसले से बंधे थे तब भी उनके विचारों को इस आलोक में देखा जाना चाहिए । हमें लगता है कि किसी भी साहित्यकार या लेखक का मूल्यांकन करते हुए सम्रगता में विचार करना होगा, अंधी आस्था के साथ नहीं । मूर्तिपूजक होने के बजाए मूर्तिभंजक को इतिहास ज्यादा दिनों तक याद रखता है । भीष्म साहनी का भी समग्रता में मूल्यांकन होना चाहिए, शतवार्षिकी का मौका बेहतर है और लोगों को खुलकर अपनी बात कहनी चाहिेए ।  

Monday, August 3, 2015

हिंदी प्रेमी कलाम

पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम के निधन के बाद उनपर कई तरह के लेख लिखे गए । ज्ञान-विज्ञान से लेकर उनके संगीत प्रेम तक । उनके व्यक्तित्व के आयामों पर भी बहुतेरे लेख छपे । लेकिन कलाम साहब की एक खासयित अभी थोड़ी अलक्षित रह गई है । सन दो हजार दो की बात है, कलाम साहब राष्ट्रपति बने ही बने थे । संसद भवन के बालयोगी सभागृह में विश्वनाथ प्रताप सिंह कि कविताओं का पाठ आयोजित हुआ था । उस समारोह में चार भूतपूर्व प्रधानमंत्री- खुद विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और आई के गुजराल एक साथ एक मंच पर मौजूद थे । भव्य कार्यक्रम था । राष्ट्रपति कलाम साहब उस कार्यक्रम में विशिष्ठ अतिथि के तौर पर पहुंचे थे । कार्यक्रम हिंदी में था । विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी कविताएं सुनाई और सारे वक्ताओं ने हिंदी में अपना भाषण दिया और कलाम साहब बेहद संजीदगी से सबके भाषण को सुनते और समझते रहे । ए पी जे अब्दुल कलाम ने विश्वनाथ प्रताप सिंह की कविताओं पर बहुत अच्छा भाषण दिया था । उनके भाषण को सुनकर ऐसा लग रहा था कि एक अहिंदी भाषी ने कितनी मेहनत की होगी सारी कविताओं और उसके अर्थ और मर्म को समझने के लिए । कलाम साहब जब समारोह से जाने लगे तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी ने संतोष भारतीय जी से कहा कि तुम कलाम साहब को छोड़कर आओ । जब कलाम साहब वहां से निकले तो बाहर निकलते ही उन्होंने संतोष भारतीय का हाथ पकड़ा और कहा कि यू ऑर्गेनाइज्ड अ वेरी वंडरफुल प्रोग्राम । मैं हैरान था कि एक अहिंदी भाषी कैसे इतनी रुचि के साथ कवि गोष्ठी में ना केवल सक्रियता के साथ भाग लेता है बल्कि हिंदी में आयोजित इस कार्यक्रम को श्रेष्ठ करार देकर ऐसे और कार्यक्रमों के आयोजन की वकालत करता है । दरअसल कलाम साहब को हिंदी और तमिल से बहुत प्यार था । वो बेहद टूटी फूटी हिंदी बोलते थे, बल्कि ना के बराबर ही बोलते थे लेकिन हिंदी को लेकर उनका काफी लगाव था । कलाम साहब की हिंदी में बीस से ज्यादा किताबें प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो चुकी हैं । उनकी किताबों के प्रकाशक प्रभात प्रकाशन के निदेशक पियूष कुमार ने बताया था कि जब भी वो कलाम साहब से मिलने जाते थे तो वो अपनी किताब के हिंदी अनुवाद में खासी रुचि लेते थे  । कलाम साहब कहा करते थे कि उनकी मजबूरी है कि वो अंग्रेजी में ही लिखते हैं लेकिन जबतक उनकी किताब हिंदी और तमिल में ना प्रकाशित हो जाए उनको संतोष नहीं होता था । कलाम साहब हिंदी में प्रकाशित अपनी किताबों के टाइटिल को लेकर भी खासे सतर्क रहते थे और ये जानना चाहते थे कि पाठक इस शीर्षक से कनेक्ट होगा कि नहीं । कलाम साहब हिंदी में प्रकाशित किताबों के मूल्य को लेकर भी सजग रहते थे और बार बार कहा करते थे कि दाम कम से कम होने चाहिए ताकि वो अधिक से अधिका पाठकों तक पहुंच सके । पियूष जी ने एक और दिलचस्प बात बताई कि दो हजार में जब वो कलाम से मिले और उनकी किताब के बारे में बातचीत हुई तो बातों बातों में उन्होंने पूछा कि तुम्हारी ईमेल आईडी क्या है । जब पियूष ने ना में जवाब दिया तो उन्होंने अपने कंप्यूटर पर उनकी मेल आई डी कलामपियूष के नाम से बना दी । कलाम साहब भाषा के साथ साथ तकनीक के मेल पर भी जोर देते थे । कलाम साहब के साथ कई किताबों के लेखक प्रोफेसर अरुण तिवारी बताते हैं कि कलाम साहब हमेशा कहते थे कि तिवारी जो पुस्तक तुम्हारी मां ना पढ़ सके उसको लिखने का क्या फायदा । मातृभाषा में लिखा साहित्य ही आत्मा को तृप्त करता और छूता है । कलाम साब तो विज्ञान और चिकित्सा की पढ़ाई भी मातृभाषा के माध्यम से कराए जाने के पक्षधर थे । कलाम साब के साथ अग्नि की उड़ान जैसी किताब लिखनेवाले प्रोफेसर तिवारी ने बताया कि एक बार दक्षिण कोरिया से लौटकर कलाम साब वहां की तकनीक और चिकित्सा सुविधा से काफी प्रभावित थे और बोले कि कोरिया ने ये केवल अपनी मातृभाषा के दम पर किया है । कलाम साब ने तब कहा था कि भारत को भी हिंदी के माध्यम से ऐसा करना चाहिए । तो ऐसे थे हमारे कलाम साहब जो गैर हिंदी भाषी होते हुए भी भारत के विकास के लिए हिंदी को आवश्यक मानते थे ।
कलाम साहब से मेरी दूसरी मुलाकात दो हजार तेरह में हुई थी । मैंने उनकी किताब टर्निंग प्वाइंट की समीक्षा लिखी थी जो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित मेरी किताब विधाओं का विन्यास में संकलित है । मैंने उनसे मिलने का वक्त मांगा । पहले किताब भेजने को कहा गया । मैंने ये सोचकर किताब भेज दी कि शायद उनका दफ्तर ये देखना चाहता हो कि किताब में कुछ विवादित तो नहीं है । अमूमन बड़ी हस्तियां किताब भेंट में स्वीकारने के पहले प्रति मंगवा लेती हैं । मैं वहां पहुंचा और बातचीत के दौरान उनको बताया कि इस किताब में टर्निंग प्वाइंट की रिव्यू है । उन्होंने कहा यस आई नो । फिर उन्होंने लेख के शीर्षक राजनीति के टर्निंग प्वाइंट की भी तारीफ की और कहा कि मेरी जिंदगी के टर्निंग प्वाइंट को तुमने राजनीति के टर्निंग पवाइंट बना दिए । फिर उन्होंने मेरे लेख पर थोड़ी देर बात की, किताब में लिखे अन्य लेखों पर भी । मैं हैरान की हिंदी में लिखे लेखों को उन्होंने कैसे समझा होगा । फिर उस किताब के बहाने से वो हिंदी साहित्य पर बात करने लगे । जब मैंने उन्हें बताया कि मेरी इस किताब में अंग्रेजी में लिखी जा रही किताबों पर लेख है तो उन्होंने कहा कि मासूम है । कलाम साहब ने अपनी उजली हंसी के साथ कहा कि दिस इज वंडरफुल । हिंदी पीपल शुड ऑल्सो नो व्हाट इज बीइंग रिट्न इन अदर लैंग्वेजेज । मैं करीब बीस मिनट की उस मुलाकात के बाद जब बाहर निकला तो ये सोचकर हैरान था कि ये शख्स कितना गंभीर है । दरअसल उनकी किताब टर्निंग प्वाइंट पर हिंदी में लिखी गई पहली समीक्षा मेरी ही थी, उसके बाद इस किताब का अनुवाद हुआ । अभी जब उनके करीबी सहयोगी सृजन पाल सिंह से बात हुई तो पता चला कि हिंदी को लेकरकलाम साहब के मन में गहरा अनुराग था । सृजन पाल जी ने बताया कि कलाम साहब उत्तर भारत के सौकड़ों दौरे पर रहे होंगे और हर दौरे में वो अपनी स्पीच हिंदी में मुझसे बुलवाते थे, ताकि श्रोताओं को उनकी बात समझने में आसानी हो । अपने भाषण की शुरुआती चार पांच पंक्तियां हिंदी में बोलने के लिए वो प्रैक्टिस करते थे । सृजनपाल सिंह जी ने भी इस बात को स्वीकारा है कि हिंदी को लेकर कलाम साहब के मन में गहरा सम्मान था ।  
दरअसल डॉ राजेन्द्र प्रसाद के बाद दूसरे ऐसे राष्ट्रपति थे जिनके कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन के बड़े बड़े लोहे के गेट आम जनता और महामहिम के बीच बाधा नहीं बने राष्ट्रपति भवन बच्चों, युवाओं और वैज्ञानिकों के लिए हमेशा खुला रहता था अपने कार्यकाल के दौरान कलाम ने राष्ट्रपति भवन को देश के विकास का ब्लू प्रिंट तैयार करने का केंद्र बना दिया था एक राष्ट्रपति के रूप में कलाम का उद्देश्य जनता के दिमाग को उस स्तर पर ले जाना था ताकि एक महान भारत का निर्माण हो सके राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने अपना एक विजन- पी यू आर (प्रोविज्न ऑफ अरबन एमिनिटीज इन रूरल एरियाज) देश के सामने पेश किया  जिसके मुताबिक 2020 तक भारत को एक पूर्ण विकसित राष्ट्र हो जाना है। इन वजहों से उस दौर में लोग राष्ट्रपति भवन को समाज में बदलाव की प्रयोगशाला तक कहने लगे थे । अब्दुल कलाम की किताबें  भारतीय प्रकाशन जगत में एक सुखद घटना की तरह होती हैं । हिंदी में भी । एक अनुमान के मुताबिक विंग्स ऑफ फायर की अबतक दस लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं कलाम साहब ने राष्ट्रपति रहते हुए सांसदों और विधायकों के अलावा देश के नीति नियंताओं के साथ मुलाकात कर विकास की दिशा में आगे बढ़ने की योजनाएं बनाई थी वो स्वतंत्रता दिवस पर दिए जाने वाले अपने भाषण को लेकर भी खासे चौकस रहते थे । दो हजार पांच के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर दिए गए उनके भाषण को 15 बार लिखा गया इलके अलावा 25 अप्रैल 2007 को कलाम को यूरोपियन पार्लियामेंट में भाषण देना था उस भाषण के 31 ड्राफ्ट हुए जिसके बाद वो फाइनल हो पाया इससे पता लगता है कि कलाम हर मामले में परफेक्शनिस्ट थे कलाम साहब वैज्ञानिक सहायक के पद से देश के राष्ट्रपति के पद तक पहुंचे थे । कलाम साहब  सार्वजनिक जीवन में उच्च सिद्धांतों और सादगी के प्रतीक हैं और उनका जीवन बहुतों के लिए प्रेरणादायी है । उनके जीवन की ये बातें और हिंदी को लेकर उनका प्रेम कई हिंदी विरोधियों के लिए मिसाल है ।